हिंदी में ‘बुलेट राजा’, ‘रज्जो’, ‘एस. एम.’, ‘क्यून द डेस्टिनी ऑफ डांस’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘नटरंग’, ‘नर्तकी’, ‘ट्राफिक सिग्नल’ आदि फिल्म में भी किन्नर की भूमिका है। ‘क्यून द डेस्टिनी ऑफ डान्स’ पूरी तरह किन्नर पर आधरित है।
सिनेमा ने सिर्फ बुजुर्गों को शोषित या दबते हुए ही नहीं दिखाया उन्हें हर स्थिति में अलग अलग भूमिका निभाते हुए दिखाया है . कई बार देखा जाता है कि सब कुछ होने के बाद भी बुज़ुर्ग अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं .
‘चाँदनी बार’(2001), ‘सत्ता’(2003), ‘आन मैन एट वर्क’(2004), ‘पेज-3’(2005), ‘कोर्पोरेट’(2006), ‘ट्रैफिक सिग्नल’(2007), ‘फैशन’(2008), ‘जेल’(2009), ‘दिल तो बच्चा है जी’(2011), ‘हिरोइन’(2012), ‘कैलेण्डर गर्ल्स’(2015) आदि में कुछ एक दो सिनेमा को छोड़ दिया जाए तो बाकि सभी सिनेमा नायिका प्रधान हैं ।
ब्रज के लोक-गीतों में वहाँ का सम्पूर्ण जीवन प्रतिबिम्बित होता है। ब्रज क्षेत्र के सुख-दुख, आमोद-प्रमोद, आनन्द उत्साह आदि की अभिव्यक्ति इन लोकगीतों के माध्यम से होती है। जनमानस के सर्वाधिक नैकट्य के कारण लोक-जीवन की जैसी सफल अभिव्यक्ति इन गीतों के माध्यम से होती है
सिनेमा ने अपने आरंभिक चरण में साहित्य से ही प्राण-तत्व लिया. यह उसके भविष्य के लिए ज़रूरी भी था. दरअसल सिनेमा और साहित्य की उम्र में जितना अधिक अंतर है, उतना ही अंतर उनकी समझ और सामर्थ्य में भी है. विश्व सिनेमा अभी सिर्फ 117 साल का हुआ है
आधुनिक मराठी रंगमंच मे 1980 के दशक में जानेमाने नाटककार तथा भारतीय रंगमंच के श्रेष्ठतम हस्ताक्षर विजय तेंदुलकर ने अपने ‘मित्राची गोष्ठ’ नाटक द्वारा समलैंगिकता का प्रश्न हाशिये पर लाया । यह नाटक स्त्री समलैंगिकता (लेसबियन)पर आधारित था। उनके पश्चात सतीश आळेकर ने अपने ‘बेगम वर्बे’ नाटक में ‘ट्रान्सजेंडर ’ (एंड्रोजिनी ) के विषय को रखा । हालांकी इस नाटक में ‘स्त्री पार्ट’ करनेवाला पुरूष कलाकार कैसे धीरे धीरे स्त्रीत्व धारण करता है यह बताया है।
इस नाटक में घासीराम और नाना फड़नवीस का वयक्ति संघर्ष प्रमुख होते हुए भी तेंदुलकर ने इस संघर्ष के साथ - साथ अपनी विशिष्ट शैली में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है। परिणामतः सत्ताधारी एव जनसाधारण की सम्पूर्ण स्थिति पर काल - अवस्थापन के अंतर से विशेष अंतर नहीं पड़ता।
मरीश पुरी ने फिल्मों में हीरो बनने के लिए जो स्क्रीन टेस्ट दिया था वे उसे पास नहीं कर पाए थे। इस बात से निराश हो उन्होंने मिनिस्ट्री ऑफ लेबर में काम किया। इसी दौरान उन्होंने स्टेज पर एक्टिंग और फिल्मी पर्दे पर विलेन के रुप में काम करना भी शुुरू किया। कुछ फिल्मों में सकारात्मक भूमिकाएं भी अदा की।
मराठी रंगमंच का पूर्वार्ध कुछ विद्रोही स्त्रियॉं के सर्जनात्मक प्रतिरोधी स्वर से दीप्तिमान हुआ है। किन्तु इस इतिहास को मुख्य धारा के इतिहास ने कभी प्रकाश में ही नहीं आने दिया ।
कहानियों में भाव बोध को अपनी भाव भंगिमा के साथ प्रस्तुत करना उसका नाट्य रूपांतरण है । विभिन्न प्रकार से घटना, कथा अथवा कहानी कहने की शैली रूपांतरण की जननी है । वर्तमान समय में रूपांतरण एक अनूठी कला की तरह है जो वर्तमान समय में खूब हो रहा है । कविताओं और कहानी का नाटक में, कहानी और नाटक का फिल्मों में रूपांतरण तेज़ी से हो रहा है । अभिव्यक्ति और कथानक को नए रूप में परिवर्तित कर के मंच पर लाया जा रहा है । ध्यातव्य हो कि एक विधा से दूसरी विधा में परिवर्तित होने पर भाषा, काल, दृश्य, संवाद भी बदल जाते हैं । यह बदलने के साथ मर्म को उसी अभिव्यक्ति से साथ प्रस्तुत करना ही नाट्य रूपांतरण को सही अर्थ देता है ।