‘हिन्द स्वराज’ की पृष्ठभूमि
मृत्युंजय पाण्डेय
काल मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति है- “दार्शनिकों ने केवल विभिन्न रूपों में दुनिया की व्याख्या ही की है, लेकिन असली काम तो उसे बदलने का है।”1 पर गांधी ऐसे दार्शनिक हैं जिन्होंने दुनिया की व्याख्या करने के साथ ही उसे बदलने की कोशिश भी की। गांधी का सारा जीवन सामाजिक अन्याय, आर्थिक विषमता, शोषण, गरीबी और उंच-नीच के भेद-भाव को खत्म करने की कोशिश में बीत गया। “उन्होंने भारत की हजारों वर्ष की जिंदगी की धड़कन को, उसकी लय को, उसकी सोच और संस्कृति को, उसके सम्पूर्ण सारतत्व को बड़ी गहराई से आत्मसात् किया और अपने जीवन में उसी को मूर्त किया। उन्हें देखकर कहा जा सकता था कि यह आदमी ‘भारत’ है।”2
आज से 106-7 वर्ष पहले गांधी ने “अंतर्राष्ट्रीय समुद्र कि छाती पर बैठकर”3 ‘हिन्द स्वराज’ कि रचना की। समुद्र की लहरों के समान ही गांधी के दिमाग में भी उथल-पुथल मची हुई थी। गांधी अपनी इस आंतरिक बेचैनी को दस दिनों में शब्द-बद्ध करते हैं। जबकि अज्ञेय को अपनी ‘घनीभूत वेदना’ को शब्द-बद्ध करने में दस वर्षों का समय लगा था। गांधी और अज्ञेय दोनों यातना में थे इसलिए वे ‘द्रष्टा’ हो गए।
13 नवम्बर से 22 नवम्बर 1909 के दौरान गांधी लंदन से दक्षिण-अफ्रीका एक पानी के जहाज से लौट रहे थे। गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ को इन्हीं दस दिनों के अंदर लिखा। 11 और 19 दिसम्बर 1909 को दक्षिण-अफ्रीका से निकलने वाले साप्ताहिक अखबार ‘इंडियन ओपीनियन’ के गुजराती संस्करण में यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी। जनवरी 1910 में यह पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुई। मार्च 1910 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने पुस्तक को जब्त कर लिया था। गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ को अपनी मातृभाषा गुजराती में ही लिखा, क्योंकि- “अपना विचार अपनी भाषा में ही व्यक्त हो सकता है।”4 (नामवर सिंह) गांधी जी अपने विचारों से एक साथ आठ हजार लोगों की सोच को झंकृत करते हैं। गांधी जी के ही शब्दों में- “ ‘इंडियन ओपीनियन’ के गुजराती ग्राहक आठ सौ के करीब हैं। हर ग्राहक के पीछे कम-से-कम दस आदमी दिलचस्पी से यह अखबार पढ़ते हैं, ऐसा मैंने महसूस किया है।”5
सौ पन्नों की छोटी-सी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ गांधी के कई वर्षों के चिंतन का परिणाम है। इस बात को स्वीकार करते हुए वे कहते हैं- “जिस तरह हृदय के भर आने पर कोई व्यक्ति बोले बिना नहीं रह सकता। उसी तरह मेरा हृदय भर आने के कारण मैं यह पुस्तक लिखे बिना नहीं रह सका।”6 22॰11॰1909 की प्रास्तावना में भी गांधी जी ने लिखा था- “मुझसे जब रहा नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है।”7 इस पुस्तक के बारे में गांधी जी की राय थी- “मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि वह बालक के हाथ में दी जा सकती है। वह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्मबल को खड़ा करती है।”8 जबकि गोखले की प्रतिक्रिया थी कि गांधी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही इस पुस्तक को नष्ट कर देंगे। गांधी जी के उत्तराधिकारी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे पढ़कर कहा कि यह ‘यथार्थ से परे’ है। नेहरू ‘हिन्द स्वराज’ के कट्टर आलोचक थे। निर्मल वर्मा के शब्दों में कहें तो “दोनों (नेहरू-गोखले) ने ही ‘हिन्द स्वराज’ को एक सनकी दिमाग की उपज कहा और इसे अप्रासंगिक समझ कर निरर्थक घोषित कर दीया था।”9 ‘हिन्द स्वराज’ की कटु आलोचना से आहत होकर निर्मल वर्मा ने लिखा कि- “यह देश जो गांधी के आदर्शों से दूर-दूर चला गया है, आज भी एक जरूरत महसूस करता है, एक दबाव, एक अनिवार्यता महसूस करता है कि एक ऐसी पुस्तक जिसके हम अधिकारी नहीं थे, उसके अक्षर को ढूंढें। शब्दों को याद करें, अर्थ और भाव को समझें तथा उन्हें अपने जीवन में जिस रूप में ग्रहण कर सकते हो, उसे समझें।”10 ‘हिन्द स्वराज’ के अर्थ और भाव को समझे बिना ही गोखले तथा नेहरू ने उसे अप्रासंगिक घोषित कर दिया। दूसरी तरफ टॉल्सटॉय ने ‘हिन्द स्वराज’ के अँग्रेजी अनुवाद को पढ़कर अपनी डायरी में लिखा “अद्भुत”। टॉल्सटॉय की यह टिप्पणी भारतीय सोच को प्रश्नचिन्हित करती है।
गांधीजी अपने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और शैक्षिक आदि विचारों को व्यक्त करने के लिए संवाद शैली का सहारा लेते हैं। ऐसा कहा जाता है कि ‘हिन्द स्वराज’ के पाठक लंदन और दक्षिण-अफ्रीका में रह रहे भारतीय हैं और संपादक, विचारक गांधी हैं। लेकिन यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस रहस्य का उद्घाटन गांधी कर चुके हैं। बकौल कनक तिवारी- “सेवा संघ की बैठक में 21 फरवरी, 1940 को भाषण देते हुए गांधी ने यह रहस्योद्घाटन किया कि ‘हिन्द स्वराज’ उन्होंने मूलतः अपने प्रिय मित्र स्वर्गीय डॉ॰ प्रणजीवन मेहता के लिए लिखी थी क्योंकि ‘हिन्द स्वराज’ में व्यक्त सभी तर्क और विचारों को लेकर उनका डॉ॰ प्रणजीवन मेहता से पहले ही बहस-मुबाहिसा हो चुका था।”11 कनक तिवारी यहाँ तक संभावना जता देते हैं कि “ ‘हिन्द स्वराज’ के पाठक की भूमिका भी प्राणजीवन मेहता की है जो छात्र जीवन से ही गांधी से इन्हीं विषयों पर तार्किक बहस-मुबाहिसा किया करते थे।”12 यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि पाठक की भूमिका में हर एक वह भारतीय है, जो पश्चिमी नीतियों का समर्थक है, जिसके दिमाग में यह बात घर कर गई है कि पश्चिमी सभ्यता ही सबसे उत्तम सभ्यता है। ‘हिन्द स्वराज’ लिखने से पहले ही गांधी के दिमाग में पश्चिमी सभ्यता का एक स्पष्ट खाका था। 30 अक्टूबर 1909 को गांधीजी ने पश्चिमी सभ्यता का पर्दाफाश करते हुये लॉड एम्टहिल को एक पत्र लिखा। ‘इस पत्र को हम ‘हिन्द स्वराज’ कि ‘कुंजी’ कह सकते हैं।’
लॉड एम्टहिल को गांधीजी ने पत्र में लिखा था- “भारत का शोषण विदेशी पूंजीपतियों के स्वार्थ के लिए किया जाता है और केवल इसी कारण भारत अतिरिक्त कष्ट पाता है। मेरी नम्र सम्मति में इसका सच्चा उपाय यह है कि इंग्लैंड आधुनिक सभ्यता का, जो स्वार्थ और भौतिकता की भावना से भरी होने की वजह से उद्देश्यहीन और निरर्थक है और जो ईसाईयत के विरुद्ध है, परित्याग कर दे। लेकिन यह एक दुराशा है। तब यह भी संभव हो सकता है कि भारत के ब्रिटिश शासक कम-से-कम भारतियों की तरह व्यहार करें और उन पर आधुनिक सभ्यता को तो न थोपें। रेलें, मशीनें और उनके साथ बढ़ी हुई आरामतलबी की आदतें यूरोपियों की भांति ही भारतियों के लिए भी दासता के सच्चे चिह्न हैं। इसलिए शासकों से मेरा कोई झगड़ा नहीं है। हाँ, उनके तरीकों से मेरा पूरा विरोध है। मैं पहले मानता था कि लॉड मैकाले ने अपनी शिक्षा-संबंधी रिपोर्ट लिखकर भारत का हित-साधन किया है, लेकिन अब नहीं मानता। मेरा ख्याल यह भी है कि ब्रिटेन ने अपने अधीनस्थ देशों को जो शांति-सुव्यवस्था दी है, उसका बहुत ज्यादा ढिंढोरा पीटा जाता है। मेरे ख्याल से कलकत्ता और बंबई जैसे शहरों का बनना दुख की बात है, बधाई देने की नहीं। भारत को ग्राम-प्रथा के आंशिक उन्मूलन से हानी हुई है। उनकी तरह मुझमें भी राष्ट्रीय भावना है; इसलिए गर्मदलियों या नर्मदलियों के तरीकों से मेरा पूरा मतभेद है। इसका कारण यह है कि दोनों ही दल आखिरकार हिंसा में विश्वास करते हैं। हिंसात्मक तरीकों का अर्थ है आधुनिक सभ्यता को और इस तरह उसी विनाशकारी स्पर्धा को अंगीकार करना, जिसे हम यहाँ देखते हैं। इसका अर्थ है अंत में सच्ची नैतिकता का ध्वंस। कौन शासन करता है, इस बात में मेरी दिलचस्पी नहीं है। मैं तो चाहूँगा कि शासक मेरी इच्छा के अनुसार शासन करें, अन्यथा मैं उन्हें अपने ऊपर शासन करने में सहायता न दूंगा। मैं उनके विरुद्ध अनाक्रामक प्रतिरोध करूंगा। अनाक्रामक प्रतिरोध शरीर-बल के विरुद्ध आत्मबल का प्रयोग है- दूसरे शब्दों में घृणा पर विजय प्राप्त करनेवाले प्रेम का।”13 जब इंग्लैंड की आधुनिक सभ्यता स्वार्थ और भौतिकता से भरी पड़ी है, ऐसी स्थिति में वह सभ्यता भारत तथा भारतवासियों के लिए प्रेरणा स्रोत कैसे हो सकती है। गांधी की दृष्टि में आधुनिक सभ्यता के लिए शरीर-बल की अपेक्षा आत्म-बल पर अधिक ज़ोर देते हैं, क्योंकि शरीर का बल समय के साथ कम होता जाता है, जबकि आत्मा का बल दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है।
कनक तिवारी के अनुसार- “ ‘हिन्द स्वराज’ लिखने के पहले अपने एक और मित्र हेनरी पोलॉक को लंदन से 14 अक्टूबर 1909 को गांधी ने लिखा था कि उनके अंदर विचार खदबदा रहे हैं। ये विचार यधपि नए नहीं हैं, लेकिन उन्होंने एक ठीक स्वरूप ग्रहण कर लिया है और उन पर जबरिया कब्जा कर लिया है।”14 हेनरी पोलॉक को लिखे पत्र में गांधी 16 मुद्दों पर चर्चा करते हैं। ये सभी मुद्दे ‘हिन्द स्वराज’ में हैं। ‘हिन्द स्वराज’ की पृष्ठभूमि जानने के लिए यहाँ इन सभी मुद्दों को दिया जा रहा है। पत्र में गांधीजी ने लिखा था- “मुझसे किए गए प्रश्नों की झड़ी में मेरा उद्देश्य खो गया और तफसील की बातों पर ही गरमा-गरम बहस होती रही। उससे प्राप्त निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
(1) पूर्व और पश्चिम के बीच भेद की कोई दुर्लंध्य दीवार नहीं है।
(2) पश्चिम या पूर्वी सभ्यता-जैसी कोई चीज नहीं है। हाँ, एक आधुनिक सभ्यता अवश्य है और वह सर्वथा भौतिकतावादी है।
(3) आधुनिक सभ्यता से प्रभावित होने के पूर्व-यूरोप के लोग बहुत-सी बातों में पूर्व के लोगों से, या कम-से-कम भारतियों से, काफी मिलते-जुलते थे; और आज भी जो यूरोपीय आधुनिक सभ्यता के प्रभाव से अछूते हैं, वे उस सभ्यता के सपूतों की तुलना में भारतियों से बहुत ज्यादा आसानी से घुलमिल सकते हैं।
(4) भारत पर राज्य ब्रिटिश लोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि रेल, तार, टेलीफोन और सभ्यता के विजय-भूषण माने जाने वाले लगभग सारे आविष्कारों के माध्यम से यही आधुनिक सभ्यता कर रही है।
(5) बंबई, कलकत्ता औए भारत के अन्य प्रमुख नगर मुसीबत के असली स्थान हैं।
(6) अगर कल ब्रिटिश शासक का स्थान आधुनिक तौर-तरीकों पर आधारित भारतीय शासक ले ले, तो इससे भारत की स्थिति अच्छी नहीं हो जाएगी। तब भारतीय भी यूरोप या अमरीका के दूसरे या पांचवें संस्कारण बनकर रह जाएँगे। हाँ, इतना जरूर होगा कि जो धन बहकर इंग्लैंड चला जाता है, उसका कुछ अंश देश में ही रह जाएगा।
(7) पूर्व और पश्चिम वास्तविक रूप में तभी मिल सकते हैं, जब पश्चिम आधुनिक सभ्यता का लगभग पूर्ण रूप से परित्याग कर दे। दिखावे में तो वे तब भी मिल सकते हैं; जब पूर्व भी आधुनिक सभ्यता को स्वीकार कर ले, लेकिन यह मिलन सशस्त्र-शांति के समान होगा-ऐसी शांति के समान, जैसे उदाहरण के लिए, जर्मनी और इंग्लैंड के बीच है। ये दोनों ही देश एक दूसरे द्वारा लील लिए जाने के खतरे से बचने के लिए मृत्यु के गढ़ में अपने दिन काट रहे हैं।
(8) यदि कोई एक व्यक्ति या व्यक्तियों का संगठन सारी दुनिया को सुधारना शुरू करे या उसकी बात भी सोचे तो यह हिमाकत की होगी। ऊंचे दर्जे की कारीगरी से बने और तेज चलनेवाले वाहनों के सहारे भी ऐसा करने का प्रयत्न असंभव को संभव बनाने का प्रयत्न होगा।
(9) सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि भौतिक सुविधाओं की वृद्धि होने से नैतिक विकास में किसी तरह कोई सहायता नहीं मिलती।
(10) चिकित्सा-विज्ञान इस काले जादू का सार है; जिसे उच्च चिकित्सा-कौशल मानते हैं, उससे तो नीमहकीमी लाख दर्जे अच्छी है।
(11) अस्पताल वे साधन हैं जिनका उपयोग शैतान अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, अपने साम्राज्य पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए करता है। वे दुराचार, दुख, गिरावट और वास्तविक दास्ता को स्थायी बनाते हैं।
(12) जब मैंने चिकित्सा-शास्त्र की शिक्षा लेने की सोची थी तब मैं बिलकुल बहक ही गया था। अस्पताल की घृणित प्रक्रियाओं में भाग लेना मेरे लिए हर तरह से एक पापपूर्ण कृत्य होगा। अगर यौन रोगों के लिए, या क्षय-रोगियों के लिए भी अस्पताल न होते तो हमारे बीच क्षय रोग कम और यौन पाप भी इतने न होते।
(13) भारत की मुक्ति इसी बात में है कि उसने पिछले पचास वर्षों में जो कुछ सीखा है, उसे भूल जाये। रेले, तारे, अस्पताल, वकील, डॉक्टर आदि सबको जाना होगा; और तथाकथित उच्च वर्गों के लोगों को इस बोध के साथ कि किसान का सादा जीवन ही सच्चा सुख देने वाला है, अंतरात्मा को साक्षी बनाकर, धर्म मानकर और मन को वश में करके वह जीवन बिताना सीखना होगा।
(14) भारतियों को मिल के कपड़े नहीं पहनने चाहिए, चाहे वे यूरोपीय मिलों में तैयार हुये हों या भारतीय मिलों में।
(15) इंग्लैंड इसमें भारत का सहायक हो सकता है, और तभी वह भारत पर अपने अधिकार का औचित्य सिद्ध कर पाएगा। आज इंग्लैंड में भी ऐसा सोचनेवाले बहुत लोग दिखाई देते हैं।
(16) पुराने ऋषियों में सच्चा ज्ञान था। तभी तो उन्होंने समाज की व्यवस्था ऐसी की थी कि लोगों की भौतिक स्थिति मर्यादित हो जाए। शायद पाँच हजार साल पुराना आदिम हल आज भी किसान के लिए उपयुक्त हल है। हमारी मुक्ति उसी से होगी। ऐसी हालातों में लोग ज्यादा जीते हैं या ज्यादा शांति से रहते हैं। उसकी तुलना में आधुनिक उद्योगवाद को अपनाने के बाद यूरोप के लोगों की उतनी शांति नहीं मिलती है। मुझे लगता है कि प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति चाहे तो इस सत्य को सीख सकता है और उसके अनुसार आचरण कर सकता है; प्रत्येक अंग्रेज़ भी अवश्य ही ऐसा कर सकता है।
लिखने के लिए बाते बहुत हैं। आज आपको उतना नहीं लिख सकता। लेकिन ऊपर दी गई सामग्री विचार के लिए काफी है। जब आप यह देखें कि मैं गलत कहता हूँ, तो मुझे रोक सकते हैं।”15
हेनरी पोलॉक को लिखे पत्र में गांधी रेल, तार, अस्पताल, डॉक्टर, वकील, मिल आदि सभी की आलोचना करते हैं। वे अस्पताल के साधन को शैतानी साधन कहते हैं। उदय प्रकाश की चर्चित लंबी कहानी ‘…और अंत में प्रार्थना’ के नायक डॉ॰ दिनेश मनोहर वाकणकर के कुछ विचार गांधी के विचारों से मेल खाते हैं। जैसे- डॉक्टर, चिकित्सा और टेकनॉलाजी के संदर्भ में डॉक्टर वाकणकर का मानना है कि- “जिस तरह कुछ धर्मग्रंथ, दर्शन या विचारधाराओं का उपयोग दरअसल शासन व्यसाय या तंत्र को चलते रहने के लिए होता है, उसी तरह मेडिकल साइंस या चिकित्साशास्त्र का भी इस्तेमाल शासन, व्यवसाय और तंत्र को चलते रहने के निमित्त होता है। वे कहते हैं कि सैनिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, जैवरसायन या टेकनॉलाजी का ज़्यादातर प्रयोग मनुष्यों की हत्या के लिए होता आया है। भौतिक, इलेक्ट्रानिक्स, गतिकी और अंतरिक्ष विज्ञान या नाभिकीय क्षेत्रों में लगातार होनेवाले अनुसंधानों के फलस्वरूप अब हम ज्यादा व्यापक, प्रभावी और अपेक्षाकृत आसान तरीके से हत्याएं कर सकते हैं। मेडिकल साइंस भी ऐसा ही एक अनुशासन है।”16 उदय प्रकाश की कहानी इस बात की तरफ संकेत करती है कि गांधी 1909 में ही भारत के भविष्य को या यंत्रों के दुस्परिणाम को भली-भांति समझ रहे थे। पर अफसोस उस दुस्परिणाम को उनके उत्तराधिकारी नेहरू ने नहीं समझा और आज सौ वर्ष बाद भी हम उस दुस्परिणाम को समझते हुए भी समझना नहीं चाहते हैं।
20 अध्यायों वाली पुस्तिका ‘हिन्द स्वराज’ में व्यक्त विचार गांधी के मूल-विचार हैं भी और नहीं भी हैं। गांधी के ही शब्दों में – “वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूँ; वे मेरी आत्मा के गढे-जुड़े हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं। दिल के भीतर-ही-भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया।”17 ‘हिन्द स्वराज’ के अंत में ‘परिशिष्ठ-2’ में गांधी ने 20 पुस्तकों के नाम बताए हैं। इन्हीं पुस्तकों ने गांधी के विचारों का समर्थन किया। या इन्हें पढ़कर गांधी के विचार बने। ‘हिन्द स्वराज’ के अध्याय को आगे बढ़ाने के लिए गांधीजी निम्नलिखित पुस्तकों को पढ़ने की सिफारिश पाठकों से करते हैं- (1) दि किंग्डम ऑफ गॉड इज़ विदिन यू – टॉल्सटॉय (2) व्हाट इज़ आर्ट – टॉल्सटॉय (3) द स्लेवरी ऑफ अवर टाइम्स – टॉल्सटॉय (4) द फस्टॅ स्टेप – टॉल्सटॉय (5) हाऊ शैल वी एस्केप – टॉल्सटॉय (6) लेटर टु ए हिन्दू – टॉल्सटॉय (7) द व्हाइट स्लेट्स ऑफ इंग्लैंड – शेराडॅ (8) सिविलाइजेशन, इट्स कॉज एंड क्योर – कापेंटर (9) द फैलेसी ऑफ स्पीड – टेलर (10) ए न्यू क्रूसेड – ब्लांट (11) आन द ड्यूटी ऑफ सिविल डिसओबेडियेंस – थोरो (12) लाइफ विदाउट प्रिंसिपल – थोरो (13) अन टु दिस लास्ट – रस्किन (14) ए जॉय फॉर एवर – रस्किन (15) ड्यूटीज़ ऑफ मैन – मैजिनी (16) डिफेंस एंड डेथ ऑफ सोक्रेटीज़ – फ्रॉम प्लेटो (17) पैरेडॉक्सेज़ ऑफ सिविलाइजेशन – मैक्स नार्दू (18) पॉवर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया – नौरोजी (19) इकॉनामिक हिस्टरी ऑफ इंडिया – दत्त (20) विलेज कम्युनिटीज़ – मेन।
उपरोक्त 20 पुस्तकों में से मात्र 2 पुस्तकें भारतीय विद्धानों की हैं। पहली दादाभाई नौरोजी की ‘पॉवर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ और दूसरी रमेशचन्द्र दत्त की ‘इकॉनामिक हिस्टरी ऑफ इंडिया’। इसके अतिरिक्त 18 पुस्तकें यूरोपीय विद्धानों की हैं। जिसमे अकेले टॉल्सटॉय की छ: पुस्तकें हैं।
गांधी टॉल्सटॉय के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित थे। ‘हिन्द स्वराज’ में टॉल्सटॉय और रस्किन जैसे कुछ प्रमुख यूरोपीय विद्धानों के नाम तो हैं लेकिन- “उनमे विलियम मॉरिस, जॉज बर्नाड शॉ, एनी बेसेंट, जार्ज और मॉरिस हिंडमैन वगैरह के नाम नहीं है, लेकिन वे गांधी के विचारों में समाहित थे। ये वे बुद्धिजीवी थे जो पश्चिम की मुख्य भागमभाग की दौड़ को किनारे बैठकर न केवल देख रहे थे, बल्कि उसके खिलाफ अपनी मानवतावादी राय भी दर्ज कर रहे थे।”18 कनक तिवारी की माने तो गांधी विलियम मॉरिस, जॉज बर्नाड शॉ, एनी बेसेंट वगैरह के विचारों से प्रभावित थे या यूं कहें वे गांधी के विचार में समाहित थे, लेकिन गांधी ने उनका नाम नहीं लिया है।
किल्डोनन कैसल नामक पानी के जहाज पर बैठकर गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ जैसी पुस्तक की रचना की। “दरअसल उनकी जलयात्रा साथ-साथ उस मानसिक पनडुब्बी में बैठकर की जा रही थी, जो ब्रिटिश साम्राज्य के महासागर के नीचे उसकी बुनियाद में विस्फोट करने का बारूद भी बना रही थी।”19 निश्चय ही गांधी ब्रिटिश साम्राज्य की बुनियाद में बारूद लगाने में सफल होते हैं।
गांधी ने यह स्वीकार किया है कि ‘हिन्द स्वराज’ लिखने की प्रेरणा उन्हें मूलतः टॉल्सटॉय के प्रसिद्ध पत्र ‘लेटर टु ए हिन्दू’ से मिली। किल्डोनन कैसल नामक पानी के जहाज पर ‘हिन्द स्वराज’ के अतिरिक्त गांधी ने टॉल्सटॉय के प्रसिद्ध पत्र ‘लेटर टु ए हिन्दू’ का गुजराती अनुवाद भी किया था। परिशिष्ठ की 20 पुस्तकों में से यह छठी पुस्तक है। वस्तुतः टॉल्सटॉय का पत्र हिंसा और अराजकता-समर्थक तारकनाथ दास को संबोधित था। यह युवा बंगाली केनेडा में बस गया था और वैक्कुअर से उसने भारत की आजादी के लिए ‘फ्री हिंदुस्तान’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया था।”20 गांधी ने अहिंसा का सिद्धांत यहीं से ग्रहण किया। कनक तिवारी के शब्दों में- “गांधी ने अपनी अहिंसा की थ्योरी को टॉल्सटॉय की थ्योरी से समानान्तर और अनुप्राणित माना है। लेकिन टॉल्सटॉय के रूस में उनकी थ्योरी और गांधी के भारत में उनकी भी थ्योरी को पाश्चातवर्ती पीढ़ियों ने खारिज कर दिया।”21 गांधी टॉल्सटॉय को गुरु के रूप में देखते हैं। अपने जीवन के अंतिम दिनों में गांधी ने टॉल्सटॉय का आभार स्वीकार करते हुये कहा कि- “रूस ने मुझे टॉल्सटॉय के रूप में शिक्षक दिया जिनसे मुझे अपनी अहिंसा के लिए युक्तिसंगत आधार प्राप्त हुआ।”22 “टॉल्सटॉय ने अपने पत्र में (लेटर टु ए हिन्दू) भारतियों को यह सलाह दी थी कि वे अंग्रेजों से अहिंसा के आधार पर ही लड़े, क्योंकि मनुष्य जाति को एक नए तरह का संघर्ष-बोध पैदा करना चाहिए।”23 टॉल्सटॉय से प्रेरणा लेकर ही गांधी ने कहा कि- “अंग्रेजों ने भारतियों को गुलाम नहीं बनाया है। यह तो भारतीय खुद हैं जिन्होंने अंग्रेजों को आमंत्रण दिया है।”24 इस संदर्भ में टॉल्सटॉय ने अपने पत्र में लिखा था- “भारतियों को अंग्रेजों ने गुलाम नहीं बनाया बल्कि वे स्वयं गुलाम बने हैं।”25 क्योंकि 20 करोड़ शक्तिशाली, बुद्धिमान, बलिष्ठ और स्वतंत्रता प्रिय लोगों को एक व्यापारी कंपनी कैसे गुलाम बना सकती है। यह एक रहस्य से कम नहीं है। भारत पर अंग्रेजों ने हिंसा के द्वारा अधिकार नहीं किया, इसलिए उन्हें हिंसा के माध्यम से हटाया भी नहीं जा सकता।
7 सितम्बर 1910 को टॉल्सटॉय ने गांधी को एक पत्र लिखा था। जिसमे “टॉल्सटॉय ने गांधी के द्वारा ट्रांसवाल में चलाए जा रहे अहिंसक आंदोलन की प्रशंसा की थी। 20 नवम्बर 1910 को अपनी मृत्यु से पहले टॉल्सटॉय ने गांधी को अपना आध्यात्मिक उताराधिकारी घोषित कर दिया था। गांधी ने भी इसके दाय स्वरूप अपना पहला सत्याग्रह जिस आश्रम से शुरू किया उसका नाम ‘टॉल्सटॉय आश्रम’ रखा।”26 टॉल्सटॉय के बाद गांधी उसके अहिंसा के सिद्धांत को अपनाते हैं।
प्रसिद्ध कवि विलियम वर्ड्सवर्थ के प्रपौत्र राबर्ट हारबारो शेरार्ड की पुस्तक ‘द व्हाइट स्लेट्स ऑफ इंग्लैंड’ में “इंग्लैंड के औसत औधोगिक मजदूर की जिंदगी का त्रासद चित्रण है। चाहे वे कीलें बनाते हों या चप्पलें या दर्जीगिरी करते हों अथवा ऊन के कारीगर हों या शीशा उधोग के। उनकी हॉरर कथा शेराड ने अद्भुत मानवीय संवेदना के साथ लिखी और मिल मालिकों तथा जमींदारों के अत्याचार बेहद न्यूनतम वेतन से उत्पन्न आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों और स्वास्थ सुविधाओं के अभाव वगैरह का ग्राफिक चित्रण किया है। विशेषकर महिला मजदूरों की भयावह स्थिति का जो चित्रण शेरार्ड ने किया उसने करुणामय गांधी को अत्यधिक विचलित किया। शेरार्ड का मुख्य तर्क यही था कि जब तक उधोगपतियों और फैक्टरी मालिकों में नैतिकता का दृष्टिकोण नहीं होगा, तब तक औधोगिकरण की बांग देना अजान फूंकना नहीं मर्सिया गाने की तरह है। … गांधी ने इन मानवतावादी व्याख्याओं को अपने व्यापक चिंतन का केंद्रीय बिन्दु बनाया और उसे भविष्य के भारत के लिए भी आवृत्त किया।”27 हम देख सकते हैं, गांधी में शेरार्ड रचे-बसे हैं।
एडवर्ड कारपेंटर की पुस्तक ‘सिविलाइजेशन, इट्स कॉज एंड क्योर’ का उल्लेख ‘हिन्द स्वराज’ के छठे अध्याय ‘सभ्यता का दर्शन’ में किया गया है। पश्चिमी सभ्यता की व्याख्या करते हुए गांधी पाठक से कहते हैं- “मेरे हिसाब से ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी लेखकों के हिसाब से भी यह सभ्यता बिगाड़ करने वाली है। उसके बारे में बहुत किताबें लिखी गयी हैं। वहाँ सभ्यता के खिलाफ मण्डल भी कायम हो रहे हैं। एक लेखक ने ‘सभ्यता उसके कारण और उसकी दवा’ नाम की किताब लिखी है। उसमें उसने यह साबित किया है कि यह सभ्यता एक तरह का रोग है।”28 यह पुस्तक कारपेंटर की है। गांधी के यहाँ भी आधुनिक सभ्यता एक रोग के रूप में आता है।
थॉमस की पुस्तक ‘द फैलेसी ऑफ स्पीड’ को गांधीजी ने संक्षिप्त करके ‘इंडियन ओपीनियन’ में प्रकाशित किया था। यंत्रों के संबंध में गांधी के जो विचार हैं वे टेलर की अवधारणाओं से मेल खाते हैं। इस अवधारणाओं को मिलाते हुए कनक तिवारी ने लिखा है- “तीन अध्यायों की पुस्तक (द फैलेसी ऑफ स्पीड) में ‘गति और जनसंख्या’, ‘गति और मुनाफा’, और ‘गति और सुख’ में टेलर इस अवधारणा पर हमला करते हैं कि तेज गति से चलना ही बेहतर होना है। गांधी ने रेलगाड़ी के खिलाफ ‘हिन्द स्वराज’ में जो कुछ भी लिखा उसके पीछे थॉमस टेलर की अवधारणाओं की प्रेरणा दिखाई देती है क्योंकि गांधी की तरह टेलर भी मानते थे कि यांत्रिक वाहनों के जरिए ग्रामीण आबादी को शहरों में ढोया जा रहा है। इस बात की किसी को परवाह नहीं है कि इतनी तेज गति से जीवन को संचालित करने में क्या-क्या खतरे उठाने पड़ेंगे। टेलर ने तो यहाँ तक निराशा में कहा कि कुल मिलाकर गति से तो राज्य में स्वस्थ स्थिति तो बनती ही नहीं है जो कि धीमी गति से जीवन में उपलब्ध होती है। टेलर ने भी सवाल पूछा था कि क्या संचलनशील यंत्रों के जरिए जीवन को विश्राम मिल रहा है या वह नष्ट ही किया जा रहा है?”29 गांधी का मानना था कि रेल, वकील और डॉक्टर इन सभी ने मिलकर हिंदुस्तान को कंगाल बनाया। हिंदुस्तान को कंगाल बनाने में यांत्रिक मशीनों की भी विशेष भूमिका रही। गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा भी है- “अगर रेल न हो तो अंग्रेजों का काबू हिंदुस्तान पर जितना है उतना तो नहीं ही रहेगा। रेल से महामारी फैली है। … रेल से अकाल बढ़े हैं, क्योंकि रेलगाड़ी की सुविधा के कारण लोग अपना अनाज बेच डालते हैं। जहां महंगाई हो वहाँ अनाज खींच जाता है, लोग लापरवाह बनते हैं और उससे अकाल का दुख बढ़ता है। रेल से दुष्टता बढ़ती है। बुरे लोग अपनी बुराई तेजी से फैला सकते हैं।”30
गॉडफ्रे क्लांट की पुस्तक ‘ए न्यू क्रूसेड’ को भी गांधीजी ने उसके संक्षिप्त रूप में 1905 में ‘इंडियन ओपीनियान’ में प्रकाशित किया था। कनक तिवारी का मानना है कि- “सादगी, कला और महत्वकांक्षा क्लांट के उद्देश्य थे जिन्हें गांधी ने बहुत पसंद किया था। क्लांट कहता था कि समाज की बेहतरी व्यक्ति की बेहतरी पर निर्भर है। ग्रामीण जीवन हमारे समाज का सबसे अच्छा हिस्सा है। हस्तकलाएँ और कृषि मनुष्य मात्र की भलाई के लिए सबसे जरूरी हैं। मशीनें तो शैतान का हथियार हैं। राजनीति सामाजिक सुधारों को बंद कर सकती है, शुरू नहीं कर सकती। काम करना तो पूजा के बराबर है। क्लांट से प्रभावित होकर गांधी ने अपने खादी आंदोलन को अग्रसर किया।”31 क्लांट के विचारों ने गांधी की अवधारणाओं को पुष्ट किया। स्वदेशी के संबंध में गांधी के जो विचार हैं वह क्लांट के ऋणी हैं।
हेनरी डेविड थोरो की पुस्तक ‘आन द ड्यूटी ऑफ सिविल डिसओबेडियेंस’ का गांधी के ऊपर गहरा प्रभाव है। थोरो का सिद्धांत था कि- “राजनीतिक दृष्टि से क्या सही है और क्या गलत-इसका फैसला विवेक को करना चाहिए, बहुमत को नहीं। उसने यह भी कहा की यधपि हर व्यक्ति का दायित्व नहीं है कि वह बुराई का नाश कर दे, लेकिन इतना तो वह कर ही सकता है कि दुष्कर्मों का समर्थन न करे। उसने यह भी कहा कि हालत ऐसी है कि सही व्यक्ति की जगह जेल में हो जाती है जबकि सही व्यक्तियों की स्थापनाएं राज्य सत्ता के लिए आदेशात्मक होनी चाहिए।”32 गांधी के सत्याग्रह का सिद्धांत थोरो के सिद्धांत से मेल खाता है।
थोरो की ही पुस्तक ‘लाइफ विदाउट प्रिंसिपल’ का सिद्धांत है कि- “सद्गुण के बिना राजनीति केवल घास-पात है और नागरिक सद्गुणों की जगह चिकना-चुपड़ा व्यवहार नहीं ले सकता।”33 कहना न होगा कि गांधी इस सिद्धांत के घोर समर्थक हैं। गांधी राजनीति में नीति की बात करते हैं।
19वीं सदी के कई ब्रिटिश आलोचक आधुनिक सभ्यता एंव मशीनी सभ्यता के खिलाफ थे। रस्किन भी इनमें से एक थे। वह मशीनी सभ्यता या औधोगिक सभ्यता का घोर विरोधी था। उसकी पुस्तक ‘ए जॉय फॉर एवर एंड इट्स प्राइस इन दि मार्केट’ तथा ‘दि पोलिटिकल इकोनॉमी ऑफ आर्ट’ का गांधी के ऊपर गहरा असर पड़ा था। “इन पुस्तकों में रस्किन ने औधोगिक सभ्यता की आलोचना की है। उसने कहा कि अपनी तमाम विसंगतियों के साथ-साथ औधोगिक सभ्यता का जीवन के कलात्मक सौंदर्य से कुछ लेना-देना नहीं है। उसने यह भी प्रतिपादित किया कि देश की श्रम शक्ति के प्रबंधन में केवल वैभव को ही लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता। उसमें उसकी जन-उपयोगिता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। मसलन श्रमिकों के लिए भोजन, आवास, वस्त्र और जीवन के आमोद-प्रमोद, स्वास्थ और शिक्षा वगैरह की प्राथमिकता के आधार पर आवश्यकता होगी। लेकिन नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था तो मुट्ठी भर लोगों के वैभव के प्रति प्रतिबद्ध है। उसे अनगिनत लोगों के जीवन स्तर से कुछ लेना-कर पाए, तब तक अमीरों के जूतों में रेशमी फीते क्यों बंधने चाहिए। ऐसा वैभव जो आम आदमी की आवश्यकताओं की कब्र पर खड़ा होकर अट्टाहास कर रहा हो, उसे जीवन संगीत गाने का कोई अधिकार नहीं है। लोगों को तन ढकने को कपड़े नहीं हैं। उनके पास विस्तर नहीं हैं। कंबल नहीं हैं। तब औधोगिक सभ्यता के नाम पर अमीरों को कितना अमीर बनाया जाय।”34 रस्किन के विचारों का गांधी के ऊपर आश्चर्यजनक असर पड़ा है। गांधी के अर्थशास्त्र के कई सूत्र रस्किन के यहाँ से लिए गए हैं। गांधी भी रस्किन की तरह ही मानते हैं कि औधोगिक सभ्यता गरीबों का शोषण करने का माध्यम है।
गांधी ने अपने ‘सर्वोदय’ के सिद्धांत को रस्किन की ‘अन टु दिस लास्ट’ पुस्तक से ग्रहण किया है। इस पुस्तक का गांधी के ऊपर ज्यादा प्रभाव दिखता है। 1904 में इस पुस्तक को पढ़कर गांधी ने लिखा – बक़ौल कनक तिवारी – “मैं ‘सर्वोदय’ के सिद्धांत को इस प्रकार समझता हूँ-
(1) सबकी भलाई में हमारी भलाई निहित है।
(2) वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि आजीविका का अधिकार सबको समान है।
(3) सादा, मेहनत-मजदूरी का – किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।
पहली बात मैं जानता था, दूसरी को धुंधले के रूप मैं देखता था। तीसरी का मैंने कभी विचार नहीं किया था। ‘सर्वोदय’ ने मुझे दिए की तरह दिखा दिया कि पहली चीज में दूसरी दोनों चीजें समाई हुई हैं। सवेरा हुआ और मैं इन सिद्धांतों का अमल करने के प्रयत्न में लग गया।”35 यहाँ ‘सर्वोदय’ दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पहला जो गांधी का ‘सर्वोदय’ है और दूसरा गांधी ने रस्किन की पुस्तक ‘अन टु दिस लास्ट’ के आधार पर ‘सर्वोदय नाम का एक ट्रेक्ट ही निकाला’ था। रस्किन ‘सर्वोदय’ ने गांधी के मार्ग में दिए का काम किया। उसने गांधी को ‘सर्वोदय’ तक पहुँचने का रास्ता दिखाया।
‘सर्वोदय’ के अतिरिक्त भी अन्य संदर्भों में ‘अन टु दिस लास्ट’ पुस्तक का असर गांधी के ऊपर पड़ा था। जैसे “पहला तो यह कि गांधी ने ‘फीनिक्स सेटेलमेंट’ की स्थापना की जो एक आश्रम की प्रतिकृति या पूर्व पीठिका थी। उसके बाद में जोहानिसवर्ग के टॉल्सटॉय फॉर्म, अहमदाबाद के साबरमती आश्रम और वर्धा के सेवाग्राम आश्रम के रूप में मूर्तिमान होने का अवसर मिला।”36 गांधी में रस्किन एक और जगह मिलते हैं। रस्किन ने “उन्नत औधोगिक समाज में भी हस्तकलाओं के महत्व का वैचारिक आग्रह किया था। गांधी ने उसे अपेक्षाकृत अधिक गरीब भारत में चरखे से विकल्पित किया।”37 गांधी और ‘हिन्द स्वराज’ को गढ़ने में
रस्किन की विशेष भूमिका है।
‘हिन्द स्वराज’ में मैजिनी की पुस्तक ‘ड्यूटीज़ ऑफ मैन’ को भी जगह दी गई है। इस पुस्तक के माध्यम से गांधी ने “हिंसा और अराजकता में विश्वास रखानेवाले आप्रवासी भारतियों को चुनौती और संभावना भी प्रेषित की थी कि मैजिनी के राजदर्शन की संभवत: ज्यादा सुसंगत और स्थायी प्रकृति की व्याख्या नैतिक और अहिंसात्मक प्रकृति की है।”38
‘हिन्द स्वराज’ के परिशिष्ट में गांधी ने मैक्स नार्दू को ‘पैरेडॉक्सेज़ ऑफ सिविलाइजेशन’ नामक पुस्तक का लेखक बताया है। कनक तिवारी की माने तो मैक्स नार्दू ने इस शीर्षक से कोई पुस्तक ही नहीं लिखी है। नार्दू ने ‘कान्वेंशनल लाइफ ऑफ सिविलाइजेशन’ (1895) और ‘पैराडॉक्सेस’ (1906) नामक पुस्तकें लिखी है। संभावना यह कि “गांधी ने दोनों पुस्तकों को पढ़ा हो और शीर्षक गड्डमड्ड हो गए हों।”39 सभ्यता के संदर्भ में गांधी के जो विचार हैं वह में प्राचीन भारतीय जीवन की सादगी को लेकर जो स्मरण या प्रलाप हैं, उसे मैक्स नार्दू की किताब से भी भारत के बदले यूरोपीय संदर्भ में और इसलिए वैश्विक संदर्भ में बखूबी समझा जा सकता है। पहले के जीवन में लोग मोटा-झोटा कपड़ा पहनते थे। मकान सर्व सुविधा सम्पन्न नहीं होते थे। खानपान प्राथमिक मनुष्य-वृत्तियों के आसपास था और प्रर्याप्त वर्तन भांडे भी नहीं होते थे। मैक्स नार्दू ने कहा कि आज की शहरी सभ्यता गांवों की कुर्बानी करके विकसित हुई है और वह श्रमरत मनुष्य को ही सभ्यता का केन्द्रबिन्दु मनाने को तैयार नहीं है। गांधी ने इसीलिए नार्दू के सुर-में-सुर मिलाते हुए कहा कि डॉक्टर और वकील जैसे पेशे बहुत महत्वपूर्ण कैसे हो गए, जबकि वे अमीर और गरीब दोनों तरह के लोगों पर पराश्रयी हैं।”40 मैक्स नार्दू की तरह गांधी का भी मानना था कि शहरों की उन्नति गांवों की कुर्बानी पर ही हुई है। गांधी ने लिखा भी है कि “मैंने पाया है कि शहरवासियों ने आमतौर पर ग्रामवासियों का शोषण किया है; सच तो यह है कि वे गरीब ग्रामवासियों की ही मेहनत पर जीते हैं।”41 गांधी का मानना था कि भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसा हुआ है।
‘हिन्द स्वराज’ के परिशिष्ट की अंतिम पुस्तक हेनरी समर मेन की ‘विलेज कम्युनिटीज़ इन द ईस्ट एंड वेस्ट’ है। इस पुस्तक से गांधी ने दो उद्देश्य हासिल किए। “पहला तो यक कि उन्होंने दक्षिण-अफ्रीका में निवास कर रहे भारतीयों के लिए मतदान का अधिकार मांगा क्योंकि भारतीय सदियों से प्रजातांत्रिक संस्थाओं को समझते और विकसित करते रहे हैं। दूसरी प्रेरणा उन्होंने यह ग्रहण की कि ग्रामोद्वार को उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा ध्येय बना लिया।”42 गांधी का मानना था कि सच्ची आजादी गांवों की आजादी में निहित है।
‘हिन्द स्वराज’ की रचना में इन सभी पश्चिमी विद्वानों की विशेष भूमिका रही है। “पश्चिम के उन सभी विचारकों से गांधी ने अपने तर्कमहल के लिए खुलकर वैचारिक ऋण लेना स्वीकार किया है, जिनका गांधी के जीवन में अंततः स्थायी सरोकार और सहकार बना।”43 हम देखते हैं कि गांधी ने अपने विचारों को पुष्ट करने के लिए न जाने कितने पश्चिमी विद्वानों को बार-बार और ध्यान से पढ़ा है। ‘हिन्द स्वराज’ के जीतने भी विचार हैं वह मूलतः और मूलतः गांधी के अपने ही हैं।
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संदर्भ-सूची :
(1) विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (संपादक), महात्मा गांधी : सहस्त्राब्द का महानायक, लेख– कर्मयोगी महात्मा – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 7
(2) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 10
(3) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 16
(4) दर्पण (हिन्द स्वराज विशेष), संपादक- प्रियंकर पालीवाल, वर्ष : 11, अंक : 8-11, सितम्बर 2009, केंद्रीय काँच एंड सिरामिक अनुसंधान संस्थान, कोलकात्ता, पृष्ठ संख्या- 55
(5) गांधी, हिन्द स्वराज, अनुवादक – अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, आठवाँ संस्करण, जून 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 3
(6) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 31
(7) गांधी, हिन्द स्वराज, अनुवादक – अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, आठवाँ संस्करण, जून 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 3
(8) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 6
(9) दर्पण (हिन्द स्वराज विशेष), संपादक- प्रियंकर पालीवाल, वर्ष : 11, अंक : 8-11, सितम्बर 2009, केंद्रीय काँच एंड सिरामिक अनुसंधान संस्थान, कोलकात्ता, पृष्ठ संख्या- 51
(10) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 51
(11) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 32
(12) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 32
(13) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 27-28
(14) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 29
(15) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 29-30-31
(16) उदय प्रकाश, …और अंत में प्रार्थना, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006 ई॰, पृष्ठ संख्या- 104
(17) गांधी, हिन्द स्वराज, अनुवादक – अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, आठवाँ संस्करण, जून 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 3
(18) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 127
(19) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 127
(20) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 131-132
(21) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 132
(22) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 133
(23) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 135
(24) गांधी, हिन्द स्वराज, अनुवादक – अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, आठवाँ संस्करण, जून 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 3
(25) गिरिराज किशोर, हिन्द स्वराज : गांधी का शब्द – अवतार, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण, 2010 ई॰, पृष्ठ संख्या- 53
(26) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 135-136
(27) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 143
(28) गांधी, हिन्द स्वराज, अनुवादक – अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, आठवाँ संस्करण, जून 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 37
(29) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 141-142
(30) गांधी, हिन्द स्वराज, अनुवादक – अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, आठवाँ संस्करण, जून 2009 ई॰ पृष्ठ संख्या- 47-48
(31) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 141
(32) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 144
(33) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 144
(34) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 137-138
(35) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 138
(36) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 139
(37) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 139
(38) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 145
(39) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 142
(40) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 142-143
(41) गांधी, मेरे सपनों का भारत, राजपाल, दिल्ली, संस्करण, 2008 ई॰, पृष्ठ संख्या- 80
(42) कनक तिवारी, हिन्द स्वराज का सच, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, संस्करण- 2010 ई॰ पृष्ठ संख्या- 141
(43) उपरोक्त, पृष्ठ संख्या- 145-146
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