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1-हमारी अम्मा की ओढ़नी

वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
और घुस आते हैं हमारे घरों में
वे दाढ़ी से घसीटते हैं
हमारे अब्बू को
छिन जाती है
हमारी अम्मा की ओढ़नी
या हम एक दूसरे के सामने
नंगे किए जाते हैं
सिसकती है शर्म
बिखर जाते हैं रिश्ते
वे नकाबपोश होते हैं
केकिन
हम खोज ही लेते हैं उनके चेहरे
अतीत की पुस्तक के एक एक पन्ने से
बचपन बिताए आंगन से
दफ़्तर में रखी सामने वाली कुर्सी से
एक साथ झुलाये हुए झूले से
स्कूल की कक्षा में बैठे लड़कों से
हमारे बचपन के आंगन पर
रेंगते हैं सांप
यमराज दिखाई देता है
हमारी सामने वाली कुर्सी पर
जल जाती है
हमारे बचपन के झूले की रस्सी
हम उस काली नक़ाब के पीछे छिपे
कभी उस लड़के का चेहरा भी देखते हैं
जिसको हमने पढ़ाया होता है
पहली कक्षा में
वे जब आते हैं रात-समय
ले जाते हैं जिसको वे चाहें घर-परिवार से
और कुछ दिनों के बाद
मिलती हे उसकी लाश
किसी सेब के पेड़ से लटकी
या किसी चौराहे पर लुथडी
मारने से पहले वे
लिख देते हैं अपना नाम
उसकी पीठ पर
आतंक की भाषा में
दहकती सलाखों से
आग के अक्षरों में
वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाज़े
रोंदते हैं पाव तले
हमारी संस्कृति को
हमारे रिश्तों को
हमारी शर्म को .

2-विद्रोह

मैंने काले घनघोर मेघों से
कभी रास्तों का पता नहीं पूछा
मैंने रेबीज़ से ग्रस्त कुत्तों से
कभी यारी नहीं गांठी
मैंने कसी भगवान के आगे
कभी नहीं किया कोई मन्त्र पाठ
और न ही मांगी
किसी अंधविश्वास के देवता से
कोई जीवनदान की दुआ
मैं धर्म के दलालों को
सदैव जज़िया१ देने से इनकारी हुआ
अपनी उम्र के सूर्योदय से लेकर
आज तक
मैं समेटता रहा
रौशनी की एक एक किरन
अपने विवेक का आहार
मैं दर्ज करना चाहता हूँ
रात के गहरे अँधेरे के ख़िलाफ़
एक मशाल भर विद्रोह .
———————————
जज़िया:- इस्लामी शासन में गेर-मुस्लिमों से लिया जाने वाला टेक्स.

3-एहतिजाज का पोस्टर
(दुनिया भर के शरणार्थियों के नाम)

तुम्हारे घरों पर बोल दिया है
पागल कुत्तों ने धावा
कहीं ताना शाहों के रूप में
तो कहीं आईएसआईएस के
क्रूर आतंकियों के रूप में
जिनकी पीठ थपथपा रहें हैं
साम्राज्यवाद के सफ़ेद भेड़िये
और कट्टरवाद के कायर कौए
एक नाटकीय षड्यंत्र
कुत्तों, कौओं और भेड़ियों के बीच
मानवता को लहुलुहान करने का
प्रागैतिहासिक पाखंडी घुफाओं में
मानव को वापस धकेलने का
अंधविश्वास के गहरे अँधेरे में
फैंक देने का
तुम सब निकल पड़े हो
अपने बचे-खुचे परिवारों सहित
सांस भर जीवन
और आँख भर सपनों को तलाशते
अपने सिरों और कांधों पर
बच्चों भर भविष्य
और आशा-भर पोटलियाँ लिए
सफ़र-भर शंकाएं और सागर-भर डर के साथ ,
अतीत-वसंत और वर्तमान-पतझड़ की
यादों के कारवाँ को हांकते
छाओं-भर आकाश
और बैठने-भर ज़मीन की तलाश में.
तुम्हारे साथ ही निलका था ऐलान कुर्दी भी
अपने अब्बू.अम्मी और बड़े भाई के साथ
अपने नन्हे पांव से फलांगता
सीरिया और तुर्की की कंटीली सीमाएं
तीन वर्षीय ऐलान कुर्दी
जो बीच सागर में डूब कर मर गया
अपनी अम्मी और बड़े भाई के साथ
लाखों अनाम शरणार्थियों के साथ
मानवता के चेहरे पर एक नासूर बनकर
जिसका ओंधे मुंह पड़ा मृत शरीर
और नन्हे जूतों के घिसे तलवे
अल्हड लहरों और रेतीले साहिल पर
हम सब के ख़िलाफ़ दर्ज कर गये
एहतिजाज का एक मुखर पोस्टर.

4- मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ

मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां मशकूक होना ही होता है
मर जाना
जहां घरों से निकलना ही होता है
ग़ायब हो जाना
जहां हर ऊँचा होता सिर
महाराजा के आदेश पर
काट लिया जाता है
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां की उपजाव मिटटी में
अब केसर की घुन्डियाँ नहीं
बारूदी सुरंगे बोई जाती हैं
जहां के बर्फ़ीले पहाड़
लहू-रंग विलाप में बदल जाते हैं
जहां के पहाड़ी झरनों में
लोगों के आंसुओं का बहाव है
जहां सिमटते जा रहे हैं खेत
फ़ैलती जा रही हैं छावनियां
जहां देखते ही देखते
सड़कें हो जाती हैं रक्तिम-लाल
और मिर्ची-गैस की शलिंग से
आँखें हो जाती हैं सुर्ख़-अंधी
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां झूठ की आँखों में आँखें डालना ही
होता हैं अपनी आँखें निकलवाना
सिर उठा के चलना ही
होता है अपना सिर कटवा लेना
और सच के हक़ में बोलना ही
होता है
सदैव के लिए बेज़ुबान हो जाना
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां घर से निकलते समय माएँ
अपने बच्चों के गले में
परिचय-पत्र डालना कभी नहीं भूलती
भले ही वह भूल जाए
टिफन या कतबों के बस्ते
अपने नन्हों के परिचय की ख़ातिर नहीं
बल्कि
उनका शव घर के ही पत्ते पर पहुंचे
इस की ही चिंता रहती है उन्हें
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जिसकी सीमाओं की फ़ज़ाओं पर
वर्षों से मण्डलाते रहते हैं
चील,कोए और गिद्ध
और जहां मानव कंकाल का
लगा हुआ है अंतहीन-पर्व
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां महाराजा की शर्तों पर जीवन
और अपनी शर्तों पर
केवल मौत चुनी जासती है
जहां के बाज़ारों में
होती है ख़ौफ़ की चहल-पहल
और लोग लेप लेते हैं चेहरों पर
झूठी मुस्कुराहटों के फीके रंग
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां के जनगणना-दफ़्तरों में
आधी-माओं और आधी-विदवाओं की
बढ़ती जा रही हैं सूचियाँ
जितनी बढ़ती जा रही है
ग़ायब किये गए लोगों की संख्या
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां चेहरों पर खिलता है सोग
पांवों में पड़ती हैं ज़ंजीरें
दिलों में धड़कतीं हैं दहशतें
आँखों में अटकते(मरते) हैं सपने
और
उँगलियों पर उगती हैं हैरतें
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां बच्चा होना होता है सहम जाना
जवान होना होता है मर जाना
औरत होना होता है लुट जाना
और बूढ़ा होना होता है
अपनी ही सन्तान का
क़ब्रिस्तान हो जाना
*
मैं उस नर्क में रहता हूँ
जो शताब्दियों से भोग रहा है
स्वर्ग होने का एक
कड़ुआ और झूठ आरोप।

5- दमख़ोर कानून की आड़ में
(इरोम शर्मिला के नाम)

ओ मेरे देश की लौह स्त्री
हम सब जानते हैं
जानते हैं जब चीते और चील करने लगते हैं सांठ-गांठ
होती है तब किसी देह की ही चीर फाड़
जब संविधान के हाशिये पर होने लगती है दलाली
जब कोई ज़ालिम,साधू या मौलवी
तानाशाह का रूप करने लगता है धारण
आरम्भ हो जाता है मृत्यु का तांडव
चौराहों पर लग ही जाता है नफ़रत का पर्व
हम जानते हैं इरोम शर्मिला
जब धर्म और राजनीति में होने लगती है यारी
इतिहास के पन्नों पर
बिखर ही जातीं हैं लाल तरल की छींटें
आँखों में उमड़ ही आती हैं दुखों की बूंदें
कुछ लोग अपने घरों,रिश्तों और जड़ों को समेटे
निकल ही जाते हैं अपनी मातृभूमि को छोड़ कर
फ़ज़ाओं पर फैल ही जाता है
टियर-गैस या मर्चि-गैस का ज़हरीला धुँआ
जनसंख्या होने लगती है कम
और सैनिकों की बढ़ने लगती है तादाद
अफ्स्पा१की आदमख़ोर आड़ में
आरंभ हो जाता है फ़र्जी झड़पों का मृत्यु-काल
कहीं सजने लगते हैं निर्दोषों के कब्रिस्तान
तो कहीं मज़लूमों की असंख्य चिताएं
चाहे वे तुर्की और इराक़ के कुरूद क्षेत्र हों
या हों अफ़्रीका के एलबिनोज़ बाशिंदे
जकारताई या पाकिस्तानी अल्पसंख्यक हों
या हों फ़लस्तीन के आम लोग
वे बर्मा के मुसलमान हों
या हों इस्लामी देशों की औरतें
वह कश्मीर की बर्फ़ीली घाटी हो
या हो पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी गांव
वह कुन्नि-पोषपोरा२ की सहमी औरतें हों
या हों मणिपुर की मसली गईं महिलाएं
या हो इरोम शर्मिला तुम्हारा
अपना क्रन्तिकारी निड़र मन
उनहोंने अपने साम्राज्य को
लोकतन्त्र का मन भावन पोशाक पहना दिया
और दुनिया भर में ढंढोरा पीटने लगे
अपने साम्राज्य की महानता का
कितने मुर्ख हैं वे इरोम शर्मिला
जो अपनी आँखों पर कट्टरवाद की पट्टियां बांधें
पूरी दुनिया को अँधा समझने लगे हैं
उनहोंने अपने तन्त्र को ढाल दिया
जनरल डायर के ही सांचे में
वे हमारे देश को ही बदलने लगे हैं
एक विशाल जलियांवाला बाग़ में
आम लोगों को नाममात्र जिन्दा रखकर
वही साम्राज्यवाद की मक्कार-मानसिकता
और वही क्रूर इरादें
वही इंसानी ख़ून के प्यासे क़ानून
और वही हिटलर मसालोनी का फ़ौजी नशा
लेकिन इरोम शर्मिला हम सब जानते हैं
कि आम लोग मिटटी से जुड़े होते हैं
जुड़े होते हैं साहस से और संघर्ष से
जुड़े होते हैं क्रांति से और प्रतिरोध से
उनकी पृवृति में होते हैं लौह-मनुष्य बनने के सारे गुण
उनकी सांसों में होती है विद्रोह की सारी महक
उनकी पलकों में बस्ते हैं शांति के सपने
जिसका सुंदर उदाहरण स्वयं तुम हो इरोम शर्मिला
जिसने लोगों के जीवन के पूरे अधिकार-प्राप्ति की ख़ातिर
अपने लिए नाममात्र जीवन चुन लिया
तुम्हारी “अमन की खुशबू
फैल जायेगी
सारी दुनिया में”३
पराजित हो जाएंगे चीते और चील
इनका यह आदमख़ोर क़ानून
बह जायेगा किसी गटर के रास्ते से
हम सब दुनिया के शांतिप्रिय लोग
नमन करते हैं तुम्हें इरोम शर्मिला
और नमन करते हैं तुम्हारे ऐहतिजज को भी।
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१- अफ्सपा-(आर्म्ड फोर्सिज़ स्पेशल पावर एक्ट)-सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 में संसद द्वारा पारित किया गया था और तब से यह कानून के रूप में काम कर रहा है. आरंभ में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा में भी यह कानून लागू किया गया।जम्‍मू-कश्‍मीर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्सपा) 1990 में लागू किया गया। इस क़ानून के तहत संदेह के आधार पर जबरन किसी घर या व्यक्ति की तलाशी और किसी भी व्यक्ति को गोली मारने का अधिकार प्राप्‍त है और कोई भी निर्दोष मरे तो फ़ौजियों को कोई जवाबदेही नहीं।इस आदमख़ोर क़ानून के चलते कश्मीर घाटी और उत्तर पूर्वी राज्यों में फ़ौज द्वारा फ़र्जी झड़पों की आड़ में लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ की गईं।इरोम शर्मिला पिछले लगभग 16 वर्षों से इस क़ानून के ख़िलाफ़ भूख हड़ताल पर हैं।
२-कुन्नि पोशपोरा- कश्मीर घाटी के कपवारा ज़िले के दो जुड़वाँ गांव जहां 23 और 24 फ़रवरी 1991 की मध्य-रात्र को 68 ब्रिगेड से संबंधित 4-राजपुताना राइफल्स की एक टुकड़ी द्वारा लगभग एक सौ कश्मीरी लड़कियों/औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।इनमें 80 साल की एक बूढ़ी औरत और 7 वर्ष की एक छोटी बच्ची भी थी।

३-“——–” इरोम शर्मिला की एक कविता की चन्द पंक्तियाँ।

निदा नवाज़
संपर्क :- निदा नवाज़ ,निकट टेलीफ़ोन एक्सचेंज ,एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा – 192301
फोन :- 09797831595
e.mail :- nidanawazbhat@gmail.com
nidanawaz27@yahoo.com