बिनय कुमार शुक्ल ‘गुणातीत’

समय बड़ा परिवर्तनशील  है | जो आज है, जरूरी नहीं कि वह कल भी रहेगा | कंप्यूटर की ही बात देखें, एक कमरे के आकार के कंप्यूटर से शुरू होकर डेस्कटॉप, लैपटॉप होते हुए इसके कई रूप सामने आते जा रहे हैं | इसके रूप में परिवर्तन के साथ साथ इसके मिडिया स्टोरेज डिवाइस में भी परिवर्तन आ गया | फ्लॉपी से शुरू होकर सीडी, पेन ड्राइव से होते हुए अब क्लॉउड स्टोरेज का ज़माना आ गया है | आने  वाले समय में जाने क्या-क्या परिवर्तन आये इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है | यही हाल मीडिया का होता जा रहा है | रेडियो, प्रिंट, श्रव्यदृश्य माध्यम से होते हुए धीरे-धीरे ऑनलाइन प्रणाली और आभासी दुनिया का प्रचलन चल पड़ा है | आभासी दुनिया के प्रादुर्भाव ने अखबारों, पत्रिकाओं को प्रिंट मीडिया छोड़ कर आभासी दुनिया में आने के लिए मजबूर  कर दिया है | जो इस परिवर्तन के अनुसार स्वयं को ढाल नहीं पाए वो या तो मैदान से हट गए या फिर विलुप्त होने लगे हैं | यही हाल भाषाओं का भी है | यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले 20 वर्षों में लगभग 1500 भाषाएं बिल्कुल समाप्त हो जाएँगी | धीरे-धीरे कुछ प्रमुख भाषाओँ को छोड़ कर बाकी समस्त भाषाएं या तो  विलुप्त  हो जाएंगी या फिर दूसरी भाषा से आत्मसात कर अमूल- चूल परिवर्तित हो जाएंगी | किसी भी भाषा को चलाने, प्रचलित करने और उसकी लंबी आयु के लिए उस भाषा के प्रयोक्ता ही विशेष रूप से  जिम्मेदार होते है |  किसी जमाने में  भारत में संस्कृत का प्रचलन  था पर आज संस्कृत संग्रहालयों और समारोहों की भाषा बनकर रह गयी है | अब ऐसा लगता है कि यही स्थिति हिंदी की भी होने वाली है |
ब्रज, अवधी आदि की बोलियों से शुरुवात कर हिंदी अपना स्वरुप बदलती रही तथा एक समय  खड़ी बोली के नाम से जानी जाने वाली यह बोली बाकी बोलियों को अपने आप में समाहित करते हुए सतत प्रगति करती हुई हिंदी के रूप में स्थापित होती चली गयी | इस प्रगति के पीछे अवधी,झारखंडी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मगही जैसी उपभाषाओं  का बहुत बड़ा योगदान रहा है | भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी के अलावा अन्य राज्यों की भाषाएं शामिल हैं | इस अनुसूची में कुल मिलकर 22 भाषाओँ को शामिल किया जा चुका है | कुछ उपभाषाओं के छद्म प्रतिनिधि भोजपुरी को भी आठवी अनुसूची में शामिल करने के लिए प्रयासरत हैं | हो सकता है कि सरकार उनकी बात मानकर भोजपुरी को एक अलग भाषा के रूप में मान्यता दे भी दे पर इससे हिंदी को जो क्षति होगी उसका शायद भोजपुरी को अलग भाषा का मान दिलाने का प्रयास कर रहे लोग अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं या वे  शायद इसके दूरगामी प्रभाव को नहीं समझ पा रहे हैं | उन्हें तो बस एक उन्माद सा लगता है कि उनकी भाषा को भी मान मिलने जा रहा है | पर यदि हम तथ्यों की विवेचना करें तो पता लगता है कि सिर्फ भाषा को अधिसूचित करवा देना ही इतिश्री नहीं होता है | भोजपुरी को यदि आठवी अनुसूची में शामिल कर भी लिया जाए तो भी उसकी व्यावहारिक मान्यता प्रचलन में आना सर्वाधिक असम्भव सा प्रतीत होता है |यदि इसकी विवेचना की जाए तो हम यथार्थ समझ पाएंगे | इनमें से कुछ का संछिप्त विवरण निम्नवत है :-
1. शिक्षा का क्षेत्र : कहा जाता है कि यदि अपनी भाषा शिक्षा का माध्यम हो तो छात्रों को काफी आसानी होती है और फिर यदि वह माध्यम अपनी मातृभाषा में हो तो बात ही कुछ और हो  जाए | यह विचार सुनने में तो बहुत ही बेहतर प्रतीत होता है पर यदि धरातल पर हम इसकी विवेचना करें तो सही बात स्पष्ट हो सकती है | आज के समय में अंग्रेजी का वर्चस्व कुछ इतना है कि लोग अशुद्ध अंग्रेजी लिखकर भी इतराते है पर अपनी मातृभाषा को प्रयोग करने में भी शर्माते हैं | हर कोई अपने बच्चों को मातृभाषा के विद्यालय में न भेजकर अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में ही भेजना चाहता है | विज्ञान, चिकित्सा, तकनीकी, प्रबंधन सहित समस्त प्रकार की उच्च से उच्चतम शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है | मशहूर पत्रकार एवं लेखक डॉo वेद प्रताप वैदिक को हिंदी माध्यम में पत्रकारिता की परीक्षा एवं पी.एच.डी करने के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी | न्यायलय के आदेश के बाद ही हिंदी माध्यम से वे यह पाठ्यक्रम पूरा कर पाए थे | हाल ही में सोशल मीडिया में एक चिकित्सक के बारे में विवरण आया था जिन्होंने हिंदी माध्यम से एमडी की पढाई पूरी किया है | इसके अलावा हाल ही में एक विश्वविद्यालय ने इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम के लिए हिंदी माध्यम से पढ़ाई करवाने का दावा किया था परंतु इतने बड़े देश में वह भी हिंदी भाषी क्षेत्र में होने के बावजूद उक्त संस्थान में बहुत ही कम छात्रों ने प्रवेश लिया | अब ऐसी दशा में जहाँ हिंदी में ही अध्ययन के लिए कहीं कानूनी लड़ाई लड़कर लक्ष्य हासिल किया जा रहा है तो कहीं छात्र एवं अभिभावक स्वयं ही हिंदी माध्यम के शिक्षण संस्थान को नकार दे रहे हैं तो इनसे में हिंदी से ही अलग हुए एक धड़े(भोजपुरी) में कितने लोग उच्च एवं उच्चतम शिक्षा के लिए आगे आएंगे |

2.  अध्ययन सामग्री की उपलब्धता : उच्च एवं उच्चतर शिक्षा अर्जन के लिए सबसे अधिक यदि किसी चीज की आवश्यकता है तो वह है अध्ययन सामग्री एवं सन्दर्भ ग्रन्थ | अब जब ये सामग्रियां अबतक हिंदी भाषा में ही सुलभ रूप से तथा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है तो फिर भोजपुरी में उपलब्ध होगा कह पाना सम्भव नहीं है | अब यदि शिक्षा के माध्यम में किसी भाषा को शामिल नहीं किया जा सका तो वह कितने दिन टिक पाएगी | या तो शैशवकाल में ही दम तोड़ देगी या फिर भटक कर रह जाएगी |

3. क्षेत्र विशेष एवं एकरूपता की समस्या : भोजपुरी भाषा अधिकांश रूप में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों में से एक है | बिहार के रोहतास, छपरा, आरा, बक्सर, डुमराव, भोजपुर, चम्पारन  सहित  कुछ जिले एवं उत्तर प्रदेश के बलिया, देवरिया, गोरखपुर सहित कुछ जिलों में बोली जाती है | पर हर जिले की भोजपुरी के बोलने का लहजा अलग अलग है |  उदाहरण के लिए “घोड़ा जा रहा है” इसे गोरखपुर के “लोग घोड़ा जात बाटे” कहेंगे तो बलिया के लोग इसे “घोड़ा जाता/ जात बा”, छपरा और सिवान वाले इसे “घोरा जात बावे” या “घोरवा जाइत हई” इसी प्रकार विभिन्न जिलों में  विभिन्न रूपों में इसका उच्चारण किया जाता है | यह तो एक छोटा उदहारण है | ढेर सारे ऐसे शब्द और वाक्य है जो भ्रम की स्थिति पैदा करेंगे | अब इन सबमें किसे मानक निर्धारित किया जाएगा या कौन सही माना जाएगा यह एक यक्ष प्रश्न होगा | इसके बाद जो सबसे अहम् प्रश्न होगा  वह क्षेत्र निर्धारण का होगा | भोजपुरी को अनुसूची में शामिल करने के बाद यह बयार ‘अंगिका’, ‘मगही’ सहित अन्य भाषा भाषी भी कहीं न कहीं आवाज उठाएंगे | लोग भले न उठाएं, छद्म राजनीति करने वाले लोग इनकी भावनाओं को भड़का कर गलत फ़ायदा उठाने का प्रयास करेंगे | आपसी वैमनस्य  फैलाने का यह एक और साधन हो जाएगा |

4. साहित्य एवं व्याकरण निर्धारण : किसी भी भाषा की समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि उस भाषा में साहित्य सृजन, पठन-पाठन हो | कुछ गिने चुने साहित्य को छोड़ दें तो भोजपुरी भाषा में फ़िल्मी दुनिया एवं लोकगीत के गेय साहित्य(अलिखित) की भरमार हो सकती है पर इसके अन्य साहित्य की संख्या नगण्य है | अपनी विभिन्न शैलियों के कारण साहित्य के क्षेत्र में भोजपुरी कितना प्रखर छूकर आगे बढ़ पाएगी इसका आंकलन तो समय आने पर ही हो पायेगा परंतु जो असुविधाएं इसके प्रयोगकर्ता को होगी यह तो सर्वविदित है |

5. रोजगार के क्षेत्र में प्रयोग : कोई भी भाषा जबतक रोजगारोन्मुखी एवं अर्थोपार्जन का साधन नहीं होगी तबतक उसका अधिक प्रचलन हो यह संभव नहीं है | अब हिंदी की ही लें, लाख प्रयास करने के बावजूद विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में चाहे वह राज्य सरकार द्वारा आयोजित हो या संघ लोक सेवा आयोग या कर्मचारी चयन आयोग, अधिकांश परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा के प्रश्न और प्रश्नपत्र होते हैं पर हिंदी भाषा में नहीं होते | कारण कोई भी पर उसका प्रभाव यह है कि सरकारी नौकरी के अभ्यर्थी इसके प्रयोग के प्रति उदासीन होते हैं तथा आगे चलकर राजभाषा अधिनियम एवं संविधान में इसके प्रयोग सम्बंधित प्रावधान होने के बावजूद सरकारी कार्यालयों में इसका प्रयोग एवं प्रचलन  अंग्रेजी की अपेक्षा लगभग नगण्य है | हाँ हिंदी समझने और प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या अधिक होने के कारण ऍफ़ एम सी जी से लेकर सिनेमा निर्माण एवं वितरण में लगी ढेर सारी विदेशी एवं देशी कम्पनियाँ ग्राहकों को लुभाने के लिए हिंदी सिख रही हैं तथा इसका प्रयोग कर रही है | यदि व्यापार में संपर्क की भाषा हिंदी नहीं रही होती तो शायद आज यह भी प्रयोग में सरकारी कर्मचारियों के  सहयोग की आस में फाइलों में धूल फांक रही होती | पूर्व में मैथिलि भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए भी बहुत सारे प्रयास किये गए पर जहाँ तक अखिल भारतीय स्तर पर इसके प्रयोग की बात करें तो इसकी स्वीकार्यता सम्प्रेषण के आलावा अन्य क्षेत्र में लगभग नगण्य है | अन्य अधिसूचित भाषाओं  का कमोबेश यही हाल है | इन सबके अनेकता का लाभ अंग्रेजी को मिल रहा है और धीरे-धीरे अंग्रेजी ही प्रमुख भाषा का दर्जा लेती जा रही है | अब ऐसे में भोजपुरी हर क्षेत्र में स्वीकार्य होगी कह पाना असंभव है |

6. व्यक्तित्व बोध :  एक अनुमान के अनुसार भारत में बोली जाने वाली हिंदी में लगभग 15प्रतिशत प्रयोक्ता ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा भोजपुरी है | इस 15% की जनसंख्या में लगभग 3% ऐसे लोग हैं जो संवैधानिक था निजी कंपनियों में उच्च पदों पर आसीन हैं | कई नेता- अभिनेता भी इस क्षेत्र के हैं, पर यदि सर्वेक्षण किया जाए तो हम देखेंगे कि इनमें से कोई विरला ही होगा जो आम बोलचाल की भाषा में भोजपुरी का प्रयोग करते होंगे चाहे अपने परिवार के सदस्यों से अथवा अपने मातहतों या पड़ोस के भोजपुरीदानों से | इसके पीछे भाषा का ज्ञान होना कारक नहीं अपितु हमारी हीं भावना ही है जो हमें समाज में भोजपुरी बोलने से रोकती है | हमें ऐसा लगता है कि लोग हमें पिछड़ा समझेंगे | बस इस भय के कारण हम यदि समर्थ हैं तो चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेजी में ही बोलें, अब ऐसे में हिंदी को ही पर कर रहे हैं तो भोजपुरी को कैसे स्वीकार करेंगे |  
           
7. मिडिया का प्रभाव : परिवर्तन की बयार सिर्फ अपनी उपभाषाओं की ओर से आ रही है ऐसा नहीं है | भारतीय भाषाओँ को रसातल में भेजने की तैयारी में अपने देश के बुद्धिजीवी और मीडिया का भी भरपूर योगदान मिल रहा है | कहा जाता है कि ‘जो दिखता वही बिकता है’, यही बात भाषा के सम्बन्ध में भी लागू है | हिंदी का प्रयोग बढ़ाने के लिये सरकार द्वारा आसान हिंदी प्रयोग पर बल दिया गया पर इसका गलत फायद उठाकर मिडिया ने भारतीय भाषाओं को और भी दुरूह  रास्ते पर ले जाकर खड़ा कर दिया है | दृश्य मीडिया की बात करें तो हर चैनल पर आंचलिक भाषाओँ के समाचार में हर वाक्य में अधिकाधिक शब्द अंग्रेजी के प्रयोग किये जाते हैं बस उनमें सहायक क्रिया(हैं/है/था इत्यादि) भारतीय भाषाओँ के बोले जाते हैं | इस प्रक्रिया में अखबार भी कुछ काम नहीं हैं | मैंने दिल्ली-कलकत्ता, गोरखपुर,वाराणसी, इलाहाबाद सहित कई शहरों के हिंदी के समाचारपत्र देखा | पत्र की लिपि हिंदी में तो थी पर देवनागरी लिपि में अंग्रेजी के शब्दों की इतनी भरमार रहती है कि उन पत्रों को हिंदी की श्रेणी में न रखकर यदि हिंगलिश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | पिछले कुछ अर्से से कुछ छद्म विद्वान भी देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि के प्रयोग की वकालत कर रहे है | सोशल मीडया द्वारा इसका अक्षरशः प्रचार भी किया जाता है | अब तो सोने पे सुहागा व्हाट्स एप और एसएमएस जैसी सेवाओं के प्रयोग में अधिकांशतः युवा रोमन हिंदी/रोमन भारतीय भाषाओँ का प्रयोग कर रहे हैं | इस प्रयोग से एक तरफ जहाँ भारतीय भाषाओँ के प्रयोग में कमी आ रही है वहीँ दूसरी तरफ जिस तेजी से लिपि के प्रयोग में परिवर्तन आया है उससे ऐसी आशंका जताई जा रही है कि आने वाले कुछ वर्षों में भारतीय भाषाओँ की लिपि खत्म ही हो जाएगी | अब जब ऐसा ही माहौल बन रहा है तो क्या आशा किया जाए कि हिंदी अथवा इसकी उप भाषा भोजपुरी सफल रूप में अपने ही लोगों द्वारा स्वीकृत हो पाएगी |

यह समय विलाप एवं संघर्ष का न होकर आत्म मंथन का होना चाहिए | आज हम जिस चौराहे पर खड़े हैं वहां सम्पूर्ण भारतीय भाषाएं क्रमशः विलुप्त होने की कगार पर बढ़ रही हैं | इनके संरक्षण एवं संवर्धन के लिये इसके प्रयोगकर्ता को ही आगे आना पडेगा तभी बात बन पाएगी |