हिन्दी कहानी का सौन्दर्य : चिंतन और विश्लेषण

डॉ. प्रवीण कुमार
हिंदी विभाग,
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय,
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सारांशः

प्रस्तुत शोधपत्र हिन्दी कहानी के बदलते सौन्दर्य को रेखांकित करता है। कहानी की संवेदना अपनी आरंभिक काल से जनचेतना को कैसे प्रभावित करती रही है और उसका विकास मौखिक से लिखित होने की प्रक्रिया में कैसे हुआ। इसकी रूपरेखा इस शोधपत्र में दिया गया है। प्रेमचंदपूर्व, प्रेमचंदयुगीन और प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी की न केवल संवेदना बदली है बल्कि उसका सौन्दर्यबोध भी बदलता गया है। प्रस्तुत शोधपत्र में इसकी खोज का एक प्रयास किया गया है।

की वर्डः सौन्दर्य, सौन्दर्यबोध, जीवनमूल्य, अनुभूति, संवेदना, प्रेम, आदर्शवाद, यथार्थवाद, मानवतावाद।   

विषय विस्‍तारः

रचना की प्रक्रिया और संवेदना सौन्दर्य की चेतना पैदा करती है। रचना की प्रकृति, संवेदना, स्वरूप और सौन्दर्य समय सापेक्ष समाज में होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन और बौद्धिक प्रकृति पर निर्भर करता है। रचना में निजी अनुभव न केवल रचना की प्रामाणिकता को रेखांकित करता है बल्कि उसके सौन्दर्य को प्रौढ़ता प्रदान करता है वहीं संवेदना की निजता सहृयता की भावना पैदा करती है। समय सापेक्ष विकास क्रम में कहानी की संवेदना लगातार बदलती रही है। इसी ऐतिहासिक विकास यात्र में हिन्दी कहानी के सौन्दर्य का अध्ययन किया जा सकता है। कहानी की परंपरा मानव सभ्यता-संस्कृति में आदिकाल से ही है। प्रत्येक देश के साहित्य में यह परंपरा अक्षुण रूप से विद्यमान है। हिन्दी गद्य साहित्य के जन्म के साथ ही हिन्दी कहानी का उदय आधुनिक चेतना के साथ हुआ है। प्रारंभ में हिन्दी कहानी का सौन्दर्य व्यवस्थित नहीं रहा है। हिन्दी कहानी की प्रारंभिक अवस्था के सौन्दर्य को इस बात से भी समझा जा सकता है। जैसा कि गोपाल राय लिखते हैं कि ‘‘उन्नीसवीं सदी के अंत तक साहित्यिक विधा के रूप में कहानी की कोई पहचान नहीं बनी थी। उसके लिए काई निश्चित संज्ञा भी स्थिर नहीं हुई थी।’’1 अर्थात किसी भी विधा की अस्थिरता के कारण उसकी जो संवेदना और सौन्दर्य होता है वही स्थिति कहानी के प्रारंभिक अवस्था में देखी जा सकती है। तदंतर पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में हिन्दी कहानी की लेखन परंपरा शुरू होती है। इसी क्रम में हिंदी कहानी के सौन्दर्य की खोज का एक प्रयास इस शोधपत्र में किया जा रहा है।  

प्रारंभिक हिन्दी कहानी का स्वरूप मनोरंजनात्मक था। इंशा अल्ला खां कृत ‘रानी केतकी की कहानी’, मुंशी नवल किशोर द्वारा सम्पादित ‘मनोहर कहानी’ (1880), और चण्डी प्रसाद सिंह कृत ‘हास्य रतन’ (1886), आदि कहानी संग्रह मनोरंजन प्रधान, स्वप्न कथाओं के रूप में पाठक के सम्मुख आते हैं। इस काल खण्ड (भारतेन्दु युग2) की कहानियों के माध्यम से नीतिप्रद शिक्षा, पाप-पुण्य, पुनःजन्म आदि की व्याख्या की जाती थी। कहानी की संवेदना के विकास और उसकी प्रवृत्तियां का युग सापेक्ष अध्ययन ही किया जा सकता है। ‘‘कथा आनादि काल से ही काल्पनिक और मौखिक होती थी। लिखित रूप प्राप्त करने के बाद उसका यह नाम बना, यद्यपि आख्यान उपाख्यान, चरित, वृतांत, पुराण आदि संज्ञाएं भी प्रयोग में आयीं। बाद में एक ऐसा कथा रूप भी सामने आया, जिसका आधार ख्यात अथवा ऐतिहासिक वृत्त होता था। ऐसे ही कथा रूप को आख्यायिका की संज्ञा दी गयी।’’3 सरस्वती में कथा विधा के लिए इसी ‘आख्यायिका’ शब्द का चयन किया गया था। आख्यायिका की संवेदना प्रेमचन्द के शब्दों में ‘‘प्राचीन आख्यायिका कुतूहल होती थी या अध्यात्म-विषयक।’’4 आख्यायिका की संवेदना संघर्ष का सौन्दर्य नहीं उत्पन्न करती है। ‘‘मौखिक रूप से चली आती कथा का कथ्य केवल केवल कौतूहलजन्य मनोरंजन, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से व्यंजित या कथित उपदेश और यत्किंचित भाव बोध होता था। अख्यायिका संज्ञा से अभिहित और प्रकाशित होने वाली रचनाओं में कौतूहलजन्य मनोरंजन गौण होन लगा और उपदेश के स्थान पर विचार, भावबोध और यथार्थ चित्रण को केन्द्रीयता प्राप्त होने लगी। यह प्रक्रिया एक दो दशक तक ही नहीं बहुत बाद तक चलती रही और आज भी चल रही है। भाव बोध को संवेदना का क्षण बनने में तो और भी देर हुई।’’5 इस प्रकार कहा जा सकता है कि कहानी भावबोध की संवेदना के क्षण की अभिव्यक्ति होती है। यह भावबोध ही वर्तमान कहानी को प्राचीन कहानी से अलग करती है। प्रेमचन्द के अनुसार ‘‘वर्तमान कहानी(आख्यायिका) मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण का अपना ध्येय समझती है। उसमें कल्पना की मात्र कम और अनुभूतियों की मात्र अधिक होती है। इतना ही नहीं बल्कि अनुभूतियां ही रचनाशील भावना से अनुरंजित होकर कहानी बन जाती है।’’6 इसी से कहानी की संवेदना और सौन्दर्य की अवधारण स्पष्ट होती है। हिन्दी में कहानी की ऐसी अवधारणा का स्वरूप प्रेमचन्द और उनके समकालीन कहानीकारों के लेखन में स्पष्ट अभिव्यक्त और परिमार्जित होता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि प्रथम दो दशक के बीच की कहानियों में कहानी की संवेदनात्मक अवधारणा नहीं थी। वह बनने की प्रक्रिया में सक्रिय थी। इस दशक की कहानियों में साहित्यिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय जागरण का स्वर दिखाई देता हैै। इसी दशक में जयशंकर प्रसाद की पहली कहानी ‘ग्राम’ (1911ई) और 1915 में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कालजीवी कहानी ‘उसने कहा था’, प्रकाशित हुई। मार्के की बात है कि प्रेमचंद की पहली हिन्दी कहानी ‘सौत’ भी इसी दशक में 1915 में प्रकाशित हुई है। यह दशक भारतीय समाज में बहुत ही उल्लेखनीय है। राजनीतिक में गांधी और डॉ- अम्बेडकर का प्रवेश होता है और हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद का आगमन होता है। राजनीतिक संदर्भ में राष्ट्रीय जागरण की लहर थी। जिसका स्वर हिन्दी साहित्य में भी सुनाई पड़ता है। इस दशक की कहानियां न केवल राजनीतिक दृष्टि से बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी उल्लेखनीय रही है।

समय सापेक्ष विकास क्रम में कहानी की संवेदना लगातार बदलती रही है। कहानी की संवेदना के बदलते स्वरूप में कहानीपन का लोप कभी नहीं हुआ है। वह गंभीरता से साथ उभरती रही है। आधुनिक कहानी से पूर्व कहानी में यथार्थ की अभिव्यक्ति काल्पनिक तौर पर भी हुआ है। पुष्पपाल सिंह के शब्दों में, ‘‘इससे पूर्व के साहित्य में भी यथार्थ-चित्रण के महत्व को एक भिन्न दृष्टिकोण के साथ स्वीकारा गया है। वहां जीवन की वास्तविकता यथार्थ न होकर कल्पित है।’’7 अर्थात विकासक्रम में कहानी की संवेदना समय-सापेक्ष बदलती चली गई और उसका सौन्दर्य यथार्थवाद से संबद्ध होता चला गया। कहानियां कहानीकार की निजी और विशिष्ट दृष्टि के अनुरूप अपना स्वरूप बदलती रही। अब वह ‘‘मनुष्य के सामने कल्पना के बल पर आदर्शों का लोक एवं तिलस्म का कुतूहल खड़ा नहीं करती, अपितु वह जीवन-संघर्ष में समस्याओं से जूझते मनुष्य की सहगामिनी अथवा सहयात्री है। आधुनिक कहानी मनुष्य की जिंदगी की संपूर्ण विसंगतियों, भावनाओं एवं विवशताओं के साथ अपने पाठक का साक्षात्कार कराती है।’’8 इस प्रकार कहानियां यथार्थवाद की ओर झुकती चली गई। कहानी यथार्थ की प्रामाणिक अनुभूति की उपज बनती चली गई। यथार्थ के प्रामाणिक चित्रण पर बल देने के कारण जीवन के शाश्वत मूल्यों और आस्थाओं की प्रस्थापनाओं की कमी नई कहानी के सफर तक में देखने को मिलने लगी। अपितु केवल वर्तमान और जीवन की तत्कालिक स्थितियों से साक्षात्कार कराना ही कहानी का ध्येय हो गया। ‘‘आज वह हमें आदर्श का पाठ पढ़ाकर एक नया मनुष्य बनाने का उपक्रम नहीं करती अपितु यह जीवन की समस्त विसंगतियों एवं भयावह यथार्थ से गहरी पहचान कराकर उन स्थितियों पर चोट करती है, जो इन विसंगतियों एवं यथार्थ की भयावहता के लिए उत्तरदायी हैं और अपने इसी रूप में वह जीवन को या मनुष्य को बेहतर बनाने, उदात्त की ओर ले जाने का प्रयत्न सिद्ध होती है।’’9 अर्थात कहानी का सौन्दर्य लगातार विकास क्रम में परिमार्जित व परिष्कृत होता रहा है।

‘‘प्रेमचंद पूर्व युग की आधुनिक हिन्दी कहानी गुण और परिमाण, दोनों ही दृष्टियों से विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। इस युग की कहानी आदर्शवादी रही है। वह कहानी में संस्कृत कथाओं के समान ही उपदेशात्मक वृति और नीति कथाओं जैसे निष्कर्ष और आदर्श प्रस्तुत करने की चेष्टा करता है। किंही निश्चित सिद्धांतों, उपदेशों और निष्कर्ष की संपूर्ति और संपुष्टि के निमित्त ही कहानी गढ़ी जाती थी। यहां किसी आदर्श को निश्चित करके उसी को सिद्ध करने के लिए कहानी का निर्माण होता था, सृजन नहीं।’’10 इस सृजन और गढ़ने की प्रक्रिया के कारण हिन्दी कहानी में सौन्दर्य का स्वरूप भिन्न रहा है। वह यथार्थवादी न हो कर आदर्शवादी रहा है। कल्पना से गढ़ा हुआ रहा है, अनुभूति की प्रामाणिक अभिव्यक्ति का सृजन नहीं। हरा ‘‘संस्कृत कथाओं और लोककथाओं के अनुकरण पर लिखी इन कहानियों में अलौकिक और आकस्मिक संयोग, अद्भुत तत्व और कुतूहल का प्राधान्य है। निश्चित सिद्धांतों और आदर्शों की पूर्ति के निमित्त कहानी गढने के कारण कल्पना का प्राधान्य होता था। कल्पना के इसी प्राधान्य के कारण कहानी में विश्वसनीयता नहीं थी, अपितु झूठ की हद तक कल्पना का प्रयोग होता था।’’11 वहीं परमानंद श्रीवास्तव ‘हिन्दी कहानी की रचना प्रक्रिया’ में लिखते हैं कि ‘‘वस्तुतः सामाजिक यथार्थ का वह बोध इन कहानियों में है ही नहीं, जो सामयिक जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सकता है।’’12 यथार्थबोध की कमी के कारण हिन्दी कहानी में जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी। जिसकी दरकार कहानी में होती है।

साहित्य जगत में प्रेमचंद के आगमन ने हिन्दी साहित्य के स्वरूप और उसकी संवेदना के साथ-साथ उद्देश्य तथा सौन्दर्य को भी परिवर्तित किया है। साहित्य सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ मानव मन की वृत्तियों से जुड़ने लगा। दूसरे शब्दों में साहित्य और मनोविज्ञान का समन्वय होने लगा। यही समन्वय कहानी को पूर्व से अलग करता है। डॉ- रामचन्द्र तिवारी के अुनसार ‘‘हिन्दी की प्रारंभिक कहानियों में कथानक का विकास आकस्मिक एवं दैवी घटनाओं पर निर्भर करता था। विकास-युग में यह कथा विकास चरित्रें की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं द्वारा होने लगा। मनोवैज्ञानिक कथानकों का सूत्रपात प्रेमचंद की प्रथम कहानी ‘पंचमेश्वर’ से होता है।’’13 सन् 1925 ई तक हिन्दी कहानियों की दो स्पष्ट धाराएं परिलक्षित होने लगीं। प्रथम धारा यथार्थवादी दृष्टिकोण को स्पर्श करती हुई जीवन के व्यावहारिक पक्ष को भी लेकर विकसित हुई। इस धारा के अंतर्गत प्रेमचंद, सुदर्शन, विश्वभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, ज्वालादत्त शर्मा तथा चंद्रधर शर्मा गुलेरी प्रमुख हैं। दूसरी धारा आदर्श प्रधान प्रवृत्ति से प्रेरित होकर भाव-सत्य को लेकर आगे बढ़ी। इस धारा के अंतर्गत जयशंकर प्रसाद, चंडीप्रसाद ”दयेश तथा राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह आदि प्रमुख हैं।

प्रेमचन्द युग में आकर कहानी की सवंदेना और स्वरूप दोनों बदल गया। प्रेमचन्द ने सर्वप्रथम कहानी को काल्पनिकता से मुक्त कर सामाजिकता से संसिक्त किया। इस कारण हिन्दी कहानी का रूख अपने परिवेश और यथार्थ की ओर उन्मुख हुआ। अब कहानी में कल्पना या स्वर्णिम अतीत के इतिहास का लोक नहीं अपितु कहानीकार के चारों ओर फैला लोक, समाज और परिवेश चित्रित होने लगा। साहित्य में बौद्धिकता का प्रवेश होने लगा। बौद्धिकता के कारण कहानी स्वतः ही पूर्णतः काल्पनिक पात्रें एवं चरित्रें को अस्वीकृत करने लगी। उसमें मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अनुभूति, प्रवणता और यथार्थ के तत्वों का समाहार होने लगा। प्रेमचन्द यथार्थ को कहानी में पूर्णतः यथावत रूप में उतार देने के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं। वे यथार्थ को निजत्व की परिधि में लाकर पुनर्सृजित करने की बात प्रकारांतर से कहते हैं।, ‘‘अगर हम यथार्थ को हू-ब-हू खींचकर रख दें तो उसमें कला कहां है? कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है। कला दिखती तो यथार्थ है, पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खूबी यही है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो।’’14 बाद के वर्षों में प्रेमचन्द की कहानी में आदर्श से मोहभंग दिखता है। आदर्श से यथार्थ की जमींन की अभिव्यक्ति होती है। यही से कहानी में ‘नई’ की शुरूआत होती है। यह नई अलग दुनिया की नहीं है, बल्कि इसी समाज में नवीनता का बोध है। जहां एक था राजा से एक है आदमी का सफर दास्तान शुरू होता है।

आधुनिक कहानी की संवेदना प्राचीन कहानी की संवेदना से बिल्कुल भिन्न है। आधुनिक कहानी की संवेदना उद्देश्य, कथावस्तु, रचनातंत्र, शैली, ढंग, सभी कुछ बदल चुका है। अब कहानी का क्षेत्र अतीत में ‘क्या हुआ था’ की जगह आज हमारे बाह्य और आंतरिक जीवन में क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है आदि हो गया है। मुख्य रूप से कथा कहना और यत्किंचित उपदेश देना या किसी भाव को व्यक्त करना ही प्रथम और दूसरे दशक की कहानियों का लक्ष्य रहा है। गोपाल राय के शब्दों में 20वीं सदी के प्रथम दशक की हिन्दी कहानी का सौन्दर्य इस प्रकार है। ‘‘किसी विधा के आरंभिक दौर में कथ्य और शिल्प विषयक जो अस्थिरता हो सकती है, वह इस दशक की कहानियों में भी देखने को मिलती है। कहानीकारों के सामने अंग्रेजी की छोटी कहानी का आदर्श तो शायद था, पर उसके अनुरूप न तो कथा भाषा विकसित हुई थी न ही यथार्थ की संवेदना।’’15 औपनिवेशिक काल में हिन्दी कहानी का सौन्दर्य राजनीतिक मुक्ति की आकांक्षा की रही है। प्रेमचन्द और उनके समकालीन रचनाकारों में औपनिवेशिक शासनव्यवस्था से मुक्ति की संघर्ष देखा जा सकता है। इसी मुक्ति की अवधारणा के तहत रचनाकारों ने नाम बदलकर रचना कर रहे थे। औपनिवेशिकसत्ता व्यवस्था में शायद यही एक तरीका था मुक्ति के लिए। क्योंकि औपनिवेशिक सत्ता यह चाहती थी आम जनता में मुक्ति की अवधारणा किसी भी हालत में न पहुंच सके। 20वीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक के बीच की कहानियों में राष्ट्रीय चेतना का भाव दिखाई पड़ता है। प्रेमचन्द का ‘सोजेवतन’ इसका उदाहरण है। गोपाल राय के अनुसार ‘‘यहां प्रेमचन्द राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति के लिए उस प्रच्छन्न तरीके का इस्तेमाल करने लगते हैं, जिसे अंग्रेजी में विकेरियन नेशनलिज्म कहा जाता है। दमन और आतंक के सहारे चलनेवाले औपनिवेशिक शासन में लेखकों के लिए अपनी राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए यही रास्ता बचा रहता है।’’16 जनमानस को जागृत करना इस काल की कहानियों का मुख्य लक्ष्य रहा है।

मुक्ति की अवधारणा में मानव मात्र की कल्पना अतिआवश्यक था। भारत में पुनर्जागरण ब्रिटिश शासन व्यवस्था के साथ शुरू होता है। जिसमें एक तरफ राजा महाराजाओं, जमींदार, महाजन और उस समय के बुद्धिजीवियों आदि के अपने स्वार्थ जरूर था लेकिन औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की आंकाक्षा में आमजन का स्वर भी निहित था। वे भी अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। ‘‘प्रेमचन्द भारतीय पुनर्जागरण को उसके व्यापक संदर्भ में देखते थे। वे समझते थे कि देश को औपनिवेशिक गुलामी से तभी मुक्ति मिल सकती है, जब पूरा देश सामाजिक दृष्टि से, लिंग-भेद, धर्म-भेद, जाति-भेद आदि के अंतर्विरोधों से मुक्त हो। उस समय के समाज में स्त्री, पुरुष की तुलना में, हर प्रकार से हीनतर स्थिति में जीवनयापन करती थी। पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार की दृष्टि से, शिक्षा की दृष्टि से, अपने बारे में निर्णय लेने की दृष्टि से, नैतिक संहिता की दृष्टि से, उसकी स्थिति पुरुष की तुलना में दासों जैसी थी। वही स्थिति दलितों की सवर्णों की तुलना में थी। हिन्दू-मुसलमान का साम्प्रदायिक भेद भी अपने चरम पर था। औपनिवेशिक शासन अपनी सुदृढ़ स्थिति के लिए भारतीय समाज के इन अंतर्विरोधों को बरकरार ही नहीं रखना चाहता था, बल्कि इन्हें और भी बढ़ाने में प्रयत्नशील था।’’17 

प्रेमचन्द्र आदर्शोन्मुख यथार्थवादी रचनाकार रहे हैं। जीवन के यथार्थ सत्य की शोध करना और उसका कलात्मक आकलन करना ही उनका उद्देश्य रहा है। वह समग्र जीवन के चितेरा हैं, इसलिए उन्होंने हर वर्ग और सामाजिक स्थिति के लोगों की कहानियां लिखी हैं। हर शैली का प्रयोग किया है लेकिन मनुष्य के अंतर्बाह्य जीवन की मार्मिक स्थितियों का चित्रण उन्होंने यथार्थवादी प्रणाली के अनुसार ही किया। उनकी पंच परमेश्वर, आत्माराम, बड़े घर की बेटी, शतरंज के खिलाड़ी, बज्रपात, रानी सारंधा, अलग्योझा, ईदगाह, सद्गति, अग्नि-समाधि, कामना-तरु, पूस की रात, सुजान भगत, कप़फ़न आदि अधिक विख्यात कहानियां हैं। इन कहानियों में उनकी संवेदना आदर्श से चल कर वर्ग संघर्ष के यथार्थ की ओर बढ़ती रही है। शिवदान सिंह चौहान के शब्दों में, ‘‘आर्यसमाजी समाज-सुधारक से बढ़ते-बढ़ते वह अपने अंतिम दिनों में वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता को पहचानने लग गए थे और पूंजीवादी समाज और संस्कृति की निस्सारता और प्रतिगामिता के बारे में उनके मन में कोई भ्रम या संदेह न रहा था। उनकी अपनी प्रगति की छाप उनकी कहानयिों पर भी अंकित होती गई है।’’18 रामविलास शर्मा के अनुसार ‘‘उनकी सबसे सफल कहानियां वे हैं जिनमें उन्होंने किसानों के जीवन का चित्रण किया है।’’19 

प्रेमचन्द ने कहानी को जिस मनोविज्ञान से संबद्ध कर जीवन की व्याख्या की है। उसका विकास एक स्वतंत्र प्रवृत्ति के तौर पर हिन्दी कहानी के इतिहास में होता है। जैनेन्द्र कुमार, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय आदि की कहानियां मानव मन के सत्य का उद्घाटन करती हैं। इसलिए जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय को हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषणात्मक रचनाकार कहा जाता है। लेकिन तीनों की मनोवैज्ञानिकता में पफ़र्क है। ‘‘जैनेन्द्र की मनोवैज्ञानिक चित्रण की प्रणाली अपने जीवनानुभव और भाव-चेतन मानस की उपज है जबकि इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय में मनुष्य की मनोगत दिशाओं और अंतर्द्वंद्वों का चित्रण कम, फ्रायड की प्रणाली से किया गया मनोविकारों का विश्लेषण अधिक है। इसलिए जैनेन्द्र जहां उच्च मानसिक भूमि पर मनुष्य की चारित्रिक विशेषताओं का अंकन और अंतर्द्वंद्वों के माध्यम से उसकी उदात्त, मानवीय सहानुभूतियों और मनोभावनाओं को जीवन की गहराई में उतरकर अभिव्यक्ति देने की कोशिश करते हैं, वहां ये दोनों कहानीकार अपने कुंठाग्रस्त पात्रें के विक्षिप्त मानस को मनोवैज्ञानिक औचित्य प्रदान करके उनके जघन्य और असामाजिक कृत्यों को अपनी ओर से महिमा-मंडित करने का प्रयत्न करते हैं_ साथ ही पाठकों से भी उनके प्रति सहानुभूतिशील होने की अपेक्षा करते हैं। इसके अतिरिक्त, इन लेखकों में मनोविश्लेषण के प्रति इतना प्रबल आग्रह है कि वे मानसिक रुग्णताओं को ही मानवीय सत्य मानकर, अपने पात्रें के कृत्यों का यथातथ्य प्रकृतिवादी आकलन करते हैं जिससे उनकी रचनाओं का अंतःस्वर तो कैशोर-उद्धत, अविवेकी, अनुदात्त और अहम्मन्यतापूर्ण होता ही है, उनके पात्र भी अपनी असामाजिकता, स्वार्थपरता और आत्मकेन्द्रित उत्तरदायित्वहीनता को ही सामाजिक विद्रोह और क्रांतिकारी जीवनदर्शन का पर्याय मान लेते हैं। पर कहानी कभी ही साधारणता के तल से ऊपर उठ पाती है। क्रांति और सामाजिक भावना का ऐसा विद्रूप हिन्दी में अन्यत्र नहीं मिलता। अपनी उदात्त मानवीय संवेदना के अभाव और जीवन सत्य की कलात्मक प्रतीति से वंचित होने की पूर्ति ये लेखक अपनी अपनी क्षमता के अनुसार उक्ति-वैचि=य, संकेत-कथन, भाषा के बनाव-सिंगार और अभिनव रूपविन्यास से करते हैं। परंतु उनके पात्र सजीव नहीं हो पाते, फ्रायड की स्थापनाओं के दृष्टांत स्वरूप गढे़ गए, कृत्रिम और बनावटी लगते हैं और मनुष्य और मनुष्यता का उपहास मात्र प्रतीत होते हैं। इन लेखकों की कहानियों में शैली-भेद चाहे कितना हो, किंतु जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण मूलतः एक सा है और जैनेन्द्र से भिन्न है।’’20 शिवदान सिंह चौहान के अनुसार ‘‘अब तक हिन्दी कहानी की परंपरा मूलतः मानववादी थी। समाज के वैषम्य से कुंठित-पीडि़त मनुष्य के अंतःकरण में मनुष्य और मनुष्यता का निवास है, मानव जीवन में इस विश्वास को लेकर ही कहानीकार सामाजिक विषमताओं पर आक्रमण करते थे और मनुष्य की समाज-खंडित प्रतिमा को पुनःपूर्णत्व देने के लिए उसके अंतःसत्य और अंतःसौन्दर्य, यानी उसकी अखंडित मानवीयता का उद्घाटन करते थे। परंतु ये लेखक इस परंपरा के विपरीत फ्रायडी अर्धसत्यों को कबूल करके मनुष्य को परिस्थितियों का ही नहीं, स्वयं अपनी अर्धचेतन काम-वासनाओं का निरुपाय दास और सभ्यता के बाह्यावरण में ढके-छिपे पर मूलतः हिंस्र, पाशविक और स्वार्थी ही चित्रित करते हैं।’’21 तत्पश्चात हिन्दी कहानी का सौन्दर्य मार्क्सवाद से प्रभावित दिखाई देता है। हिन्दी में मार्क्सवाद की अवधारणाओं को लेकर प्रगतिशील साहित्य की रचना की जाती रही। जिसमें यशपाल का नाम प्रमुख है। यशपाल ने हिन्दी कहानी की सामान्य मानववादी परंपरा को नई सामाजिक राजनीतिक चेतना देकर ऊंचे धरातल पर उठाया है। अपनी कहानियों में सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के विविध चित्रें द्वारा मौलिक समस्याएं उठाते हैं और एक कलाकार की रीति से उनका समाधान भी खोजते हैं। ये समस्याएं मौलिक हैं क्योंकि मनुष्य-जीवन के व्यापक सत्य से उद्भूत हैं। उनका मार्क्सवादी दृष्टिकोण इन समस्याओं के मूल कारणों तक पहुंचने में सहायक होता है और उनकी विशेषता यह है कि वे आद्यंत कलाकार बने रहते है, परिस्थितियों और उनके मध्य संघर्ष करने वाले चरित्रें के कार्य व्यापार के स्वाभाविक उद्घाटन से वह सामाजिक जीवन और मनुष्य के मनोगत भावों और द्वंद्वों का चित्रण करते हैं। ‘‘यशपाल की मूल समस्या यह है कि समाज के विषम संगठन ने मनुष्य जाति को ही दो विरोधी वर्गों में नहीं बांटा है, बल्कि मनुष्य के विचार और व्यवहार या आचरण में भी एक द्वैत या वैषम्य पैदा कर दिया है। इस द्वैत या वैषम्य के प्रति पाठकों को सचेत करना ही यशपाल का प्रधान उद्देश्य है। यह चेतना जनता में उस सामाजिक क्रियाशीलता को जन्म देगी जो सामाजिक वैषम्य का तो अंत करेगी ही, ऊंचे विचार नीच करतूती के वैषम्य का भी अंत कर देगी। तभी मनुष्य का बाह्य और आंतरिक जीवन पूर्ण स्वास्थ्य का लाभ कर सकेगा। इस समस्या का उन्होंने विविध ढंगों से अपनी कहानियों में उठाया है और साधारण अथवा शिष्ट समाज की ऊंचे विचारों में आवेष्टित नीच करतूतों पर तीखे प्रहार किए हैं।’’22 समस्याओं को प्रगतिशील दृष्टिकोण से उठाने वाले कहानीकारों में से चंद्र किरण सौनरेक्सां, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता  सकता है।

प्रेमचन्द और उनके समकालीन कहानीकारों की कहानियों की खासियत यह रही है कि वे समसामयिकता से दूर नहीं होते है। समकालीनता की गतिविधियों को उजागर करने का काम कहानियां करती रही हैं। इसी संदर्भ में देखा जाए तो आद्यतन अस्मितावादी विमर्श का स्वर भी प्रेमचन्द और उनके समकालीन कहानियों में देखा जा सकता है। उस समय की कहानियां अपने अंदाज में इसका बयान करती रही हैं। प्रेमचन्द ने स्त्री और दलित दोनों समाजों के जीवन को करीबी से पहचानने का काम किया है और अपनी रचनाओं में उसे उठाया है। डॉ- सुभाष चन्द्र के अनुसार ‘‘उनकी रचनाओं में दलितों के प्रति सहानुभूति, करुणा एवं संवेदना के साथ शोषण, अन्याय, उत्पीड़न से मुक्ति और मानवीय गरिमा व पहचान के लिए संघर्ष है। वे दलित जीवन के विभिन्न पक्षों के अन्तःसूत्रें को पहचाना व प्रतिबद्धता से व्यक्त किया है।’’23 प्रेमचन्द की कहानियां -‘दूध का दाम’, मंदिर, गुल्ली डंडा, ठाकुर का कुंआ, मंत्र, सद्गति, कफन आदि में दलित जीवन के चित्र प्रस्तुत करती हैं। प्रेमचन्द किस प्रकार दलित जीवन के त्याग को दर्शाते हैं। यह उनकी कहानी ‘दूध का दाम’ में अभिव्यक्त होता है। इस कहानी में ‘भुंगी भंगिन महेश बाबू के बेटे सुरेश को अपना दूध पिलाती है जिस कारण उसका अपना बेटा मंगलू भूखा भी रहता है।’24 इस दूध का दाम किस रूप में दलित समाज को मिलता है। इसे भी प्रेमचन्द ने दिखाया है। ‘दूध का दाम’ कहानी में मंगल और टम्मी के संवाद में इसे समझा जा सकता है। ‘‘देखा, पेट की आग ऐसी होती है। यह लात मारी हुई रोटियां भी न मिलतीं, तो क्या करते? —लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।’’25 इसके बाद भी ब्राह्मणवादी मानसिकता कभी भी अपनी निर्जिविता से अलग नहीं होती है। इस संदर्भ में ‘दूध के दाम’ के महेशनाथ का यह कथन द्रष्टव्य है- ‘‘दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाए, भंगी, भंगी ही रहेंगे। इन्हें आदमी बनाना कठिन है।’’ क्या सचमुच में ऐसा है? इसका प्रत्युत्तर भी कहानी में बयान है। भुंगी कहती है- ‘‘मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाए। यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भुंगी के सिर के बाल बच सकते थे? लेकिन आज बाबू साहब ठठाकर हंसे और बोले-भुंगी बात बड़े पते की कहती है।’’26 इस प्रकार प्रेमचन्द दलित जीवन और भारतीय समाज का चित्रण करते हैं। जिसमें एक तरफ मानवता है तो दूसरी तरफ ब्राह्मणवाद है। भुंगी के बातों में जहां दलित समाज की मानवता है, वहीं महेशनाथ के माध्यम से ब्राह्मणवाद को पहचाना जा सकता है। महत्वपूर्ण बात है कि जिस प्रकार से महेशनाथ भुंगी की बातों को स्वीकार करते हैं। क्या भारतीय समाज दलितों की इस मानवता को स्वीकार कर पाए हैं? रामविलास शर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के यहां देश की जनता के प्रति प्र्रेम और सहानुभूति की गहरी संवेदना है। वे गरीबी और अंधविश्वासों को आदर्श कह कर नहीं चित्रित करते। वह दिखलाते हैं कि इतने अंधेरे में भी मनुष्यता का दीपक कैसे जल रहा है, उनकी लौ धनी आदमियों के घर से यहां कितनी ऊंची उठ रही है।27

हिन्दी कहानी में प्रेम की संवेदना का मार्मिक चित्रण मिलता है। प्रेम का यह सौन्दर्य विभिन्न रूपों में व्याप्त है। प्रेम के इस विविध रूपता में राष्ट्रप्रेम से लेकर स्त्री-पुरुष का प्रेम सौन्दर्य भी निहित है। स्वयं प्रेमचन्द की कहानियां प्रेम सौन्दर्य का चित्रण करती है। गोपाल राय प्रेमचन्द की प्रेम संवेदना को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि प्रेमचन्द की कहानियां ‘‘उस प्रेम का चित्रण करती हैं जो नैतिकता बोध से नियंत्रित होता है। यह प्रेमचन्द पर आर्य समाज के प्रभाव का द्योतक भी हो सकता है।’’28 प्रेम सौन्दर्य का रोमांनियत स्वरूप चित्रण जयशंकर प्रसाद की कहानियों में मिलता है। प्रसाद की कहानियां ‘अतीत स्तुत्य’ की सांस्कृतिक पक्ष पर आधारित होते हुए भी रोमानित भाव से लबरेज है।29 प्रेम की संवेदना का चित्रण चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानियों में देखा जा सकता है। ‘उसने कहा था’ प्रेम की संवेदना के साथ युद्ध की पृष्ठभूमि आधारित कहानी है। ‘‘युद्ध और प्रेम की साथ साथ चलनेवाली संवेदना के चित्रण की दृष्टि से यह कहानी हिन्दी में आज भी अकेली है। दोनों ही संवेदनाओं के चित्रण में कहानीकार ने अद्भुत अवलोकन क्षमता और प्रामाणिक अनुभव का परिचय दिया है।—यद्यपि इस कहानी की केन्द्रीय संवेदना प्रेम ही है, पर इसका एक पाठ युद्धविरोधी संवेदना के रूप में भी संभव है। युद्ध आदमी को कितना नृशंस बना देता है, फिर भी मानवीय संवेदनाएं उसमें किस प्रकार जीवित बची रहती है, यह कहानी इसकी पुष्टि करती है।’’30 thee

औपनिवेशिक सत्ता की क्रूरता का चित्रण भी हिन्दी कहानियों मिलता है। इसमें औपनिवेशिक नीतियों का विरोध कहानी का मुख्य ध्येय रहा है और हृदय परिवर्तन की संवेदना हिन्दी कहानी का सौन्दर्य रहा है। औपनिवेशिक शासन व्यवस्था में किसानों, जमींदारों और महाजनों का ऐसा त्रिकोणीय संबंध निर्मित किया गया, जिसमें फंसी आम जनता, किसान आदि का निकलना मुश्किल था। किसानों से जमीन की लगान, जो बेहद ऊंची थी, वसूल करने के लिए जमींदार वर्ग का सृजन किया गया था और लगान चुकाने के लिए असमर्थ किसानों को कर्ज लेकर लगान चुकाने के योग्य बनाने के लिए साहूकारों को अनेक सुविधाएं प्रदान की गई थीं। इसके फलस्वरूप किसान कर्ज के बोझ से लदते जा रहे थे, जिसका अंतिम परिणाम उनके भूमिहीन कृषक मजदूर बदलने में होता था। इसके फलस्वरूप ‘अनुपस्थित जमींदारों’ की एक अलग श्रेणी पैदा हो गयी थी, जो किसानों के लिए और भी तकलीफदेह थी। ऐसे शहरी जमींदारों की गांव में जमींदारी होती थी, जो कभी कभार गांव जाते थे और किसानों पर कारिन्दों और पुलिस के अत्याचार की अनदेखी कर देते थे। जो छोटे जमींदार गांव में किसानों के बीच रहते थे, उनके यहां किसानों पर ऐसा अत्याचार नहीं होता था। प्रेमचन्द युग की कहानियों में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण है। साथ ही औपनिवेशिक सत्ता के साथ-साथ देशी साम्राज्यवाद के अत्याचार का वर्णन मिलता है। प्रेमचन्द की कहानी ‘सवा सेर गेहू’ और जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘ग्राम’ में इसे सहज ही समझा जा सकता है। ‘‘सवा सेर गेहूं’ में कर्ज की वजह से गुलामी करने वाले शंकर की करुण कथा है। वह एक बार सवा सेर गेहूं उधार लेता है और उसे पाटते-पाटते बीस साल लग जाते हैं, फिर भी वह गुलामी करता हुआ मरता है। कहानी के अंत में प्र्रेमचन्द कहते हैं -पाठक! इस वृतांत को कपोल कल्पित न समझिए। यह सत्य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं है।’’31 इसके साथ ही उस युग की कहानियों में हृदय परिवर्तन की बात हुई है। गोपाल राय लिखते हैं कि ‘‘प्रेमचन्द बुर्जुआ जमींदारों का हृदय परिवर्तन भी दिखाने से बाज नहीं आते। कदाचित वे चाहते थे कि ऐसा हो पाता। जमींदारों के प्रति उनका मोहभंग अभी नहीं हुआ था।’’32 इस संवेदना को प्रेमचन्द की कहानियां, ‘उपदेश’, बलिदान, बैंक का दिवाला’ में सहज ही देखा जा सकता है। वहीं ‘पशु से मनुष्य’ कहानी प्रेमचन्द की समाजवाद या सहयोगवाद में आस्था को रेखांकित करती है।  इसी प्ररिप्रेक्ष्य में गोपाल राय प्रेमचन्द के वैचारिक सौन्दर्य को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि प्रेमचन्द आदर्शवाद की स्थापना करते हैं जिसमें एक तरफ गांधीवाद है तो दूसरी तरफ समाजवाद है। ‘‘प्रेमचन्द गांधीवादी और समाजवादी विचारधारा के द्वंद्व में फंसे हुए हैं।’’33 

दलित संवेदना के साथ-साथ स्त्री संवेदना भी हिन्दी कहानी का सौन्दर्यबोध रहा है। प्रेमचन्द की कहानियों में यह अशिक्षित, रूढि़यों और अंधविश्वासों में जकड़ी, सदियों से पुरुष-व्यवस्था की मार झेलती, स्वाभाविक मानवीय अधिकारों से भी वंचित, किसी प्रकार की भी स्वतंत्रता से रहित, मूक-बधिर और दशक के अंत में अपनी सीमाओं को तोड़ती, मनुवादी व्यवस्था से विद्रोह करती स्त्री बार-बार सामने आती है। ग्रामीण सामाजिक संरचना का बहुत ही प्रामाणिक अंकन उनकी कहानियों में देखने को मिलता है। इस संरचना की नींव संयुक्त परिवार के परम्परागत मूल्यों पर आधारित थी। दाम्पत्य संबंध, दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बहुविवाह, बिरादरी, कुल मर्यादा आदि इस संरचना की नींव थे। आत्मसमर्पण और सेवा धर्म को प्रेमचन्द दाम्पत्य जीवन का मूल तत्व मानते हैं। ‘दो सखियां’ कहानी द्वारा प्रेमचन्द आदर्श दाम्पत्य जीवन की एक रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। प्रेमचन्द विवाहित जीवन में स्वतंत्रता की छूट नहीं देते। विवाह जैसी संस्था या प्रथा पर उनकी अलग ही द्दृष्टि है। ‘‘दाम्पत्य मूल्य को प्रेमचन्द की कहानियों में पारिवारिक संरचना का आधार के रूप में देखा जा सकता है।’’34 यह दाम्पत्य जीवन ‘शारीरिक सौन्दर्य की तुलना में आत्मिक सौन्दर्य’ के प्रेम पर आधारित है। प्रेमचन्द समाज में इसी प्रेम सौन्दर्य को स्थापित करना चाहते थे। भारतीय समाज में इसी प्रेम सौन्दर्य पर बल भी दिया गया है। ‘अलग्योझा’, ‘घरजमाई’ आदि कहानी में संयुक्त परिवार की परस्पर प्रेम पर आधारित संरचना का और ग्रामीण समाज की संरचना में घरजमाई की स्थिति मान-सम्मान आदि का चित्रण बहुत ही मार्मिक है। लोकमत का सम्मान, निम्नवर्गीय समाज की आर्थिक और नैतिक अंधविश्वासों, सामाजिक नैतिक रूढि़यों, धार्मिक विश्वासों, यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व में भी संदेह प्रकट हुआ हैं, वहीं उनकी कुछ कहानियों में भूत प्रेत, पुनर्जन्म, तर्कहीन अलौकिकताओं के प्रति स्वीकार का भाव लक्षित होता है। विध्वंस, मूठ, गुप्त धन, नाग पूजा, भूत, खूनी, पिसनहारी का कुआं, मंत्र, प्रतिशोध आदि कहानियां इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।’’35 

सेक्युलर मूल्यों की स्थापना हिन्दी कहानी का सौन्दर्यबोध रहा है। हिन्दू मुस्लिम सद्भाव प्रेमचन्द की रचना का केन्द्रीय विषय रहा है। तत्कालीन औपनिवेशिक शासन व्यवस्था में समय की ऐसी मांग थी। ‘मंदिर और मस्जिद’, ‘हिंसा परमो धर्म आदि कहानियों में हिन्दू मुस्लिम सद्भाव का विचार व्यक्त हुआ है। ‘शुद्धि’, ‘जिहाद’ आदि भी अंधधार्मिकता के विरोध में लिखी गई कहानियां है। ‘शुद्धि’ का कहानी का यह कथन ही भारतीय समाज की धर्मनिर्पेक्षता को रेखांकित है। ‘‘मैं शुद्धि का हामी नहीं हूं। हिन्दू समाज में अब भी ऐसे बेशुमार आदमी पड़े हुए हैं जिनके हाथ का पानी पीना गवारा न होगा। हमारा समाज ऐसे ही आदमियों से भरा हुआ है’’। इसलिए गोपाल राय लिखते हैं कि प्रेमचन्द सच्चे अर्थों में सेक्युलर मूल्यों के समर्थक लेखक थे।’’36 प्रेमचन्द की यह धर्मनिर्पेक्षता उस समय की अन्य कहानीकारों की कहानियों में व्यक्त हुआ है। बेचनशर्मा ‘उग्र’ ने सांप्रदायिकता के विभिन्न पक्षों पर मानवीय संवेदना से विचार किया गया है। ‘दोजख!नरक!’ नामक उनकी कहानी में सेक्युलर मूल्यों की स्थापना की गई है-‘‘जो जामा मस्जिद में है, वही विश्वनाथ मंदिर में। वही खुदा, वही गॉड, वही ईश्वर।—मस्जिद, मंदिर, गिरजाघर आदि मनुष्य की कल्पना हैं। मनुष्य की कल्पना के लिए ईश्वर की कल्पना का नाश करना इतना बड़ा पाप है, जिसका कोई पर्याप्त दंड नहीं है।’’37 इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिन्दी कहानी का सौन्दर्य एक धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों की स्थापना करता है। यह दीगर बात है कि समाज में यह मूल्य आज भी विघटित हो रहा है।

प्रेमचन्द के समकालीन उग्र की कहानियों का सौन्दर्य भी औपनिवेशिक दासता के प्रति विद्रोह और मुक्ति की है। गोपाल राय के अनुसार ‘‘प्रेमचन्द और उग्र की कहानियां फ्रैंक ओ कॉनर की उस परिभाषा पर एकदम खरी उतरती हैं, जिसके अनुसार कहानी की प्रकृति दबे, उपेक्षित और अल्पसंख्यकों के, वर्चस्वसम्पन्न और बहुसंख्यकों के विरूद्ध, छापामार युद्ध की है। वह चाहे उपनिवेशवाद के विरूद्ध पराधीन देश की, पुरुषवादी व्यवस्था के खिलाफ स्त्री समाज की, उच्चवर्ग के विरूद्ध दलित वर्ग की अथवा जड़ नैतिक व्यवस्था के विरूद्ध अल्पसंख्यक रचनाकार का विद्रोह हो, कहानी उसकी आवाज बनकर प्रकट होती है। प्रेमचन्द और उग्र की कहानियां इसकी पुष्टि करती हैं।’’38 वहीं संवेदना और प्रवृत्ति की दृष्टि से विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, बद्रीनाथ भट्ट सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ अश्क, रशीदुल खैरी और अली अब्बास हुसैनी आदि की कहानियों का विशेष महत्व है। गोपाल राय के अनुसार ‘‘यद्यपि इनकी कहानियां न तो व्यवस्था के विरूद्ध छापामार युद्ध की दृष्टि से और न ही संवेदना और शिल्प प्रयोग की दृष्टि से बहुत उल्लेखनीय है, पर साहित्य के इतिहास में उल्लेखनीयता की दृष्टि से कमजोर कहानियों का भी स्थान होता है।’’39

हिन्दी कहानी के इतिहास में स्त्री जीवन को लेकर कई कहानीकारों ने कहानी की रचना की है। इसी संदर्भ में वेश्या के जीवन से भी संबंधित रचनाएं मिलती है। प्रेमचन्द की कहानियों में स्त्री जीवन के विविध रूपों को सहज ही देखा-समझा जा सकता है। उनका जीवन ‘संघर्ष प्रायः प्रेम की प्राकृतिक संवेदना और समाज की रूढि़यों मान्यताओं के बीच होता है_ पर प्रसाद की कहानियों में यह संघर्ष शुद्ध परस्पर विरोधी संवेदनाओं का होता है।’ ‘आकाशदीप’ जो प्रसाद की सर्वोत्तम कहानियों में से एक है, इसका अनोखा उदाहरण है। ‘‘प्रेम और घृणा का ऐसा द्वंद्व और परस्पर स्पर्द्धिता शायद ही हिन्दी की किसी और कहानी में मिले। इस कहानी में विसंवादी संवेदनाओं के संघर्ष से करुणा की जो चिनगारी निकलती है, वह किसी भी सहृदय पाठक को अभिभूत करने के लिए पर्याप्त है। कहानी का वातावरण पूर्णतः रूमानी, साहसिक अभियान, कल्पना प्रसूत परिवेश और वैसे ही कल्पनालोक के प्राणियों से भरा हुआ है।’’40 वहीं ‘चूड़ीवाली’ में एक वेश्या पुत्री को कुलवधू बनने के स्वप्न को दिखाया गया है। पर सफलता उसे तब मिलती है, जब वह एक आदर्श प्रतिव्रता हिन्दू स्त्री और तपस्विनी की दिनचर्या ग्रहण कर लेती है। ‘रमला और बिसाती’ में प्रेम की संवेदना सामाजिक परिस्थितियों के संघात से टकराकर प्रेमी प्रेमिका के अनन्त वियोग का रोमानी स्वरूप ले लेती है। गोपाल राय के अनुसार ‘‘प्रसाद समकालीन जीवनधारा से बिलकुल कटे हुए नहीं थे, पर उनकी कम ही कहानियों ऐसी हैं जो उनकी यथार्थपरक संवेदना को कलात्मक प्रौढ़ता के साथ व्यक्त करती हों।’’41 ‘घीसू, ‘ग्रामगीत’, ‘पुरस्कार’ आदि कहानियों में प्रेम के विविध रूप देखने को मिलता है। अतीत एवं वर्तमान के समसामयिकता के संदर्भ में प्रेम की संवेदना प्रकट हुई है। ‘‘प्रसाद जी की कहानियों में प्रेम का आदर्श आध्यात्मिक स्तर पर उठ जाता है। उनकी आरंभिक कहानियों में प्रेम का भावुकतापूर्ण और अत्यधिक रोमानी रूप मिलता है, किन्तु धीरे धीरे उनमें औदात्य और गरिमा का समावेश होता गया है। उनकी दृष्टि त्याग और समर्पण की भावना से दीप्त, कल्पना से रंगीन और सूक्ष्म आदर्श से मंडित है। वह एकांगी नहीं है। उसमें दूसरी भावनाओं के साथ द्वंद्वात्मकता की स्थिति भी है। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियां तो वे ही हैं जिनमें प्रेम की भावना का टकराव दूसरी भावनाओं के साथ होता है और इस टकराहट में पात्र बुरी तरह से झकझोर जाते हैं।’’42 गिरमिटिया मजदूर और शूद्र समाज के ऊपर पर भी कहानियां लिखी गई। प्रसाद की ‘नीरा’ और प्रेमचन्द की ‘शूद्रा’ कहानी ऐसी ही कहानी है। ‘‘नीरा की पृष्ठभूमि गिरमिटिया मजदूरों के मॉरिशस जाने की ऐतिहासिक घटना से जुड़ी हुई है, पर कथ्य उससे एकदम अलग हो गया है। अनास्था पर आस्था की जीत इस कहानी का मुख्य प्रतिपाद्य हो गया है।’’43 देहज प्रथा और उससे जुड़ी समस्याओं को प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में सशक्त रूप में उठाया है। यह संवेदना शिवपजून सहाय की कहानी ‘कहानी का प्लॉट’ में भी देखी जा सकती है। इस कहानी का कथ्य तत्कालीन समाज में प्रचलित दहेज प्रथा के कारण किसी प्रौढ़ पुरुष का किशोरी कन्या से विवाह है, जो अंततः स्त्री विवशता और सामाजिक अनाचार में परिणत होता है।’

हिन्दी कहानी की संवेदना इतिहास की सांस्कृति विरासत को भी रेखांकित करती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानियां भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ को ऐतिहासिक दंत कथाओं के माध्यम से चित्रित करती है। ‘‘कथ्य की दृष्टि से उनकी अधिकतर कहानियां ऐतिहासिक दंतकथाओं और अर्धप्रामाणिक घटनााओं या प्रसंगो पर आधारित हैं।—जिनका समय गौतम बुद्ध से लेकर 1857 के विद्रोह तक फैला हुआ है। तर्कसंगत ऐतिहासिक दृष्टि और वैज्ञानिक इतिहासबोध के अभाव में ये कहानियां प्रबुद्ध पाठक को प्रभावित करने में असमर्थ है।—सांस्कृतिक चेतना के नाम पर शास्त्री जी ने प्राचीन हिन्दू संस्कृति और परम्परागत सामाजिक नैतिक मूल्यों के प्रतिपादन पर अधिक जोर दिया है। परम्परा पर इनकी दृष्टि आलोचनात्मक नहीं है। कहीं-कहीं तो इन्होंने अपने तथाकथित सांस्कृतिक विचारों का प्रतिपादन सपाट वर्णन या पात्रें के संवादों के रूप में करने का प्रयास किया है।’’44

जैनेन्द्र हिन्दी कहानी संसार में एक अलग कथ्य को लेकर कहानी की रचना करते हैं। ‘‘जैनेन्द्र के कथा संसार में प्रवेश करते ही हमें महसूस होने लगता है कि वह प्रेमचन्द की तुलना में बिल्कुल बदला हुआ है_ वह गांव से नगर में और किसानों-मजदूरों की जिंदगी से उच्च मध्यवर्ग और अभिजात वर्ग की जिंदगी में आ गया है  उसमें किसान मजदूर वर्ग के पात्र मुश्किल से मिलते हैं।’’ समाज के प्रति जैनेन्द्र की प्रतिबद्धता अलग तरह की है। गोपाल राय के शब्दों में, ‘‘जैनेन्द्र प्रेमचन्द की यथार्थवादी कथा परम्परा से अलग एक भाववादी कथा परम्परा के पुरस्कर्ता बन जाते हैं। यह तनिक आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक पृष्ठभूमि होते हुए भी जैनेन्द्र की कहानियों में स्वाधीनता आंदोलन की कोई साफ झलक नहीं दिखाई देती है।’’45 जैनेन्द्र के यहां मध्यवर्ग की आर्थिक मजबूरियां और नैतिक अंतर्विरोध सबसे ज्यादा जगह ली है। प्रेम के लिए आत्मबलिदान देने वाली स्त्री जैनेन्द्र की कहानी की खास विशेषता रही है। उनकी ‘जाह्नवी’ कहानी ऐसी है जिसमें ‘दो नैना मत खाइयो—पिया मिलन की आस’ की संवेदना रची-बसी है और उसी इंतजार में वह आजीवन शादी नहीं करती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है एक अंतहीन प्रेेम की कहानी है। वह पारंपरिक विवाह नामक संस्था का विरोध प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विरोध करती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र की कहानियों का सौन्दर्य प्रेमपरक है खासकर मध्यवर्ग के प्र्रेम जो पारंपरिक विवाह संस्थान को चुनौती देता है। हिन्दी कहानी का सौन्दर्य इस प्रकार एक विकासक्रम में विविध फलक को प्राप्त करता है। गोपाल राय ने सही ही लिखा है कि ‘‘संरचना की दृष्टि से चौथे दशक में हिन्दी कहानी प्रौढ़ता पर पहुंच गयी, जिसका श्रेय प्रेमचन्द के साथ जैनेन्द्र और अज्ञेय को है। पांचवे दशक में मंटो और बेदी ने और छठे दशक मे अमरकांत, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, शेखर जोशी, इंतिजार हुसैन, निर्मल वर्मा, रेणु आदि ने कहानी की संरचना को अपेक्षित ऊंचाई पर पहुंचा दिया।’’46 अर्थात हिन्दी कहानी एक क्रमिक विकासक्रम में विकसित होती रही है। समय सापेक्ष उसके मूल्यों में परिवर्तन होता रहा है। डॉ नंद किशोर नीलम के शब्दों में कहें तो, ‘‘हिन्दी कहानी में प्रेमचन्द के आस-पास जो सौन्दर्यबोध विकसित हो रहा था वह बहुत कुछ सौंदर्यशास्त्र की आत्मवादी, भाव-वादी और आध्यात्मिक विचारणा पर आधारित था। आशय यह कि वह सौन्दर्यबोध अधिकांशतः भारतीय काव्यशास्त्र और दरबारी मानसिकता का पोषक करने वाला था।—कहना न होगा कि इन कहानियों का सौन्दर्यशास्त्र भी निष्क्रिय और कुंठित जीवन दशर्न का पर्याय बन गया। अगर कोई इजाफा आगे जाकर हुआ तो वह यह कि कलावाद, रूपवाद और रीतिवाद नए अभिजनीय स्वरूप में सामने आ गए। उनका यह नया अभिजनीय स्वरूप था आधुनिकतावादी।’’47 

साहित्य की बदलती संवेदना के आधार पर ही प्रेमचन्द ने ‘साहित्य की कसौटी48 बदलने की बात की थी। ‘‘जब से भारतीय साहित्य में, विशेषकर हिन्दी साहित्य में जातीय अस्मिता की खोज की बात उठी, जनजीवन से गहरे सरोकार और सहकार वाली साहित्य चिंता की बात उठी तथा मार्क्स के सौन्दर्य-कला चिंता के प्रतिमानों का प्रभाव हमारे साहित्य पर पड़ा तब से सौन्दर्यशास्त्र के आयाम भी बदले और सौन्दर्यशास्त्र की भाववादी, आत्मवादी, अलौकिक, अतिमानवीय और अवैज्ञानिक निष्पत्तियों की पुनर्व्याख्या भी की जाने लगी।—आज सौन्दर्य के उद्घाटन का तात्पर्य रचना के संपूर्ण मूल्यों और गुणों का उद्घाटित करना है। किसी भी रचना (कलाकृति) के सुंदर आनंदकारी या उजले पक्ष को ही नहीं उसके करूणा, जुगुप्सा, वीभत्सता में डूबे काले पक्ष को उद्घाटित करना और उसके प्रतिकार के लिए जन सामान्य के भीतर क्षोभ और संघर्ष की भावना उत्पन्न करना भी सौन्दर्य का उद्घाटन ही है।’’49 डॉ नंदकिशोर नीलम के अनुसार ‘‘भारतीय परिवेश, परिस्थितियों, विवके परंपरा और चिंता धारा के अनूकूलन में हिन्दी कहानी का एक खाका निर्मित होना चाहिए। जातीय अस्मिता की खोज, पहचान और विकास उसके केन्द्र में रहना चाहिए। कहानी की स्थापत्य, नक्शा, रूप, शिल्प और विषय-वस्तु यानी उसका संपूर्ण कहानी के विन्यास में ही खोजा जाना चाहिए। वह आरोपित, थोपा हुआ और पूर्व निर्धारित नहीं होना चाहिए। इस तरह कहानी का एक जातीय चरित्र प्रस्तुत किया जा सकता है। कहना न होगा कि मेरा यह प्रयास लोक जीवन और लोक प्रकृति से जुड़े उस जातीय और जनवादी सौन्दर्य बोध के आधार पर विकास पाता है जो समकालीन कहानी की मूल धारा है।’’50 ‘हिस्ट्री आफ माइंड’ और इतिहास दशर्न ही साहित्य-कहानी का सौन्दर्यशास्त्र है और इसी सौन्दर्यशास्त्र की जरूरत हिन्दी साहित्य की आलोचना के लिए सबसे अधिक है। ‘‘सौन्दर्य भाव, विचार और इन्द्रियबोध की संगति से उत्पन्न होता है। भाव, विचार और इन्द्रियबोध से ही रचना का मूल्य और वैिशष्ट्य निरूपित होता है। आलोचक को इसी आधार पर रचना का मूल्यांकन भी करना चाहिए। सौन्दर्यशास्त्र का साहित्य में विवेचन करने के लिए आलोचक की गहरी पकड़ यथार्थवाद पर होनी चाहिए। साहित्य में यथार्थ का चित्रण कितना सटीक और कितना सजीव रूप में हुआ है इस पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है। यही कृति के सौन्दर्य की कसौटी भी है। सौन्दर्य का स्रोत जनजीवन है और उसका उत्कर्ष है जीवन संग्राम।’’51 

सौन्दर्य का उत्कर्ष जीवन संग्राम में ही देखा जा सकता है। संकीर्ण दृष्टि को बदले बिना वास्तविक सौन्दर्यबोध की अनुभूति संभव नहीं है। जीवन-जगत के प्रत्यक्ष अनुभव का सशक्त माध्यम है इन्द्रियबोध। समकालीन कहानी में इन्द्रियबोध की व्यापकता स्पष्टतः देखी जा सकती है। इन्द्रियबोध और भाव दो अलग अलग चीज है समस्या तब होती है जब दोनों को एक समझ लिया जाता है। भावों का आशय भीतर के सौन्दर्य से है, उनका उदय मन में होता है जबकि इन्द्रिय बोध तक बाह्य, प्रत्यक्ष जगत का अनुभव है, इन्द्रियों से इस जगत का बोध होता है। भाव जगत और इन्द्रिय बोध एक ही यथार्थ के दो पक्ष हैं जो पूर्णतः स्वतंत्र न होकर परस्पर संबद्ध हैं। सौन्दर्यबोध भावबोध को प्रभावित करता है और भावबोध से विचार बनते हैं। यह प्रक्रिया दोहरी मिश्रित और संश्लिष्ट है।

स्वाधीन भारत में समाज का परिदृश्य बदला है। समाज का बदलता परिदृश्य साहित्य से अछूता नहीं रहा है। कहानी का यथार्थ और यथार्थ की काल्पनिक जमीन समय सापेक्ष जमीन की हकीकत और यथार्थ में बदल गयी। कहानी की संवदेना का बदलता हुआ यह स्वरूप आंदोलनधर्मिता का रूप ग्रहण किया है। ‘नई कहानी’ में इसी अवधारणा के तहत यथार्थ की प्रामाणिकता और अनुभूत यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है। ‘‘नयी कहानी का अभिप्राय यह है कि इसने कहानी को वस्तु और शिल्प की दृष्टि से एक नया रूप दिया जिसमें नयेपन का सचेत आग्रह था। यह परिवेश और रचनाशीलता के द्वंद्व से उपजा था क्योंकि स्वतंत्रता के बाद कथाकार जीवन के बदलते यथार्थ को एक नये परिवेश में देख रहा था और यह अभिव्यक्ति की नई भंगिमाओं को तलाशने की भी कोशिश कर रहा था। कहानी में परिवर्तन की आवाजें आ रही थी।’’52 परिवर्तन की इसी आवाज में नई कहानी आंदोलन की शुरूआत होती है और कहानी की प्रवृतियां आंदोलनधर्मी होती जाती है।

कहानी या किसी भी विधा का कोई भी आंदोलन विकास की एक प्रक्रिया से जुड़ा होता है और उसकी एक पृष्ठभूमि भी होती है। यह पृष्ठभूमि हिन्दी कहानी में भी मिलती है जिसमें सामाजिक और व्यक्तिवादी चेतना दोनों का ही आधार रहा है। प्रेमचन्द ने वर्ग संघर्ष को समन्वय कर उसे भारतीय दर्शन से जोड़ा है और उनके सामाजिक यथार्थ की परंपरा में यशपाल, रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्त, उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतराय और अन्य प्रगतिवादी मार्क्सवादी रचनाकार वर्ग चेतना के संदर्भ में वर्ग विशेषता पर प्रहार करते हुए दिखते हैं। इसी प्रकार व्यक्तिवादी या मनोवादी चेतना के संदर्भ में जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय तथा अन्य कहानीकार भी हैं। जिन्होंने व्यक्ति मन की अतल गहराईयों को मनोवैज्ञानिक धरातल पर आत्मसंघर्ष के रूप में व्यक्त किया है। स्वतंत्रता के बाद देश में अनेक घटनाएं घटी हैं और स्वतंत्रता एक राजनैतिक मूल्य से भी बढकर नयी विचार क्रांति के रूप में सामने आयी है। स्वतंत्रता में जो स्वप्न देखे गये थे वे कलांतर में बिखर कर टूटे हैं और जीवन में अनेक समस्याओं का विकास हुआ है। महंगाई के बढ़ने से जीना कठिन हुआ है और देश की बहुत बड़ी जनसंख्या अब भी बेरोजगारी और बेकारी के बीच जी रही है। समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी पूंजी का कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रीकरण हो गया है। भारतीय राजनीति ने सत्ता के लिए प्रांतीयता, जातीयता और क्षेत्रीयता को बढ़ाया है। सबसे अधिक समस्या मध्यवर्ग को आई है और उसका मोहभंग हुआ है। स्वतंत्रता और यांत्रिकाएं, राजनीतिक भ्रष्टाचार और परिवारों का विघटन अनेक प्रकार के भीतरी और बाहरी संकटों से भरा रहा हैै। इस तरह एक और राजनीतिक स्तर पर अनेक प्रक्रार की हलचल और आर्थिक विकास और समाजिक निर्माण की तेज प्रक्रिया के बीच नई पीढ़ी ने नैतिकता के इस पतन को देखा है। नई पीढ़ी के जो भी कहानीकार हैं वे इन समस्याओं के बीच व्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल उठाते हैं।

नई कहानी में यथार्थ की प्रामाणिकता पर बल दिया गया है। यह भोगे हुए यथार्थ तक ही सीमित नहीं है बल्कि अनुभूति की प्रामाणिकता और प्रामाणिकता की यथार्थवादी प्रस्तुती है। कहानी अब जीवन का प्रतिबिंब नहीं, जीवन की एक फांक, अनुभव या खंड मात्र बन गई है। इसलिए कमेलश्वर ‘नई कहानी की भूमिका’ में लिखते हैं कि ‘‘पूर्व कहानी जीवन का चित्र मात्र थी, चित्र में जीवन की वास्तविकता नहीं होती, थोड़ी कृत्रिमता या बनावटीपन होता है। नई कहानी इस बनावटीपन और चित्र की जीवनगत दूरी को मिटाकर जिंदगी के किसी हिस्से के रूप में आती है। यानि नई कहानी पहले और मूल रूप में जीवनानुभव है, उसके बाद कहानी है।’’53 इस प्रकार कहा जा सकता है कि नई कहानी का सौन्दर्य जीवन का अनुभव का सौन्दर्य है। उसमें विश्वसनीयता का संकट नहीं के बराबर रहा है। कहानी के केन्द्र में व्यक्ति और उसका समाज है। सामाजिकता और वैयक्तिकता का समन्वय कहानी की संवेदना में है। यही कारण है कि नई कहानी मानवीय रिश्तों, संबेधों पर बहुत अधिक लिखा गया है। राजेन्द्र यादव के शब्दों में, यह ‘‘व्यक्तिगत सामाजिकता’’54 है। इस सामाजिकता में विविधता और व्यापकता तो बहुत है लेकिन वह मुख्यतः संबंधों के यथार्थ पर आधारित है। मोहन राकेश के अनुसार ‘‘नई कहानी में यथार्थ अपेक्षाकृत ठहरे हुए— पारिवारिक और वैयक्तिक यथार्थ है।’’55 वस्तुतः नई कहानी में विविधता और व्यापकता का कारण व्यक्ति के जीवन के विभिन्न यथार्थ और उसका सामाजिक सरोकार हैं। यह यथार्थ व्यक्ति की निजी अनुभूति और दृष्टिकोण है। पुष्पपाल सिंह के अनुसार ‘‘भोगे हुए या अनुभूत यथार्थ की अभिव्यक्ति में किसी प्रकार के निषेधभाव ( इन्हिबिशन्स) न होने के कारण यह यथार्थ बहुआयामी और अत्यंत व्यापक है। इसीलिए नई कहानी में एक प्रकार का अपूर्व वैविध्य दिखाई देता है।’’56 यह विविधता व्यक्ति की प्रवृत्तियों से लेकर समाज, गांव, शहर, कस्वा और महानगर तक सभी स्तरों पर विद्यमान है। सन् 1950 से लेकर 1960 के बीच की कहानियों को नई कहानी नाम से जाना जाता है, अभिहित किया जाता है। इसमें ‘व्यक्ति के संदर्भ में समाज को देखने की प्रवृत्ति है।’ रामचन्द्र तिवारी के शब्दों में ‘‘कहानी पढ़ते हुए पहले हमारा ध्यान व्यक्ति पर जाता है। व्यक्ति खोया-खोया, टूटा-टूटा या अपने को अजनबी अनुभव करता हुआ दिखाई पड़ता है। उसकी इस मनःस्थिति का कारण सामाजिक विघटन है। इस प्रकार व्यक्ति से हो कर समाज तक पहुंचते हैं।’’57 

हिन्दी कहानी में गांव और आंचलिकता का चित्रण एवं उसका सौन्दर्य बहुत ही मार्मिक ढंग से हुआ है। जहां गांव का मतलब होता है विभिन्न जातियों व समुदायों के जीवन के बारे वर्णन। ‘भारतीय गांव अलग से सामाजिक इकाई है। उसमें भिन्न-भिन्न जातियां होती है।’ इसका विशद वर्णन प्रेमचन्द की रचनाओं में मिलता है। वहीं आंचलिकता की शुरूआत फणीश्वरनाथ रेणु की ‘मैला आंचल’ से होती है। उनकी कहानियों में अंचल विशेष की जिंदगी सचित्र झांकती है। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां ‘लाल पान की बेगम’ और ‘तीसरे कदम उर्फ ‘मारे गये गुलफाम’ इसकी सशक्त उपस्थिति हैं। शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार’ और शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘कर्मनाशा की हार’ में गांव की छवि पूरी की पूरी उतर कर आयी है। लेकिन नई कहानी तक आते-आते कहानी का कथ्य गांव से अलग कस्बा, नगर और महानगरीय जीवन का हो जाता है। नगरीय जीवन का चित्रण नई कहानी के केन्द्र में रहा है। मोहन राकेश की कहानी ‘ग्लासटैंक’ और कमलेश्वर की कहानी ‘खोई हुई दिशाएं’ में महानगरीय जीवन का सफल चित्रण हुआ है। जिसमें जीवन को विभिन्न संदभों और स्थितियों में दर्शाया गया है। नई कहानी में चित्रित कथा और पात्रें के जीवन के संदर्भ में राजेन्द्र मिश्र ने लिखा है कि ‘‘नई कहानी में स्थितियों का संदर्भ व्यापक रूप से मिलता है और वे केवल पात्र केंद्रित कथाएं नहीं है। जीवन के व्यापक स्तर पर इन पात्रें को रचा गया है।’’58 अर्थात जीवन के विभिन्न संदर्भों में पात्रें को रचा गया है। वह अपनी कमजोरियों के साथ स्थिति एवं परिस्थितियेां के बीच घिरा होता है। नई कहानी की संवेदना मध्यवर्गीय जीवन की संवदेना है। व्यापक फलक पर नई कहानी के पात्र मध्यवर्गीय जीवन से ताल्लुक रखता है। मध्यवर्गीय जीवन के संघर्ष की कहानी ही नई कहानी की संवेदना में व्यापकता से उजागर होती है।

नई कहानी की प्रवृत्तियों को इस प्रकार देखा जा सकता है। यह प्रवृत्तियां कथ्यगत और शिल्पगत दोनों है-कथ्यगत विशेषताएं यथार्थ के प्रति नया रूख, संबंधों के बदलाव का बिन्दु, दांपत्यगत दूरियों की ईमानदार स्वीकृति, नारी पुरूष के प्रकृत काम संबंधों का स्पष्ट स्वीकार, मध्यवर्गी य जीवन और व्यक्ति कहानी के केन्द्र में, महानगरीय जीवन बोध, मूल्यों और मान्यताओं में परिवर्तन, विद्रोह भाव, विदेश से आयातित विचारदर्शनों का प्रभाव मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, पूंजीवाद, व्यक्तिवाद आदि, वैयक्तिक चेतना का प्रकाशन, वैज्ञानीकरण, औद्योगिकीकरण और तकनीकी उन्नति के प्रभाव, विदेशी सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव, परिवेश के प्रति जागरूकता, प्रत्येक स्तर पर रोमानीबोध से मुक्ति आदि हैं। वहीं शिल्पगत विशेषताएं भाषा की समर्थ अभिव्यंजना, भाषा का स्वाभाविक अलंकरण, सशक्त बिंब विधान, प्रतीकात्मकता, कथानक के स्थान पर वातावरण परिवेश चित्रण का महत्व, पूर्व दीप्ति पद्धति, समानांतर एवं दुहरे कथानक, पात्रें के नाम और वर्ग का लोप (व्यक्तिवाची संज्ञाओं के स्थान पर सर्वनामों का प्रयोग), निष्कर्षहीन कहानियां(नीति कथाओं जैसे निष्कर्ष नहीं है), कहानी में गद्य की अन्य विधाओं की अंतर्भुक्ति, कहानी में लघुता या दीर्घता (आकार-सीमा) का निषेध आदि हैं।59

नई कहानी के संदर्भ में कमलेश्वर का यह कथन मार्मिक है कि ‘‘स्वतंत्रता के बाद पहली बार नई कहानी ने आदमी को आदमी के संदर्भ में प्रस्तुत किया है, शाश्वत मूल्यों की दुहाई देकर नहीं, बल्कि उस आदमी को उसी के परिवेश में सही आदमी या मात्र आदमी के रूप में अभिव्यक्ति देकर।’’60 अर्थात नई कहानी में व्यक्ति आदमी किसी शाश्वत मूल्यों को लेकर उपस्थिति नहीं हुआ है। वह परिस्थिति और परिवेश से बंधा हुआ है। वह ‘‘मनुष्य को उसके परिवेश में अन्वेषित करती है। और मानव नियति एवं उसके संकट के द्वंद्व को व्यक्त करती है।’’61 ‘‘नई कहानी में मात्र सामान्य मनुष्य ही अवतरित हुआ है, अपनी सारी खामियों, कमियों और अच्छाईयों के संदर्भ में।—नई कहानी का व्यक्ति (या मनुष्य)इन सब विविध अनुभवों के संदर्भ में ज्यादा प्रौढ़ और संयत है, ज्यादा सही और सच्चा औसत आदमी है।’’62 कमलेश्वर के अनुसार ‘‘नई कहानी आग्रहों की कहानी नहीं है, प्रवृत्तियों की हो सकती है और उसका मूल स्रोत है-जीवन का यथार्थबोध और इस यथार्थ को लेकर चलने वाला वह विराट मध्य और निम्न वर्ग है जो अपनी जीवन शक्ति से आज के दुर्दांत संकट को जाने-अनजाने झेल रहा है। उसका केन्द्रीय पात्र है (अपने विविध रूपों और परिवेशों में) जीवन को वहन करने वाला व्यक्ति।’’63 इस प्रकार कहा जा सकता है कि जटिल जीवन यथार्थ की व्यापक स्वीकृति नई कहानी की केन्द्रीय प्रवृत्ति है। जिसमें व्यक्ति की प्रतिष्ठा, छिछली भावुकता का ह्रास, मध्यवर्गीय जीवन चेतना, आधुनिकता बोध, सांकेतिकता आदि को सहज ही पहचान की जा सकती है।

किसी भी विषय वस्तु का सौन्दर्य उसकी सार्थकता में निहित होता है। हिन्दी कहानी की सार्थकता की बात करते हुए नामवर सिंह लिखते हैं कि ‘‘कहानी का यह दुर्भाग्य है कि वह मनोरंजन के रूप में पढ़ी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है। मनोरंजन उसकी सफलता है तो शिल्प सार्थकता। यदि शास्त्रीय आलोचक कहानी को केवल साहित्य रूप समझते हैं तो मूल्यवादी आलोचक उसे जीवन की सार्थक अनुभूतियों के लिए असमर्थ मानते हैं।—आज कहानी की सफलता का अर्थ है कहानी की सार्थकता। आज किसी कहानी का शिल्प की दृष्टि से सफल होना ही काफी नहीं है बल्कि वर्तमान वास्तविकता के सम्मुख उसकी सार्थकता भी परखी जानी चाहिए। जीवन के जिन मूल्यों की कसौटी पर हम कविता, उपन्यास आदि साहित्य रूपों की परीक्षा करते हैं, उन्हीं पर कहानी की भी परीक्षा होनी चाहिए। इससे कहानी समीक्षा का एक ढांचा तो तैयार होगा ही_ साथ-साथ मानवीय मूल्यों के संबंध में हमारा ज्ञान भी बढेगा और संपूर्ण साहित्य के मानों की अपर्याप्तता भी क्रमशः कम होगी।’’64 

हिन्दी कहानी की आलोचना में कहानी के भाषा-शिल्प सौन्दर्य पर लगातार बल दिया जाता रहा है। नामवर सिंह के अनुसार, ‘‘कहानी शिल्प संबंधी आलोचनाओं ने कहानी की जीवनी शक्ति का अपहरण कर उसे निर्जीव ‘शिल्प’ ही नहीं बनाया है बल्कि उस शिल्प को विभिन्न अवयवों में काटकर बांट दिया है। लिहाजा, हम कहानी को ‘कथानक’, ‘चरित्र’, वातावरण’, भावनात्मक प्रभाव’, विषयवस्तु’, आदि अलग-अलग अवयवों के रूप में देखने के अभ्यस्त हो गये है।’’65 वर्तमान कहानियों में जहां कहीं शिल्पवादी प्रवृत्ति का अतिरेक दिखाई पड़ता है, उसका संबंध किसी न किसी रूप में कहानी की विभक्त धारणा से अवश्य है। ‘‘यदि कोई कहानीकार शिल्प के किसी विशेष अवयव की रचना करके सफलता का ढोल पीटता है तो यही समझना चाहिए कि वह कहानी को एक शिल्प समझता है।’’66 नामवर सिंह के अनुसार ‘‘कहानी का मूल तत्व कहानीपन है। लय की तरह कहानी कहना मनुष्य की काफी पुरानी कलात्मक वृत्ति है और इसकी रक्षा अपने आप में स्वयं भी एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्य है और इतिहास से प्रमाणित होता है कि नीति, लोक-व्यवहार, धर्म, राजनीति आदि विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस कला का उपयोग करते हुए भी मानव-जाति ने आज तक इसकी रक्षा की है। निःसंदेह इस कला का चरम विकास आधुनिक युग में हुआ जब उद्देश्य और कहानीपन दोनों घुल-मिलकर इस तरह हो गये कि उद्देश्य से अलग कहानी के रूप की कल्पना भी कठिन हो गई।’’67 अर्थात कहानी के उद्देश्य में ही उसका सौन्दर्य छिपा होता है। कहानीपन उसका अनिवार्य तत्व है। ‘कहानी की कहानीपन की सफलता का अर्थ है उनकी अर्थवत्ता या सार्थकता।’ कहानियों का अध्ययन केवल सोद्देश्यकता की पृष्ठभूमि में ही किया जा सकता है।68 अंतर्विरोध को उसकी संपूर्ण तीव्रता में ग्रहण करके ही किसी कहानी को सफल और सार्थक बनाया जा सकता है।69 

नई कहानी में संप्रेषणीयता का सवाल महत्वपूर्ण सवाल बन कर उभरा है। संप्रेषणीयता’ की कठिनाई केवल भाषा या साहित्यिक माध्यम की कठिनाई नहीं है, बल्कि किसी गहरे सांस्कृतिक संकट का लक्षण है। नामवर सिंह के अनुसार ‘‘नई कहानी का समूचा रूपगठन(स्ट्रक्चर) और शब्द गठन(टैक्स्चर) ही सांकेतिक है।’’70 ‘प्रभावान्विति’ कहानी में उतनी पुरानी है जितनी स्वयं आधुनिक कहानी। किंतु प्रभाव की संपूर्ण अन्विति को सांकेतिक बनाने का श्रेय एकदम नई कहानी को है। नई कहानी संकेत करती नहीं, बल्कि स्वयं संकेत है।’ नई कहानी में वातावरण अंतःकरण है। वातावरण निर्माण में नये कहानीकार प्रायः बिम्ब विधान का सहारा लेते हैं। नामवर सिंह के अनुसार ‘‘नई कहानी के प्रसंग में यदि ‘संप्रेषणीयता’ का कोई अर्थ हो सकता है, तो रस-बोध के विविध स्तरों की प्रेषणीयता।’’71 ‘कहानी में प्रतीक और संकेत का एक दूसरा पहलू यह भी है कि वह कहानी को विचार शून्य करता है। यह एक बड़ा संकट है साहित्य में कहानी के लिए।’72 ‘प्रतीक संकेत की पद्धति से भाषा में जहां एक ओर अर्थवत्ता आयी है, वहां दूसरी ओर उस पर अनावश्यक काव्यात्मकता का लदाव भी हुआ है।’’73 

इस प्रकार हिन्दी कहानी में नई कहानी के बाद आंदोलन के तौर पर, अकहानी, सहज कहानी, सक्रिय कहानी, जनवादी कहानी और समकालीन आदि की अवधारणा आती है। राजेन्द्र मिश्र के अनुसार ‘‘वस्तुतः 1950 से नयी कहानी का स्वरूप सामने आया है। 20वीं शताब्दी के अंतिम 50 वर्षों में कविता के समान कहानी के भी अनेक आंदोलन चले हैं। यदि गहराई से देखा जाये तो वे सभी नयी कहानी का ही अलग-अलग रूपों में विस्तार है। सामाजिक स्थितियों और व्यक्ति मनोविज्ञान के आधार पर उन्हें रचा गया है। भारत जैसे गरीब देश में आर्थिक विषमता बहुत गहरी है और कहानियों के माध्यम से उसे विभिनन आंदोलनों का नाम देकर भी वर्ग संघर्ष को उभारा गया है। रोमानी भाव की वजाय कहानियों में वर्ग संघर्ष को अधिक चित्रित करने का प्रयास उसे सामाजिक यथार्थवाद से जोड़ने का ही उपक्रम है। कहानी के आंदोलनों का आधार शिल्पगत उतना नहीं है जितना कि वह विचारगत है। कहानी का विषय भी व्यापक होता गया है और निम्न-से-निम्न वर्ग के जीवन पर भी कहानी लिखी जाती है। आभिजात्य की बजाय वह यथार्थ से जुड़ी है। अतः कहानी के विभिन्न आंदोलन अलग-अलग न होकर उस नयी कहानी का ही विस्तार हैं जिसे हम आज की कहानी भी कह सकते हैं।’’74

समकालीन कहानी आंदोलन के पृष्ठभूमि में 1965 की राजनैतिक चेतना है और उसकी चुनौतियां हैं। समकालीन कहानी का उद्देश्य ‘‘समाजवाद की स्थापना के लिए वर्तमान चरण में मजदूर किसान की मित्रता के आधार पर सच्चे जनतंत्र की स्थापना। समकालीन कहानी इसे समझते हुए इसके लिए संघर्षरत है। यह साम्प्रदायिक संकीर्णता, जातिवाद, विघटनवाद और अंध राष्ट्रवाद और भाषा तथा क्षेत्रीयता के नाम पर हमारी जनता और राष्ट्र की एकता को तोड़नेवाली शक्ति का पूरी शिद्दत से विरोध करता है।’’75 समकालीन भारतीय समाज धर्म, जाति, उपजाति, नस्ल जैसे संकीर्ण खानों में बांटता जा रहा है। इन खानों को मिटाने की कोशिश हम सालों से कर रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष उत्तरदायी हमारे राजनीतिक एवं धार्मिक नेताओं की स्वार्थता और तंग दृष्टि ही है। ‘‘समकालीन कहानी के केंन्द्र में जो आम आदमी है, उनकी दुनिया धर्म और साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों से अलग है, उनसे घृणा करती है, उनकी नैतिकता पर शक करती है, उनके देशप्रेम की वास्तविकता की पड़़ताल करती है और साथ ही उनकी ईमानदारी की धज्जियां उड़ाती है।’’76 अर्थात समकालीन विमर्श के दौर में धर्म और साम्प्रदायिकता की राजनीति की पड़ताल करती है हिन्दी कहानी का सौन्दर्य और एक मानुषसत्य की ओर बढ़ने की चाहत पैदा करती है।

निष्कर्षः

इस प्रकार देखा जा सकता है कि हिन्दी कहानी का सौन्दर्य एक विकास प्रक्रिया में लगातार बदलता रहा है। इस बदलाव की प्रक्रिया में प्रेमचन्द की संवेदना और रचनात्मक कला की भूमिका अहम रही है। लेकिन उसके बाद कहानी की संवेदना मध्यवर्गीय जीवन से जुड़ती गई। उनकी इच्छा, आकांक्षाओं को ही व्यक्त करती है। ‘‘प्रेमचन्दोत्तर कहानी विशेषकर नई कहानी मूलतः मध्यवर्गीय नगरीय जीवन के यथार्थ से जुड़ी रही है। इस कहानी का संसार मानव-मानव के बनते बिगड़ते संबंधी और उनके बदलते मूल्यों की तलाश, परंपराबोध और आधुनिकता की टकराहट, सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से उत्पन्न मानवीय विकृतियों को भोगे हुए यथार्थ के धरातल पर चित्रित करता है। इतना होते हुए भी दलित इन कथाकारों द्वारा नजर अंदाज कर दिया गया। सातवें दशक की कहानी में भी दलित चेतना को उभारने का प्रयास नहीं किया गया। हिन्दी कथा साहित्य में दलित चेतना की अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से आठवां दशक महत्वपूर्ण है।’’77 अर्थात हिन्दी में दलित चेतना का लेखन सन् 1980 के आस-पास से शुरू होता है। दलित जीवन से संबंधित रचनाएं हिन्दी साहित्य में मिलती रही हैं लेकिन उसकी संवेदना सहानुभूति की रही है दलित चेतना की नहीं। दलित जीवन से संबंधित रचनाएं जिसकी विरासत प्रेमचन्द ने आने वाली पीढ़ी को सौंपा उसका वहन परवर्ती हिन्दी लेखकों की रचनाओं में नहीं के बराबर मिलती हैं। राजनीति स्तर पर दलितों की समस्याएं उजागर होती रही हैं लेकिन हिन्दी में रचनात्मक स्तर पर दलितों की समस्याओं का चित्रण मुकम्मल तौर पर नहीं हुआ है। यदि कहीं हुआ भी है तो सहानुभूति के स्तर पर उसका चित्रण हुआ है। उनमें चेतना की कमी है। दलित लेखन दलित चेतना और आंदोलन की उपज है। प्रेमचन्द साहित्य में जिस सौन्दर्य की कसौटी बदलने की बात कर रहे थे, उसकी कमी हिन्दी कहानी लेखन में है, उसका सौन्दर्य जरूर बदल गया है लेकिन उसकी तीव्रता प्रेमचन्द की साहित्य की कसौटी नहीं रही है। प्रेमचन्द साहित्य में जिस सौन्दर्य मूल्यों की स्थापना करते रहे और साहित्य की कसौटी को बदलने की बात करते रहे हैं। जिन साहित्यिक मूल्यों को आने वाली पीढ़ी को सौपा, वह वहीं के वहीं रह गया। प्रेमचन्द की विरासत उनकी लेखनी की अंतिम सांसों के साथ ही थम गई। आने वाला समय अपने ढंग से साहित्य की संवेदना और सौन्दर्य को रेखांकित करने लगा। उसे संचित करने लगा। कहानी का सौन्दर्य जिस व्यापकता में प्रेमचन्द की रचना में रचा-बसा है। उसका विकास हिन्दी में नहीं हो सका। सौन्दर्य की जिन कसौटी को प्रेमचन्द ने साहित्य में जगह दी थी, उसका ह्रास प्रेमचन्द युग में देखा जा सकता है। नई कहानी का सौन्दर्य स्वाधीनता के मोहभंग और आर्थिक निर्भरता या फिर स्त्री-पुरुष संबंधों में खो गया। सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास सामाजिक जड़ता की ओर संकेत है और हिन्दी कहानी का सौन्दर्य स्वाधीनता के साथ इसी का शिकार है। नई कहानी का सौन्दर्य वैचारिकता की दृष्टि से बहुत ही कमजोर रही है। राजनीति विचारों का नई कहानी में जगह नहीं मिलना उसी का परिणाम है। सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों एवं विचारों की दृष्टि से नई कहानी और उसके बाद की कहानी का सौन्दर्य सामाजिक फूहड़ता का शिकार रहा है। यही कारण है सामाजिक-सांस्कृतिक संसाधनों पर ब्राह्मणवादी मानसिकता की कब्जा रही है और वे मूल्यों के नियंता रहे हैं। कहानी का सौन्दर्य इस जड़ता, फूहड़ता और नियंता को समाप्त कर सकता था लेकिन ऐसा करने में सक्षम नहीं रहा। समय सापेक्ष कहानी की संवेदना का स्वरूप बदलता रहा है लेकिन सौन्दर्यबोध सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की सामाजिकता से बाहर रहा है। जिसकी पूरी संभावना थी कि स्वाधीन भारत में समाज के सभी समुदाय की संवेदनाएं, समस्याएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं और स्वप्नों की अभिव्यक्ति होगी और उसके मूल्यों का सौन्दर्य भारत को नये क्षितिज पर पहुंचाएगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कहानी के सौन्दर्यबोध में इतिहासबद्ध समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना हो रही है।

 

संदर्भ ग्रंथसूची:

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3- गोपाल राय, हिन्दी कहानी का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ- 55

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5- गोपाल राय, हिन्दी कहानी का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ- 55

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