कविता
वक्त की सियाही में
तुम्हारी रोशनी को भरकर
समय की नोक पर रक्खे शब्दों का
कागज़ पर कदम-कदम चलना।
एक नए वज़ूद को मेरी कोख में रखकर
माहिर है कितना
इस कलम का
मेरी उँगलियों से मिलकर
तुम्हारे साथ-साथ
यूँ सुलग सुलग चलन
अघटनीय
बिना रफ्तार
दौड़ते अँधेरों और
दीवारों से चिपकते सायों का
शहर की तंग गलियों में
दुबकते जाना कब तक?
झिरीठों से निकलती
नुकीली किरणे पकड़े
बंद दरवाज़ों और खिड़कियों में
सिसकती उदासी का
डबडबाना कब तक?
बेबस सी —
बेरुख और सुन्न निगाहों का
आँगन के अँधेरे कोनों
और खुदे आलों में
फड़फड़ाना कब तक?
कहाँ है — ?
कहाँ है — ?
रोशनी का वह छलकता पानी
बुहार देती जिसे बहाकर मैं
अपने आँगन का
हर एक दर और ज़मीं
धो देती कोना-कोना इसका |
सजा देती
एक -एक आला और झरोखा
जलते दियों की श्रृखलाएँ रखकर।
खड़ी हो जाती मैं
इस साफ़ सुथरे आँगन के बीच
उठाए हुए
अचंभित सी नज़रें
और तब — !
घट के रह जाता
रिक्त आँखों के
स्तम्भित शून्य में
एक निरा,
साफ़ और स्पष्ट
नीला आसमान।
उन्मुक्त
कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
सितारों की धूल
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।
शून्य की परछाईं
सितारों में लीन हो चुके हैं स्याह सन्नाटे
ख़लाओं को हाथों में थामें
दिन फूट पड़ा है लम्हा – लम्हा
रोशनी को अपनी
ढलती चाँदनी की चादर पर बिखराता|
अंधेरों की गहरी मौत
शून्य की परछाईं में धड़कती है अब तक
जिंदा है
न
…