अपराधी जनजाति और औपनिवेशिक इतिहास
उद्देश शुक्ला
शोध छात्र, मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
मोबाइल नंबर:-6386 2788 39
ईमेल: uddeshshukla08@gmail.co
सारांश
औपनिवेशिक लेखकों ने जब गुलाम देशों का इतिहास लिखा, तो वह पश्चिम को केंद्र में रख कर लिख रहे थे। जिससे वह परिधि में थे एवं उनके उपनिवेश परिधि के बाहर, जिससे वह भारत को स्वतः एक तुच्छ एवं असभ्य समुदाय के रूप में प्रदर्शित करते थे। उसी परिधि के बाहर कुछ जनजातीय समुदायों जो अंग्रेजी हुकूमत का विरोध वन कानूनों, रेल की पटरियों के निर्माण, जंगलों में किसी भी प्रकार के कार्यों का विरोध करते तथा लूटपाट करते थे, का अपराधीकरण कर दिया गया और उन्हें एक अधिनियम के तहत अपराधी जाति(क्रिमिनल ट्राईब) घोषित कर दिया गया, जिन्हे बाद में जरायम पेशा कहा जाने लगा। इन्हे आज तक उनके द्वारा स्थापित करने की कवायद जारी है। ‘एडवर्ड सईद’ ने अपनी पुस्तक “ओरिएंटलीजम” में यह बताया है कि उनके इतिहासकार ऐसा इतिहास लिखते थे, जो उन्हें पसंद होता था और जिस में भारत की सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रश्न उठाया जाता था। यदि हम अपराधी जनजातियों की बात करें तो यह भारत में कोई नई नहीं थी लेकिन इसको एक संगठित रूप देकर अंग्रेजों ने सामान्य समुदाय से अलग कर दिया था। भारत में अपराधी जनजातियों की स्थिति आज भी निराशाजनक है। ये आज भी वेश्यावृत्ति, संगठित अपराध, सड़को पर रस्सियों पर नाचने का काम, शराब बनाना आदि कार्यों को जीवनयापन के लिए करने को मजबूर है।
मुख्य शब्द: अपराधी जनजाति, औपनिवेशिक, वेश्यावृत्ति, समुदाय, जरायम पेशा।
शोध आलेख
प्राचीन काल से ही रामायण एवं महाभारत में घुमंतु समुदाय एवं अपराधी जातियों की चर्चा हुई है जो डकैत, चोर आदि होते थे, जंगलों में रहते थे उनके खान-पान, रहन-सहन की चर्चाएं हुई है यह जंगली जानवरों को मार कर खाते थे।
बुद्ध की जातक कथा एवं जैनी गुफाओं से लुटेरे परिवारों के बारे में बहुत सारी जानकारियां हमें मिलती हैं तथा ‘कवरापल्ली’ में इसके साक्ष्य मिले हैं। जहां पर यह स्थाई रूप से बसे हुए थे जैन ग्रंथ के ‘उपदेश माला’ में ठग विद्या के बारे में बताया गया है कि किस प्रकार होते थे ‘स्कंदग्य’ तथा ‘धूर्तकल्प’ में भी स्कंद गुप्त के संघर्षों को दिखाया गया है कि वह किस प्रकार से लुटेरों से युद्ध करते हैं, उसके बाद में बाबर और औरंगजेब पढ़ते हैं तो हमें कहीं ना कहीं लुटेरों के बारे में जानकारी मिलती है।
यदि आधुनिक समय की बात की जाए तो सन 1700 में ‘फादर बुचेट’ का मदुरई में एक पत्र मिला था जिसमें उन्होंने चोरों की जाति के बारे में चर्चा की तथा उसके बाद ‘फादर मार्टिन’ ने सन 1700 मैं ही यह बताया कि किस प्रकार मद्रास में चोरों की जाति होती थी ‘मनूची’ ने भारत में लुटेरो के बारे में यह बताया की जो उस समय में बंजारे होते थे उनका शादी-विवाह, उनकी संस्कृति और परंपराएं किस प्रकार थी मुगल काल की बात करें तो ‘बाबर’ ने भी इसकी चर्चा की तथा ‘औरंगजेब’ ने ‘गरसिया’ जाति को एक लुटेरी जाति का दर्जा दिया था।
1670 ईसवी में फ्रांसीसी विद्वान ‘जीन कार्डिंन’ ने यह बताया कि उस समय की ‘कोली जनजाति’ एक लुटेरी जनजाति थी ‘फ्रैंकोइस बर्नियर’ ने मुगल दरबार में ‘कोली जनजाति’ को भारत की सबसे बड़ी लुटेरे जनजाति का दर्जा दिया था बाद में यही जातियां जिनमें प्रमुख रूप से भील, गुर्जर, मीना एवं अन्य जातियों ने उत्तर पश्चिमी भारत जिनमें प्रमुख रूप से राजस्थान में अपना राजपूतानाकरण किया तथा यह अपने आप को राजपूत कहने लगे। इसी प्रकार दक्षिण भारत में ‘कल्लर जाति’ बहुत ज्यादा प्रसिद्ध है जिसने अपने आप को राजा के रूप में घोषित किया।
सांसी, कालबेलिया, कुचबंधिय, कंजर अन्य जातियों ने भी अपने आप को राजपूताना बनाने की होड़ में इनका विरोध किया आधुनिक काल में अपराधी जातियों की बात करें तो ब्रिटिश सरकार ने एक सोची समझी राजनीति के तहत भारत में इन जातियों को अपराधी जनजाति बना दिया।
‘मिशेल फूको’ ने ज्ञान और शक्ति के संबंध में एक सिद्धांत दिया है वह कहते हैं कि जहां शक्ति होती है वही ज्ञान होता है और हम शक्ति के माध्यम से अपने ज्ञान को कई प्रकार से प्रदर्शित कर सकते हैं जैसे भारत में अंग्रेजी सरकार ने खुद को सर्वश्रेष्ठ स्थापित किया तथा हमको तुच्छ एवं असभ्य। अंग्रेजों के आने के पहले यह जातियां मुख्य रूप से जंगलों में रहती थी इनके आने के बाद उनके हस्तक्षेप से इनकी मुश्किलें बढ़ गई अभी तक शहरों से दूर रहने वाली ये जनजातियां शहरों की ओर जाने के लिए मजबूर थी पहले ये गांव में व्यापार के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाती थी तथा तेंदूपत्ता, नमक, महुआ तथा कई प्रकार की औषधियां एक जगह से दूसरी जगह बेचती रहती थी जिससे इनका आर्थिक व्यापार भी चलता रहता था और खानपान भी चलता था रेलवे के आ जाने से इनका प्रतिरोध अंग्रेजों से सीधे तौर पर होने लगा और अंग्रेजों की रेलगाड़ी उनके तक आने लगी।ये भोली भाली जनजातियां इन सब से घबरा गई इससे पहले उन्होंने ऐसा कभी देखा ही नहीं था। बड़ी मात्रा में कुछ दिनों बाद इन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ‘भारतीय वन अधिनियम 1865’ लाया गया तथा इनके रहन-सहन खान-पान पर अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों का नियंत्रण होने लगा। यह घटना अचानक से अंग्रेजों के अधिनियम के अंतर्गत आने के बाद हुई 1857 के विद्रोह में इन जनजातियों ने सीधे रूप से हिस्सा लिया तथा यह अंग्रेजो के लिए मुश्किल हो रहा था इस आंदोलन में नाई, कुम्हार, डोम, निषाद, गार्सिया, आदि ने अपना योगदान दिया जिससे की ये जनजातियां प्रमुख रूप से चर्चा में आई तथा अंग्रेज अब इनसे डरने लगे क्योंकि उनको डर मात्र यहां के जमींदारों से नहीं बल्कि यहां के सामान्य जनजातियों से हो गया था।
अंग्रेजों ने इन जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की स्थापना की तथा शिक्षा के नाम पर उनका धर्मपिवर्तन किया इनकी जो पारंपरिक चिकित्सा पद्धति थी, उसको भी दरकिनार कर छोटे छोटे अस्पतालों की स्थापना की जाने लगी। जंगलों पर अंग्रेजों का नियंत्रण स्थापित होने लगा तो जीवन यापन के लिए ये जनजातियां की तरफ प्रस्थान करने लगी तथा ये अब जंगल से निकलकर सड़को के किनारे रहने लगे।
अंग्रेजों ने अपराधी जनजाति अधिनियम के अंतर्गत बिना पंजीकरण के कहीं आना जाना अपराध घोषित कर दिया, रेलवे के आने के बाद कुछ प्रमुख जनजातियां प्रमुख रूप से प्रभावित हुई जो पश्चिमी तट पर रुई, महुआ, तेंदू इत्यादि ले जाती थी तथा वहां से नमक, अरेका, नारियल आदि लेकर आती थी जो व्यापार का सरल माध्यम था रेलवे के आ जाने से इनका व्यापार पूर्ण रुप से बंद हो जाता है और इनका आर्थिक जीवन संकट में आ जाता है। जिस कारण यह छोटी मोटी चोरी करना शुरू कर देते हैं यह समुदाय जो हमेशा से जंगलों पर आश्रित था तथा घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था अब अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया था। जिन्हें यह अंग्रेज लुटेरे समझते थे जिनका उत्पादन की प्रणाली पर कोई अधिकार नहीं था जिससे यह चोरी डकैती में सम्मिलित होने लगे थे ‘डेविड अर्नाल्ड’ कहते हैं कि, भारत में ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को इसलिए लाया गया था जिससे भारत में घुमक्कड़, अर्ध-घुमक्कड़ तथा छोटे व्यापारी, जिप्सी, बहेलिए, पहाड़ी में रहने वाले जनजातीय समुदाय जो अभी तक अंग्रेजों के पहुंच से दूर थे उनको अपने अंतर्गत लाना था जिससे वह इन्हें अपने उद्योगों से अपनी मजदूर प्रणाली के दायरे में ला सकें। प्लासी के युद्ध के बाद सन् 1773 में इनकी नीतियां बनना प्रारंभ हुई तब से लेकर 1860 तक छोटे-मोटे कई अधिनियम बनते रहे, 1860 में ‘इंडियन पैनल कोड’ गठित किया गया जिसके तहत इन जनजातियों को रखा गया लेकिन बाद में वायसराय काउंसिल के एक अधिकारी सदस्य ‘जे.एफ.स्टीफन’ ने उनको भारत में जातीयता के आधार पर एक वंशानुगत अपराधी घोषित कर दिया, उनका विचार था कि जिस प्रकार से भारत में जाति व्यवस्था है उसी प्रकार से इन अपराधियों की एक जाति व्यवस्था है जिस प्रकार नाई का लड़का नाई बनता है, लोहार का लड़का लोहार बनता है उसी प्रकार से अपराधी का लड़का अपराधी होगा और इन्हें इसी आधार पर अपराधी जाति घोषित कर दिया गया।
19 वीं तथा 20 वीं सदी के अपराधियों की लूट, चोरी, डकैती, रहन-सहन, परंपरा एवं पुलिस का उनके साथ बर्ताव आदि को ध्यान में रखते हुए ‘स्टीफन स्पीलबर्ग’ ने 1984 में एक फिल्म बनाई जिसका नाम ‘इंडियाना जॉन्स एंड द टेंपल ऑफ डूम’ रखा।
यह स्वतंत्र रूप से घूमने वाली जातियां अब भारत में अपराधी जाति घोषित हो चुकी थी तथा इन्हें किसी भी जगह पर स्थिर रहने के लिए नजदीकी पुलिस थाने में पंजीकरण कराना पड़ता था जिससे यह ज्ञात हो कि वह कहां पर रुके हुए हैं इन अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने और जाने से पहले उनको यह सूचना पास के थाने में देनी पड़ती थी क्योंकि यह जरायम पेशा अब भारतीय तथा विदेशी सबके नजर में एक अपराधी घोषित हो चुके थे।
‘भारतीय वन अधिनियम 1865’ जो कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद का विस्तार कर रहा था, ने इनको जंगलों के बाहर रहने के लिए विवश कर दिया था जंगल में रह रहे समुदाय अंग्रेजों के संपर्क में आ गए थे क्योंकि ऑपनिवेशिक सरकार सभी समुदायों पर शासन करना चाहती थी जिससे उन्हें आसानी से पहचान सकें, गौरतलब है कि इन जनजातियों के अपने पारंपरिक क्षेत्र से बाहर आने से इनकी परंपरावादी ज्ञान प्रणाली सहित आदिवासी लोगों की अमूर्त विरासत में अनेक रचनात्मक उत्पादक तत्व विद्यमान थे, जो आने वाली पीढ़ी के लिए अत्यंत लाभदायक होते का तेजी से विनाश होना आरंभ हो गया।
अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने जगह-जगह सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ कर दिए थे तथा अंग्रेजों से स्वतंत्र रूप से युद्ध किया लेकिन इतिहास की किताबों में उन्हें उतना महत्व नहीं दिया गया है अंग्रेजों ने इन्हें आर्थिक लाभ के लिए प्रयोग किया जिसके विरोध में इन जनजातियों ने युद्ध किया आधुनिक शस्त्र ना होने के कारण यह युद्ध में हार भी जाते थे।
इनके ऊपर अपराधी जाति का जो तमगा लगा था वह पूर्ण रूप से गलत था क्योंकि ब्रिटेन के 53 उपनिवेशों में कहीं भी इस प्रकार का अधिनियम लागू नहीं था यह केवल भारत में लागू किया गया था जो कि जातिगत आधार पर था और इन्हें अपराधी मान लिया गया था अंग्रेजी सरकार ने व्यापारियों, शिल्पकारो (जो बहुत ही छोटे स्तर पर ग्रामीण स्तर पर अपनी आर्थिक क्रियाएं करते थे) को एक अपराधी जाति के रूप में घोषित कर दिया था ये ऐसी जातियां थी जिनको स्थान बदलते ही पास के पुलिस थाने में सूचना देनी पड़ती थी।
उस समय की एक चर्चित बात यह थी कि झारखंड की जो आदिवासी तथा अपराधी जातियां थी। जिनमें प्रमुख रूप से संथाल, औरान, हो एवं मुंडा इत्यादि आते थे इनको जबरदस्ती आसाम के चाय बागानों में ले जाया जाता था तथा यह लालच दिया जाता था, कि ये अपराधी जनजाति अधिनियम से बाहर रखे जाएंगे तथा इनको कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता होगी लेकिन वहां ले जाकर इनको ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया जाता था तथा कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं होती थी।
अपराधी जातियों से अंग्रेजों का ज्यादा से ज्यादा उद्देश्य आर्थिक लाभ लेना था क्योंकि वह इन्हें एक तुच्छ जाति समझते थे। अपराधी जातियों को अंग्रेज जबरदस्ती खदानों में पत्थर तथा कोयला खुदवाते थे तथा कठिन से कठिन कार्य करवाते थे। जो कार्य सामान्यतः लोग नहीं कर पाते थे जगह जगह चाय के बागानों में इनको ले जाया जाता था इसके इतर जो अंग्रेजी उद्योग एवं फैक्ट्रीया थी। उनमें इनको लगाया जाता था तथा बहुत ही बेरहमी से जानवरों कि तरह कार्य कराया जाता था इनको वहां ले जाकर यह लालच दिया जाता था कि इन्हें इस अधिनियम से मुक्त रखा जाएगा लेकिन वहां इनका धर्म परिवर्तन कर दिया जाता था।
यह अपराधी जनजातियां प्रमुख रूप से तीन प्रकार की होती थी जिनमें शिकारी, चरवाहे तथा छोटे व्यापारी होते थे। 1871 के अपराधी जनजाति अधिनियम के लागू होने के बाद में इनको अपराधी जाति का दर्जा दिया गया जिसके तहत यह जहां होते थे। उस स्थान की स्थानीय पुलिस पहले प्रारंभिक जांच करती थी उसके बाद दूसरे स्तर पर वहां के सुपरिंटेंडेंट ऑफ़ पुलिस द्वारा इसकी जांच की जाती थी। उसके बाद में जिला न्यायाधीश इस जांच को आगे बढ़ाता है तथा यह जांच फिर डीआईजी के पास जाती थी अंतिम रूप से इस पर संभागीय आयुक्त का हस्ताक्षर होता था। इस अधिनियम के तहत पंजीकरण कराने के बाद में कोई भी जाति यदि लंबे समय से आपराधिक कार्यवाही में नहीं है, तो वह इस पंजीकरण अधिनियम से अपने आप को बाहर निकालने के लिए प्रार्थना पत्र दे सकती थी।
सरकार की अपराधी जातियों के बारे में दो मान्यताएं थी, पहली यह कि कुछ जनजातियां ऐसी हैं जो जाति या जन्म से अपराधी हैं और वंशानुगत अपराधी हैं और दूसरे वह थे जो बाद में अपराधी बन जाते हैं। ‘हैकरवाल’ नाम के एक विद्वान हुए हैं उनके अनुसार, अपराधी चार प्रकार के होते थे जिनमें पहला अपरिवर्तनीय अपराधी दूसरा अभ्यस्त अपराधी तीसरा आकस्मिक अपराधी और चौथे क्रिमिनल ट्राइब यानी कि जरायम पेशा अपराधी होते थे। अपरिवर्तनीय अपराधी वह होते थे जो जानबूझकर अपराध करते थे और समृद्ध होने के बाद में वह लोगों को रोजगार के रूप में अपने गैंग में रखते थे तथा उनसे अपराध करवाते थे यह अपराध के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे तथा अपना पेशा बाद में छोड़ देते थे। आकस्मिक अपराधी वे होते थे जिनका कार्य चोरी डकैती करना था ये वंशानुगत नहीं होते थे छोटी मोटी चोरी कर लिया करते थे जरायमपेशा जनजाति एक समुदाय के रूप में रहते थे कानून के तहत इनको रख दिया गया था। जिस व्यक्ति को अपराधी मान लिया जाता उसे जबरदस्ती अपराधी बना दिया जाता था एवं अपराधी होने के लिए बाध्य भी किया जाता था। सदरलैंड नामक समाजशास्त्री के अनुसार पहले अपराधी वे थे जो आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे जबकि दूसरे अपराधी वह थे जो आर्थिक रूप से मजबूत थे लेकिन यह उनका पेशा था।
शेर सिंह के अनुसार, यह जातियां पहली बार 1773 में नजर आती है तथा 1861 में इन्हें अपराधी मान लिया जाता है। भारत में ये विभिन्न स्थानों पर विभिन्न नामों से जानी जाती हैं जिस समय भारत में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लाया जाता है। उस समय लगभग 130 प्रकार की जातियां होते हैं 1911 में पहली बार जब अलग-अलग रूप से इनका वर्गीकरण किया जाता है तो इन्हें सामान्य समुदाय से अलग कर दिया जाता है। जबकि इनमें कुछ ऐसी भी जातियां थी जो काली की उपासक थी तथा हिंदू रीति-रिवाजों का अनुसरण करती थी।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री घियरे, इन जातियों को ‘पिछड़े हिंदू’ की संज्ञा दी है।
1911 में इन्हें हिंदुओं से अलग एक समुदाय बना दिया गया तथा इन्हें एक अपराधी जाति की श्रेणी में रख दिया गया। ‘ग्रीनेल महोदय’ के अनुसार अपराधी जनजातियां दो प्रकार की थी जिनमें पहली स्थाई दूसरी घुमक्कड़, जो स्थाई अपराधी जनजातियां थी यह चोर होते थे तथा जहां रहते थे वहां से दूर चोरी डकैती करने जाते थे। जबकि घुमक्कड़ अपराधी जनजातियां जगह जगह पर जाती रहती थी तथा वहां पर थोड़ा बहुत चोरी लूट करती थी जिनके पूर्वज अपराधी होते थे उनको प्रायः अपराधी मान लिया जाता था। जैसे जो पहले व्यापारी थे उनको व्यापारी माना जाता था जो चार-पांच सदी से व्यापार कर रहे हो उसी प्रकार इन अपराधियों को अपराधी मान लिया गया। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के अंतर्गत आने के बाद इन जातियों का बहुत ही ज्यादा शोषण हुआ।1932 ईस्वी में ब्रिटिश अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल जॉर्ज मैकमून ने अपनी पुस्तक ‘द अंडरवर्ल्ड ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि, ये असभ्य जानवरों की तरह दिखने वाले लोग समाज की गंदगी तथा चर रहे पशुओं के समान है।
मैक्मून साहब दरअसल जिसकी बात कर रहे हैं वह कुख्यात अपराधी अधिनियम में पंजीकृत लोग हैं 1871 के अपराधी जनजाति अधिनियम में बहुत सारे संशोधन हो चुके हैं परंतु आज भी पुलिस की नजरों में यह सभ्य नहीं है। बंजारा एक घुमंतु समुदाय था जो प्रमुख रूप से राजस्थान, उत्तर पश्चिमी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश एवं पूर्वी सिंध में घूम-घूम कर अपना जीवन व्यतीत करते थे। तथा अपने आप को राजपूतों का पूर्वज मानते थे आज भी उत्तर भारत में आसानी से देखे जाते है और इनकी स्थिति वैसी की वैसी बनी हुई है।
भारत की आजादी के पहले इन जनजातियों को समाज से अलग रखने के लिए सरकार ने 50 से ज्यादा ऐसे संरक्षित क्षेत्र बनाएं जिनके चारों तरफ ऊंची ऊंची दीवारें होती थी। और उन्हें उसमें कैदियों की भांति रखा जाता था तथा किसी प्रकार का अधिकार नहीं दिया गया जब भारत को आजादी मिली तो सबसे पहले 1949 में अनंत सयनम अयंगर के कहने पर एक समिति बैठाई गई। जिसके बाद 1952 में इनको इस एक्ट से मुक्त कर दिया गया तथा अब यह एक विमुक्त जाति के रूप में भारत में रहने लगी। फिर भी इसके ऊपर एक धब्बा लगा हुआ था। 1992 एल्बम मुक्त समुदायों में प्रमुख रूप से बहेलिया पारदी कंजर कुछ बंधिया निषाद कालबेलिया इत्यादि जनजातियां थी जो सड़कों पर या शहरों के किनारे झोपड़पट्टी में रहकर कुछ कलात्मक कार्य करके अपने जीवन का गुजारा करते थे तथा इनका कोई स्थाई निवास नहीं होता था। ये अपना सारा सामान अपने ऊपर ही लड़कर एक जगह से दूसरे स्थान पर आते जाते रहते हैं। अंग्रेजों के आने के बाद में इन जनजातीय महिलाओं ने वेश्यावृत्ति का रास्ता अपना लिया था जो आज भी उसी प्रकार चलता है।
निष्कर्ष:
आजादी के बाद भी इन जातियों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया, लगातार इनके सुधार हेतु समितियां तो बनती रही पर इनकी स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हो पाया। हालात यह है कि आप कितनी भी पत्रिकाएं पढ़ेंगे लेकिन इनका सही आंकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है। किसी में इनकी जनसंख्या 6 करोड़ है कहीं 10 करोड़ है कहीं 1%, कहीं 20 करोड़ है कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है देश को आजाद हुए 75 साल हो गए परंतु इनकी स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहींं हुआ है।
अभी हाल ही में पूरे भारत में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया लेकिन इन जनजातियों की कोई चर्चा नहीं, ये आज भी परिधि के बाहर ही है। प्रश्न ये उठता है कि क्या इनका कोई हीरो नहीं या इनकी इस देश की आजादी में कोई भूमिका नहीं।
आज भी इनकी बस्तियाँ जला दी जाती हैं। लोगों के मन में इनके लिए अभी भी एक भेदभाव बना हुआ है यदि बंजारा, कालबेलिया, कंजर कुछबंधिया समुदाय की बात करें तो आजादी के पहले से ही इनके घर की महिलाएं वेश्यावृत्ति में संलग्न थी। आजादी के 75 वर्ष गुजर चुके हैं परंतु देश में उनको अपना जीवन यापन करने के लिए आज भी वेश्यावृत्ति का सहारा लेना पड़ता है खासकर कंजर समुदाय के पुरुष काम करने में बड़े आलसी होते हैं तथा महिलाएं घर का खर्चा चलाने के लिए वेश्यावृत्ति जैसे धंधे को अपना लेती हैं। आज देश को आजाद हुए कितने साल हो गए हैं परंतु यह पेट पालने के लिए महिलाओं को देह व्यापार करना पड़ा है। आज भी आजादी के 75 साल हो चुके हैं लेकिन सड़कों पर महिलाएं विशेषकर कालबेलिया समुदाय की महिलाएं छोटे-छोटे कार्य मनोरंजन आदि के द्वारा जीवनयापन कर रही है। इनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है जैसी स्थिति उनकी आजादी के पहले थी वैसी ही स्थिति बनी हुई।आज भी कुछ जनजातियों में बेड़िया प्रथा का प्रचलन है जिसमें महिलाएं इस प्रथा में मजबूरी बस बंध जाती हैं जिसका प्रमुख कार्य वेश्यावृत्ति है। ऐसे ही राजस्थान की जनजातियां है जिनमें बुआ और भौजी का एक सिद्धांत है जिसमें स्त्री के मातृसत्तात्मक सत्ता के केंद्र में तो होती है। लेकिन उसके कार्य देह व्यापार के लिए होते हैं ना कि राज्य की सत्ता चलाने के लिए शहरों में या गांव में कुछ महिलाएं शराब बनाने के कार्य में अपने पति का सहयोग करती है बाद में विमुक्त घुमंतू तथा अर्ध घुमक्कड़ जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया गया। जिसके द्वारा आजादी के बाद इनको अनुसूचित जनजाति में रखा गया है तथा 2008 में रेनके आयोग की रिपोर्ट के अनुसार यह दुखद है कि, आजादी के इतने साल बाद भी इन समुदायों की स्थिति में कोई बेहतर सुधार नहीं हुआ है तथा पिछले अपराधों के या अधिनियम के कारण आज भी इनको उसके परिणाम भुगतने पड़ रहे है।
संदर्भ सूची
- अर्नोल्ड, डेविड, क्राइम एंड क्राइम कंट्रोल इन मद्रास, क्राइम एंड क्रिमिनलिटी इन इंडिया, यूनिवर्सिटी आफ एरिज़ोना, प्रेस।
- शेर, सिंह, 1965, द सेंसिस ऑफ़ पंजाब, मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली।
- हरबर्ट, रिशेले, 1908, द पीपल आफ इंडिया, थेकर, स्प्रिंग एंड कंपनी, कोलकाता।
- थ्रस्टन एंड एडगर, कास्ट एंड ट्राइब आफ साउदर्न इंडिया, मद्रास यूनवर्सिटी प्रैस।
- आर सी वर्मा, इंडियन ट्राइब्स थ्रू द एजेस, 2011, मिनिस्ट्री ऑफ इंफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग।
- राधा कृष्ण, मीणा, डिसंअनरेड बाय क्रिमिनल ट्राइब एंड ब्रिटिश कोलोनियल पॉलिसी, ओरिएंट लोंगमन, 2003, चंडीगढ़।
लेख
- Piliavsky, Anastasia, The Criminal Tribe in India Befor The British,
- मिश्रा, सौरभ, क्रिमिनल ट्राइब्स इन इंडिया, अकादमियां।
हिंदी कथा
- मोरवाल, भगवानदास, रेत, 2008, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
रिपोर्ट:
- रेंके आयोग, प्रेस सूचना ब्यूरो, 23-अप्रैल-2015 15:23 IST, भारत सरकार, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय।
वेबसाइट:
- Www.jstor.com
- Www.researchgate.com