हिन्दी साहित्येतिहास की समस्याएँ

प्रवीन वर्मा

पीएच.डी, हिन्दी,अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली

फोन न. 9899670330,8810341549

ई. मेल vermapraveen452@gmail.com

शोध सारांशइतिहास चाहे साहित्य का हो या देश का, वह सिर्फ तथ्यों से नहीं बनता बल्कि उसमें तथ्यों से अधिक महत्व व्याख्याओं का होता है। इतिहासबोध की परंपरा में सक्रिय परिवर्तन शुक्ल जी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में प्रत्यक्षवादी या विधेयवादी दृष्टिकोण से किया। जिसके अंतर्गत जाति, वातावरण तथा क्षण तीन तत्वों को सर्वाधिक महत्व दिया। शुक्लजी के उपरांत कई इतिहासकारों ने इतिहास लिखे। वह सभी इतिहास शुक्ल के इतिहास को केंद्र में रखकर ही लिखे गए है हालांकि इतिहासबोध की दृष्टि से इतने खरे नहीं उतर पाए सिवाए हजारी प्रसाद द्विवेदीजी के।

बीज शब्द – इतिहासबोध, भाषिक संक्रमण, इतिहास, अपभ्रंश, बंधुत्व, साहित्येतिहास, वर्चस्व, पौरुष, तथ्य, संस्कृति, विभाजन, परिकल्पना।

शोध आलेख

इतिहास

इतिहास में अतीत की घटनाओं और प्रवृत्तियों का कालक्रमानुसार विवेचन और विश्लेषण होता है। इतिहास में घटनाओं और तथ्यों का समावेश किया जाता है, किन्तु यह सब मिलकर इतिहास नहीं कहलाता। इतिहास चाहे साहित्य का हो या देश का, वह सिर्फ तथ्यों से नहीं बनता बल्कि उसमें तथ्यों से अधिक महत्व व्याख्याओं का होता है। प्रसिद्ध इतिहासकार ई.एच.कार ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास क्या है’ में लिखा है कि, ”इतिहास, इतिहासकार और तथ्यों की क्रिया-प्रतिक्रिया की एक अनवरत प्रकिया है, अतीत और वर्तमान के बीच एक अंतहीन संवाद है।”1 स्पष्ट है कि घटना प्रवाह में एक तर्क स्थापित करना इतिहास कहलाता है।

साहित्येतिहास

यदि हिन्दी साहित्येतिहास की समस्याओं पर विचार करे तो हम पाते है कि उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व भक्तमाल, कालीदास हजारा, कविमाला, चौरासी वैष्णव की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता इत्यादि रचनाओं में इतिहास लेखन की आरंभिक झलक दिखाई पड़ती है, ये सभी रचनाएँ इतिहासबोध के स्तर पर प्रभाव शून्य हैं। उन्नीसवीं सदी में इतिहास लेखन की औपचारिक शुरूआत हुई। जिसमें गार्सा द तासी का ‘इस्तवार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’ शिवसिंह सेंगर का ‘शिवसिंह सरोज’ आदि इतिहासबोध से युक्त नहीं है। जॉर्ज ग्रियर्सन और मिश्रबन्धु के प्रयास में इतिहासबोध के प्रति सजगता दिखाई पड़ती है। लेकिन इनके इतिहास में भी इतिहासबोध की निश्चयात्मक व्याख्या प्रस्तुत नहीं है। इतिहासबोध की परंपरा में सक्रिय परिवर्तन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में प्रत्यक्षवादी या विधेयवादी दृष्टिकोण से किया। जिसके अंतर्गत जाति, वातावरण तथा क्षण तीन तत्वों को सर्वाधिक महत्व दिया। शुक्ल के उपरांत कई इतिहासकारों ने इतिहास लिखे। वह सभी इतिहास शुक्ल के इतिहास को केंद्र में रखकर ही लिखे गए हैं हालांकि इतिहासबोध की दृष्टि से इतने खरे नहीं उतर पाए सिवाए हजारी प्रसाद द्विवेदी के, हमें यह भी ध्यान रखना आवश्यक होगा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास कोई इतिहास नहीं है बल्कि भूमिका मात्र है। बच्चन सिंह ने कहा है कि, ”न तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को लेकर कोई दूसरा इतिहास लिखा जा सकता है और न उसे छोड़कर।“2

विद्वानों में मतभेद

हिन्दी साहित्य के इतिहास के आरंभ को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य को सातवीं शताब्दी से मानते हैं, क्योंकि सातवीं शताब्दी में पूर्ववर्ती अपभ्रंश के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। ऐसे विद्वानों में जॉर्ज ग्रियर्सन, मिश्रबन्धु, शिवसिंह सेंगर, पंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. नगेंद्र और डॉ. रामकुमार वर्मा शामिल हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी व आचार्य रामचन्द्र शुक्ल दोनों हिन्दी साहित्य का आरंभ दसवीं शताब्दी से मानते हैं। द्विवेदी जी की दृष्टि में इसका कारण भाषिक है, जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी मानते हैं किन्तु काफी समय तक सांप्रदायिक रचनाएँ होती रही, जिन्हें साहित्य नहीं माना जा सकता। इसीलिए वास्तविक रूप से हिन्दी साहित्य का आरंभ संवत् 1050 या 993 ई. के आस-पास से आरंभ हुआ। गणपति चन्द्रगुप्त और हरीशचन्द्र वर्मा हिन्दी साहित्य का आरंभ बारहवीं शताब्दी से मानते हैं और इसका कारण यह बताते हैं कि बारहवीं सदी के आस-पास अपभ्रंश व अवहट्ट से गुजरते हुए हिन्दी भाषा पुरानी हिन्दी के दौर में प्रवेश कर चुकी थी। वहीं सुनीति कुमार चटर्जी, उदय नारायण तिवारी तथा नामवर सिंह हिन्दी साहित्य का आरंभ भाषा वैज्ञानिक आधार पर चौदहवीं सदी से मानते हैं क्योंकि इस समय तक भाषिक संक्रमण का दौर पूर्णतः समाप्त हो चुका था और हिन्दी अपने वास्तविक रूप में आ चुकी थी। अत: हिन्दी साहित्य का आरम्भ दसवीं शताब्दी के आस-पास माना जाता है क्योंकि दसवीं शताब्दी के आरंभ में भाषिक संक्रमण एक निश्चित समय तक पहुँच चुका था। इसी समय आधुनिक हिन्दी के आरंभिक लक्षण भी दिखाई देने लगे थे।

काल विभाजन एवं नामकरण

हिन्दी साहित्येतिहास में काल विभाजन का सर्वप्रथम प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया। उन्होंने सम्पूर्ण साहित्य को ग्यारह कालों में विभक्त किया। इस विभाजन की समस्या यह थी कि इसमें कई कालखंड गैर-साहित्यिक आधारों पर स्थापित किए गए थे। चारणकाल का निश्चित समय 700 से 1300 ई. बताया किन्तु शेष कालों का निश्चित विभाजन न कर सके। इसलिए यह विभाजन अव्यवस्थित माना जाता है। मिश्रबंधु ने आदिकाल को आरंभिक काल कहते हुए उसका समय 643 से 1387 ई. बताया है। इस काल विभाजन की मूल समस्या यह है कि यह अत्यंत जटिल एवं अतार्किक है। आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘वीरगाथाकाल नाम’ दिया। इसका समय 1050 से 1375 संवत् माना है। उन्होंने इसके पीछे तर्क दिया है जो इस प्रकार है, “परिस्थिति के अनुसार शिक्षित जनसमूह की बदली हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिन्दी साहित्य के इतिहास के कालविभाग और रचना की भिन्न–भिन्न शाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढ़ाचा खड़ा किया गया था।”3 हजारी प्रसाद द्विवेदी भी शुक्ल की तरह साहित्य का आरंभ दसवीं शताब्दी से मानते हैं। गौरतलब है कि आदिकाल के नामकरण को लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी की वैचारिक दृष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से भिन्न है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘वीरगाथाकाल’ नाम बारह पुस्तकों के आधार पर रखा। जोकि चार रचनाएँ अपभ्रंश की और आठ रचनाएँ देशभाषा (बोलचाल) की हैं। प्रश्न यह उठता है कि जिन बारह पुस्तकों के आधार पर ‘वीरगाथाकाल’ नाम रखा गया उसमें से कई धार्मिक उपदेशपरक रचनाएँ हैं। जिसको वह साहित्य की कोटि से बाहर रखते हैं। जिसका उल्लेख यह बताने के लिए करते है कि अपभ्रंश भाषा का आरंभ कब से हुआ। इसी आधार पर हजारी प्रसाद द्विवेदी विरोध करते हुए कहते हैं कि, “जिन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का वीरगाथाकाल नाम रखा गया, उनमें से तो कुछ नोटिस मात्र से बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं, और कुछ तो पीछे की रचनाएँ है या पहले की रचनाओं के विकृत रूप हैं। इन पुस्तकों को नवीन मान लिया गया है।”4 ‘कीर्तिपताका’ जैसे रचनाएँ आज तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। रासो साहित्य की कई रचनाएँ भाषा के आधार पर आदिकाल के बाद सिद्ध होने लगी हैं और कई ऐसी रचनाएँ सामने आने लगी है जो शुक्ल के समय में उपलब्ध नहीं थीं, और यदि होती तो शायद उनके निर्णय को बदल देती। वहीं अमीर खुसरो और विद्यापति को आचार्य शुक्ल फुटकर साहित्य में रखते हैं जबकि उन बारह रचनाओं में अमीर खुसरो, विद्यापति की रचनाएँ सम्मिलित है। अत: द्विवेदी द्वारा आदिकाल नाम पर सहमति बन चुकी हैं क्योंकि इसमें आरंभिक होने के साथ-साथ पूर्वज होने का एहसास भी शामिल है। भक्तिकाल में सगुण साहित्य तक आते-आते आचार्य शुक्ल की दृष्टि में परिवर्तन दिखाई पड़ता है। तुलसीदास, सूरदास को ‘जी’ कहकर सम्मान देते हैं। वही निर्गुण साहित्य में संतों को नाम से ही संबोधित करते हैं। आचार्य शुक्ल रचनाकारों से ज्यादा रचना को महत्व देते हैं। इसी कारण कबीर उनकी आलोचना का पात्र बनते हैं। तुलसीदास का वह बड़ा समर्थन करते है क्योंकि तुलसीदास और शुक्ल जाति से ब्राह्मण है। अगर देखा जाए तो कबीर भी विधवा ब्राह्मणी के अनचाहे गर्भ थे। भाषा के स्तर पर भी आचार्य शुक्ल कबीर को नकार देते हैं। उनकी भाषा को सधुक्कड़ी और फटकार वाली भाषा कहते हैं। कबीर जिस समय समाज से टकरा रहे थे उस समय सभ्य भाषा का प्रयोग उचित नहीं था इसलिए वह जनता के उस बड़े भाग को संभालते है जो प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य पड़ता जा रहा था। बहरहाल भक्तिकाल के उद्भव को लेकर भी द्वंद्व देखा जा सकता है। आचार्य शुक्ल कहते है कि, “देश में मुस्लमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूतियाँ तोड़ी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में वह अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीति उलटफेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ?”5 स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल भक्ति काल का उद्भव इस्लाम प्रतिक्रिया के रूप में देखते है। हजारी प्रसाद द्विवेदी एक बार फिर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मत से असहमति जताते हुए कहते है कि, “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।“6 लेकिन द्विवेदी चार आना छोड़ते है, कहीं न कहीं वे भी भक्तिकाल का अद्भव मुसलमानों से मानते हैं।

रीतिकाल का वर्गीकरण भी विवादस्पद रहा है। रीतिकाल को मिश्रबंधु ने ’अलंकृत काल’ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने ‘शृंगार काल’, रमाशंकर शुक्ल रसाल ने ‘कलाकाल’ और ग्रिर्यसन ने ‘रीतिकाव्य’ नाम से संबोधित किया। यह सभी नाम किसी एक प्रवृत्ति के आधार पर रखे गए इसलिए इन सभी नामों पर असहमति बनती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा ‘रीतिकाल’ ही मान्य है। गहराई से विचार किया जाए तो यह समस्या हमारे समक्ष उत्पन्न होती हैं कि वीरकाव्य व नीतिकाव्य उस समय लिखे जा रहे थे किन्तु दोनों प्रवृत्ति अतिमहत्वपूर्ण होते हुए भी एकदम गौण बन जाती हैं। रीतिकाल की शुरूआत का प्रसंग भी विवादस्पद है। आचार्य शुक्ल ने केशवदास को रीतिपरम्परा का प्रवर्तक नहीं माना। कारण बताया कि वे अलंकारवादी आचार्य हैं, रसवादी नहीं, बल्कि तथ्य यह है कि केशवदास की रचना ‘रसिकप्रिय’ पूर्णत: रसवादी रचना है। तथा अन्य रसवादी आचार्यो ने भी अलंकारवादी रचनाएँ लिखी हैं। बहरहाल इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की सबसे बड़ी समस्या तथ्यों की प्रामाणिकता हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कई तथ्य प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिए कबीर के जन्म-मृत्यु की घटनाएँ, जायसी के रचनाओं की मूल प्रतियाँ, सूरदास के अंधत्व का प्रश्न, रासो साहित्य की प्रामाणिकता तथा घनानन्द की रचनाओं की पूरी सूची जैसे कई प्रश्न हैं जिनके निर्धारण की प्रकिया निरंतर चल रही हैं।

आधुनिक काल

आधुनिकता का आरंभ भारतेन्दु युग से माना जाता है, लेकिन आधुनिकता की शुरुआत एक शताब्दी पूर्व ही हो गई थी। ब्रिटिश शासन ने भारतीय शिक्षा प्रणाली पर ज़ोर दिया। माध्यमिक शिक्षा और विश्वविद्यालय शिक्षा अंग्रेजी भाषा में दी जाने लगी। अंग्रेजो ने भारत में फूट डालो की नीति अपनाकर बंगाल, उड़ीसा और बिहार राज्यों के अलावा पूर्णत: भारत पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। अंग्रेजो की इस कूटनीति का विद्रोह भारतेन्दु युग के कवियों की रचनाओं में स्पष्टत: दिखाई देता हैं। यह विद्रोह पद्य की बजाय गद्य में अधिक देखा जा सकता है। भारतेन्दु युग में काव्य की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय संक्रमण के जिस दौर से गुजरा इसे कुछ चिंतक पुनर्जागरण कहते हैं, कुछ पुनरुत्थान कहते है और कुछ अन्य नवजागरण। रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में, “पुनर्जागरण दो जातीय संस्कृति की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा है।”7 एक ओर भारतीय संस्कृति है तो दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति। यह भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान व मध्यकालीन दौर से गुजर रही थी। जबकि पाश्चात्य संस्कृति वैज्ञानिक तथा मशीनी क्रांति के आधार पर भौतिकवाद तथा पूंजीवाद का प्रतिनिधित्व कर रही थी। उनका अध्यात्म पक्ष कमजोर जरूर था, लेकिन वैज्ञानिक तार्किक शिक्षा, इहलौकिक मानसिकता, समानता स्वतंत्रता, न्याय व बंधुत्व के आधुनिक आदर्श थे। जो तत्कालीन भारतीय समाज के लिए दुर्लभ थे। इन दोनों की टकराहट से पाश्चात्य संस्कृति अध्यात्म से प्रभावित हुई। वही भारतीय संस्कृति ने आधुनिक शिक्षा व भौतिकता सीखी। द्विवेदी युग में राष्ट्रीयता का स्वर और प्रखर हो गया। अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि छायावाद में राष्ट्रीयता का स्वर मंद रहा। विचार करने पर पाते है कि छायावाद का मूल उत्स भारतीय स्वधीनता संघर्ष में है। ध्यान देने वाली बात है कि कविता में छायावाद और भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का आगमन लगभग एक ही साथ हुआ। नगेंद्र के अनुसार, “ जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म को अहिंसा की ओर प्रेरित किया, उन्होंने ही भाव (सौन्दर्य) वृत्ति को छायावाद की ओर।”8 इसका मतलब यह नहीं है कि छायावाद और गांधी जी की जीवन दृष्टि समान है या स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका गांधी जी की थी, वही छायावाद की हिन्दी साहित्य के संदर्भ में। लेकिन स्वाधीनता संग्राम में छायावाद और गांधी दोनों की परिकल्पना उस दौर में लगभग समान कही जा सकती हैं। सत्य यह है कि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति निराला की ‘जागो फिर एक बार’, पंत की ‘प्रथम रश्मि’, महादेवी वर्मा की ‘जाग तुझको दूर जाना’ और प्रसाद की ‘प्रथम प्रभात’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’ आदि में देखा जा सकता है। छायावाद शब्द को लेकर भी हमारे समक्ष समस्या उत्पन्न होती है। विभिन्न विद्वानों ने छायावाद के संबंध में अपनी मान्यताएँ दी है, लेकिन आज तक कोई निश्चित परिभाषा तय नहीं हुई है। महावीर प्रसाद द्विवेदी मानते है कि, ”छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों की छाया यदि कही अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए।”9 वहीं शांतिप्रिय द्विवेदी छायावाद को गांधी से जोड़कर पहचान दिलाने की कोशिश करते है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल शुरुआती दिनों तक छायावाद को ‘मधुचर्या’ कहते रहे। बाद में निराला की कृति ‘राम की शक्तिपूजा’ प्रसाद की ‘कामायनी’ से परिचित होने के बाद अपनी धारणा को बदल देते है। जो इस प्रकार है, ”इस रूपात्मक आभास को यूरोप में छाया (फैन्टसमाटा) कहते थे। इसी से बंगाल में ब्रह्मसमाज के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे वे ‘छायावाद’ कहलाने लगे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र में वहाँ के साहित्यक्षेत्र में आया और फिर रवीन्द्र बाबू की धूम मचने पर हिन्दी के साहित्य क्षेत्र से भी प्रकट हुआ।”10 इस कथन से स्पष्ट है कि छायावाद पर जितना प्रभाव गांधी जी का पड़ा। उतना ही रवीन्द्रनाथ जी का भी।

हिन्दी साहित्य के इतिहास को नए विमर्शों और नए दृष्टियों का विवेचन करने के लिए शुक्ल के इतिहास से बाहर आना आवश्यक है। आधुनिक काल में हमारे समक्ष नई समस्याएँ आ खड़ी हुई। सबसे बड़ी समस्या भाषाई स्तर पर थी। हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का ज़ोर अपनी लय में था। भारत भाषा और समाज दोनों के लिए लड़ रहा था। भारत को आज़ादी तो मिल गई थी लेकिन हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। आज़ादी के बाद हमने जो स्वप्न देखे, वह स्वप्न बनकर ही रह गए। भारत अब अपनों के हाथों का गुलाम बन गया था। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी रोज़मर्रा की बुनियादी चीजें, जिसके लिए भारत ने लंबी लड़ाई लड़ी वह भी प्राप्त नहीं हुई। ईश्वर की जगह मनुष्य केंद्र में आ गया था। उनकी समस्याओं और विद्रोह को नागार्जुन, रघुवीर सहाय, धूमिल, आदि साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया। सन् 1980 के बाद स्त्री विमर्श और दलित विमर्श साहित्य में स्थान पाने लगे। अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि स्त्री साहित्य को मुख्य धारा के साहित्य से विमुख रखा गया। परंतु विचार करने पर पाते है कि शुरूआती दौर से ही स्त्री साहित्य में बनी हुई है जैसे मीरा, महादेवी वर्मा, मन्नू भण्डारी, मृदुला गर्ग आदि। दलित साहित्य को लेकर भी एक प्रश्न बराबर उठता रहता है कि गैर-दलित साहित्यकार की दलित संबंधी रचना को दलित साहित्य की श्रेणी में रखा जाए या नहीं ? जिस प्रकार पुरुषों द्वारा लिखा गया स्त्री साहित्य को साहित्य की श्रेणी में महत्व दिया जाता है फिर गैर-दलित साहित्यकार की दलित संबंधी रचना पर इतनी बहस क्यों ? एक समस्या यह है कि प्रवासी साहित्य को लेकर रुचि का आभास दिखता है। हिन्दी साहित्य में प्रवासी साहित्यकारों को जो स्थान मिलना चाहिए वह स्थान उन्हे नहीं मिलता। विदेशों में रहकर भी हिन्दी भाषा और साहित्य का झण्डा कई वर्षो से फहराया जा रहा है। वह अतुलनीय है। एक ओर समस्या यह है कि मंचीय कविता को साहित्य की कोटि में रखा जाए या नहीं ? इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय कहते है कि, “जो भड़ौती और विदूषक की प्रवृति का हास्य व्यंग्य है ऐसे कवियों को आप जानते हैं और मैं भी जनता हूँ कि अपनी पत्नी को पचास गंदी गालियां देकर हास्य पैदा करते हैं। ऐसी कविताओं को कविता कैसे मानेंगें। इसलिए जो हास्य व्यंग्य की गंभीर और विचारणीय कविताएं हैं। उनके लिए जगह हो सकती हैं।”11

अंत में यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता से पूर्व जो इतिहास लिखे गए उनकी मूल समस्या में स्वतंत्रता और हमारी परंपरा का सवाल था। स्वतंत्रता के बाद कई साहित्येतिहास लिखे गए उनकी मूल समस्या सामाजिक, सांस्कृतिक और परंपरा थी। जिसको रामस्वरूप चतुर्वेदी, बच्चन सिंह, और सुमन राजे अपने इतिहास में विशेष रूप से व्याख्यायित करते हैं।

संदर्भ ग्रंथ सूची-

1) कार,ई.एच., 2016, इतिहास क्या है, मैकामिलन इंडिया लिमिटेड प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 21

2) सिंह, बच्चन, 2016, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: भूमिका (vii)

3) शुक्ल, रामचंद्र, 2012, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: भूमिका (xv)

4) प्रताप सिंह, योगेंद्र, 2016, हिन्दी साहित्य का इतिहास और उसकी समस्याएँ, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 36

5) शुक्ल, रामचंद्र, 2012, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 39

6) प्रताप सिंह, योगेंद्र, 2016, हिन्दी साहित्य का इतिहास और उसकी समस्याएँ, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 90

7) चतुर्वेदी, रामस्वरूप, 2011, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 79

8) अमरनाथ, 2018, हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 151

9) वही, पृष्ठ संख्या: 151

10) शुक्ल, रामचंद्र, 2012, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 456

11) समसामयिक सृजन पत्रिका, अप्रैल-जून 2012, वर्ष दो, अंक दो, पृष्ठ संख्या: 145