सबसे बड़ा विकल्प खुला है आत्महत्या का !
(राजेश जोशी की ‘विकल्प’ कविता के
सन्दर्भ में)
सन्दर्भ में)
खुद को मार डालना या जानबूझ कर अपनी मृत्यु का कारण बनना ही
आत्महत्या करना कहलाता है । जब कोई व्यक्ति अपने जीवन से पूरी तरह हताश और निराश
हो जाता है तब उसमें दुनिया का सामना करने की हिम्मत नहीं रह जाती है । ऐसे में वह
तनाव में आकर अपने आप को ख़त्म करने का निर्णय ले लेता है । हमारे जीवन में, मसलन कुछ
अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोगों के पास जीवन में सुख और आनंद
की अनुभूति कम-ज्यादा परिमाण में रहती ही है, लेकिन ऐसा शायद ही कोई इंसान होगा जो
वह दावे के साथ कह सकेगा कि – ‘मैंने अपने जीवन का पूरी तरह से आनंद और परितोष के
साथ ही उपभोग किया है ।’ असल में इसके विपरीत जो है वही सच है । कोई न कोई अशांति
या असंतुष्टि इंसान के मन में रह ही जाती है और यह प्राय: समय में इंसान के मन को
चुभती रहती है । जब यह अशांति और असंतुष्टि ही एक कटु सच बनकर उसको कचोटते रहते
हैं तथा पूरी तरह तोड़ देते हैं तब उसके पास अंतिम विकल्प केवल आत्महत्या ही रह
जाता है । आत्महत्या – जिसके लिए जरुरी है सालों की मानसिक प्रस्तुति, नहीं तो
क्षण भर की तीव्रतर उत्तेजना या भावावेश । आत्महत्या अक्सर एक अस्थायी समस्या का
स्थायी समाधान होता है । यदि वह व्यक्ति आत्महत्या करने में सफल हो गया तो उसे हर
चीज से मुक्ति मिलती है । कितने ही तक़लिफों तथा परेशानियों से मजबूर होकर उसे यह
कदम उठाना पड़ता है और उसमें भी अगर वह असफल रहे तो उसमें पड़ती है दोहरी मार । न जाने
उस व्यक्ति पर क्या-क्या गुजरा होगा जिस वजह से उसे यह कदम उठाना पड़ता है । और जब
इंसान आत्महत्या से भी हार जाते हैं और हर दिन अपने आप को मरता हुआ देखते हैं तब न
जाने वह किस तरह के असहाय बोध को महसूस करते होंगे ! ऐसे मृत्यु को हम क्या नाम दे
? और क्या विडम्बना है जब उस व्यक्ति के इस विकल्प के बाद उसके घर वालों की
तक़लीफ़ों में थोड़ा और इज़ाफ़ा ही हो जाता है –
आत्महत्या करना कहलाता है । जब कोई व्यक्ति अपने जीवन से पूरी तरह हताश और निराश
हो जाता है तब उसमें दुनिया का सामना करने की हिम्मत नहीं रह जाती है । ऐसे में वह
तनाव में आकर अपने आप को ख़त्म करने का निर्णय ले लेता है । हमारे जीवन में, मसलन कुछ
अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोगों के पास जीवन में सुख और आनंद
की अनुभूति कम-ज्यादा परिमाण में रहती ही है, लेकिन ऐसा शायद ही कोई इंसान होगा जो
वह दावे के साथ कह सकेगा कि – ‘मैंने अपने जीवन का पूरी तरह से आनंद और परितोष के
साथ ही उपभोग किया है ।’ असल में इसके विपरीत जो है वही सच है । कोई न कोई अशांति
या असंतुष्टि इंसान के मन में रह ही जाती है और यह प्राय: समय में इंसान के मन को
चुभती रहती है । जब यह अशांति और असंतुष्टि ही एक कटु सच बनकर उसको कचोटते रहते
हैं तथा पूरी तरह तोड़ देते हैं तब उसके पास अंतिम विकल्प केवल आत्महत्या ही रह
जाता है । आत्महत्या – जिसके लिए जरुरी है सालों की मानसिक प्रस्तुति, नहीं तो
क्षण भर की तीव्रतर उत्तेजना या भावावेश । आत्महत्या अक्सर एक अस्थायी समस्या का
स्थायी समाधान होता है । यदि वह व्यक्ति आत्महत्या करने में सफल हो गया तो उसे हर
चीज से मुक्ति मिलती है । कितने ही तक़लिफों तथा परेशानियों से मजबूर होकर उसे यह
कदम उठाना पड़ता है और उसमें भी अगर वह असफल रहे तो उसमें पड़ती है दोहरी मार । न जाने
उस व्यक्ति पर क्या-क्या गुजरा होगा जिस वजह से उसे यह कदम उठाना पड़ता है । और जब
इंसान आत्महत्या से भी हार जाते हैं और हर दिन अपने आप को मरता हुआ देखते हैं तब न
जाने वह किस तरह के असहाय बोध को महसूस करते होंगे ! ऐसे मृत्यु को हम क्या नाम दे
? और क्या विडम्बना है जब उस व्यक्ति के इस विकल्प के बाद उसके घर वालों की
तक़लीफ़ों में थोड़ा और इज़ाफ़ा ही हो जाता है –
“मृत्यु
सिर्फ़ मर गए आदमी के दुख और तक़लीफ़ें दूर करती है
सिर्फ़ मर गए आदमी के दुख और तक़लीफ़ें दूर करती है
लेकिन बचे हुओं की
तक़लीफ़ों में हो जाता है
तक़लीफ़ों में हो जाता है
थोड़ा इज़ाफ़ा और…!”[1]
(कविता शीर्षक – विकल्प : राजेश जोशी)
राजेश जोशी जी ने अपनी कविता ‘विकल्प’ के माध्यम से आत्महत्या की एक भावविह्वल
प्रस्तुति हमारे सम्मुख रखी है । इस विकल्प को चुनने के लिए एक व्यक्ति को किस तरह
परिस्थितियाँ मजबूर कर सकती हैं, इसीके आख्यान को इस कविता के माध्यम से हम देख
सकते हैं । भूमंडलीकरण के चलते विकास की अंधी दौड़ में फंसी व्यवस्था की मार ने इंसान
के लिए किन विकल्पों को सामने रख दिया है –
“संकट बढ़ रहा है
छोटे-छोटे
खेत अब नहीं दिखेंगे इस धरती पर !
खेत अब नहीं दिखेंगे इस धरती पर !
कॉरपोरेट
आ रहे हैं
आ रहे हैं
कॉरपोरेट आ रहे हैं
सौंप दो उन्हें अपनी छोटी-छोटी जमीनें
मर्जी से नहीं तो जबर्दस्ती छीन लेंगे वे…
जमीनें सौंप देने के सिवा कोई और विकल्प नहीं
तुम्हारे पास…!”[2]
तुम्हारे पास…!”[2]
(विकल्प)
जाहिर सी बात है, यह संकट गरीब को ही
भुगतना पड़ता है । और यह दिन-ब-दिन बढ़ते ही रहा है । सही कह रहे हैं लेखक कि इस
धरती पर अब छोटी-छोटी जमीनें दिखना बंद हो जाएँगी । क्योंकि उन सब पर तो कॉरपोरेट
की आँखें हर समय नज़र रखती हैं कि कब उनको बेदखल किया जाय और उनकी जमीनें हड़प ली
जाये । जैसे कि इस व्यवस्था में उन लोगों के लिए कोई जगह ही नहीं है । अक्सर कहा
जाता है कि कॉरपोरेट वालों को सरकारी जमीन ही दी जाती है, लेकिन यह कहाँ तक सत्य
है ? इसका पता उसके जड़ तक जाने से ही चलता है । क्या देश की शासन-व्यवस्था में ऐसी
कोई योजना नहीं है कि जिनके पास जमीन नहीं है उन्हें सरकारी जमीन मुहैया कराई जाए
? ऐसी योजनाएँ तो बहुत सारी बनी हुई हैं किन्तु केवल कागज़ पर ही । होता तो कुछ और
ही है, जमीन देने के स्थान पर सरकार द्वारा कॉरपोरेट की मिली-भगत से उनकी बची-खुची
जमीन भी छीन ली जाती है । वहाँ मजबूरन जमीन सौंप देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं
रह जाता है । विकल्प उनके लिए बस यही होता है कि वह शहरों की ओर भाग सकते हैं जहाँ
न वह किसान बने रहेंगे न मजदूर, बस बन सकते हैं तो घरेलू नौकर ।
भुगतना पड़ता है । और यह दिन-ब-दिन बढ़ते ही रहा है । सही कह रहे हैं लेखक कि इस
धरती पर अब छोटी-छोटी जमीनें दिखना बंद हो जाएँगी । क्योंकि उन सब पर तो कॉरपोरेट
की आँखें हर समय नज़र रखती हैं कि कब उनको बेदखल किया जाय और उनकी जमीनें हड़प ली
जाये । जैसे कि इस व्यवस्था में उन लोगों के लिए कोई जगह ही नहीं है । अक्सर कहा
जाता है कि कॉरपोरेट वालों को सरकारी जमीन ही दी जाती है, लेकिन यह कहाँ तक सत्य
है ? इसका पता उसके जड़ तक जाने से ही चलता है । क्या देश की शासन-व्यवस्था में ऐसी
कोई योजना नहीं है कि जिनके पास जमीन नहीं है उन्हें सरकारी जमीन मुहैया कराई जाए
? ऐसी योजनाएँ तो बहुत सारी बनी हुई हैं किन्तु केवल कागज़ पर ही । होता तो कुछ और
ही है, जमीन देने के स्थान पर सरकार द्वारा कॉरपोरेट की मिली-भगत से उनकी बची-खुची
जमीन भी छीन ली जाती है । वहाँ मजबूरन जमीन सौंप देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं
रह जाता है । विकल्प उनके लिए बस यही होता है कि वह शहरों की ओर भाग सकते हैं जहाँ
न वह किसान बने रहेंगे न मजदूर, बस बन सकते हैं तो घरेलू नौकर ।
“विकल्प ही विकल्प हैं
तुम्हारे पास
तुम्हारे पास
मसलन भाग सकते हो शहरों
की ओर…
की ओर…
जैसे महान राजधानी में
झारखंड के इलाकों से आई
झारखंड के इलाकों से आई
लाखों लड़कियां कर रही हैं
झाडू-बासन के काम…”[3]
झाडू-बासन के काम…”[3]
(विकल्प)
घर से शहरों की ओर अपने पेट को पालने के लिए जो लोग झारखंड
से निकलकर बाहर आती है वह मानव तस्करी की शिकार हो जाती है । हर साल प्राय एक लाख
झारखंडी लड़कियां मानव तस्करी के चुंगल में आती है । अपराध जगत के दरवाजों पर कभी
नो वैकेंसी का बोर्ड नहीं लगाया जाता है । मजबूरी, जबर्दस्ती, झांसे में फसना और
सजाग न होना आदि अपराधी जगत में दाखिल होने के लिए काफी होता है । शहरों की ओर
पलायन झारखंड की नियति है । कारण चाहे अनावृष्टि हो, विस्थापन हो या बेरोजगारी ।
लेकिन रोजी-रोटी के लिए इस पलायन का शर्मसार कर देने वाला भयावह पहलू है – मानव
तस्करी । यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है । संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के
अनुसार – ‘किसी व्यक्ति को डराकर, बलप्रयोग कर या दोषपूर्ण तरीके से भर्ती, परिवहन
या शरण में रखने की गतिविधि तस्करी की श्रेणी में आती है ।’ दुनिया भर में 80
प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है और बाकी बंधुआ मजदूरी
के लिए । एशिया में भारत को मानव तस्करी का गढ़ माना जाता है । सरकार के आंकड़ों के
अनुसार हमारे देश में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है । लेकिन आज तक ऐसा
कोई अध्ययन नहीं किया गया जिससे भारत में तस्कर हुए बच्चों का सही आंकड़ा पता चल
सके । यह एक अत्यंत संवेदनशील तथा गंभीर समस्या है । घर से तो वह लड़कियां
झाड़ू-बासन का काम करके जीवन निर्वाह करने के लिए ही निकलती है लेकिन वहाँ तक
पहुंचने से पहले ही वह तस्कर हो जाती है । घरेलू कामगार बनते हुए यौन शोषण की
शिकार हो जाती है । और जहाँ एजेंट संस्थापन का लालच देकर बच्चों को घर से बाहर
लाते हैं वहाँ एजेंट इनके माता पिता को पढ़ाई, बेहतर जिन्दगी और पैसों का लालच देकर
अपने झांसे में उनको फँसा लेते हैं । और इसके बाद स्कूल भेजने के बजाय दूरदराज के
जगहों में यौन शोषण तथा ईंट के भट्टों पर काम करने के लिए या भीख मांगने का काम
करने के लिए और बंधुआ मजदूरी के लिए बेच देते हैं । सरकारी अमला अब पहले से बहुत
सजग हुआ है, जागरूक अभियान चला रहे हैं लेकिन फिर भी हर दिन अनेक लड़कियाँ इसका
शिकार हो ही रही हैं । कितने ही लोगों ने इसका शिकार होते हुए आत्महत्या कर लिए
हैं । उन विवश लोगों के पास विकल्प ही क्या रह जाता है?
से निकलकर बाहर आती है वह मानव तस्करी की शिकार हो जाती है । हर साल प्राय एक लाख
झारखंडी लड़कियां मानव तस्करी के चुंगल में आती है । अपराध जगत के दरवाजों पर कभी
नो वैकेंसी का बोर्ड नहीं लगाया जाता है । मजबूरी, जबर्दस्ती, झांसे में फसना और
सजाग न होना आदि अपराधी जगत में दाखिल होने के लिए काफी होता है । शहरों की ओर
पलायन झारखंड की नियति है । कारण चाहे अनावृष्टि हो, विस्थापन हो या बेरोजगारी ।
लेकिन रोजी-रोटी के लिए इस पलायन का शर्मसार कर देने वाला भयावह पहलू है – मानव
तस्करी । यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है । संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के
अनुसार – ‘किसी व्यक्ति को डराकर, बलप्रयोग कर या दोषपूर्ण तरीके से भर्ती, परिवहन
या शरण में रखने की गतिविधि तस्करी की श्रेणी में आती है ।’ दुनिया भर में 80
प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है और बाकी बंधुआ मजदूरी
के लिए । एशिया में भारत को मानव तस्करी का गढ़ माना जाता है । सरकार के आंकड़ों के
अनुसार हमारे देश में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है । लेकिन आज तक ऐसा
कोई अध्ययन नहीं किया गया जिससे भारत में तस्कर हुए बच्चों का सही आंकड़ा पता चल
सके । यह एक अत्यंत संवेदनशील तथा गंभीर समस्या है । घर से तो वह लड़कियां
झाड़ू-बासन का काम करके जीवन निर्वाह करने के लिए ही निकलती है लेकिन वहाँ तक
पहुंचने से पहले ही वह तस्कर हो जाती है । घरेलू कामगार बनते हुए यौन शोषण की
शिकार हो जाती है । और जहाँ एजेंट संस्थापन का लालच देकर बच्चों को घर से बाहर
लाते हैं वहाँ एजेंट इनके माता पिता को पढ़ाई, बेहतर जिन्दगी और पैसों का लालच देकर
अपने झांसे में उनको फँसा लेते हैं । और इसके बाद स्कूल भेजने के बजाय दूरदराज के
जगहों में यौन शोषण तथा ईंट के भट्टों पर काम करने के लिए या भीख मांगने का काम
करने के लिए और बंधुआ मजदूरी के लिए बेच देते हैं । सरकारी अमला अब पहले से बहुत
सजग हुआ है, जागरूक अभियान चला रहे हैं लेकिन फिर भी हर दिन अनेक लड़कियाँ इसका
शिकार हो ही रही हैं । कितने ही लोगों ने इसका शिकार होते हुए आत्महत्या कर लिए
हैं । उन विवश लोगों के पास विकल्प ही क्या रह जाता है?
“अब भी
लामबंद न होना चाहो, लड़ना न चाहो अब भी
लामबंद न होना चाहो, लड़ना न चाहो अब भी
तो एक सबसे
बड़ा विकल्प खुला है
बड़ा विकल्प खुला है
आत्महत्या का !
कि
तुमसे पहले भी चुना है यह विकल्प तुम्हारे कई भाई-बन्दों ने…”[4]
तुमसे पहले भी चुना है यह विकल्प तुम्हारे कई भाई-बन्दों ने…”[4]
(विकल्प)
अब जब तक इस अपराध से सही मुकाबला नहीं होगा, या फिर लड़ाई
नहीं होगी तब तक हमेशा आत्महत्या ही अंतिम विकल्प के रूप में बनी रहेगी । लेकिन
क्या इस विकल्प से समस्या या तक़लीफ़ें खत्म हो जाती हैं ? क्या आत्महत्या सही में
अंतिम उपाय है संकटों से युक्त जीवन को खत्म करने के लिए ? इस जहर से लड़ना ही
होगा, सजगता लानी ही होगी ताकि लाखों लड़कियों का जीवन सुरक्षित रह सके । मरने से
पहले या अपने आप को यूँ मार डालने से पहले आदमी को अपराधों से लड़ना ही होगा ।
क्योंकि आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता है और कुच्छ नहीं सोचता है । लेकिन इससे
पहले ही कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर आदमी तो वैसे भी मरा हुआ ही होता है ।
और सोचने-बोलने के लिए जरूरी है शिक्षा का प्रसार तथा सजगता ।
नहीं होगी तब तक हमेशा आत्महत्या ही अंतिम विकल्प के रूप में बनी रहेगी । लेकिन
क्या इस विकल्प से समस्या या तक़लीफ़ें खत्म हो जाती हैं ? क्या आत्महत्या सही में
अंतिम उपाय है संकटों से युक्त जीवन को खत्म करने के लिए ? इस जहर से लड़ना ही
होगा, सजगता लानी ही होगी ताकि लाखों लड़कियों का जीवन सुरक्षित रह सके । मरने से
पहले या अपने आप को यूँ मार डालने से पहले आदमी को अपराधों से लड़ना ही होगा ।
क्योंकि आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता है और कुच्छ नहीं सोचता है । लेकिन इससे
पहले ही कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर आदमी तो वैसे भी मरा हुआ ही होता है ।
और सोचने-बोलने के लिए जरूरी है शिक्षा का प्रसार तथा सजगता ।
सन्दर्भ सूची
1.
राजेश जोशी : ज़िद (कविता संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नयी
दिल्ली, संस्करण 2015.
राजेश जोशी : ज़िद (कविता संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नयी
दिल्ली, संस्करण 2015.
2.
http://www.patrika.com/news/dumka/15-000-girls-in-jharkhand
http://www.patrika.com/news/dumka/15-000-girls-in-jharkhand
3.
Hindi.mapsofindia.com – भारत में मानव
तस्करी.
Hindi.mapsofindia.com – भारत में मानव
तस्करी.
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