यह उपन्यास प्रवासी स्त्री जीवन के मानवीय मूल्यों, नैतिक विचारों से लेकर प्रवासी स्त्री जीवन के विविध स्वरूप को एवं उनके अधिकारों की गाथा कहने वाली उपन्यास कहलाएगी |
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ई-संग्रहालय एवं शब्दकारों का अंतरराष्ट्रीय मंच
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यह उपन्यास प्रवासी स्त्री जीवन के मानवीय मूल्यों, नैतिक विचारों से लेकर प्रवासी स्त्री जीवन के विविध स्वरूप को एवं उनके अधिकारों की गाथा कहने वाली उपन्यास कहलाएगी |
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देश से विदेश तक कविता का हमेशा एक अपना ही क्षितिज रहा है। ऐसा ही एक क्षितिज बनाया, लाहौर अविभाजित भारत में जन्मी, १९८२ से ओहायो में रह रहीं, शिखंडी युग, बराह, यह युग रावण है, मुझे बुद्ध नहीं बनना, मैं कौन हाँ ( पंजाबी ) काव्य संग्रहों की रचयिता वरिष्ठ कहानीकार, उपन्यासकार सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कविताओं ने। उसी क्षितिज पर, उनकी एक प्रतिनिधि कविता ‘चांद’ ने कथ्य और शिल्प के सहारे संवेदना और अपने परिवेश से दूर किसी बिछुड़े को याद करते नारी मन को बखूबी दर्शाया है-खिड़की के रास्ते/उस दिन/चाँद मेरी देहली पर/मीलों की दूरी नापता /तुम्हें छू कर आया/बैठा/मेरी मुंडेर पर/मैंने हथेली में भींच कर/माथे से लगा लिया।कविता की आत्मा की पहचान, उसकी अभिव्यक्ति से होती है। कवयित्री की एक और कविता ‘कण’, इसी बात को सार्थक करती दिखती है-एक कण/आकाश से/आर्द्र नमी का/गिरा /अटका रह या/निस्तब्थ/पलक पर -/सामने चार कहार/चार हताहतों/की लाश /ढो रहे थे …
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