अनुवादक बनने की चुनौतियाँ
– धर्मराज कुमार[i]
जिस
प्रकार सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है, उसी प्रकार साहित्य सृजन और
उसका विस्तार अनुवाद से हुआ है । अनुवाद
एक ऐसा कर्म है जो हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है । हालाँकि यह परंपरा का
हिस्सा है कि हर विद्वान् किसी विषय की महत्ता पर प्रकाश डालने के लिए उसके
उपेक्षित होने का ही जिक्र करते हैं । अनुवाद की दृष्टि में उपेक्षा का भाव भिन्न
है । अनुवाद की दृष्टि से उपेक्षा का अर्थ अनुवाद कर्म की उपेक्षा नहीं हो सकती
क्योंकि हर सदी में महानतम लोगों ने अनुवाद के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया
है । बल्कि अनुवाद कर्म को साहित्य का ऐसा अभिन्न अंग मान लिया जाता है जिसके कारण
साहित्यकार के समक्ष अनुवादक की महत्ता लगभग गौण हो जाती है । स्पष्ट शब्दों में,
साहित्यकार को तो अनुवादक होने का यश आसानी से मिल जाता है परंतु अनुवादक को
साहित्यकार की पहचान कभी नहीं हो पाती । हालाँकि, इसके भी अपवाद हैं जिसपर विशेष
रूप से चिंतन किया जाना बाकी है ।
प्रकार सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है, उसी प्रकार साहित्य सृजन और
उसका विस्तार अनुवाद से हुआ है । अनुवाद
एक ऐसा कर्म है जो हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है । हालाँकि यह परंपरा का
हिस्सा है कि हर विद्वान् किसी विषय की महत्ता पर प्रकाश डालने के लिए उसके
उपेक्षित होने का ही जिक्र करते हैं । अनुवाद की दृष्टि में उपेक्षा का भाव भिन्न
है । अनुवाद की दृष्टि से उपेक्षा का अर्थ अनुवाद कर्म की उपेक्षा नहीं हो सकती
क्योंकि हर सदी में महानतम लोगों ने अनुवाद के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया
है । बल्कि अनुवाद कर्म को साहित्य का ऐसा अभिन्न अंग मान लिया जाता है जिसके कारण
साहित्यकार के समक्ष अनुवादक की महत्ता लगभग गौण हो जाती है । स्पष्ट शब्दों में,
साहित्यकार को तो अनुवादक होने का यश आसानी से मिल जाता है परंतु अनुवादक को
साहित्यकार की पहचान कभी नहीं हो पाती । हालाँकि, इसके भी अपवाद हैं जिसपर विशेष
रूप से चिंतन किया जाना बाकी है ।
अनुवाद
और अनुवादक की महत्ता की दृष्टि से विद्वतजनों के बीच भी इस पक्ष पर शायद ही कभी
बात हुई हो कि कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स का नाम एक साथ क्यों लिया जाता
है । इस तरफ ध्यान आकृष्ट कराना रोचक होगा कि कार्ल मार्क्स ने अपने साहित्य लेखन
में अक्सर यह जिक्र किया है कि भाषा की दृष्टि से वे बेहद कमजोर थे अर्थात उनकी
भाषा उनके विचारों को रख पाने में उतना सक्षम नहीं हो पाती जितना फ्रेडरिक एंगेल्स
के द्वारा सम्पादित, संयोजित और अनूदित होने के बाद प्रतीत होती है । तथ्य है कि
कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र का प्रथम अनुवाद फ्रेडरिक एंगेल्स ने ही किया था
। इतना ही नहीं, कार्ल मार्क्स के सारे साहित्यिक उपादानों को मूलतः अंग्रेज़ी में
उपलब्ध कराने का श्रेय फ्रेडरिक एंगेल्स को ही जाता है, जिसका ज़िक्र मार्क्स अक्सर
किया करते थे । विद्वानों के बीच सर्वविदित है कि मार्क्स की अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़
बहुत ही अच्छी नहीं थी जबकि एंगेल्स जर्मन भाषा और साहित्य के भी गंभीर विद्वान्
थे । मार्क्स और एंगेल्स की जोड़ी वैचारिक दुनिया में एक महान जोड़ी है, मगर आज तक
इस पक्ष पर किसी ने बल नहीं दिया कि दरअसल ऐसी बेहतरीन जोड़ी कायम रहने का श्रेय
मार्क्स से कहीं अधिक एंगेल्स को जाता है । क्योंकि एंगेल्स के विशाल भाषायी और वैचारिक
ज्ञान के कारण ही मार्क्स उस रूप में दुनिया के समक्ष लाए गए जैसा वे वास्तविक
जीवन में थे ही नहीं । वे एक निहायत बेतरतीब व्यक्तित्व के धनी थे जिसका गहरा
प्रभाव उनकी भाषा पर भी था । चाहे हो उनकी मातृभाषा जर्मन हो या अंग्रेज़ी या
फ्रेंच । उनके लेखों में भाषायी प्रखरता, स्थिरता और दूरदर्शिता के भावों का संचार
एंगेल्स के अनुवाद से संभव हो पाया ।
और अनुवादक की महत्ता की दृष्टि से विद्वतजनों के बीच भी इस पक्ष पर शायद ही कभी
बात हुई हो कि कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स का नाम एक साथ क्यों लिया जाता
है । इस तरफ ध्यान आकृष्ट कराना रोचक होगा कि कार्ल मार्क्स ने अपने साहित्य लेखन
में अक्सर यह जिक्र किया है कि भाषा की दृष्टि से वे बेहद कमजोर थे अर्थात उनकी
भाषा उनके विचारों को रख पाने में उतना सक्षम नहीं हो पाती जितना फ्रेडरिक एंगेल्स
के द्वारा सम्पादित, संयोजित और अनूदित होने के बाद प्रतीत होती है । तथ्य है कि
कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र का प्रथम अनुवाद फ्रेडरिक एंगेल्स ने ही किया था
। इतना ही नहीं, कार्ल मार्क्स के सारे साहित्यिक उपादानों को मूलतः अंग्रेज़ी में
उपलब्ध कराने का श्रेय फ्रेडरिक एंगेल्स को ही जाता है, जिसका ज़िक्र मार्क्स अक्सर
किया करते थे । विद्वानों के बीच सर्वविदित है कि मार्क्स की अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़
बहुत ही अच्छी नहीं थी जबकि एंगेल्स जर्मन भाषा और साहित्य के भी गंभीर विद्वान्
थे । मार्क्स और एंगेल्स की जोड़ी वैचारिक दुनिया में एक महान जोड़ी है, मगर आज तक
इस पक्ष पर किसी ने बल नहीं दिया कि दरअसल ऐसी बेहतरीन जोड़ी कायम रहने का श्रेय
मार्क्स से कहीं अधिक एंगेल्स को जाता है । क्योंकि एंगेल्स के विशाल भाषायी और वैचारिक
ज्ञान के कारण ही मार्क्स उस रूप में दुनिया के समक्ष लाए गए जैसा वे वास्तविक
जीवन में थे ही नहीं । वे एक निहायत बेतरतीब व्यक्तित्व के धनी थे जिसका गहरा
प्रभाव उनकी भाषा पर भी था । चाहे हो उनकी मातृभाषा जर्मन हो या अंग्रेज़ी या
फ्रेंच । उनके लेखों में भाषायी प्रखरता, स्थिरता और दूरदर्शिता के भावों का संचार
एंगेल्स के अनुवाद से संभव हो पाया ।
उपर्युक्त
प्रसंग के माध्यम से यह समझा जा सकता है कि किसी भी इतिहास पुरुष या विचार निर्माण
में एक अनुवादक की भूमिका कितनी अहम् होती है । इस विचार के अनुसार यह
महत्त्वपूर्ण है कि अनुवादक की महत्ता और उसके निर्माण के मार्ग में आनेवाली
बाधाओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए । इसका दूसरा अर्थ है कि किसी भी
व्यक्ति को अनुवादक बनने से पहले क्या-क्या तैयारियां करनी चाहिए, इसे समझने के
लिए आवश्यक है कि पहले वह अनुवाद कर्म के मर्म को समझे ।
प्रसंग के माध्यम से यह समझा जा सकता है कि किसी भी इतिहास पुरुष या विचार निर्माण
में एक अनुवादक की भूमिका कितनी अहम् होती है । इस विचार के अनुसार यह
महत्त्वपूर्ण है कि अनुवादक की महत्ता और उसके निर्माण के मार्ग में आनेवाली
बाधाओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए । इसका दूसरा अर्थ है कि किसी भी
व्यक्ति को अनुवादक बनने से पहले क्या-क्या तैयारियां करनी चाहिए, इसे समझने के
लिए आवश्यक है कि पहले वह अनुवाद कर्म के मर्म को समझे ।
अनुवाद
कर्म एक सेतु का निर्माण करने वाला कार्य है । अनुवाद के दो छोर होते हैं । अनुवाद
के एक छोर पर स्रोत भाषा और दूसरे छोर पर लक्ष्य भाषा है । इन दोनों के बीच पाठ के
मूल अर्थों के साथ अन्य अर्थों के संभावनाओं का असीम संसार है । कोई भी अनुवादक
भाषा के एक किनारे से दूसरी भाषा के दूसरे किनारे के पार उतरना चाहता है तो उसे
संस्कृतियों के ज्वार-भाटों से होकर गुजरना पड़ता है । जिसके दरम्यान किसी एक भाषा
में डूब जाने का भय हमेशा बना रहता है अर्थात ज्ञान का प्रासंगिक स्वरूप बदल जाता
है । ज्ञान की प्रासंगिकता उसके कई भाषाओं में जीवित रहने से आती है, वरना वह
समाप्त हो जाती है । अतः, किसी भी ज्ञान को कई भाषाओं में पहुँचाने का काम सिर्फ
अनुवाद से ही संभव है । अनुवाद कर्म बहुत दुरूह कार्य है क्योंकि अनुवाद कर्म के
दौरान दो भाषाएँ का आदान-प्रदान नहीं होता है बल्कि दो विभिन्न समाजों के बीच
विद्यमान और सृजित ज्ञान का आदान प्रदान हो रहा होता है । भाषा किसी भी समाज के
स्वरूप का प्रतीक होता है और उसका प्रतिनिधित्व करता है । जिस समाज की भाषा कमजोर
होती है, वह समाज कमजोर होता है । जो समाज संगठित होता है, उस समाज की भाषा भी
संगठित और सुगठित होती है ।
कर्म एक सेतु का निर्माण करने वाला कार्य है । अनुवाद के दो छोर होते हैं । अनुवाद
के एक छोर पर स्रोत भाषा और दूसरे छोर पर लक्ष्य भाषा है । इन दोनों के बीच पाठ के
मूल अर्थों के साथ अन्य अर्थों के संभावनाओं का असीम संसार है । कोई भी अनुवादक
भाषा के एक किनारे से दूसरी भाषा के दूसरे किनारे के पार उतरना चाहता है तो उसे
संस्कृतियों के ज्वार-भाटों से होकर गुजरना पड़ता है । जिसके दरम्यान किसी एक भाषा
में डूब जाने का भय हमेशा बना रहता है अर्थात ज्ञान का प्रासंगिक स्वरूप बदल जाता
है । ज्ञान की प्रासंगिकता उसके कई भाषाओं में जीवित रहने से आती है, वरना वह
समाप्त हो जाती है । अतः, किसी भी ज्ञान को कई भाषाओं में पहुँचाने का काम सिर्फ
अनुवाद से ही संभव है । अनुवाद कर्म बहुत दुरूह कार्य है क्योंकि अनुवाद कर्म के
दौरान दो भाषाएँ का आदान-प्रदान नहीं होता है बल्कि दो विभिन्न समाजों के बीच
विद्यमान और सृजित ज्ञान का आदान प्रदान हो रहा होता है । भाषा किसी भी समाज के
स्वरूप का प्रतीक होता है और उसका प्रतिनिधित्व करता है । जिस समाज की भाषा कमजोर
होती है, वह समाज कमजोर होता है । जो समाज संगठित होता है, उस समाज की भाषा भी
संगठित और सुगठित होती है ।
अनेक
विद्वानों का मानना है कि अनुवाद में कभी भी संपूर्ण नहीं होता । अधिकतर विद्वानों
की धारणा है कि अनुवाद के द्वारा मूल पाठ कभी भी पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता है
। ऐसी स्थिति में संपूर्णता से उनका तात्पर्य मूल पाठ में अभिव्यक्त अर्थों से है
जो हू-ब-हू अनुवाद में कभी भी लाना पाना संभव नहीं माना जाता है । लेकिन अनुवाद के
अस्तित्व के सन्दर्भ में गंभीरता से यह विचार किया जाना चाहिए कि क्या कोई
साहित्यकार अपनी साहित्य की भाषा को उस रूप में अभिव्यक्त कर पाया है जैसा भाव
उसके साहित्य लेखन के दौरान मन में उभरा था? इस सवाल पर विचार करने के साथ ही हम
यह समझ सकते हैं कि अनुवाद कर्म में भी उतनी संपूर्णता संभव है जितनी भाषायी
संपूर्णता की संभावना किसी साहित्यकार के लिए उसके उदगार को अभिव्यक्त करने में है
। अतः, अनुवाद में साहित्यिक संपूर्णता की अभिव्यक्ति का मूल आधार ही दोषयुक्त है
या कि अनुवाद के माध्यम से अभिव्यक्त संपूर्णता के स्वरूप को समझने में ही अक्सर
भूल होती है । जबकि अनुवाद को अगर सीधे मूल पाठ के रूप में पढ़ा जाए तो यह लगभग मूल
कृति के जैसा अर्थ, भाव और तथ्य के मामले में हो सकता है परंतु अनुवाद में पाठ की
मौलिकता पर हमेशा एक और उभरते संभावनाओं की उम्मीद होती है ।
विद्वानों का मानना है कि अनुवाद में कभी भी संपूर्ण नहीं होता । अधिकतर विद्वानों
की धारणा है कि अनुवाद के द्वारा मूल पाठ कभी भी पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता है
। ऐसी स्थिति में संपूर्णता से उनका तात्पर्य मूल पाठ में अभिव्यक्त अर्थों से है
जो हू-ब-हू अनुवाद में कभी भी लाना पाना संभव नहीं माना जाता है । लेकिन अनुवाद के
अस्तित्व के सन्दर्भ में गंभीरता से यह विचार किया जाना चाहिए कि क्या कोई
साहित्यकार अपनी साहित्य की भाषा को उस रूप में अभिव्यक्त कर पाया है जैसा भाव
उसके साहित्य लेखन के दौरान मन में उभरा था? इस सवाल पर विचार करने के साथ ही हम
यह समझ सकते हैं कि अनुवाद कर्म में भी उतनी संपूर्णता संभव है जितनी भाषायी
संपूर्णता की संभावना किसी साहित्यकार के लिए उसके उदगार को अभिव्यक्त करने में है
। अतः, अनुवाद में साहित्यिक संपूर्णता की अभिव्यक्ति का मूल आधार ही दोषयुक्त है
या कि अनुवाद के माध्यम से अभिव्यक्त संपूर्णता के स्वरूप को समझने में ही अक्सर
भूल होती है । जबकि अनुवाद को अगर सीधे मूल पाठ के रूप में पढ़ा जाए तो यह लगभग मूल
कृति के जैसा अर्थ, भाव और तथ्य के मामले में हो सकता है परंतु अनुवाद में पाठ की
मौलिकता पर हमेशा एक और उभरते संभावनाओं की उम्मीद होती है ।
अनुवाद
कर्म से पहले अनुवाद में होने वाले कार्यों को जान लेना अति आवश्यक है । जो अनुवाद
कर्म होता है वही अनुवादक का क्षेत्र होता है । इस क्षेत्र में ऐसा कौन सा काम है
जो किसी व्यक्ति को अनुवादक बनाता है जानने के लिए उसको सौंपे गए कार्य और
जिम्मेदारियों से पता चलता है । इस सन्दर्भ में वाल्टर बेंजामिन ने अनुवादक के
कार्य क्षेत्र को समझाने के लिए एक लेख लिखा जिसके द्वारा उन्होंने अनुवादक के
कार्य को समझने और समझाने की कोशिश की । वे अपने इस आलेख में लिखते हैं :
कर्म से पहले अनुवाद में होने वाले कार्यों को जान लेना अति आवश्यक है । जो अनुवाद
कर्म होता है वही अनुवादक का क्षेत्र होता है । इस क्षेत्र में ऐसा कौन सा काम है
जो किसी व्यक्ति को अनुवादक बनाता है जानने के लिए उसको सौंपे गए कार्य और
जिम्मेदारियों से पता चलता है । इस सन्दर्भ में वाल्टर बेंजामिन ने अनुवादक के
कार्य क्षेत्र को समझाने के लिए एक लेख लिखा जिसके द्वारा उन्होंने अनुवादक के
कार्य को समझने और समझाने की कोशिश की । वे अपने इस आलेख में लिखते हैं :
“No poem is intended for the reader,
no picture for the beholder, no symphony for the listener.
no picture for the beholder, no symphony for the listener.
Is
a translation meant for readers who do not understand the original?”[1]
a translation meant for readers who do not understand the original?”[1]
उपर्युक्त
कथन में यह कहा गया है कि साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना किसी ख़ास पूर्वयोजना
के अनुरूप नहीं होती है, बल्कि उसके अपने कई अन्य कारण हैं । इस विचार से यह पता
चलता है कि मूल विचार सर्वप्रथम मूल पाठ होता है और उसकी अपनी भाषा शैली, संरचना
और संवेदना की पद्धति होती है । यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति या मनुष्य एक
समय में एक ही विचार रखते हैं । मगर इसके बावजूद यह तो तय है कि कोइ भी विचार अपने
अभिव्यक्ति के प्रथम सोपान पर मूलपाठ का आधार निर्मित होता है । इस मूल पाठ को
अनुवाद करने में यह आवश्यक है कि अनुवादक को कुछ मूलभूत चीज़ों की तैयारियां करनी
चाहिए । वैसे भी, प्रत्येक अनुवादक के पास अनुवाद करने के लिए उनकी अपनी विधि या
पद्धति होती है । परंतु इसके बावजूद कुछ तैयारियां हैं जो किसी भी व्यक्ति के लिए
अनुवादक बनने से पहले उन अहर्ताओं की पूर्ती आवश्यक है । इन अहर्ताओं के बारे में
वर्णन निम्नांकित बिन्दुओं में किया जा सकता है:
कथन में यह कहा गया है कि साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना किसी ख़ास पूर्वयोजना
के अनुरूप नहीं होती है, बल्कि उसके अपने कई अन्य कारण हैं । इस विचार से यह पता
चलता है कि मूल विचार सर्वप्रथम मूल पाठ होता है और उसकी अपनी भाषा शैली, संरचना
और संवेदना की पद्धति होती है । यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति या मनुष्य एक
समय में एक ही विचार रखते हैं । मगर इसके बावजूद यह तो तय है कि कोइ भी विचार अपने
अभिव्यक्ति के प्रथम सोपान पर मूलपाठ का आधार निर्मित होता है । इस मूल पाठ को
अनुवाद करने में यह आवश्यक है कि अनुवादक को कुछ मूलभूत चीज़ों की तैयारियां करनी
चाहिए । वैसे भी, प्रत्येक अनुवादक के पास अनुवाद करने के लिए उनकी अपनी विधि या
पद्धति होती है । परंतु इसके बावजूद कुछ तैयारियां हैं जो किसी भी व्यक्ति के लिए
अनुवादक बनने से पहले उन अहर्ताओं की पूर्ती आवश्यक है । इन अहर्ताओं के बारे में
वर्णन निम्नांकित बिन्दुओं में किया जा सकता है:
भाषाओं
का ज्ञान :
अनुवाद करने के लिए सबसे पहली आवश्यकता है कम से कम दो भाषओं का ज्ञान होना । ये
दो भाषाएँ किसी रूप में हो सकती है, जैसे : एक विदेशी – एक देशी, दो विदेशी या
दोनों देसी । भारत की भाषाई विविधताओं के मद्देनज़र इसमें उल्लिखित तीनों स्थितियां
मौजूद हैं । भारत में विदेशी से देशी भाषा के अनुवादक, एक देशी से दूसरे देशी भाषा
तथा दोनों विदेशी भाषाओं के अनुवादकों की आवश्यकता है । भारत में विदेशी भाषा से
देशी जैसे फ्रेंच से कन्नड़, मलयालम, तमिल, हिंदी या अन्य, तमिल से हिंदी या अन्य,
या फिर जर्मन से अंग्रेजी ये सारी परिस्थियाँ अनुवादक के लिए हैं तथा ऐसे अनुवादक
भी । अतः, सबसे पहले अनुवादक को दो भाषाओं का ज्ञान होना अति आवश्यक है ।
का ज्ञान :
अनुवाद करने के लिए सबसे पहली आवश्यकता है कम से कम दो भाषओं का ज्ञान होना । ये
दो भाषाएँ किसी रूप में हो सकती है, जैसे : एक विदेशी – एक देशी, दो विदेशी या
दोनों देसी । भारत की भाषाई विविधताओं के मद्देनज़र इसमें उल्लिखित तीनों स्थितियां
मौजूद हैं । भारत में विदेशी से देशी भाषा के अनुवादक, एक देशी से दूसरे देशी भाषा
तथा दोनों विदेशी भाषाओं के अनुवादकों की आवश्यकता है । भारत में विदेशी भाषा से
देशी जैसे फ्रेंच से कन्नड़, मलयालम, तमिल, हिंदी या अन्य, तमिल से हिंदी या अन्य,
या फिर जर्मन से अंग्रेजी ये सारी परिस्थियाँ अनुवादक के लिए हैं तथा ऐसे अनुवादक
भी । अतः, सबसे पहले अनुवादक को दो भाषाओं का ज्ञान होना अति आवश्यक है ।
अनूदित
पाठ की प्रकृति का ज्ञान
: अनुवादक के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वह दो भाषाओं के साथ-साथ यह भी ध्यान रखे
कि वह किस प्रकार के विषयों से संबंधित सामग्री का अनुवाद करने जा रहा है । क्या
उसे उस विषय का ज्ञान है? उदाहरणस्वरुप, अनुवाद सिर्फ साहित्यिक ही नहीं होता
बल्कि साहित्येतर भी होता है । अगर अनुवाद इसतिहास के पुस्तकों या इससे जुड़े
सामग्रियों का अनुवाद किया जाना है तो सबसे पहला प्रश्न है कि क्या अनुवादक को
उक्त विषय की जानकारी है या नहीं । इसमें एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि क्या
अनुवादक को अनुवाद की सीमा अपने विषय ज्ञान की सीमा तक ही रखनी चाहिए? नहीं , इसका
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक अनुवादक को जो वह अनुवाद के लिए चुन रहा है, उसके
प्रकृति और स्वभाव का ज्ञान है या नहीं । साहित्येतर अनुवाद में विशेषकर इस
दृष्टिकोण का इस्तेमाल होता है । यह जरूरी नहीं है कि विज्ञान या इतिहास या अन्य
साहित्येतर विषयों के सामग्रियों के अनुवाद में अनुवादक को वैज्ञानिक इतिहासकार या
उस विषय का पारंगत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे उस विषय के प्रकृति,
स्वभाव और प्रभाव का ज्ञान होना निहायत जरूरी है ।
पाठ की प्रकृति का ज्ञान
: अनुवादक के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वह दो भाषाओं के साथ-साथ यह भी ध्यान रखे
कि वह किस प्रकार के विषयों से संबंधित सामग्री का अनुवाद करने जा रहा है । क्या
उसे उस विषय का ज्ञान है? उदाहरणस्वरुप, अनुवाद सिर्फ साहित्यिक ही नहीं होता
बल्कि साहित्येतर भी होता है । अगर अनुवाद इसतिहास के पुस्तकों या इससे जुड़े
सामग्रियों का अनुवाद किया जाना है तो सबसे पहला प्रश्न है कि क्या अनुवादक को
उक्त विषय की जानकारी है या नहीं । इसमें एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि क्या
अनुवादक को अनुवाद की सीमा अपने विषय ज्ञान की सीमा तक ही रखनी चाहिए? नहीं , इसका
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक अनुवादक को जो वह अनुवाद के लिए चुन रहा है, उसके
प्रकृति और स्वभाव का ज्ञान है या नहीं । साहित्येतर अनुवाद में विशेषकर इस
दृष्टिकोण का इस्तेमाल होता है । यह जरूरी नहीं है कि विज्ञान या इतिहास या अन्य
साहित्येतर विषयों के सामग्रियों के अनुवाद में अनुवादक को वैज्ञानिक इतिहासकार या
उस विषय का पारंगत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे उस विषय के प्रकृति,
स्वभाव और प्रभाव का ज्ञान होना निहायत जरूरी है ।
संस्कृतियों
का ज्ञान :
किसी भी अनुवादक को दो भाषाओं के जानने के बाद जो समझना सबसे अधिक आवश्यक है वह है
उस भाषा की संस्कृति । इसका मतलब है कि अनूदित होने वाली भाषा की संस्कृति का
ज्ञान, अर्थात उक्त भाषा क्षेत्र के लोगों की संस्कृति क्या है और कैसी है?
क्योंकि अनुवाद के क्रम में जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह है कि जो भाषाई विविधताएं
हैं उसका तो अनुवाद हो जाता है, परंतु जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक व्यवहारों का
नाम और वर्णन इत्यादि है उसका अनुवाद करना बहुत ही मुश्किल है । क्योंकि यह जरूरी
नहीं कि जो चीजें हमारी संस्कृति में घटित हो रही है वही चीजें दूसरी संस्कृतियों
में बी विद्यमान हों । इसीलिए यह आवश्यक है कि अनुवादकों को लगभग सारी संस्कृतियों
का ज्ञान जितना अधिक हो सके होना चाहिए ।
का ज्ञान :
किसी भी अनुवादक को दो भाषाओं के जानने के बाद जो समझना सबसे अधिक आवश्यक है वह है
उस भाषा की संस्कृति । इसका मतलब है कि अनूदित होने वाली भाषा की संस्कृति का
ज्ञान, अर्थात उक्त भाषा क्षेत्र के लोगों की संस्कृति क्या है और कैसी है?
क्योंकि अनुवाद के क्रम में जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह है कि जो भाषाई विविधताएं
हैं उसका तो अनुवाद हो जाता है, परंतु जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक व्यवहारों का
नाम और वर्णन इत्यादि है उसका अनुवाद करना बहुत ही मुश्किल है । क्योंकि यह जरूरी
नहीं कि जो चीजें हमारी संस्कृति में घटित हो रही है वही चीजें दूसरी संस्कृतियों
में बी विद्यमान हों । इसीलिए यह आवश्यक है कि अनुवादकों को लगभग सारी संस्कृतियों
का ज्ञान जितना अधिक हो सके होना चाहिए ।
अनवाद
की मूल समस्यायों को ध्यान में रखते हुए अनुवादकों को क्या-क्या तैयारी कर लेनी
चाहिए, वह उपर्युक्त बिन्दुओं से स्पष्ट रूप से पता चलता है । वैसे समय – समय पर
अनुवादकों को भिन्न-भिन्न समस्याएं आती रहती है जिसे अनुवादक प्रायोगिक अनुवाद के
माध्यम से सीखता रहता है ।
की मूल समस्यायों को ध्यान में रखते हुए अनुवादकों को क्या-क्या तैयारी कर लेनी
चाहिए, वह उपर्युक्त बिन्दुओं से स्पष्ट रूप से पता चलता है । वैसे समय – समय पर
अनुवादकों को भिन्न-भिन्न समस्याएं आती रहती है जिसे अनुवादक प्रायोगिक अनुवाद के
माध्यम से सीखता रहता है ।
सन्दर्भ
ग्रन्थ :
ग्रन्थ :
Ø Venuti Lawrence, The Translation
Studies Reader, Routledge, London and New York, 2000.
Studies Reader, Routledge, London and New York, 2000.
Ø डॉ. नगेन्द्र, अनुवाद विज्ञान
सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय,
1993
सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय,
1993
Ø गोस्वामी, कृष्ण कुमार, अनुवाद
विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
[1] The Task of the Translator
[i] शोधार्थी,
भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली – 110067।
मो. 9871931186।
ईमेल : dmaxrule@gmail.com
भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली – 110067।
मो. 9871931186।
ईमेल : dmaxrule@gmail.com