समकालीन कविता की विशेषता
प्रो रणजीत कुमार सिन्हा
‘समकालीन कविता’ अपने परिवेश के प्रति
,अपने समय की चिन्ता के प्रति विशेष सम्बंध होने के कारण उसे समकालीन कविता कहा
जाता है।वैसे हिंदी साहित्य में आठवे दशक की कविता को समकालीन कविता कहा गया है।मगर
साहित्य को पंचवर्षीय घेरो में नहीं बांधा जा सकता |
समकालीन कविता का अर्थ ‘समसामयिकता’
नहीं होता।‘समकालीनता’ एक व्यापक और बहुआयामी शब्द है और आधुनिकता का आधार तत्व है।जो
समकालीन है वह आधुनिक भी हो यह आवश्यक नहीं, किन्तु आधुनिक चेतना से मिश्रित
दृष्टि है ,वह निश्चित रूप से समकालीन भी हो सकती है।कहने का तात्पर्य यह है कि
समकालीन कविता ने बदलते हुए जीवनमूल्यों को मानवीय स्तरों पर ही प्रतिष्ठित किया
है।अथार्त समकालीन कविता का सामाजिक बोध अपने समय की माँगो के अनुरूप उभरा है और
उसने समय को अपने दायित्यों के प्रति जागरूक बनाया है।समकालीन कविता युगीन यथार्थ
वास्तविकता को अभिव्यक्त प्रदान करती है |
नयी कविता ,अकविता आदि से भिन्न
समकालीन कविता अपने समय का सीधा साक्षात्कार कराती है ,समकालीन कविता सामाजिक
चेतना के साथ-साथ शोषण ,गरीबी तथा सामाजिक ,आर्थिक असंतुलन पर प्रहार की कविता है।समकालीन
कविता के अनुभति और अभिव्यक्ति दोनों पक्षों में एक व्यापक परिवर्तन आया है।इस काल
के कवियों ने व्यक्तिक और सामाजिक स्वतंत्रता पर लगाये गये अंकुश के कारण सत्ता और
व्यवस्था पर खुलकर प्रहार किया है , इतना ही नहीं उनका सत्ता परिवर्तन का स्वर भी
मुखर हुआ है।
यदि प्रवृतियों के आधार पर समकालीन
कविता की परिभाषा देने का प्रयत्न करे तो इसकी काल के अनुसार पहचान नहीं बनती ,
इसलिए समय एवं प्रवृतियाँ दोनों को साथ रखकर इसकी पहचान निर्धारित की जा सकती है।इस
दशक की कविताओं में विचारों की प्रधानता होने के कारण कई लोग इसे ‘विचार कविता’ भी
कहते हैं।अर्थात् ‘विचार कविता’ के साथ ‘आंतरिक सत्य और सामाजिक यथार्थ का मिलन
बिंदु है ,जिसमे न तो कल्पना का अतिरेक है और न ही वस्तुस्थिति का प्रचार है।अत:
‘विचार’ समकालीन कविता का विधायक तत्व है।कवि सामाजिक और साहित्यिक रुढियों का
अस्वीकार करके नये विचारों से जुड़ता है।परिणाम स्वरुप भाषा ,बिम्ब,एवं प्रतीकों की
नवीनता भी देखने को मिलती है।अत: हम कह सकते है कि समकालीन कविता यदि एक ओर कवि के
आंतरिक सत्य तथा सामाजिक यथार्थ की टकराहट से उत्पन्न ‘विचार’ को महत्व देती है तो
दूसरी ओर किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध ‘विचार’ का विरोध नहीं करती।अथार्त् समकालीन
कविता में ‘विचारो का संतुलन’ रखा गया है।इसमें न तो व्यक्तिवाद की प्रधानता है,
और न ही समूहवाद की।इस दौर की कविता में बौद्धिकता एवं भावुकता का सामजस्य देखनेव
को मिलता है ,क्योंकि भारतीय मानसिकता व्यक्ति में समूहत्व ओ समूह में व्यक्ति की
विशिष्टता को स्वीकारती है।इस दशक की कविता ने भी इसी मानसिकता से अपना नाता जोड़ा
है।अथार्त् समकालीन कविता में विचार और संवेदन दोनों का महत्व स्वीकार गया है।समकालीन
कविता आम आदमी के जीवन के संघर्षो, विसंगतियों ,विषमताओं एवं विद्रूपता की खुली
पहचान है |
‘इक्कीसवी सदी भारत का होगा’ यह दिव्या
स्वप्न देखने वालों को देश  के उस अधनंगे
भूखे लोगों की ओर ताकने का अवसर ही नहीं मिल पाता जो दो जून के रोटी के लिये
मारे-मारे फिर रहें है।भारत के समग्र विकास के लिये आवश्यक है कि इस तबके को झाँका
जाये।समकालीन कविता मानवतावादी है, पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं
पर आधारित नहीं है।उसकी यथार्थ दृष्टी मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का
बौद्धिक प्रयास करती है।समकालीन कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुन्दरता और मूल्यों
के आधार पर नहीं ,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती
है ,यही उसकी लोक थाती है।केदारनाथ सिंहजी अपनी प्रसिद्द कविता ‘रोटी’ में इसकी
महत्ता प्रतिपादित करते हुये कहते हैं-
                    “उसके बारे में कविता करना
                    हिमाकत की बात होगी
                    और वह मैं नहीं करूँगा
                   
                   
मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करुंगा
                   
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे
                   
उस आग तक चलें
                   
उस चूल्हें तक जहां पक रही है
                   
एक अद्भुत् ताप और गरिमा के साथ
                   
समूची आग को गंध बदलती हुई
                   
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज
                    
वह पक रही है |”1
भुखमरी समाज के असंतुलित व्यवस्था की परिणीती है, समकालीन
कविता अपने जन्म से ही इस व्यवस्था के विरुद्ध मुखर है, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की
ये पंक्तिया इसे अभिप्रमाणित करती है –
                         
“गोली खाकर
                        
 एक के मुहँ से निकला –
                        
 ‘राम’|
                         
दूसरे के मुहँ से निकला-
                         
‘माओ’|
    
                         
लेकिन तीसरे के मुहँ से निकला –
                         
‘आलू’|
                        
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
                        
कि पहले दो के पेट
                        
भरे हुए थे |”2 (पोस्टमार्टम की रिपोर्ट )
भूखमरी और कुरीति पर एक साथ प्रहार करते हुये व्यंगकार कवि
पुश्कर सिंह राज व्यंग्य करते हुये कहते हैं –
                       
“अधनंगा रह जो पूरी जिन्दगी खपाता है
                        
उसकी लाश पे तू कफ़न चढ़ाता है |
                       
अभावों में रह जो भूख से मर जाता है
                       
मौत में उसके तू मृत्यु-भोज कराता है |”3 (ये मेरा
हिंदुस्तान है)
 समकालीन कविता
वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है| अपने पूर्ववर्ती कविता की भांति यह
व्यक्ति के केवल आंतरिक तनाव और द्वंद्वो को नहीं उकेरता अपितु यह व्यापक सामाजिक
यथार्थ से जुड़ाव महसूस कराता है।जिन्दगी की मारक स्थितियों को, उसकी ठोस सच्चाइयों
को और राजनीतिक सरोकारों को भावुक हुये बिना सत्य का साक्षात्कार कराती है।प्रशासनिक
तंत्र में भ्रष्टाचार का विश जन सामान्य को जीने नहीं दे रही है।स्थिति इतनी विकट
है कि सुरजीत नवदीप माँ दुर्गे से कामना करते हुये कहते हैं –
                          
“माँ दुर्गा
                          
सादर पधारो ,
                          
बुराइयों के
                          
राक्षसों को संहारो |
                        
  महंगाई
                          
पेट पर
                          
पैर धर रही है ,
                          
भ्रष्टाचार की बहिन
                          
टेढ़ी नज़र कर रही है|”4(रावण कब मरेगा)
भ्रष्टाचार समाज की वह कुरीति है जो समाज को अंदर से खोखला
कर रही है।भ्रष्टाचार का जन्म कुलषित राजनीति के कोख से हुआ है –
                         
“ झूठ ढला है –सिक्को सी राजनीति –टकसाल है
                           पूरी संसद –चोरो और
लुटेरों की चउपाल है |”5  (नवगीत से आगे )
आज की व्यवस्था इस प्रकार है की
भ्रष्टाचार ,कहाँ नहीं है ? कौन इससे प्रभावित नहीं है ? आखिर यह व्यवस्था इतनी
पल्लवीत क्यों है? इन प्रश्नों का उत्तर समकालीन कवि का धर्म इस प्रकार व्यक्त
करता है –
                      “कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार
,मगर चुप रहते आये
                      आवश्यकता की खातिर हम,सब
कुछ सहते आये
                      बढ़ा हौसला जिसका ,उसने हर
शै लाभ उठाया
                     क्या छोटा ,क्या बड़े सभी
,इक रौ में बहते आये|”6 (गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’)
निष्कर्षत: हम देखते हैं की समकालीन कविता में समाज में
व्याप्त तमाम मुद्दाओं को एंव उसके कुप्रभाव से समकालीन कविता हमें अवगत कराती है
|
          
                    रणजीत कुमार
सिन्हा
                               
प्राध्यापक हिंदी विभाग ,खड़गपुर कॉलेज
                             इन्दा ,खड़गपुर
,पिन-721301 ,पश्चिम मिदनापुर
                                             मोबाइल न-9434153501