बसंत–ओंम प्रकाश नौटियाल
सर्दी
ऐसी जम गई, नदी ,श्रृंग,घर , घाट
ऐसी जम गई, नदी ,श्रृंग,घर , घाट
दूरी
पर कुछ दिवस की , वसंत
जोहे बाट
पर कुछ दिवस की , वसंत
जोहे बाट
दिन
थे वह त्रासद भरे,रुकी
शीत से श्वास
थे वह त्रासद भरे,रुकी
शीत से श्वास
दंत
किटकिटा कर करें, तब
बसंत की आस
किटकिटा कर करें, तब
बसंत की आस
सुहानी
फिर धूप खिले,हो रंग ॠतु बसंत
फिर धूप खिले,हो रंग ॠतु बसंत
काँप
काँपकर आ गया , सर्द
शीत का अंत
काँपकर आ गया , सर्द
शीत का अंत
पक्षी
कैसे पारखी , मौसम के सुलतान
कैसे पारखी , मौसम के सुलतान
देख
बसंती बानगी , ऊँची
भरें उड़ान
बसंती बानगी , ऊँची
भरें उड़ान
ऋतु
बवसंत की देन है, वर्ष
अंत प्रारंभ
बवसंत की देन है, वर्ष
अंत प्रारंभ
आती
जाती श्वास है , फ़िर
काहे का दंभ
जाती श्वास है , फ़िर
काहे का दंभ
शाख
शाख कलियाँ खिली, सरसों
महके खेत
शाख कलियाँ खिली, सरसों
महके खेत
पतझड़
छुपती शर्म से,मुख ले
स्याह सफेद !
छुपती शर्म से,मुख ले
स्याह सफेद !
–-ओंम प्रकाश नौटियाल, बड़ौदा ,मोबा.9427345810