ज़रूरी है माँ को मुनव्वर राना की आखों से देखना
अक्सर हम यह दावा करते हैं कि हम अपनी मां को बहुत करीब से जानते हैं | इसी गलतफहमी में रहते हुए मुझे जन्मदायिनी माँ आठ वर्ष की उम्र में छोड़ कर चली गईं | लेकिन मुन्नव्वर राना को पढने के बाद माँ के भीतर की वो सारी तहें खुल गईं जिन्हें माँ के रहते समझ नहीं पाया | मुझे मुनव्वर राना अपनी शायरी की बदौलत वहां ले जाते हैं.. जहाँ से मेरे अंकुर फूटे हैं.. मैं अपने उसी बचपन को सहेजता बुहारता हूँ…जिसे हमने बड़े-बड़े सवालों को हल करने में गँवा दिया है | बड़ी बड़ी तरक्कियों को इजाद करने की महारत में जुटे साइंसदानों और समाज में बदलाव लाने वाले विचारकों की बातों को समझने में ग्रंथों को उलट पलट कर देखने में लगी दुनिया के साथ मैं भी खड़ा नज़र आता हूँ | ऐसे में मुझे मुनव्वर राना की किताब ‘माँ’ मिलती है तो कोई इच्छा बाकि नहीं रह जाती | मैं सारे प्रयोगों को छोड़-छाड़ कर मां के आँचल में बैठ जाता हूँ, जहाँ पर मां का आँचल मेरे लिए एक किले की तरह खड़ा दिखाई देता है | बाज़ार का शोर परेशान नहीं करता बल्कि माँ की लोरियां सुकून की नींद में सुलाती हैं | फिर अचानक जब नींद टूटती हैं, तो संघर्षों की तपती धुप में माँ का ओझल होना बहुत अखरता है | समय के धुंधलके में गुम हुए बचपन को याद करता हूँ, तो मुनव्वर राना के ही शब्दों में ‘जुगनुओं को चुनता हुआ बचपन, तितलियाँ पकड़ता हुआ बचपन, पेड़ की शाखों से झूलता हुआ बचपन, बाप की गोद में हंसता हुआ बचपन, धुल मिट्टी में संवारता हुआ बचपन, नींद में चौंकता हुआ बचपन, मानो कोई लुटेरा छीन ले गया हो | नदी भी है, रेत भी है, लेकिन मेरे हाथ वो घरौंदे नहीं बना सकते.. बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं की विभीषिका लिखने में व्यस्त मैं जब मुन्नवर की आँख से देखता हूँ, तो अपनी तरक्की पर तरस आता है | बुलेट ट्रेन की कल्पनाओं में डूबा मैं ये सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि माचिस की डिब्बिया से बनी रेलगाड़ी की वो पटरियां मुझे कैसे वापस मिल सकती हैं | क्योंकि बकौल मुनव्वर राना लोहे से बनी बुलेट ट्रेनें और रेलगाड़ियाँ वहां नहीं रुकतीं, जहाँ माचिस की डिब्बियों से बनी वो रेल रुकती थीं, जहाँ भोली और मासूम ख्य्वाहिशें किसी मुसाफिर की तरह इंतज़ार करती थीं, बचपन में अपने नन्हें नन्हें होठों से बजने वाली सीटियों पर कान लगाए रहती थीं | मुनव्वर का संग्रह ‘माँ’ पढ़कर हर बच्चा अपने बचपन की प्रतिछाया देखता नज़र आता है| मुनव्वर कहते हैं कि उनके घर के पास वाला पानी का पवित्र कूआं जो अब नहीं है , जब था तो उनकी मां के लिए फ़रियाद का स्थल बन जाता था और माँ अपनी आंसुओं से भरी आँखों से कूएँ से फ़रियाद लगाती थी कि मौसी के घर गया उसका बेटा नींद में चलने की आदत के कारण उस कूएँ में डूब न जाए | माँ के आंसुओं को ऐसा प्रतीत होता था कि कूआं माँ की बात धैर्य से सुन रहा है, क्योंकि एक पानी ही दुसरे पानी का दर्द समझ सकता है | ऐसे अनुभव किसी आम बेटे के नहीं हो सकते| ऐसे अनुभवों को केवल मुनव्वर जैसे ज़हीन बेटे ही ग्रहण कर सकते हैं| इस संग्रह को को पढने के बाद पता चलता है कि धूप से तपते टूटे हुए छप्पर के नीचे माँ अपने बच्चे को, फटे हुए टाट के परदे से ऐसे बचाती है जैसे आँगन में दाना चुगते हुए चूजों को उनकी माँ अपने नाज़ुक और नर्म परों के बीच छुपा देती है | गरीबी और घर के कच्चे आँगन से उड़ने वाली धूल किस तरह माँ के खूबसूरत चेहरे को सांवला और मटमैला कर देता है, इसका अहसास भी मुनव्वर साहब की ये किताब कराती है | मुनव्वर राना कहते हैं कि उनके ट्रक ड्राइवर पिता का रास्ता देखती माँ अपने बेटे का ख्याल रखते हुए कोई ख़्वाब तक भी नहीं देख पाती थी, क्योंकि ख़्वाब देखने के लिए आँखों का नींद में बंद होना ज़रूरी होता है, लेकिन माँ की आँखें अपने ट्रक ड्राइवर पति के इंतज़ार में कतरा कतरा पिघलती रहती थीं| मुनव्वर राना का संग्रह ‘माँ’ जो भी पढ़ेगा, उसे अपने बचपन से किताब को पढ़े जाने तक का सफ़र वैसा ही हूबहू नज़र आएगा, जैसा मुनव्वर का अपना सफ़र है | यही उनके हुनर का कमाल है कि वो अपनी कहानी को इस तरह कहते हैं कि सभी की कहानी उसमें घुल मिल जाती है | माँ की बात करते हुए अपने ड्राइवर पिता का ज़िक्र करते हुए मुनव्वर कहते हैं कि शेरशाह सूरी के बनाए हुए अंधकारमयी मार्ग पर जहाँ गाड़ियों की हैडलाईट से सड़क पर पड़ने वाली रौशनी बेईमान ज़माने में ईमानदारी की किरन की तरह नज़र आती है और यह बेजान सड़क किसी हरिजन कबीले की तरह चुपचाप मुस्कुराती रहती है| कितने ही ड्राइवर अपने बच्चों के भविष्य को सुनहरा करने के लिए त्यौहारों और मौसमों की आहुति देकर अपनी ज़िंदगी इसी सड़क पर लगा देते हैं | और यह रहस्यमयी सड़क अक्सर इंसानों का खून पीकर अपनी प्यास बुझाती रहती है | वह खून पलभर में तारकोल के रंग में घुलमिल जाता है और सड़क बेगुनाह नज़र आती है | बचे खुचे खून के धब्बों को इस स्याह सड़क पर गुजरने वाली गाडियों के नर्म टायर चाट जाते हैं, ये वही खून है जिसमे किसी सुहागिन का सुहाग, किसी माँ का इंतज़ार और एक बहन के मैले दुपट्टे के आंसू मिले होते हैं | पिता एक ड्राइवर की तरह ही तो है ,जो परिवार की गाडी को चलाने के लिए जिन्दगी की रहस्यमयी सड़क पर चलता जाता है | अपनी खुशी, और ग़मों को भुलाकर और ज़िन्दगी की स्याह सड़क पिता के खून को चूस लेती है, लेकिन पिता बच्चों और परिवार की खुशी के लिए अपने लहू से सडक को सींचता हुआ चला जाता है | इस किताब को पढ़ने पर पता चलता है कि मुनव्वर ने सिर्फ मां को नहीं पिता के संघर्षों को भी खूब समझा है | लेकिन उसे मां से अलग न करते हुए उसी में समाहित किया है | कहा जा सकता है कि मुनव्वर की शायरी और फलसफों को एकाग्रता से पढ़ा जाए तो माता-पिता बहुत करीब से नज़र आते हैं | ऐसा भी लगता है कि मुनव्वर खुद पिता होते हुए पिता के दर्द को जानबूझ कर माँ से छोटा रखना चाहते हैं, क्योंकि उनकी नज़रों में जननी हमेशा जनक से बड़ी रही है, शायद इसीलिए | मुनव्वर का हिदोंस्तान के प्रति प्यार भी साफ़ झलकता है कि अपने लगभग पूरे परिवार के विभाजन के समय पाकिस्तान चले जाने पर भी वे पाकिस्तान चले जाने पर राजी हो गयी दादी का दामन छोड़ देते हैं और अपनी मां (हिन्दोस्तान ) के साथ रहने का फैसला लेते हैं | यह उनकी शायरी में भी झलकता है ,मुनव्वर कहते हैं कि –
सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं,
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं !
मुनव्वर के भीतर बैठे एक कुशल मर्मग्य को देखीए जिसने उस समय भारत छोड़ कर पाकिस्तान गए लोगों को देखकर यह कह दिया था कि ‘अब वह भारत में उस परिंदे की तरह अकेले रह गए हैं, जिसके सब साथी जाल में फंस गए हों | पाकिस्तान की मौजूदा हालत अगर देखे तो यह एक कवि और शायर की कल्पनाशक्ति को बखूबी देखा जा सकता है | मुनव्वर राना के घर के आँगन में लगे बाग से हिन्दू लोग फूल तोड़ कर मंदिर में चढाते हैं | मुन्वव्वर की धर्मपत्नी सुबह जल्दी उठकर अपने घर के पीछे का दरवाज़ा जल्दी इसलिए खोलती हैं, ताकि मुहल्ले की हिन्दू औरतें समय रहते फूल तोड़ कर मंदिर में चढ़ा सकें| मुनव्वर के पास मुहब्बतों के कई खजाने हैं, जिसे लिखने की औकात मेरी नहीं लेकिन मेरे मन की कमज़ोर आँखों को मां का साफ़ साफ़ चेहरा तब नज़र आया जब मैंने मुनव्वर राना की पाक शायरी का चश्मा अपनी आत्मा पर लगाया | उनके इस संग्रह को लाखों लोग इसीलिए पढ़ रहे हैं | अंत में मुनव्वर राना साहब के मां पर लिखे कुछ शेर साझा करना चाहूंगा |
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है |
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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई खाब में आ जाती है
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मैंने रोते हुए पोंछें थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
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देख ले ज़ालिम शिकारी, माँ की ममता देख ले
देख ले चिड़िया तेरे दाने तलक तो आ गई |
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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
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ऐ अँधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया |
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लिपट कर रोती नहीं है कभी शहीदों से
ये हौसला भी हमारे वतन की माओं में है
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ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है |
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खुदा ने ये सिफ़त दुनिया की हर औरत को बख्शी है,
कि वो पागल भी हो जाए तो बेटे याद रहते हैं !
(यहाँ बेटों का मतलब बच्चों से है)
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निकलने ही नहीं देती है अश्कों को मेरी आँखें
की ये बच्चे हमेशा माँ की निगरानी में रहते हैं |
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तेरे आगे माँ भी मौसी जैसी लगती है
तेरी गोद में गंगा मईया अच्छा लगता है
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तेरे दामन में सितारे है तो होंगे ऐ फलक
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी
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अब देखीए कौन आए जनाज़े को उठाने
यूं तार तो मेरे सभी बेटों को मिलेगा
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कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
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दिन भर की मशक्कत से बदन चूर है लेकिन
माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गयी है
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दुआएं माँ की पहुंचाने मीलों मील जाती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है
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घेर लेने को मुझे जब भी बलाएं आ गईं
ढाल बनकर सामने माँ की दुआएं आ गईं
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मुनव्वर माँ के आगे कभी यूं खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती |
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मुझे कढ़े हुए तकिए की क्या ज़रुरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है
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धूप से मिल गए हैं पेड़ हमारे घर के
मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना
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बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छूआ
उठाया गोद में माँ ने तब आसमान छूआ
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मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
माँ की आँखें चूम लीजे रौशनी बढ़ जाएगी |
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माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मेरा रास्ता
मिट्टी को हटाते ही खजाने निकल आए
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मैं खुशनसीब हूँ कि मुनव्वर राना साहब का आशीर्वाद मुझे भी मिला है