अरुणाचल प्रदेश की आका जनजाति
‘आका’ असमिया भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है चेहरे को रंगना। आका जनजाति के लोग पश्चिमी कामेंग जिले में निवास करते हैं और स्वयं को हृसों कहते हैं। इस समुदाय के स्त्री-पुरुष अपने चेहरे को रंगते हैं। यह समुदाय ग्यारह वंशों में विभक्त है जिनमें ‘कुत्सुन’ और ‘कोवात्सुन’ प्रमुख हैं। इनके पड़ोस में शेरदुक्पेन, बैंगनी और मीजी जनजातियाँ निवास करती हैं। इसलिए इनकी जीवन शैली पर पड़ोसी जनजातियों का बहुत प्रभाव है। देशांतरगमन के संबंध में इस समुदाय में अनेक आख्यान प्रचलित हैं। इनकी मान्यता है कि इनके पूर्वज मैदानी क्षेत्र में रहते थे। बाद में इनके पूर्वजों को कृष्ण-बलराम ने भगा दिया था। इनकी औसत लंबाई पाँच फीट चार इंच होती है तथा महिलाओं की औसत लंबाई पाँच फीट होती है। अन्य जनजातियों की ही तरह इनके घर बांस और लकड़ी के बने होते हैं और जमीन से छह फीट ऊपर लकड़ी और बांस के खंभों पर स्थित होते हैं। फर्श के नीचे घरेलू जानवरों को रखा जाता है। घर से कुछ दूरी पर धान्यागार होते हैं जिसे ‘नेची’ कहा जाता है। इस समुदाय में एकल परिवार की प्रथा है। परिवार में माता-पिता तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। विवाह के बाद बच्चे परिवार से अलग अपनी गृहस्थी बसाते हैं। गांवों की प्रशासनिक व्यवस्था की देखभाल के लिए एक ग्राम परिषद होती है। ग्राम परिषद का प्रधान ‘गाँव बूढ़ा’ कहलाता है। उसकी सहायता करने के लिए ‘बोढ़ा’ और ‘गिब्बा’ होते हैं। ‘बोढ़ा’ ‘गाँव बूढ़ा’ के लिए सूचना अधिकारी का कार्य करता है। वह गाँव बूढ़ा को गाँव में घटित सभी घटनाओं और मामलों की सूचना देता है। ‘गिब्बा’ गाँव की शांति-व्यवस्था पर नजर रखने के अतिरिक्त ग्रामवासियों की दैनिक गतिविधियों पर भी नियंत्रण रखता है। ग्राम परिषद पारंपरिक रीति -रिवाजों के आधार पर गाँव के सभी विवादों को निपटारा करती हैं। आका समुदाय विभिन्न हितकारी-अहितकारी दैवीय शक्तियों के प्रति श्रद्धानत है। वेलोग प्राकृतिक शक्तियों जैसे– आकाश, पृथ्वी, जल, पर्वत आदि की अभ्यर्थना करते हैं। ये आकाश (मेज अऊ) को पिता मानकर इनकी पूजा करते है। इसी प्रकार पर्वत (फ़ु अऊ) को भी पिता माना जाता है। पृथ्वी (नो एन) और जल (हु एन) को माता माना जाता है। ‘नेचिदो’ आका जनजाति का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह प्रत्येक वर्ष नवंबर महीने में सामुदायिक स्तर पर आयोजित किया जाता है। यह त्योहार पाँच वर्ष के अंतराल पर दिसंबर (नुचोकु) में मनाया जाता है। जब यह दिसंबर में आयोजीत किया जाता है तो समस्त ग्रामवासियों की सुख-समृद्धि के लिए वन देव (नेचिगिरी) के नाम पर अन्य छोटे जानवरों के साथ-साथ मिथुन और सांड की बलि दी जाती है।
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