हिंदी रिपोर्ताज साहित्य और कन्हैयालाल मिश्र का ‘क्षण बोले कण मुस्काए’

मनोज शर्मा

सारांश

रिपोर्ताज साहित्य की गणना हिंदी गद्य की नव्यतम विधाओं में की जाती है. द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास इस विधा का जन्म हुआ. रिपोर्ताज शब्द को अपने विदेशी (फ्रेंच) रूप में ही ज्यों का त्यों हिंदी में अपना लिया गया है. आरम्भ में इसे रिपोर्टाज लिखा जाता रहा है किन्तु धीरे-धीरे भारत में यह रिपोर्ताज के रूप में प्रयुक्त होने लगा. रिपोर्ताज पत्रकारिता की देन है. इसमें आँखों देखी या कानो सुनी सत्य घटनाओं को साहित्यिकता के साथ प्रस्तुत किया जाता है. वर्तमान में इसे साहित्य की महत्वपूर्ण विधा के रूप में देखा जाता है.कन्हैयालाल मिश्र’प्रभाकर’ हिंदी पत्रकारिता तथा हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार हैं. क्षण बोले कण मुस्काये कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का प्रसिद्ध रिपोर्ताज संग्रह है.जिसका रिपोर्ताज साहित्य में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय स्थान है.

बीज शब्द: रिपोर्ताज, गद्य ,क्षण, द्वितीय, विश्वयुद्ध ,नवीन, विधा, आधुनिक

मूल आलेख

हिंदी साहित्य का आधुनिक युग गद्य क प्रसव काल है जिसमें अनेक नयी विधाओं का चलन हुआ. इन विधाओं में कुछ तो सायास थीं और कुछ के गुण अनायास ही कुछ गद्यकारों के लेखन में आ गए थे. वास्तविक रूप में तो रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है. उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है. रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है. यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ. इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था. कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया. शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की.

रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं. सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है. रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं. वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं. इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है. लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा. इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे. रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है. फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी. ‘ऋण जल-धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है.

अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है.

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है. लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी.

(1) रिपोर्ताज हिन्दी की ही नहीं, पाश्चात्य साहित्य की भी नवीनतम विधा है. (2) इसका जन्म साहित्य और पत्रकारिता के संयोग से हुआ है. (3) रिपोर्ताज घटना का आँखों देखा हाल होता है. (4) इसमें कुछ घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर मनोवैज्ञानिक विवेचन तथा विश्लेषण होता है.

रिपोतार्ज: अर्थ एवं परिभाषा 

रिपोर्ताज शब्द फ्रेंच शब्द है यह हिंदी में उतना ही प्रचलित हो गया है जितना यूरोपीय समाज में रिपोर्ताज रिपोर्ट का ही विस्तार है. रिपोर्ताज में रिपोर्ट की भांति ही क्यों हुआ,कब हुआ,कैसे हुआ,क्या हुआ जैसे ही प्रश्नों के उत्तर है साथ ही विस्तार और विश्लेषण भी है.रिपोर्ट आज पढ़कर कल नहीं पढ़ी जाती उसमे नयापन या रोचकता नहीं होती लेकिन रिपोर्ताज में विश्लेषण विस्तार और कल्पनाशीलता के कारण रोचकता बनी रहती है इसलिए उसे बार बार पढ़ा जा सकता है. हिंदी साहित्यकोश में इसे परिभाषित किया है कि ‘रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही रिपोर्ताज कहते हैं. वास्तविक घटनाओं का ज्यों का त्यों रख देना रिपोर्ट है जबकि उन्हीं वास्तविक घटनाओं में कलात्मकता का रंग भरकर रचनाकार उसे रिपोर्ताज बना देता है.रिपोर्ताज घर पर बैठकर किसी घटना का अनुमान लगाकर नहीं लिखा जा सकता.इसके लिए रचनाकार का घटना का प्रत्यक्षदर्शी होना आवश्यक है जब वह उस वास्तविक घटना में अपनी गहन संवेदना,सजीवता रोमांच विश्वसनीयता और प्रभाव से जोड़ता है. तात्पर्य यह है कि रिपोर्ताज ऐसी ‘रिपोर्ट’ है जिसमें साहित्यिकता एवं कलात्मकता का समावेश हो.’रिपोर्ताज का स्वरूप’घटनापरक होते हुए भी सृजनात्मक एवं साहित्यिक है.

यह गद्य में लेखन की एक विशिष्ट शैली है. रिपोर्ताज से आशय इस तरह की रचनाओं से है जो पाठकों को किसी स्थान, समारोह, प्रतियोगिता, आयोजन अथवा किसी विशेष अवसर का सजीव अनुभव कराती हैं. गद्य में पद्य की सी तरलता और प्रवाह रिपोर्ताज की विशेषता है. अच्छा रिपोर्ताज वह है जो पाठक को विषय की जानकारी भी दे और उसे पढ़ने का आनन्द भी प्रदान करे. रिपोर्ताज की एक बड़ी विशेषता इसकी जीवन्तता होती है. गतिमान रिपोर्ताज पाठक को बांध लेता है. पाठक उसके प्रवाह में बंध कर खुद ब खुद विषय से जुड़ जाता है. इसलिए रिपोर्ताज लेखन में इस बात का खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसमें दोहराव न हो और जानकारियों का सिलसिला बना रहे. रिपोर्ताज लेखक को विषय-वस्तु की बारीक जानकारी होनी चाहिए. विषय से जुड़ी छोटी-छोटी जानकारियां ही रिपोर्ताज को रोचक बनाती है.

रिपोर्ताज reportage की भाषा शैली में कथा-कहानी जैसा प्रवाह और सरलता होनी चाहिए. रिपोर्ताज मूलतः फ्रांसीसी भाषा का शब्द है जो अंग्रेजी के रिपोर्ट शब्द से विकसित हुआ है. रिपोर्ट का अर्थ होता है किसी घटना का यथातथ्य वर्णन. रिपोर्ताज इसी वर्णन का कलात्मक तथा साहित्यिक रूप है. रिपोर्ताज घटना प्रधान होते हुए भी कथा तत्व से परिपूर्ण होता है. एक तरह से रिपोर्ताज लेखक को पत्रकार और साहित्यकार, दोनों की भूमिकाएं निभानी होती हैं.

‘रिपोर्ताज’ का अर्थ एवं उद्देश्य

जीवन की सूचनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए रिपोर्ताज का जन्म हुआ. रिपोर्ताज पत्रकारिता के क्षेत्र की विधा है. इस शब्द का उद्भव प्रफांसीसी भाषा से माना जाता है. इस विधा को हम गद्य विधाओं में सबसे नया कह सकते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यूरोप के रचनाकारों ने युद्ध के मोर्चे से साहित्यिक रिपोर्ट तैयार की. इन रिपोर्टों को ही बाद में रिपोर्ताज कहा गया. वस्तुतः यथार्थ घटनाओं को संवेदनशील साहित्यिक शैली में प्रस्तुत कर देने को ही रिपोर्ताज कहा जाता है.

रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है. रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है. रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है. रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं. रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है.रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं.वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है.आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है.कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है. घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये. रिपोर्ताज लेखक को पत्रकार तथा कलाकार दोनों की भूमिका निभानी पडती है. रिपोर्ताज लेखक के लिये यह भी आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे.तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है.

रिपोर्ताज की परिभाषा

महादेवी वर्मा का कहना है – “रिपोर्ट या विवरण से संबंध रिपोर्ताज समाचार युग की देन है और उसका जन्म सैनिक की खाईयों में हुआ है.” रिपोर्ताज का विकास रूस में हुआ. द्वितीय विश्व युद्ध के समय इलिया एहरेन वर्ग को रिपोर्ताज – लेखक के रूप में विशेष प्रसिद्धि मिली.

डॉ.भागीरथ मिश्र ने रिपोर्ताज को परिभाषित करते हुए लिखा है – “किसी घटना या दृश्य का अत्यंत विवरणपूर्ण सूक्ष्म, रोचक वर्णन इसमें इस प्रकार किया जाता है कि वह हमारी आंखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाए और हम उससे प्रभावित हो उठें.”

कोई भी निबंध, कहानी, रेखाचित्र या संस्मरण पत्रकारिता से संपृक्त होकर रिपोर्ताज का स्वरूप ग्रहण कर लेता है. साहित्यिकता इसका अनिवार्य तत्व है. रेखांकित एवं रिपोर्ट का समन्वित रूप रिपोर्ताज को जन्म देता है क्योंकि रेखाचित्र साहित्यिक विधा है.

रिपोर्ताज का विवेचन करते हुए शिवदान सिंह चौहान ने लिखा है – “आधुनिक जीवन की द्रुतगामी वास्तविकता में हस्तक्षेप करने के लिए मनुष्य को नई साहित्यिक रूप विधा को जनम देना पड़ा. रिपोर्ताज उन सबसे प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण विधा है.”

  1. रिपोर्ताज में तथ्यों के साथ भाव प्रवणता होती है.
  2. रिपोर्ताज का स्वरूप कलापूर्ण होता है. लेखक यथार्थ विषय को कल्पना के माध्यम से साहित्यिक परिवेश में प्रस्तुत करता है.
  3. रिपोर्ताज में मुख्य विषयवस्तु घटना होती है. घटना का काल्पनिक अथवा यथार्थपरक होना लेखक पर निर्भर करता है. घटना को कथात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है.
  4. इस विधा की कोई सीमा नहीं होती.
  5. रिपोर्ताज में बाह्य स्वरूप की अभिव्यक्ति अधिक और आंतरिक स्वरूप की अभिव्यक्ति कम होती है.
  6. जन-जीवन की प्रभावकारी परिस्थिति का चित्रण होने के साथ ऐतिहासिकता के लिए प्रमाण भी अपेक्षित है.
  7. रिपोर्ताज लेखक का उद्देश्य वस्तुगत तथ्यों को प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करना होता है.
  8. रिपोर्ताज लेखक साहित्यिक लेखनी को हाथ में लेकर जागरूक बौद्धिकता के साथ यथार्थ जगत् से संपर्क किये रहता है.
  9. रिपोर्ताज का प्रभाव सीमित होता है. सम-सामयिक विषय और घटनाओं पर आधारित होने के कारण इसका प्रभाव सार्वजनीन नहीं रहता है.
  10. लेखक का दृष्टिकोण मनोविश्लेषणात्मक होता है.
  11. भाषा में सरलता, सहजता, सुबोधता, सजीवता एवं सरसता होना आवश्यक होता है.

कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के रिपोर्ताज

रिपोर्ताज लेखन में कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ को काफी सफलता मिली है.मिश्र जी कुशल पत्रकार के साथ-साथ साहित्यिक मर्मज्ञ भी थे. वो जैसा देखते हैं वैसा ही काग़ज़ पर उतारने की कला भी जानते हैं. हिंदी रिपोर्ताजकारो में डॉ रांगेय राघव के बाद यदि किसी रिपोर्ताजकार पर दृष्टि ठहरती है तो वे पं कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ही हैं. हिंदी रिपोर्ताज के जन्म से ही रिपोर्ताज लिखते चले जा रहें हैं और इतना ही क्यों, हिंदी रिपोर्ताज के एक तरह से वे जन्मदाता ही कहे जाएँ ,तो अत्युक्ति न होगी. रिपोर्ताज साहित्य में उनका प्रसिद्ध रिपोर्ताज संग्रह ‘क्षण बोले कण मुस्काए’ काफी उल्लेखनीय हैं जिसमें उनके 26 प्रसिद्ध रिपोर्ताज हैं. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की चुटीली भाषा रिपोर्ताज में नयी जान फूंक देती है जिसके कारण रिपोर्ताज में आरंभ से अंत तक रोचकता बनी रहती है. क्षण बोले कण मुस्काए रिपोर्ताज संग्रह में ’वे सुनते ही नहीं’, ‘कुंभ महान’,‘रोबर्ट नर्सिंग होम’, ‘ऊपर की बर्थ पर’,’अपने भंगी भाइयों के साथ’,’लाल किले की ऊँची दीवार से’,’मस्जिद की मीनारे बोली’ और ‘पहाड़ी रिक्शा’ आदि उनके प्रमुख रिपोर्ताज हैं.

बहुत कम कथा-कृतियाँ ऐसी होती हैं जो अपने यथार्थवादी स्वरूप एवं समाज की अनेक परतों को बारीकी से चित्रित करते हुए इतना कलात्मक, शैली और शिल्प के स्तर पर बहुबिध प्रयोगधर्मा एवं सर्जनशीलता का अनूठा स्वरूप रखती हों. प्रायः रचनाओं में यथार्थवादी आग्रह के कारण उनका रचनात्मक या साहित्यिक पक्ष गौण हो जाता है और वे यथार्थ का विवरण मात्र बनकर रह जाती हैं.दूसरी तरफ कलात्मक सृजनशीलता में यथार्थवादी पक्ष कमजोर हो जाता है.

प्रभाकर जी के रिपोर्ताजों में भारत के राष्ट्रीय संग्राम में, गांधी युग के सत्याग्रह काल की,अद्मय जिजीविषा मिलती है. वे राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष में सन 1930,1932 और 1942 में तीन बार जेल गए. सन 1930 से ही रिपोर्ताज लिखने की इच्छा उनमें जागी- और उनके अनेक ऐसे रिपोर्ताज हैं जिनमें देश की चिंता प्रधान है.मिश्र जी के रिपोर्ताज अपने समय के सांस्कृतिक, सामाजिक परिवेश के दर्पण है. रिपोर्ताज के तत्वों और विशेषताओं में यथातथ्यता ,जीवंतता तथा कलात्मकता को कन्हैयालाल मिश्र’प्रभाकर’ ने विशेष रूप से अपनाया है. किसी घटना को नितांत सत्य एवं निष्पक्ष रूप से चित्रित करने में प्रभाकर जी ने विशेष कौशल का परिचय दिया है.

इनकी रचनाओं में कलागत आत्मपरकता, चित्रात्मकता और संस्मरणात्म्कता को ही प्रमुखता प्राप्त हुई है. पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रभाकर जी को अभूतपूर्व सफलता मिली.पत्रकारिता को उन्होंने स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं बनाया है, वरन उसका उपयोग उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना में ही किया. प्रभाकर हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरण एवं ललित निबन्ध लेखकों में हैं. यह दृष्टव्य है कि उनकी इन रचनाओं में कलागत आत्मपरकता होते हुए भी एक ऐसी तटस्थता बनी रहती है कि उनमें चित्रणीय या संस्मरणीय ही प्रमुख हुआ है- स्वयं लेखक ने उन लोगों के माध्यम से अपने व्यक्ति को स्फीत नहीं करना चाहा है. उनकी शैली की आत्मीयता एवं सहजता पाठक के लिए प्रीतिकर एवं हृदयग्राहिणी होती है. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिन्दी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें ‘शैलियों का शैलीकार’ कहा था. कन्हैयालाल जी ने हिन्दी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया.

मिश्र जी की भाषा अद्भुत प्रवाह और स्वाभाविकता लिए हुए है. इनके वाक्य-विन्यास में भी विविधता है.इस कारण इनकी भाषा में कहीं-कहीं अंग्रेजी तथा उर्दू के बोलचाल के शब्द प्रयुक्त हुए है.शब्दों की चमत्कार प्रस्तुति,भावानुकूल वाक्य-विन्यास और सुंदर उक्तियाँ इनकी भाषा को अत्यंत आकर्षक बनाती है.जैसे

“घर पहंचते ही देखा. श्रीमतीजी प्रतीक्षा में खड़ी किवाड़ के पीछे झाँक रही है.मुझे यह बात कुछ अच्छी न लगी.रुपया लौंगा, तो दे ही दूंगा. इस तरह भूत बनकर पीछे पड़ने की क्या ज़रूरत? भीतर पैर रखते ही सवाल की टॉप मेरे सामने थी,” ले आये रुपये”मेरे सरे शारीर में आग लग गयी.न मेरे स्वास्थ की चिंता, न परेशानी की. मरता-मरता अभी आकर खड़ा भी नहीं हुआ कि वही रुपये का सवाल.सह्रदयता का तो इस दुनिया में जैसे दिवाला निकल गया है.”एक दिन की बात(पृष्ठ 37)

इन्होने शब्दों की लाक्षणिक शक्ति का प्रचुरता से प्रयोग किया है.साधारण शब्दों को भी इन्होने नया अर्थ, नई भंगिमा देकर भाषा पर अपना अधिकार जताया है.मिश्र जी की भाषा में मुहावरों तथा उक्तियों का सहज प्रयोग हुआ है. इनके छोटे-छोटे एवं सुसंगठित वाक्यों में सूक्ति की-सी संक्षिप्तता और अर्थ-गाम्भीर्य है.संक्षेप में मिश्र जी ने हिंदी की गद्य की नयी शैली प्रदान की है.

प्रभाकर हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरण एवं ललित निबन्ध लेखकों में हैं. यह दृष्टव्य है कि उनकी इन रचनाओं में कलागत आत्मपरकता होते हुए भी एक ऐसी तटस्थता बनी रहती है कि उनमें चित्रणीय या संस्मरणीय ही प्रमुख हुआ है- स्वयं लेखक ने उन लोगों के माध्यम से अपने व्यक्ति को स्फीत नहीं करना चाहा है. उनकी शैली की आत्मीयता एवं सहजता पाठक के लिए प्रीतिकर एवं हृदयग्राहिणी होती है. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिन्दी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें ‘शैलियों का शैलीकार’ कहा था. कन्हैयालाल जी ने हिन्दी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया.

‘क्षण बोले कण मुस्काए’मिश्र जी की प्रमुख कृति है जिसमें मूलत: रिपोर्ताज संग्रह हैं.मानव मन में निरंतर चलते चिन्तन का वर्णन जितना अच्छा इस रचना में देखने को मिलता है उतना हिंदी में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता.अत: ‘क्षण बोले कण मुस्काए’ नामक कृति हिंदी रिपोर्ताजों के विविध आयामों को समाहित किये हुए है. संग्रह के कुछ रिपोर्ताजों ‘अब हम स्वतंत्र हैं’, ‘मस्जिद की मीनारे बोली’ ,‘लाल किले की ऊँची दीवार से’ आदि जैसे ऐतिहासिक –राजनैतिक रिपोर्ताजों में लेखक की तत्कालीन राजनैतिक जागरूकता और इन सम्यक दृष्टिकोण का परिचय मिलता है. इस प्रकार की राजनैतिक उथल-पुथल को लेखक देखता है और उसे देखे गए को चिंतन से मथकर उसके मक्खन को पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर देता है. इसे एक उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है.

“अंग्रेजो के साथ ही वहां सैकड़ों हिन्दुस्तानी स्त्री-पुरुष भी थे. इनमें खद्दरवाला तो अकेला मैं ही था- बाकी सब अंग्रेजों के गोद लिए बेटे थे. ये सभी सुखी समृद्ध थे.इसका सुख और उनकी समृद्धि, उनकी वेश-भूषा और यहाँ उपस्थिति ही स्पष्ट थी.फिर भी उनमें अंग्रेजों-सी प्रसन्नता न थी.

अचानक मेरा ध्यान इस बात पर गया की यहाँ दो जातियों के मनुष्य हैं. एक वह,जिसमें अभी-अभी भारत में अपना राज्य खोया और एक वह जिसने अभी-अभी भारत में अपना राज्य पाया. मैं दोनों को गौर से देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ की न तो खाने वाले में दीनता ही है,न पाने वाले में गौरव?”

‘अब हम स्वतंत्र हैं (पृष्ठ-10)

मिश्र जी के रिपोर्ताजों में व्यंग्य है जिसे पाठक अनुभव करता है. ‘पहाड़ी रिक्शा’ के रिक्शाचालकों के प्रति वो सच्ची संवेदना रखते हैं. मिश्र जी की दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि मेले की छोटी से छोटी बात भी उनकी दृष्टि से छिपी नहीं रही है. वह भंगड़ साधुओं की टोली का गुरमन्त्र ‘चिलम चमेली’ फूँक दे ठेकेदार की हवेली’ को भी ठहर कर बहुत ध्यान देकर सुनता है और कथावाचक पंडित जी के इर्दगिर्द चुपचाप खड़ी उस भीड़ को भी देखता है जो पंडित जी का एक भी शब्द न सुनने के वावजूद वहां से हटती नहीं है.

पंo कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने ऐतिहासिक, सामाजिक धार्मिक एवं सांकृतिक आदि विविध विषयों पर रिपोर्ताज लिखे हैं उसमें सामजिक जागरूकता भी है. एक और जहाँ इतिहास के प्रति लगाव है तो वहीँ दूसरी और उज्ज्वल भविष्य के प्रति दृढ आस्था परिलक्षित होती है. अपने रिपोर्ताजों में जहाँ उन्होंने बड़े-बड़े राजनैतिक नेताओं, महान धार्मिक संतों, प्रसिद्ध त्योहारों का वर्णन मिलता है वहीँ भंगियों, हरिजनों एवं अन्य पिछड़ी जाति के गुमनाम व्यक्तियों, छोटे से कस्बों के मेलों एवं अपने सहयात्रियों को भी अपना विषय बनाया है. लुच्चों, लफंगों,गवारों बंदरों तक पर उन्होंने रिपोर्ताज लिखे हैं. वस्तुत: जितनी विविधता उनकी विषयवस्तु में है, उतनी हिंदी के अन्य किसी रिपोर्ताजकार के साहित्य में नहीं.

निष्कर्ष कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’हिंदी रिपोर्ताज साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. ‘क्षण बोले कण मुस्काये’में हर किस्म में रिपोर्ताज हैं जिनमें जीवन के हर रंग को देखा जा सकता है. रिपोर्ताज संग्रह में रचनाओं का रचना-काल भी दिया गया है.इनमें कुछ आज़ादी से पूर्व के रिपोर्ताज हैं तथा कुछ रिपोर्ताज बाद के हैं. रिपोर्ताजों में सर्वसुलभ भाषा का प्रयोग है.सभी रिपोर्ताज रोचक होने के साथ-साथ सार्थक सन्देश देने में सक्षम हैं. साहित्यिक दृष्टि से क्षण बोले कण मुस्काये काफी उल्लेखनीय कृति है.

संदर्भ सूची

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  9. https://sarkariguider.com/kanhiyalal-prabhakar-mishra/
  10. https://bharatdiscovery.org/india/ कन्हैयालाल_मिश्र_प्रभाकर
  11. https://mycoaching.in/kanhiyalal-prabhakar-mishra-prabhakar
  12. http://govtjobmargdarshan.blogspot.com/2017/05/blog-post_92.html

शोधार्थी पी एच डी हिंदी

हिंदी विभाग-दिल्ली विश्वविद्यालय

सम्पर्क : 9868310402

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