कपाल की क्लर्की बनाम मुक्तिबोध की कविता:
अहंकार समझो या सुपिरिओरिटी काम्प्लेक्स
लेकिन सच है यह कि जीवन की तथाकथित सफलता को पाने की
हमको फुर्सत नहीं
खाली नहीं हैं हम लोग!
बहुत बीजी हैं हम।
जाकर उन्हें कह दे कोई
पहुंचा दे यह जवाब
और फिर भी करते हों वे हुज्जत
तो कह दो की हमारी सांस जिसमें है आजकल
के रब्त जब्त तौर तरीकों की तरह जहरीली कडुवाहट
जरा सी तुम भी पी लो तो
दवा का एक डोज समझ
तुम्हारे दिमाक के रोगाणु मर जायेंगे
और शरीर में, मष्तिष्क में जबरदस्त संवेदन उत्तेजन
इतना कुछ हो लेगा कि अकुलाते हुए ही तुम
अँधेरे के खीमें को त्यागकर
उजाले के सुनहले मैदानों में भागते आओगे!!
(कहने दो उन्हें जो कहते हैं-नामक कविता में मुक्तिबोध)
आज के समय में कपाल की क्लर्की करने वाले ‘कीर्ति व्यापारी ‘ मुक्तिबोध की कविता का चाहे जितना इस्तेमाल कर लें,लेकिन यकीन कीजिये, उनकी आत्मा के स्याह घेरे में जमीं हुई अड़ियल और कड़ियल व्यवस्था की जो रुग्ण काई है, एक दिन उसी पर फिसलकर वे आसपास के नुकीले चोंच युक्त गिद्धों के शिकार होंगे! मुक्तिबोध एक सर्जक को इन आततायियों से बचने के लिए स्वयं ही प्रतिवाद रचते हैं व् व्यवस्था की हर ‘कुटिल क्लर्की’ की चीड़ फाड़ करते हैं।
काश की ये जाग्रत पंक्तियाँ मुक्तिबोध के उन झंडाबरदारों तक पहुँच पातीं जो खुद को बेचकर अब मुक्तिबोध को बेच रहे हैं।ऐसे लोग सफलता के जंग खाए तालों व् कुंजिओं की दुकान के कबाड़ी हैं जो —–
“सामाजिक महत्त्व की गिलौरियों को खाते हुए
असत्य की कुर्सी पर आराम से बैठे
मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवर कोट
बंदरों व् रीछों के सामने नई नई अदाओं से नाचकर-सफलता के ताले खोलते हैं”।
(परिचय ,17 के संपादकीय का अंश!)
नोट-पत्रिका के कवर पर रोहित जी रशिया की पेंटिंग है।