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हिंदी में स्त्री विमर्श और अनूदित उपन्यास

 भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित महिला रचनाकारों के उपन्यासों की चर्चा

आकांक्षा मोहन

सारांश

विमर्श व स्त्री-विमर्श की अवधारणा को समझते हुए प्रस्तुत शोध आलेख हिंदी में स्त्री-विमर्श  के स्वरूप को उद्घाटित करता है तथा हिंदी में स्त्री विमर्श के विकास में अनुवाद की भूमिका को विश्लेषित करता है। हिंदी के मूल रचनाकार  जैसे नासिरा शर्मा, कृष्‍णा सोबती, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्‍पा, मृदुला गर्ग, अनामिका, सूर्यबाला आदि की रचनाओं से हिंदी में स्त्री-विमर्श का स्वरूप स्पष्ट होता है। ये रचनाकार स्त्री को पाठ रूप में स्वीकार कर स्त्री जाति का मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, आर्थिक, एतिहासिक रूप में विश्लेषण कर स्त्री-विमर्श की विभिन्न समस्याओं पर बात कर रही है, परंतु साथ ही साथ हिंदी में इस विमर्श तथा विचारधारा को स्वरूप प्रदान करने में हिंदीतर भाषाओं से हिंदी में स्त्री पाठ विषयक अनुवादों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित उपन्यासों की चर्चा प्रस्तुत शोध आलेख में की गई है, जो हिंदी साहित्य में मूलतः नहीं है, परंतु अनुवाद के माध्यम से इन उपन्यासों में उठाई गयी समस्या हिंदी के स्त्री-विमर्श को न केवल विकसित करती है, अपितु सुदृढ़ भी करती है।

कुंजी शब्द : स्त्री-विमर्श, अनुवाद, अस्मिता, अस्तित्व।

            आज विमर्श आलोचनाशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। साहित्यिक विमर्श पाठ केन्द्रित होता है तथा यह पाठ हमारे आस-पास मौजूद समस्या, प्रश्न, स्थिति, विचार आदि पर आधारित होता है। वर्तमान समस्या से जुड़ना ही विमर्श है। जब कोई व्यवस्था जड़वत हो जाती है, तब विमर्श उस व्यवस्था को ध्वस्त कर नई व्यवस्था की मांग करता है। विमर्श शब्द मूलतः गहन सोच-विचार तथा चिंतन-मनन का अर्थ व्यक्त करता है। इस शब्द से हम सभी भली प्रकार परिचित हैं। विचार-विमर्श हमें अधिकतर एक युग्म में सुनने को मिलते है। इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए अनामिका लिखती हैं – “विमर्शों के साथ एक खास बात तो यह है कि वे हमारे साथ ही बड़े हुए। जब हम छोटे-छोटे थे – विचार और विमर्श ‘कल्याण जी – आनंद जी’ या ‘शंकर – जयकिशन’ या ‘तबला-डुग्गी’ या ‘चूल्हा-चक्की’ या ‘प्रेमचंद की कहानी’ के बड़े भाई साहब छोटे भाई साहब की तरह जहाँ प्रकट होते थे – साथ-साथ।”[1] उत्तर-आधुनिक दौर में समाज में कई वैचारिक संघर्ष पनपने लगे। हाशिए व उपेक्षित लोग अपनी अस्मिता के लिए जागरूक होने लगे, इन्हीं वैचारिक संघर्षों ने विमर्श को जन्म दिया।

            स्त्री-पुरुष समाज में दो स्वतंत्र इकाई है। इस संसार में दोनों स्वतंत्र अस्तित्व रखते है परंतु दोनों की स्वतंत्र अस्मिता नहीं है। स्त्री जाति की अस्मिता हाशिए पर है या नहीं, कहा नहीं जा सकता और इन्हीं कारणो से स्त्री विमर्श के दायरे में आई। स्त्री का जैविक रूप में पाठन व विश्लेषण तो पहले से ही मौजूद था, परंतु विमर्श द्वारा स्त्री जाति का मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, आर्थिक, एतिहासिक रूप में विश्लेषण किया जाने लगा। समाज की वह व्यवस्था, जिसमें एक मनुष्य जाति केंद्र में आ जाती है तथा दूसरी हीन भावना से ग्रसित हो जाती है। ऐसी व्यवस्था में जब बौद्धिक विचारों व आंदोलनो द्वारा हाशिए के मनुष्य अपने अस्तित्व और अस्मिता के संकट के प्रति चिंतित होते है, तब विमर्श उत्पन्न होता है। बाहरी दुनिया से संपर्क में रहने की वजह से पुरुष ने अपनी अस्मिता के संकट को पहचाना और उस संकट से लड़ना सीख लिया तथा उसने पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाई। वहीं स्त्री आंतरिक क्षेत्र में कार्यरत थी, जो अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण था, परंतु उसे उत्पादन की श्रेणी में नहीं रखा गया। घरेलू काम-काज में उसने अपनी पहचान जरूर बनाई, परंतु बाहरी दुनिया से वंचित रह गई। उसे बाहरी दुनिया में पहचान अपने नजदीकी पुरुष से मिलने लगी। स्त्री ने अस्मिता के खतरे उठाने के प्रयास कम ही किए, परंतु जब भी किए एक अविस्मरणीय चरित्र बनकर समाज के समक्ष खड़ी हुई, लेकिन अधिकतर स्त्री जाति की अस्मिता तब से आज तक खतरे में ही है। स्त्री-विमर्श में स्त्री अस्मिता के प्रश्न का संबंध संपूर्ण स्त्री जाति के व्यक्तित्व, अस्तित्व तथा अस्मिता से है।

            बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में स्त्री विषयक चिंतन की शुरुआत होती है। इस संदर्भ में स्त्री से जुड़े सवालों का अस्मितामूलक स्वरूप सबसे पहले विमर्श के केंद्र में आया। आधुनिक काल के आरंभ में स्त्री की पहचान की आवाज उठने लगी। स्त्री का केवल जैविक पाठ के रूप में स्वीकृति ही उसकी अस्मिता के खतरे को नहीं मिटाती, बल्कि स्त्री को एक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक तथा बौद्धिक पाठ के रूप में उसका स्वीकार आवश्यक है। रचनाकारों ने स्त्री के स्वीकार को महत्वपूर्ण माना है। उसका स्वीकार विमर्श की पहली शर्त है और समस्या यहीं से शुरू हो जाती है- “स्त्रीवाद की बुनियादी चिंता हैं स्त्रीमुक्ति। स्त्रीमुक्ति के प्रयासों को समग्र सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक रूपान्तरण में बदलना होगा। आज स्त्रीवाद एक अकादमिक विषय बन कर रह गया है। स्त्री पत्र-पत्रिकाओं के लिए सिर्फ एक विषय है। वे मुक्तिकामी एजेंडे से उसे सिर्फ पृथक करके पेश कर रहे हैं।… कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें स्त्री विषय के रूप में आकर्षित करती है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन की माँग करती हुई औरतें उन्हें पसंद नहीं है।… स्त्री के लिए लिखना या स्त्री के के हक में लिखना सिर्फ लिखना नहीं है बल्कि स्त्री का बदलना, बदली हुई स्त्री को स्वीकार करना और स्त्री के प्रति स्वयं के रवैए का बदलना भी है।”[2]

            स्त्री अस्तित्व पर 1949 में फ्रेंच लेखिका सिमोन द बोउवा अपनी पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ में गंभीरतापूर्वक चिंतन करती हैं। इस पुस्तक में उन्होंने जैविक विभिन्नता के आधार पर स्त्री व पुरुष के कार्य आदि के विभाजन को तर्कसंगत नहीं माना है।। यदि प्रभा खेतान ने इस अमूल्य कृति का हिंदी में अनुवाद न किया होता तो हिंदी पाठक जगत इतनी वृहद वैचारिक क्रांति से वंचित रह जाता। अमेरिका में सन् 1965 में स्त्रियों की स्‍वाधीनता व अधिकारों को लेकर बेट्टी फ्रायडेन की ‘द फेमेनिन मिस्टिक’ नामक चर्चित पुस्‍तक प्रभावशाली रही। इस पुस्तक में इन्होने स्त्री को माँ, पत्नी, गृहिणी की भूमिका स्वीकारने के लिए बाध्य किए जाने का विरोध किया है। 1970 के दशक में केट मिलेट ‘सेक्‍सुअल पॉलिटिक्‍स’ नामक किताब की रचना हुई, जिसने समाज में हलचल मचा दी। यह किताब यौन स्वतन्त्रता के पक्ष को उजागर करती है। इसी तरह अन्‍य कई सैद्धांतिक रचनाएँ हुई, जो स्‍त्री-विमर्श की पृ‍ष्‍ठभूमि बनाने में सफल रहीं। इन पुस्तकों के अध्य्यन के फलस्वरूप स्त्रियों ने पहली बार अपने अस्तित्व और अपनी स्थिति पर गंभीरता से सोचना शुरू किया। भारतीय परिपेक्ष्य में पहली बार सन् 1911 में चिम्मन बाई गायकवाड़ ने ‘पोजीशन ऑफ वुमेन इन इंडियन लाइफ’ पुस्तक में भारतीय महिलाओं के दर्द को स्वर दिया।

            समाज में चल रहे आन्‍दोलनों से साहित्‍य कभी अछूता नहीं रहा है। उत्तर आधुनिक दौर में साहित्‍य में विभिन्‍न विमर्शों को केंद्र में रखकर लेखन-कार्य किया जा रहा है। स्‍त्री प्रश्‍न, स्‍त्री समस्‍या तथा स्‍त्री-विमर्श के विभिन्‍न पक्षों पर लेखन किया जा रहा है। हिंदी में भी आज स्‍त्री-विमर्श पर कई चिंतन साहित्‍यों की रचना हो रही है, जिसमें अनामिका की ‘स्‍त्रीत्‍व का मानचित्र’ पुस्‍तक महत्‍वपूर्ण हैं, इसमें अनामिका नारीवादी आन्‍दोलन के बुनियादी पहलुओं पर विचार करती है। इसके साथ ही इस दिशा में नासिरा शर्मा की ‘औरत के लिए औरत’, कुसुम त्रिपाठी की ‘स्‍त्री अस्मिता के सौ वर्ष’ तथा डॉ. अमरनाथ की ‘नारी मुक्ति का संघर्ष’ उल्‍लेखनीय है।

            इसके साथ ही साहित्‍य में स्‍त्री-विमर्श संबंधी उपन्‍यास, कहानी अर्थात गद्य व पद्य दोनों विधाओं में बखूबी उभर कर सामने आ रहा है। आधुनिक काल की जटिलताओं को व्‍यक्‍त करने के लिए उपन्‍यास एक सशक्‍त माध्‍यम है। स्‍त्री-समस्‍या व स्‍त्री-विमर्श भी उपन्‍यासों में अपने विभिन्‍न स्‍तरों तथा पक्षों में उभरकर आ रहा है।

            जैसा कि हम जानते हैं कि स्‍त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है। अत: यह अनेक भाषाओं  में विभिन्‍न पक्षों में अभिव्‍यक्‍त हो रही है। हिंदी के मूल उपन्‍यासकार जैसे नासिरा शर्मा, कृष्‍णा सोबती, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्‍पा, मृदुला गर्ग, सूर्यबाला आदि तो महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा ही रही हैं, साथ ही स्‍त्री विमर्श के विकास में हिंदी में अनूदित होने वाले स्‍त्रीवादी उपन्‍यास भी अपनी महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रहे है, जिसमें माध्‍यम के रुप में अनुवाद इस वैश्विक विचारधारा के विकास में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। लेखक व पाठक अपने क्षेत्र में हो रहे आंदोलनों व विचारधाराओं से परिचित होने के साथ दूसरे क्षेत्र के साहित्‍य व विचारों से भी परिचित होने को इच्‍छुक होता है। ऐसी स्थिति में अनुवाद के माध्‍यम से साहित्‍य का आदान-प्रदान होता है, जिसमें अनुवाद एक सेतु का कार्य करता है।

            स्‍त्री-विमर्श के विविध पक्ष हैं, विभिन्न धर्म तथा विभिन्न समाज में स्त्रियों की मूलभूत समस्या स्त्री मुक्ति ही है, परंतु प्रत्येक समाज की स्त्रियों का शोषण अलग-अलग रूप मे हो रहा है। कामकाजी स्त्री कार्य-स्थल पर उपभोक्तावाद की शिकार हो रहीं हैं, असुरक्षा के भाव से ग्रसित है तो वहीं ग्रामीण स्त्री अशिक्षा व अंधविश्वासों के कारण समस्याओं को झेलती रही है। कहीं आर्थिक स्वावलंबन की चिंता है तो कहीं मूलभूत अधिकारों की प्राप्ति की समस्या है। अतः ये समस्याएँ विभिन्न भाषाओं के साहित्य मे विभिन्न रूपों में व्यक्त हो रही हैं। हालांकि सभी भाषाओं में लिखी जाने वाली स्‍त्री समस्‍या के उद्देश्‍य एक ही हैं, परंतु विषयवस्‍तु में अंतर है। विभिन्‍न भाषाओं से हिंदी ‘अनूदित’ उपन्‍यासों ने स्‍त्री-विमर्श के विकास में अपनी महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें स्‍त्री-विमर्श के बुनियादी पहलुओं पर विचार किया गया। इन उपन्यासों के हिंदी अनुवाद से स्त्री की विविध समाज में विभिन्न समस्याओं का पता चलता है अर्थात अनुवाद के माध्यम से हिंदी में स्त्री विमर्श के विभिन्न आयाम प्रस्तुत होते हैं।  

            अनूदित साहित्‍य द्वारा स्‍त्री-विमर्श के विभिन्‍न पक्ष हिंदी में किस प्रकार आ रहे हैं? अनुवाद के माध्यम से स्त्री-विमर्श के कौन-कौन से पक्ष उजागर हो रहे हैं? इस संदर्भ में चर्चा बहुत कम ही हुई है। स्त्री-विमर्श के सामान्यीकरण और संपूर्ण स्त्री जाति के व्यक्तित्व, अस्तित्व तथा अस्मिता के संकटों को उद्घाटित करने में अनुवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। क्षेत्रीय भाषाओं में उठे सवालों को अनुवाद विमर्श के महासागर में छोड़ने का प्रयत्न कर रहा है, जिसमें माध्‍यम के रुप में अनुवाद इस वैश्विक विचारधारा के विकास में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

हिंदी में अनूदित उपन्यासों में उद्धृत महत्वपूर्ण स्त्री प्रश्नो और समस्याएँ स्‍त्री-विमर्श की विचारधारा के विकास में सक्षम है, परंतु समस्या ये है कि हिंदी साहित्य चिंतन स्त्री-विमर्श के मील के पत्थर प्रभा खेतान द्वारा अनूदित ‘स्त्री उपेक्षिता’ तथा पाश्चात्य से हुए कुछ अनुवादों तक ही सीमित है। दुर्भाग्यवश यह चिंतन धारा भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित स्त्री-विमर्श पर आधारित उपन्यासों तक अपना विस्तार कम ही कर पाई है। विभिन्‍न पक्ष हिंदी में किस प्रकार आ रहे हैं? अनुवाद के माध्यम से स्त्री-विमर्श के कौन-कौन से पक्ष उजागर हो रहे हैं? स्त्री-विमर्श के विकास में अनुवाद एक पुल का कार्य कर रहा है। इसके सामान्यीकरण और संपूर्ण स्त्री जाति के व्यक्तित्व, अस्तित्व तथा अस्मिता के संकटों को उद्घाटित करने में अनुवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। क्षेत्रीय भाषाओं में उठे सवालों को अनुवाद हिंदी में विमर्श के महासागर में छोड़ने का प्रयत्न कर रहा है।              

आज हिंदी में अनेकों स्त्री-विमर्श केंद्रित उपन्यासों का अनुवाद उपलब्ध है। जिनमें स्त्री विमर्श के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया गया है। अमृता प्रीतम की पिंजर से लेकर तसलीमा नसरीन की लज्जा तक हिंदी जगत में अनुवाद के माध्यम से ही अपना सशक्त योगदान दे रही है। विभिन्न भाषा, संस्कृति तथा देश में स्त्री के अस्तित्व को अपनी लेखनी से मजबूत बनाती लेखिकाएँ  हिंदी जगत में अनुवाद के माध्यम से ही योगदान दे रही हैं। तहमीना की ब्लासफ़ेमी का विनीता गुप्ता यदि अनुवाद न करती तो एक मध्यम वर्ग की लड़की ‘हीर’ की दयनीय स्थिति और समाज के पीरों व संतों का असली चेहरा इतने बुलंद रूप में हिंदी में देखने को नहीं मिलता। अतः हिंदी विमर्श के विकास में अनुवाद की अतुलनीय भूमिका है, क्योंकि कोई भी वैचारिक क्रांति भाषा और स्थान की सीमाओं में बंधकर नहीं हो सकती।

            विभिन्न भारतीय भाषाओं से हिंदी में उपन्यासों का अनुवाद प्रकाश में आ रहा है। बांग्ला, मराठी, कन्नड आदि सभी भारतीय भाषाएँ आंदोलनों की भाषा रही है। अतः ये स्त्री-विमर्श से अछूती रही हो, ऐसा संभव नहीं है। इनमें स्त्री-विमर्श पर दर्जनो उपन्यास लिखे गए तथा वे हिंदी क्षेत्र में अनुवाद के माध्यम से आए, जिन पर हिंदी चिंतकों द्वारा विचार किया जाना अभी बाकी ही है। इस शती में विभिन्न भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित उपन्यासों में  बांग्ला से हिंदी में अनूदित मद्रकांता सेन के ‘अंधी छलांग’ उपन्यास में आधुनिक प्रेम विवाह में स्त्री की स्थिति तथा नग्न वास्तविकता का उद्घाटन है। वहीं सुचित्रा भट्टाचार्य के ‘दहन’ में वर्तमान सामाजिक संरचना में स्त्री के त्रास और अपने प्रति समाज की कुत्सित मानसिकता से लड़ती स्त्री को दर्शाया है। महाश्वेता देवी का झाँसी की रानी, स्वाहा, जली थी अग्नि शिखा; आशापूर्णा देवी का उदास मन, वे दिन ये दिन आदि इस शती में बांग्ला से हिंदी में अनूदित स्त्री विषयक अनुवादों में महत्वपूर्ण हैं। मराठी से हिंदी में अनूदित स्त्री-विमर्श संबंधित उपन्यासों में कविता महाजन के ‘ब्र’ उपन्यास का हिंदी अनुवाद ‘चूँ’ उल्लेखनीय है। ये समाज की उस बंदिश को तोड़ने की पहल है, जिसमे स्त्री-अस्मिता तो दूर उसके मुंह से चूँ तक न निकले, इसकी नियति तय की हुई थी। इसके साथ ही भारतीय स्त्री अस्मिता की पहल करने वाली मीराबाई के जीवन संघर्ष पर आधारित शुभांगी भडभड़े का ‘राजवधू’ उपन्यास भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इसी तरह असमिया स्त्रीवादी लेखिका इंदिरा गोस्वामी के कई उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद हुआ, जिनमें ‘नीलकंठी ब्रज’ उल्लेखनीय है। इसमें रूढ़ियों और बेड़ियों में छटपटाती विधवा स्त्रियों की दशा का चित्रण हैं। लेखिका स्वयं इस त्रास की भुक्त-भोगी हैं। पति से जुड़ी पहचान खो देने और विधवा होने के बाद भारतीय समाज की प्रताड़ना इतनी भयावह है कि बृज में रहने वाली इन राधेश्याम स्त्रियों की हँसी भी भयावह है। ये उपन्यास स्त्री-अस्मिता को खंडित करते धर्म, परंपरा और समाज के मानदंडो के विरोध में आवाज उठाता है। जहाँ ये असामिया उपन्यास स्त्री के विधवा होने के पश्चात भी उस पर समाज के विवाह-संस्था की तगड़ी जकड़ को प्रदर्शित करता है, वहीं सारा अबूबकर द्वारा रचित ‘चंद्रगिरि के किनारे’ उपन्यास में चरमराई हुई विवाह संस्था का रूप दिखता है। यहाँ लेखिका निकाह व्यवस्था की  कुरूपता से पाठक वर्ग को सचेत करती है, यहाँ स्त्री शौहर के दिल और घर की मालकिन बनकर भी खुश थी परंतु उसे यह भी नहीं मिला। यहाँ भारतीय परिवार में पुरुष द्वारा स्त्री के शोषण की चली आ रही परंपरा को दर्शाया गया है। माँ को थप्पड़ पड़ते देख बेटी अपने आप ही पुरुष जाति से सहम जाती है, पिता गलत हो या सही उसका निर्णय ही सर्वोपरि होता है। उपन्यास में उद्धृत यह स्थिति आज भी प्रासंगिक है। इस उपन्यास में स्त्री समाज की प्रताड़नाओं से मुक्ति के लिए अपने अस्तित्व को ही मिटा देती है। इन लेखिकाओं ने अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में  दर्जनों उपन्यास लिखे है, जिनके अनुवाद भी हिंदी हुए हैं परंतु अध्ययन की सीमितता और स्त्रोत के अभाव में यहाँ इस शती के महत्वपूर्ण उपन्यासों की चर्चा हो पाई, जिससे अध्ययन की अन्य संभावनाएँ अवश्य ही उत्पन्न होती है।

            निष्कर्षतः इन उपन्यासों के हिंदी अनुवादों के माध्यम से भारतीय भाषाओं में उठे स्त्री-विमर्श के महत्वपूर्ण प्रश्न हिंदी में स्त्री-विमर्श के विकास में सहायक हो पा रहें हैं। विवाह संस्था का विघटन, प्रेम विवाह की वास्तविकता, समाज की अनेक बेड़ियों के बावजूद अपनी अस्मिता के खतरे उठाती स्त्रियाँ इन उपन्यासों में सशक्त रूप में दिखतीं हैं। इन उपन्यासों में स्त्रियाँ समाज के साथ साथ स्वयं की कुंठा और हीन भावना से भी लड़ती और जूझती नजर आती हैं, महाश्वेता देवी की ‘स्वाहा’ इसका सशक्त प्रमाण है। आधुनिक शिक्षा का स्वरूप स्त्री-अस्मिता को बुलंद कर रहा है या उसकी अभी तक की अर्जित अस्मिता को खंडित कर रहा है, इस प्रकार के प्रश्न भी अनूदित उपन्यासों के माध्यम से स्त्री-विमर्श में जुड़े हैं। अंतः यहाँ अनुवाद एक सेतु के रुप में कार्य कर रहा है तथा स्त्री-विमर्श में अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी के बीच अनुवाद रूपी सेतु बनाने वाले अनुवादक भी सराहनीय हैं।   

आकांक्षा मोहन

पी.एच.डी शोधार्थी

अनुवाद अध्ययन विभाग

अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,

वर्धा-442001,  महाराष्ट्र  (भारत)

            संदर्भ ग्रंथ सूची

  •   अनामिका. (2012). स्त्री विमर्श का लोकपक्ष. दिल्ली : वाणी प्रकाशन.
  • अय्यर, विश्वनाथ ए. ई. ( 2011). अनुवाद भाषाएँ- समस्याएँ. दिल्ली: ज्ञान गंगा प्रकाशन.
  • अमरनाथ. (2015). हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
  • कालिया, ममता .(2015). स्त्री विमर्श का यथार्थ.  दिल्ली: किताबवाले प्रकाशन.
  • कुमारी, सरोज. कालिया, योजना .(2017). स्त्री लेखन का दूसरा परिदृश्य. दिल्ली: भावना प्रकाशन.
  •  खेतान, प्रभा. (1981). स्‍त्री उपेक्षिता(हिंदी अनुवाद). दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
  • दुर्रानी, तहमीना .(2004). कुफ़्र (अनु.). दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
  • वर्मा, विमलेश कांति. (2009). भाषा, साहित्‍य और संस्‍कृति. हैदराबाद : ओरियंट ब्‍लैकस्‍वॉन प्राईवेट लिमिटेड.
  • सिंह, पुष्पपाल. (2016). 21वीं शती का हिंदी उपन्यास. दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन.
  • सिंह, सुधा .(2008). ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ. दिल्ली : ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन.
  • सेतिया, सुभाष .(2008). स्‍त्री अस्मिता के प्रश्‍न. दिल्ली: कल्‍याणी शिक्षा परिषद.
  • ई-साधन :    
  • Links :
  • https://www.sahityakunj.net/LEKHAK/V/VirendraSinghYadav/stri_chintan_parmpara_Alekh.htm
  • http://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/150017
  • http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/150017/10/10_chapter%206.pd
  • http://www.jstor.org/stable/pdf/23348082.pdf?refreqid=excelsior%3Ae298ea82b72c4
  • file:///C:/Users/user/Downloads/FEMINISM%20AND%20MODERN%20INDIAN%20
  • http://www.jansatta.com/politics/indian-woman-exchanged-mirror/74962/
  • TRANSLATING FEMINISM.pdf

[1]अनामिका, स्त्री विमर्श का लोकपक्ष. पृष्ठ 21

[2]सिंह सुधा, ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ प्रश्न पृष्ठ 21