महिला मानवाधिकारों के पुरोधा डॉ.आंबेडकर
डॉ. चित्रलेखा अंशु असिस्टेंट प्रोफेसर महिला अध्ययन, मिथिला वि वि, बिहार
कुछ यक्ष प्रश्नों के उत्तर कभी दिए नहीं जाते और यदि उत्तर मिल भी गया हो तो व्यवस्था ऐसा दिखावा करती है कि उसे कुछ मालूम ही नहीं। यह बात महिला आरक्षण के संदर्भ में कहा गया है। क्योंकि आज भी महिला आरक्षण का प्रश्न यक्ष प्रश्न बनकर निरुत्तर है। हम पिछले कई वर्षों से महिला मुक्ति की संकल्पना देखते और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। लेकिन ऐसे क्या कारण हैं कि महिलाओं की प्रस्थिति रिपोर्ट के तीन दशकों के बीत जाने के बाद भी राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से महिलाओं के पिछड़ेपन का कोई एक निश्चित कारण या उसका निदान हमें नहीं मिल पा रहा या फिर हम उसे ढूँढना नहीं चाह रहे। आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन से लड़ने के लिए सरकारी महकमों के प्रयासों के बावजूद राजनीतिक और सामाजिक पिछड़ापन महिलाओं को वैश्विक स्तर तक पिछड़ेपन की श्रेणी में लेकर पटक दे रहा है। महिलाएँ जिस वजूद से सियासी दाव-पेंच को सीखने की कोशिश करके आगे बढ़ाना चाहती हैं वैसे ही शासन और निर्देशन का सवाल पैदा हो जाता है। क्योंकि आज भी हमारे देश में यह माना जाता है कि महिलाएँ किसी भी संस्था और परिवार की मुखिया नहीं हो सकतीं फिर राजनीति में शासन तंत्र तक पहुँचने की बात हम सोच भी नहीं सकते।
सामाजिक और राजनीतिक रूप से महिलाओं का पिछड़ापन तथा भेदभाव केवल भारत में है ऐसी बात नहीं। तमाम विकसित देशों में पितृसत्तात्मक सवाल महिलाओं का पीछा दशकों दशक से करते आयें हैं और करते रहेंगे। इसका कारण महिलाओं के प्रति आज भी ‘ब्रेडविनर’ का पारंपरिक सवाल कई देशों में काम कर रहा है। अमेरिका जैसे देश में फर्स्ट अर्नर के सवाल तो बदले हैं पर व्यवस्था नहीं। इसका उदाहरण हम अभी हाल में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देख सकते हैं कि हिलेरी जैसी राजनीतिक सुदृढ़ महिला के होने के बावजूद वहाँ की विकसित बुद्धि वाली जनता डोनाल्ड ट्रम्प जैसे गैरराजनीतिक और नौसिखिया राष्ट्रपति को चुनती है। इस सोच के पीछे राजनीतिक कारण जो भी रहें हों पर किसी देश के नेतृत्व का सवाल एक पुरुष के पक्ष में जाकर समाप्त हो जाता है और परंपरा की जीत भी हो जाती है। अमरीका वही देश है जहाँ नारीवाद की कई शाखाओं ने अपनी शुरुआत से दशकों तक बराबरी का संघर्ष किया है पर परिणाम नदारद हैं।
बहरहाल भारत में महिलाओं के अधिकार के लिए सामाजिक आंदोलन तो चले ही और बहुत हद तक कामयाब भी रहे। इसके साथ ही उनके अधिकारों की लड़ाई को आंबेडकर ने संविधान में हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया है क्योंकि बिना कानूनी अधिकारों के कोई भी लड़ाई लड़ना और जीतना आसान नहीं होता। हम सभी जानते हैं कि स्त्रियों के लिए हिन्दू कोड बिल पास करवाने के लिए आंबेडकर को क्या नहीं सहना और क्या नहीं झेलना पड़ा था। उनकी चिंता महिलाओं के लिए स्वाभाविक ही थी क्योंकि स्त्री और शूद्रों की परिस्थिति समाज में एक जैसी थी। और यदि समाज में दोनों की परिस्थिति एक जैसी है तो उसका निदान भी एक जैसा ही होना चाहिए था।
भारत के परिप्रेक्ष्य में महिला अधिकारों के प्रश्न कई स्तरों पर चलते हैं किन्तु सबका विलय महिला मुक्ति और समानता जैसे विचारों पर आकर मिल जाते हैं। यह साफ करना इसलिए आवश्यक है कि मार्ग चाहे जो भी हों पर पहुँचना सभी को एक ही मंजिल पर है। मेरी नजर में आंबेडकर इसलिए एक विशाल हृदय के नेता थे क्योंकि उन्होने हिन्दू कोड बिल बनाते वक्त इस तरह के कोई निर्देश नहीं दिए कि इसमें किस जाति या किस वर्ग की महिलाओं के अधिकारों की बात की जा रही है। उनकी दृष्टि में स्त्रियों का शोषण हर जाति, धर्म और वर्गों में होता है इसलिए उन्होने सावयवी रूप से कहीं भी अधिकारों को खंड-खंड में बाँटने की बात नहीं कही। हम सभी लोग परिवार और जाति में जेण्डर के सवालों से परिचित हैं कि स्त्रियाँ भले ही किसी भी जाति और वर्ग की हों पर जब उनकी तुलना उनके ही घरों में मर्द के साथ की जाती है तो उन्हें दोयम दर्जा मिलता है। उन्हें प्राथमिक दर्जा इसलिए नहीं मिलता कि वे सवर्ण या महिला हैं। दलित महिलाओं के तृ-स्तरीय शोषण की बात तो है ही। इसीलिए जब आज के संदर्भों में भी हम स्त्रियों की बात करते हैं तो उन्हें हम जाति और वर्गों की नजर से देखते हैं। बराबरी के प्रश्नों को पाटने के लिए महिला आरक्षण सभी जाति, वर्ग तथा धर्मों की महिलाओं को मिलना चाहिए। क्योंकि जिन महिलाओं के प्रतिनिधित्व को किसी जाति विशेष में देखते हुए हम स्तरों में बाँट देते हैं वहीं इसके विरोध में पितृसत्ता अपनी जाति और वर्ग को भूलकर महिला आरक्षण के विरोध में एक हो जाती हैं। और हम महिलाएँ अपने ही अधिकारों को जाति और वर्ग के आधार पर बाँटने के लिए एक दूसरे के सामने आ जाते हैं। शायद यही कारण रहा है कि महिला आरक्षण विधेयक 1994 से संसद में ठंडेबस्ते में पड़ी है।
महिला चेतना का निर्माण और आंबेडकर
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक कई महिला संगठनों की उत्पत्ति हो चुकी थी। ‘‘इन संगठनों ने सामाजिक सुधारों के साथ-साथ मत देने का अधिकार भी मांगा। 1929 में, बाल विवाह पर रोक कानून को पास करवाने के बाद ये संगठन तलाक, उत्तराधिकार तथा संपत्ति के अधिकार के मामले उठाने लगे। 1934 में, ऑल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस ने हिंदूकोड का प्रस्ताव पास किया। सन् 1937 में हिंदू वीमेंस राइट टू प्रॉपर्टी कानून पास हुआ। सन् 1934 से 1951 तक हिंदू कोड पर बहस चलती रही। अत्यधिक विरोध के कारण नेहरु को कानून बनाने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी। प्रथम चुनाव में भारी जीत के बाद सन् 1955 में हिंदू विवाह कानून, सन् 1956 में हिंदू उत्तराधिकार कानून हिंदू अल्पव्यस्क और संरक्षण कानून तथा हिंदू गोद लेने तथा पालने का कानून बना।’’[1] महिलाओं के स्वायत्त संगठन तथा डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के प्रयास से महिला मानवाधिकार के प्रथम अध्याय की भारत में ‘हिंदू कोड बिल’ के रूप में शुरूआत हो चुकी थी। इसी आलोक में रेखा कस्तवार लिखती हैं कि, ‘‘स्त्रीवादी आंदोलनों की सशक्त पृष्ठभूमि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तैयार हो चुकी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में पुरुषों द्वारा स्त्रियों की स्थिति में सुधार से शुरू(जिसे शुरूआती तौर पर ब्रिटिश आकाओं की प्रसन्नता के लिए स्वीकारा गया था)आंदोलन बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में समानता के अधिकारों द्वारा स्त्री को समाज का उपयोगी सदस्य बनाने से होता हुआ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वनिर्णय के अधिकार तक विस्तृत हुआ।’’[2]
महिला तथा मानव अधिकार के अंतर्गत स्त्री की चेतना जागृति का उद्देश्य बीसवीं सदी में पुष्ट होने लगा था। वर्ना उनकी स्वयं के बारे में कोई दृष्टि पैदा नहीं हुई थी। बीच-बीच में अधिकारों की मांगें उठ रही थीं किंतु उसे अधिक तवज्जों नहीं दिया जा रहा था। कारण यह था कि कुछ चुनिंदा महिलाएं ही उस संकीर्ण पितृसत्तात्मक समाज में अपने अधिकारों की मांग कर रही थीं। बाकी का पूरा का पूरा समाज अभी भी वैचारिक रूप से कुंद था। स्त्रियों को पुरूषों द्वारा दिखाई गई अपनी ‘माता, पत्नी तथा बहन की अच्छी तथा घरेलू छवि तक सीमित थी। जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों ने तथा स्वतंत्रता के समय गांधी ने पुष्ट किया था। इस परिप्रेक्ष्य में राधा कुमार लिखती हैं कि, ‘‘भारतीय नारी के आत्मबलिदानी स्वभाव के बारे में गांधी की संस्तुति कोई मौलिक नहीं थी क्योंकि उसकी प्रशंसा पहले ही समाज सुधारकों तथा पुनरूत्थानवादियों द्वारा की जा चुकी थी। वस्तुतः उन्होंने नारी स्वभाव का पुनर्रूपण ही किया। समाज सुधारकों ने जहाँ स्त्री की आत्मबलिदानी प्रकृति को सांस्कृतिक दबावों के चलते कष्टप्रद रूप में देखा वहीं पुनरूत्थानवादियों ने महिलाओं के संस्कारात्मक बलिदान को हिंदू स्त्री के गौरव की संज्ञा दी, परंतु गांधी ने स्त्री के आत्मबलिदानी स्वभाव को हिंदू संस्कारों के इतर माँ के रूप में भारतीय स्त्रीत्व के विशेष गुणों को परिभाषित किया। गांधी की दृष्टि में स्त्रियों द्वारा शांति और अहिंसा के प्रसार के लिए उनकी गर्भधारण एवं मातृत्व का अनुभव ही विशेष योग्यता है। अगर वे प्रसव की वेदना सह सकती हैं तो वे कुछ भी सह सकती हैं, कोई भी कष्ट उठा सकती हैं।’’[3]
राधा कुमार की इस टिप्पणी से यह स्पष्ट होता है कि स्त्री की परंपरागत छवि को बनाए रखना समाज में न केवल उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखेगा बल्कि इससे उनकी खुद के बारे में नारीवादी दृष्टि का विकास कभी नहीं हो पाएगा। स्त्रियों को रूढ़ि तथा संस्कार की बेड़ियों में जकडे़ रहने के कारण पितृसत्ता उसका शोषण अनवात जारी रखेगी। स्त्रियों को मानवाधिकार की प्राप्ति तभी हो सकेगी जब घरेलू जीवन के परंपरागत बोझ से बाहर निकालकर वह स्त्री मुक्ति के नए आयामों को देख सकेंगी।
उपनिवेशिक काल में स्त्री अधिकारों की चेतना नारीवाद की पहली पीढ़ी की महिलाओं के मस्तिष्क में उभरी। जिसमें पंडिता रमाबाई तथा सावित्री बाई फुले के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जाति प्रथा विरोधी तथा स्त्री शिक्षा की समर्थक इन महिलाओं ने उस बंद समाज में शिक्षा की अलख जलाकर समाज को रोशनी दिखाने की चेष्टा की। तद्पश्चात दूसरी पीढ़ी के रूप में कमलादेवी चटोपाध्याय, मार्गेट कजिंस, भीकाजी कामा, सरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट आदि का नाम आता है। जिन्होंने स्त्री शिक्षा, महिलाओं के वोट का अधिकार तथा राजनीति में महिलाओं की भी सक्रिय भूमिका की बात छेड़ी। इसके साथ ही राजनीति में पुरुषवादी वर्चस्व को तोड़ने का भी काम किया जब कांग्रेस के चुनाव में ‘‘श्रीमती बेसेंट को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनी।’’[4]
आशा शुक्ल तथा कुसुम त्रिपाठी अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि, ‘‘हमारे इतिहास की किताबों में सरोजनी नायडू, ऐनी बेसेंट, अरूणा आसफ अली और उषा मेहता जैसी महिलाओं के योगदान का उल्लेखनीय विवरण है, लेकिन ऐसी हजारों अनजानी, अनसुनी महिलाऐं हैं जो अनेकों निषेधों व अवरोधों को पार कर सड़कों पर उमड़ पड़ी थीं। उन्होंने उपने को समूह में संगठित किया था, वे देशभक्ति गीत गाते हुए प्रभात फेरी निकालती थीं, प्रचारात्मक कार्यक्रम संचालित करती थीं तथा विदेशी शराब व विदेशी कपडे़ बेचने वाली दुकानों का घेराव करती थीं। वे उदारता के साथ कांग्रेस को कपड़े और गहने दान करती थीं। वे घरों में खादी बुनती थीं, इसके उपयोग के लिए प्रचार करती थीं एवं पुलिस आक्रमण तथा कैद को भी झेलती थीं।’’[5] विश्व का इतिहास इन अनदेखी, अनजानी महिलाओं के अविस्मरणीय योगदान को हमेशा याद रखेगा। उन महिलाओं के प्रति मैं अपने शोध के द्वारा आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने अनजाने में ही सही सिद्धांतों के परे जाकर व्यावहारिक जीवन में अपने अधिकारों के प्रति संगठित तथा जागरूक हुई भले ही वह पूरे भारत की स्वतंत्रता की कामना थीं। यह एक मानवतावादी विचार है जिसमें मनुष्य सभी की मुक्ति की बात करता है।
महिला अधिकारों की मांग के लिए उन्नीसवीं सदी के समाज-सुधार आन्दोलन की उदारवादी धारा से अपनी ‘आल इंडिया वुमन कमिटी’, (जिसका गठन 1927 में हुआ था), का बहुत बड़ा योगदान है। ‘‘1945 तक ए.आई. डब्ल्यू. सी ने ‘भारतीय महिलाओं के अधिकार का घोषणापत्र’ सूत्रबद्ध किया, जिसे निजी कानून में सुधार के लिए महिलाओं के लिए समान विरासत अधिकार, एक पत्नी प्रथा, तलाक का अधिकार, विवाह के लिए वर-वधू दोनों की सहमति, अंतरजातीय व अर्न्तविश्वासी विवाह और बच्चों पर समान अभिभावकत्व का अधिकार, जैसी सलाहों के द्वारा ठोस बनाया गया था।’’[6] आगे चलकर ‘हिंदू कोड बिल’ के रूप में ये सारे महिला अधिकार उसमें शामिल हुए जिसे अंबेडकर के द्वारा मौलिक बनाकर संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया। तमाम कट्टरपंथी ताकतों तथा पुनरूत्थानवादियों के विरोध के बावजूद यह बिल अंततः महिला अधिकारों के हित में पूर्णतः तो नहीं किंतु अंशतः पारित हुआ। ‘‘जो चार कानून बनाए गए थे वे क्रमशः हिंदू उत्तराधिकार कानून। हिंदू अल्पवयस्कता एवं अभिभावकत्व कानून तथा हिंदू गोद एवं गुजारा कानून के रूप में जाने गए।’’[7] इन कानूनों के पारित होने से स्त्री के मूलभूत अधिकारों में वृद्धि अवश्य हुई। जिससे महिलाएं कानूनी रूप से संपत्ति, अभिभावकत्व, गोद तथा विवाह व्यस्क होने पर कर सकती थीं।
स्वतंत्रता के पश्चात उभरे जमीन, कृषि तथा मिल्कियत से उभरे श्रमिकों के बीच असंतोष ने उन्हें संगठित होने का मौका दिया। उस समय चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हो चुकी थी। जिसका भारत के कम्युनिस्ट विचारकों पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा था। फलस्वरूप श्रमिक, खेतिहर तथा किसान कम्युनिस्टों के नेतृत्व में रैलियां, हड़तालों तथा प्रदर्शन जमींदारों तथा सरकार की वादा खिलाफी के विरोध में होने लगी थी। महिला आंदोलन स्वायत्त रूप से अपने पंख विभिन्न मुद्दों के बरक्स फैलाने लगा था जिसमें दहेज का विरोध, मूल्य वृद्धि का विरोध, बलात्कार विरोध, पर्यावरण आंदोलन, पर्यावरण आंदोलन, गर्भपात के अधिकार, कन्या भ्रूण हत्या आदि का विरोध शामिल हैं। समाज के कुछ जागरूक पुरुष वर्ग के द्वारा महिला आंदोलन तथा उनकी मांगों से संबंधित कानूनों को बनाने की वकालत भी की गई तथा कानून बनाए भी गए। किन्तु वह समाज में कितनी सख़्ती से लागू हुए यह हम सभी को पता है।
वर्तमान स्थिति
बीच-बीच में इन बातों पर भी ध्यान दिया जाता रहा कि महिलाओं की समस्याओं को महिलाओं के नजरिए से देखा जाना चाहिए। साथ ही महिलाओं को भी यह हक हो कि वे अपने अधिकारों पर ठोस निर्णय या तो स्वयं लें या सशक्त कानून बनाने की सिफारिश कर सकें। यह दौर महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक भागीदारी का भी था क्योंकि उनके पैरों को हिन्दू कोड बिल बनाकर डॉ. आंबेडकर के द्वारा मजबूत किया जा चुका था। महिलाओं ने चारों ओर से महिला अधिकारों की चेतना को बल देने की ठानी जिसमें अकादमिक रूप से सशक्त बनना, योजनाओं और जागरूकता क माध्यम से उन्हें सशक्त बनाना शामिल था। महिलाअध्ययन विभागों के द्वारा अकादमिक रूप से मजबूती मिल रही थी किंतु एक स्थान अभी भी पूरी तरह से भरा नहीं गया था। वह था महिलाओं का राजनीति में प्रवेश। राजनीतिक सशक्तिकरण की बात पर बल दिया जाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि महिलाओं ने लगभग सभी क्षेत्रों में मजबूत स्थिति बनाने की शुरुआत कर दी है। पिछले कई दशकों से वैश्विक तथा राष्ट्रीय राजनीति में माहिलाओं की बेदख़ली कहीं न कहीं महिला अधिकारों के रास्ते में काँटे की तरह है जिसे 1994 में महिला आरक्षण विधेयक के रूप में वर्ष 2017 तक मसलन 20 वर्षों तक दबाकर रखा गया है। कभी इसे जातीय राजनीति के कारण रोकना पड़ा, कभी पुरुषवादी चिंताओं के कारण तो कभी तरह तरह के पूर्वाग्रहों के कारण कि महिला आरक्षण के आ जाने से पुरुषों का स्थान छीन लिया जाएगा। महिला आरक्षण का विरोध वर्तमान में दिल्ली की सड़कों से उत्तर-पूर्व के वैस राज्यों तक फ़ैल गया है जिन राज्यों को हम जेण्डर समान राज्य के रूप में चिन्हित करते थे। नागालैंड के एक नेता ने कहा कि ‘राजनीति में महिला आरक्षण भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा’[8] तमाम मीडिया मोगल के द्वारा फैलाया गया प्रोपेगेंडा हो कि महिला आरक्षण से कहीं ‘परिवारवाद’ को ही बढ़ावा न मिले’[9]। इन तरह-तरह की भ्रामक अफवाहों के कारण महिला आरक्षण को कानून बनाकर मजबूत करने में एक और बढ़ा सामने आ खड़ी होती है।
हम सभी जानते हैं कि भारत में महिलाओं को आधी आबादी का दर्जा प्राप्त है अर्थात पूरी जनसंख्या का आधा भाग हैं। ऐसी स्थिति में सभी वैसे स्थानों पर जो महिला और पुरुषों को बराबरी के आधार पर मिलनी चाहिए, उसमें हमारा कुछ प्रतिशत तो इसी नाते होना चाहिए कि हम भी भारत के लोकतंत्र में निर्णायक महत्व रखते हैं। सभी आँकड़े पुष्ट करते हैं कि राजनीति, शिक्षा, रोजगार आदि के क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति क्या है। हमारे ऊपर अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी है कि देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार हो। साथ ही महिलाएँ स्वयं ये महसूस कर रही हैं कि समानता के अधिकार में उनका हक है फिर भी महिला आरक्षण जैसे मुद्दे को जातीय-पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों की भेंट चढ़ा दी जाती है। समस्या तो तब पैदा होती है कि जातीय आरक्षण के आधार पर महिला आरक्षण भी हो जिससे महिला के सामने पुरुषवादी समाज एक महिला को खड़ा कर देता है। हमें हर हालत में सवर्ण महिला और दलित महिला की सोच से निकालना होगा वर्ना हम इसी तरह से मुद्दों से भटका दिए जायेंगे। यह सच है कि महिलाओं में भी शोषण के स्तर अलग-अलग जातियों में अलग-अलग होते हैं किन्तु हर महिला अपनी ही जाति में कहीं अधिक तो कहीं कम शोषित जरूर है। वैसे भी महिला आंदोलन वर्तमान में इतने खंडों में बंट चुका है कि पितृसत्तात्मक ताकतों को और भी मजबूती मिली है। और हमारी पूर्वाग्रह बाहरी मानसिकता कहीं यह मौका भी न खो दे क्योंकि किसी भी जाति और वर्ग की महिला का राजनीति में नेतृत्व का प्रतिशत आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर पाने में सक्षम नहीं है।
यही वजहें हैं कि डॉ. भीम राव आंबेडकर की कमी इस परिप्रेक्ष्य में बहुत खलती है जब उन्होंने हिन्दू कोड बिल बनाते वक्त सभी स्त्रियों के लिए सोचा था। उसे जाति और वर्ग में खंड-खंड नहीं किया था। क्योंकि वह महिला शोषण के केंद्र को अच्छी तरह से जानते थे कि परिवार में महिलाओं का द्वितीयक स्थिति में होना ही सबसे बड़ी समस्या है। जहाँ आज भी महिलाएँ नागरिकता के प्राथमिक पैरामीटर में नीचे हैं, आज तक वे घर की प्रमुख आय उपार्जक नहीं बन पाईं है, आज भी वे पुरुषों की पहचान को अपनी पहचान बनाकर घूमती हैं। वैवाहिक प्रतीकों को आज भी वही ढोती हैं, बलत्कृत हैं, दहेज की बली चढ़ रही हैं, कन्या समझकर मार दी जा रही हैं, एसिड डालकर पुरुषवाद की हीनग्रंथी का शिकार आज भी हैं। और दुख इस बात का है कि इसका स्तर समाज में गहरा होता जा रहा है और हम सभी महिलाएँ एक-दूसरे को समर्थन देने की जगह एक-दूसरे में उलझे हुए हैं। यहाँ पर पाकिस्तान का उदाहरण देना चाहूंगी जिस देश को हम महिला हिंसा के क्षेत्र में अग्रणी समझते हैं वहाँ ‘एसिड हमला’[10] पर 2012 में ही कानून बनाया जा चुका है। और उसपर कानून बनानेवाली सभी राजनीतिज्ञ महिलाएँ हैं जिन्होंने महिलाओं को मानव की नजर से पहले और दलित-सवर्ण के नजरिए से बाद में देखा। उनकी नजर में स्त्री हिंसा दलित और सवर्ण होने के कारण बाद में पुरुषों की ‘हीन ग्रंथी’ के कारण पहले होता है। यदि भारत में भी महिलाओं का राजनीति में प्रभुत्व बढ़ेगा तो सकारात्मक बदलाव ही आएगा। रही बात महिला आरक्षण के मिल जाने से परिवारवाद और भ्रष्टाचार बढ़ने की तो वर्तमान में क्या ये कम हो रहा है!
संदर्भ ग्रंथ:
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- अरोड़ा, सुधा,(2009) आम औरत जिंदा सवाल, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
3.कुमार, राकेश, (2001), नारीवादी विमर्श, आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
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5.नेमा, डॉ. पी.पी. शर्मा, डॉ. के.के., मानवाधिकार सिद्धांत तथा व्यवहार, कालेज बुक डिपो, जयपुर
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समाचार पत्र:
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2.बीबीसी हिन्दी, 17 फरवरी 2017
Documentry
Saving face, 2012, pakistan
- जोशी, गोपा, (2006),भारत में स्त्री असमानता, पृ.-48 ↑
- कस्तवार, रेखा, (2006), स्त्री चिंतन की चुनौतियां, पृ.-99 ↑
- कुमार, राधा(2002), स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ.-174 ↑
- वही, पृ.-108 ↑
- शुक्ला, प्रो. आशा, त्रिपाठी कुसुम, (2004),स्त्री संघर्ष के मुद्दे, पृ.-4 ↑
- वही, पृ.-6 ↑
- कुमार, राधा, (2002), स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ.-202 ↑
- हिन्दुस्तान टाइम्स ई पेपर, 4 फरवरी 2017 ↑
- बीबीसी हिन्दी, 17 फरवरी 2017 ↑
- ‘Saviing face, ducumentry, 2012, Pakistan ↑