अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों में अभिव्यक्त मानवीय मूल्य और उनकी प्रासंगिकता
ताजवर बानो
शोधार्थी, हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
ईमेल-tajverbano30@gmail.com
सारांश
विभाजन एक ऐसी त्रासदी जो रूप बदल कर बार-बार हमारे समक्ष आ खड़ी होती है और सांझा संस्कृति के धागे को क्षीण करती है ऐसे में मानवीय मूल्यों की बात करना आवश्यक हो जाता है.अज्ञेय की कहानियों के केंद्र में रोटी ,कपड़ा और मकान न होकर विभाजन की त्रासदी से क्षीण हुई मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति है .ये कहानियां मानवीय मूल्यों के आग्रह की कहानियां हैं
बीज शब्द: विभाजन, त्रासदी, मानवीय, मूल्य, आधुनिक, भाव, बोध, शरणार्थी, सांझा संस्कृति
शोध आलेख
आज़ादी की सुबह अपने साथ भयावह त्रासदी को लेकर आई. लाखों करोड़ों इंसान अपनी जगह से उखड़ गए कहीं वे शरणार्थी हुए तो कहीं मुहाजिर. विभाजन की घटना ने भारतीय उपमहाद्वीप को हिला कर रख दिया था ऐसे में मानवीय संकट का गहरा जाना स्वभाविक था.इस संकट की गंभीरता की पड़ताल ‘अज्ञेय’ की कविता ‘मानव की आंख’ की इन पंक्तियों से की जा सकती है-
“कोटरों से गिलगिली घृणा यह झांकती है
मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़ दृष्टि
जल-तलवासी-तेंदुए के विष नेत्र हैं”
यद्यपि इस घटना ने लोगों के जीवन को भटका दिया और उनके समक्ष अस्तित्व को बचाने का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न था और भागना तो जैसे जीवन का हिस्सा बन गया था
“भागो, भागो चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ
रुकेंगे तो मरेंगे”
ठीक इसी बात को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ‘श्री कृपलानी’ के शब्दों में कहें तो “डर ये नहीं कि लोग मारे गए हैं या विधवाएं विलाप कर रही हैं या यतीम चिल्ला रहे हैं या बहुत से घर जला दिए गए हैं डर यह कि अगर ये सिलसिला चलता रहा तो हम नरभक्षण की स्थिति में पहुंच जाएंगे.”
ये स्थितियां ऐसी थी कि सांझा संस्कृति की इमारत की नींव को हिला कर रख दिया था. ऐसे समय में जब ‘रुकना’ ‘मरने’ का पर्याय बन गया हो, यतीम चिल्ला रहे हो. शहर और क़स्बों ने छोटे-छोटे भारत और पाकिस्तान की शक्ल इख़्तियार कर ली हो, मुहल्ले हिंदू मुहल्ले और मुस्लिम मुहल्ले में बंट गए हो जिनके अपने बार्डर भी हो, मानवीयता प्रश्नों से घिरी हो तब अगर कोई इंसानियत के दामन को रक्तरंजित होने से बचाने की कोशिश कर रहा तो प्रतीत होता है कि दीपक की लौ काम कर रही है. इसी सन्दर्भ में ‘नरेंद्र मोहन’ अपनी किताब ‘विभाजन की त्रासदी’ में लिखते हैं-
“व्यापक पैमाने पर हो रहे ख़ून ख़राबे और मानव विरोधी कारनामों के बावजूद उन काले दिनों में भी दोनों पक्षों में ऐसे लोग थे जो धरती से, संस्कृति से जुड़े-बंधे महसूस करते रहे थे कि भौगौलिक रूप से सीमाएं निर्धारित होने से दिल नहीं बंट पाते. बंटवारे की विभीषिका को उससे उत्पन्न होने वाले संबंधों तथा मनोवैज्ञानिक ग्रंथियों को सांस्कृतिक धरातल पर मानवीय दृष्टि से देखने वाले ये ही संवेदनशील व्यक्ति थे जिन्होंने संस्कृति को मिटने से बचाने के लिए पूरी तरह प्रयत्न किया.सवाल ये नहीं कि ये प्रयत्न बड़ा है या छोटा महत्व इस बात का है कि ये एक प्रयत्न है- राजनीतिक क्रूरता और निर्ममता, सांप्रदायिकता, घृणा पाखंड और हिंसा तथा सांस्कृतिक पृथकता के सिद्धांत को झुठलाने वाला है.”
विभाजन की इतनी बड़ी घटना जिसने बड़े पैमाने पर लोगों को प्रभावित किया उससे साहित्य भी अछूता ना रह सकता था इस घटना ने भारतीय साहित्य को एक अलग मोड़ दिया. इतिहास, स्मृति, संस्कृति को लेकर सृजन की जो प्रक्रिया उस दौर में शुरू हुई वह अभी तक जारी है. बंटवारे के कारण जो स्थितियां पैदा हुई , उन स्थितियों ने नयी तरह की ग्रंथियों और विकृतियों को जन्म दिया. भारतीय भाषाओं की कहानियों में उन्हें संवेदना, मूल्यों और वैचारिक दृष्टि से देखा गया है. ज़्यादातर कहानियां उस समय के अनुभव पर आधारित है-
“कहीं प्रत्यक्ष अनुभवों से कहानी की सीधी बुनाई की गई है, घटनाओं और प्रसंगो के ब्यौरे दिए गए हैं तथा अंत तक आते-आते उन्हें मानवीय संवेदनाओं के सूत्र में पिरो दिया गया है… कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों द्ष्टियों से विभाजन संबंधी कहानियों ने भारतीय कथा परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप किया है इतिहास बोध को कथा में डालने की शुरुआत इन कहानियों से हुई…
“विभाजन संबंधी कहानियों का अगर ग्राफ़ तैयार करें तो कई बातें प्रकाश में आ सकती है. भारतीय संस्कृति, समाज, भाषा और राजनीति के तेज़ी से बदलते चेहरे की जो झलक इन कहानियों से मिलती है उसका एक पक्ष उजला है तो दूसरा अंधेरा अंधेरे उजले पक्ष साथ ही हैं.कई तरह के उतार-चढ़ावों, कई क़िस्म की असंगतियों-विसंगतियों से यह चेहरा इतना कटा-फटा दिखता है कि पहचानना मुश्किल है.”
‘अज्ञेय’ ने विभाजन से संबंधित कुल छ: कहानियाँ लिखी हैं. जिसमें से पांच कहानियाँ सन् 1947 में लिखी गई और एक कहानी सन्1957 में लिखी गई. इन कहानियों की रचना का समय वह समय है जब देश सांप्रदायिकता और राजनीति की आग में जल रहा था. मानवीय मूल्य राख का ढेर हो गये थे. मनुष्य का मनुष्य से विश्वास उठ गया था. अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों के केंद्र में रोटी, कपड़ा और मकान ना होकर विभाजन की त्रासदी से क्षीण हुई मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति है.
अज्ञेय स्वयं लिखते हैं “ये कहानियाँ भारत विभाजन का विभ्राट और उससे जुड़ी हुई मन:स्थितियों की कहानियां हैं.एक बार फिर ये कहानियाँ आहत मानवीय संवेदना की और मानवीय मूल्यों के आग्रह की कहानियाँ हैं.”
ये कहानियाँ केवल और केवल भावात्मक अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि गहरी चिंता है उन मूल्य, प्रेम और सद्भाव के खो जाने की जो हमारी पहचान है. ये कहानियाँ इंसान को इंसान बनाने का आग्रह हैं. ये कहानियाँ अंधेरे बंद कमरे में रोशनदान से छनकर आती हुई रोशनी की तरह हैं.’अज्ञेय’ लिखते हैं-
“आज का फ़ैशन मूल्यों का अस्तित्व भी मानने का नहीं है पर मेरी समझ में यह कहना कि आज हम संपूर्णतः मूल्य विरहित समाज में जीते हैं उतना ही बड़ा पाखंड है जितना यह मानना कि समाज में सब शाश्वत मूल्य प्रतिष्ठित है… मैं नहीं मानता कि मानव समाज मूल्यों के बिना जी सकता है, अस्तित्व रख सकता है. जिस समाज में मूल्य नहीं है वह समाज नहीं है मानव समाज होना दूर की बात है. मूल्य मानव की रचना है मूल्य रचना ही उसका मानवत्व हो”
अज्ञेय की कहानी ‘रमंते तत्र देवता’ दर्शाती है कि मानवीयता जहाँ एक ओर कलुषित हो रही है वहीं दूसरी ओर बिशन सिंह जैसे किरदार भी समाज में मौजूद हैं जो एक स्त्री को ना सिर्फ़ पनाह देते हैं बल्कि उन्हें सुरक्षित घर भी पहुंचाते है “ मैंने उससे कहा डरे नहीं, मेरे साथ धरमतल्ले पार कर ले, अगर के. सी. दास की दुकान पर उसका आदमी मिल गया तो ठीक, नहीं तो वहाँ से बालीगंज की ट्राम चलती होगी, उसमें जाकर गुरुद्वारे में जाकर रात रह जाए और सबेरे मैं उसे घर पहुंचा आऊंगा” उस स्त्री के पति द्वारा उसे अंदर ना आने देने और बाद में किसी तरह अंदर आने देने पर बिशन सिंह के मन में शंकाए उठती है. इंसानियत के खो जाने का डर बिशन सिंह को चिंता में डूबो देता है. यद्यपि उस समय में बिशन सिंह जैसे लोग कम थे लेकिन चिंतित थे. पूरी कहानी मानवीय-मूल्यों के ह्रास हो जाने की चिंता को व्यक्त करती है यद्यपि बिशन सिंह के रूप में मानवीयता की आवाज़ ऊंची है. बिशन सिंह के शब्दों में “सारे मुसलमान अरब और फ्रांस और तातार से नहीं आए थे.सौ में एक होगा जिसको हम अरब या फ्रांस के तातार की नस्ल कह सकें और मेरा तो ख्याल नहीं तजरिबा है के अरब और ईरानी बड़ा नेक,मिलनसार और अमनपसंद होता है तातारियों से साबिका नहीं पड़ा .बाकी सारे मुसलमान कौन हैं?हमारे भाई ,हमारे मज़लूम जिनका मुंह हज़ारों बरसों से रगड़ते आए हैं”
ऐसे में जब धरम के नाम पर मार काट मची हो.इन विचारों का आना और उन्हें अभिव्यक्त कर पाना बिशन सिंह जैसे क़िरदार के साहस का प्रतीक है जो मानवीयता के झंडे को झुकने से बचाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं.
इसी कड़ी में अज्ञेय की प्रसिद्ध कहानी ‘शरणदाता’ है जो विभाजन पर आधारित हिंदी कहानियों में श्रेष्ठ मानी जाती है. इस कहानी में एक और आदर्श का पुट है वहीँ दूसरी ओर विभाजन के परिप्रेक्ष में सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है.अताउल्लाह के यहाँ खाने में ज़हर का मिला होना और देविंदर लाल के द्वारा चिट्ठी को चुटकी से उड़ा देना उन दोनों के परिवर्तित भावों का चित्रण इस कहानी में है .भावों का यह परिवर्तन अनायास नहीं है ये परिस्थितियों से प्रभावित हैं.कहानी में मुख्य चरित्र के रूप में ज़ेबूं सामने आती है जिसका व्यवहार और सहजता अनायास ही मन में उतरता चला जाता है और जो किसी धर्म विशेष से सम्बंधित न हो कर केवल इंसानियत की मिसाल के तौर पर सामने आती है
“अब्बा ने जो किया या जो करना चाहा उसके लिए मैं माफ़ी मांगती हूँ और यह भी याद दिलाती हूँ उन की उसकी काट मैंने ही कर दी थी .एहसान नहीं जताती,मेरा कोई एहसान आप पर नहीं है-फिर सिर्फ यह इल्तिजा करती हूँ की आपके मुल्क में अकलियत का कोई मजलूम हो तो याद कर लीजियेगा इसलिए नहीं की वह मुसलमान है बल्कि इसलिए की आप इंसान है”
विभाजन संबंधी कहानियों में अगली कहानी ‘बदला’ है.इस कहानी में ‘बदला’ शब्द का अर्थ व्यापक और विस्तृत है.यहाँ बदला मौत के बदले मौत जैसा अर्थ न ग्रहण कर नए सन्दर्भों में आता है.यहाँ बदले का मतलब अमानवीयता के बदले मानवीयता से है.इस कहानी के केंद्र में ट्रेन में बैठे सरदारजी हैं जो दंगों में अपना सब कुछ गंवाने के बाद भी बदले की भावना से ग्रसित नहीं है बल्कि रास्ते भर एक मुसलमान की रक्षा करते हैं.
“सिख ने कहा, आप बैठी रहिये.यहाँ आपको कोई डर नहीं है.मैं आपको अपनी बहिन समझता हूँ और इन्हें अपने बच्चे…आपको अलीगढ तक ठीक -ठाक मैं पहुंचा दूंगा,उससे आगे खतरा भी नहीं है.”अन्यत्र वह अपने सामने बैठे हुए व्यक्ति को धिक्कारते हुए कहता है-“औरत की बेईज्ज़ती औरत की बेईज्ज़ती है ,वह हिन्दू या मुसलमान नहीं वह इंसान की माँ की बेईज्ज़ती है.शेखूपूरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआ,मगर मैं जानता हूँ की उसका मैं बदला कभी नहीं ले सकता क्यूंकि उसका बदला हो नहीं सकता.”
इन तीन कहानियों के अतिरिक्त विभाजन से सम्बंधित तीन अन्य कहानियां ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई भाई,लेटर बॉक्स ,’नारंगियाँ’मौजूद हैं.मुस्लिम-मुस्लिम भाई भाई’ उस समय के कडवे यथार्थ से साक्षात्कार कराती है. यह कहानी वर्ग-चेतना के दर्प को बड़ी निर्ममता से उघाड़ती है.इंसानियत की बदहाली की तस्वीर खींचती है. ‘मधुरेश’ लिखते हैं- “अज्ञेय के विरोधी ही नहीं उनके समर्थक भी अज्ञेय की अभिजात चेतना और संस्कारों की बात जब-तब करते रहें हैं.कोई भी वर्ग चेतना धर्म और मज़हब से नहीं,अपने वर्गहितों से अनुप्राणित होती है. इस कहानी में अपनी वर्ग चेतना को अतिक्रमित करके अज्ञेय अमीना,सकीना और जमीला जैसी साधनहीन औरतों की पक्षधरता करते हैं …वहां मुसलमान मसला होने के नाते मुसलमान की रक्षा और सहायता न होकर अपने से छोटों को हिकारत की निगाह से देख कर अपने अभिजात दर्प को देह्लाते हुए,झपटी हुई सुविधाओं को बदस्तूर भोगते रहने का है”
नारंगिया’ कहानी 1957 में आई .ये कहानी दो शरणार्थी भाइयों हरसू और परसू की कहानी है जो उनकी समस्याओं,उनकी जिजीविषा और मानव -प्रेम को दर्शाती है.इस सन्दर्भ में परसू का यह कथन उल्लेखनीय है-“साले रिफ्यूजी बनकर आया है तो हौसला रखना सीख दिल बढ़ने से कोई मरता,उसके सिकुड़ने से मरते हैं.”
वर्तमान परिदृश्य को केंद्र में रखते हुए ये कहानियां पुनर्पाठ की मांग करती हैं और यही इनकी प्रासंगिकता भी है क्योंकि जो हम देख रहें हैं उसकी जड़ें विभाजन में निहित हैं.इसी सन्दर्भ में ‘नरेंद्र मोहन’ लिखते हैं “क्या हम एक लम्बे अंतराल में एक ही विभाजन को विभाजन रूप में नहीं झेलते आ रहे हैं?और एक अग्निकांड निरंतर जगह नहीं बदल रहा?क्या एक विभाजन अन्य कई छोटे-छोटे विभाजन की कड़ियों से जुड़ता हुआ आजादी से आज तक ही हमारी ज़िन्दगी के लिए फंदा नहीं बना रहा.”
अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों में मानवीयता का स्वरुप झांकता है.ये कहानियां इस बात की पैरवी करती हैं की खंडहर पर भी फूल उगाये जा सकते हैं.ये कहानियां तपती धूप में ठंडी छीटों का काम करती हैं.
सन्दर्भ सूची
- मानव की आँख,अज्ञेय ,कविता कोश
- रुकेंगे तो देखेंगे,अज्ञेय,कविता कोश
- पृष्ठ संख्या 19,विभाजन की त्रासदी, नरेंद्र मोहन
- पृष्ठ स.23विभाजन की त्रासदी,नरेंद्र मोहन
- पृष्ठ स.25,विभाजन की त्रासदी,नरेंद्र मोहन
- पृष्ठ स.260,अज्ञेय की कहानियों का पुनर्पाठ
- पृष्ठ स.171,अज्ञ्री की कहानियों का पुनर्पाठ
- रमंते तत्र देवता, गद्यकोश, अज्ञेय
- शरणदाता, गद्यकोश, अज्ञेय
- बदला, गद्यकोश, अज्ञेय
- पृष्ठ स.१७७, मधुरेश, सम्पादक-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
- नारंगियाँ, गद्यकोश, अज्ञेय
- पृष्ठ स.30 विभाजन की त्रासदी, नरेंद्र मोहन