हिंदी की आरम्भिक आलोचना का विकास

(तुलनात्मक आलोचना के विशेष संदर्भ में )

रवि कुमार,
शोधार्थी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया
नई दिल्ली
मोबाइल न.-9716132750
ई.मेल-ravi17893@gmail.com

शोध-सार

आधुनिक युग का उदय साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ है। जिसमें भारतेंदु और उनके युग के लेखकों ने विशेष भूमिका निभाई हैं। हिंदी आलोचना का उदय इसी साहित्यिक भूमिका की देन है। वैसे तो हिंदी आलोचना का आरंभ बाल्मीकि के कंठ से निकले पहले पद्य से ही हो जाता है परन्तु आधुनिक युग में गद्य के विकास से हिंदी आलोचना को गति प्रदान होती है। आरंभिक हिंदी आलोचना का विकास पत्र-पत्रिकाओं से आरंभ होता है। इन्हीं आरंभिक पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना की बहसों के साथ तुलनात्मक आलोचना भी विकसित होती है। वैसे तो तुलनात्मक आलोचना के सूत्र हमें संस्कृत साहित्य में सूक्तियों के रूप में मिलते है और ये सूक्तियां ही आगे चल कर हिंदी आलोचना में भी विकसित होती हैं। इस लेख में हिंदी की इसी आरम्भिक तुलनात्मक आलोचना के स्वरूप, बहसों, एक-दूसरे रचनाकार को बड़ा दिखने की प्रतिस्पर्धा और तुलनात्मक आलोचना के विकसित होने के कारण हिंदी आलोचना में आयी गिरावट को दिखाया गया है।

बीज शब्द : आरंभिक आलोचना, तुलनात्मक आलोचना, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, वाद-विवाद, हिंदी गद्य और पद्य

आमुख

हिंदी आलोचना के विकास की प्रक्रिया भारतेंदु युग से आरंभ होती है। यही वह समय है जब हिंदी आलोचना धीरे-धीरे शास्त्रीयता एवं रीतिवाद का केंचुल उतारना शुरू करती है। इस केंचुल को उतारने में तुलनात्मक आलोचना प्रमुख भूमिका निभाती है। तुलनात्मक आलोचना के सहारे शास्त्रियता और रीतिवाद का, स्वाधीनता की चेतना और सामाजिकता की भावना का संघर्ष कराया जाता है। जिस कारण धीरे-धीरे आलोचनात्मक मूल्यों में परिवर्तन और विकास होता है। भारतेंदु युग के बाद द्विवेदी युग के आलोचनात्मक मूल्यों में राष्ट्रीय नवजागरण और सांस्कृतिक मूल्यों के पुनरुत्थान की प्रवृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। ठीक इसी समय आचार्य शुक्ल जैसे समर्थ आलोचक का उदय हिंदी आलोचना के क्षितिज पर होता है। आचार्य शुक्ल के प्रयासों के फलस्वरूप हिंदी आलोचना का एक निश्चित स्वरुप विकसित होकर हिंदी साहित्य में आता है।

आधुनिक युग का उदय साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ है। जिसमें भारतेंदु और उनके युग के लेखकों ने विशेष भूमिका निभाई हैं। जो अपने समाज और राष्ट्र की मौजूदा विषम परिस्थितियों की गहरी पड़ताल ही नहीं कर रहे थे अपितु इस स्थिति को बदलने के लिए दृढ संकल्प ले चुके थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि, “उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नए मार्ग पर खड़ा किया। वे साहित्य के नए युग के प्रवर्तक हुए। यद्यपि देश में नए-नए विचारों और भावनाओं का संचार हो गया था, पर हिंदी उनसे दूर थी। लोगों की अभिरुचि बदल चली थी, पर हमारे साहित्य पर उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता था। शिक्षित लोगों और विचारों और व्यापारों ने तो दूसरा मार्ग पकड़ लिया था, पर उनका साहित्य उसी पुराने मार्ग पर था।… प्रायः सभी सभ्य जातियों का साहित्य उनके विचारों और व्यापारों से लगा चलता है, यह नहीं कि उनकी चिंताओं और कार्यों का प्रवाह एक ओर जा रहा हो और उनके साहित्य का प्रवाह दूसरी ओर।”[1] इस साहित्यिक जिम्मेदारी ने भारतेंदु युग के रचनाकारों को अपने साहित्यिक औजारों को परखने के लिए, परिष्कृत करने एवं नवीन औजार गढ़ने के लिए प्रेरित किया। यहीं से साहित्य की पुरानी विधाओं के नवीनीकरण एवं नवीन विधाओं को विकसित करने की प्रक्रिया की शुरुआत होती है। डॉ. नवल किशोर लिखते है कि,”भारतेंदु युग में जैसे उपन्यास, निबंध और ‘पद्यात्मक निबंध’ रचना का आरंभ हुआ, वैसे ही आलोचना का भी।”[2]

हिंदी आलोचना का आरंभ अपने समय और समाज की साहित्यिक व सामाजिक बहस के चिंतन का प्रतिफलन है क्योंकि जहाँ साहित्य ‘समाज का आईना’ था, वही साहित्य “जीवन की आलोचना”[3] हो जाता है। आलोचना के विकास का एक कारण यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ पहले साहित्य वाचन किया जाता था, कीर्तन रूप में गाया जाता था, वहीं भारतेंदु युग में मण्डली जमा होती थी, जिसमें चर्चाएँ होती थी और जिस साहित्य का सृजन किया जा रहा है उस पर ‘वाद-प्रतिवाद’ होता था। जिससे साहित्य केवल किसी विशेष समूह का नहीं रहा बल्कि “साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास”[4] बन जाता है। साहित्य के केंद्र में लोकतान्त्रिक शक्ति प्रबल रूप से उभरने लगती है। साहित्य को लोकतांत्रिक परिवेश में लाने का एक महत्वपूर्ण कारक ‘छापेखाने’ का विकास भी है, जिसने साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने में प्रबल भूमिका निभाई है। साहित्य की ये नई मान्यताएं, जिसमें साहित्य को राजदरबार से नहीं अपितु ‘जनसमूह’ से जोड़ने की उद्घोषणा की गई हैं वह साहित्य की नूतनता के साथ-साथ आलोचना की भी नई जमीन तैयार करता रहा है।

आलोचना से तात्पर्य किसी भी वस्तु को सम्यक् प्रकार से उसके संपूर्ण रूप को देखना है। जिसके कारण आलोचक से उम्मीद की जाती है कि वह बिना किसी पक्षपात के समालोचना करे। जैसा कि बदरीनारायण चौधरी समालोचना का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि,”समालोचना का अर्थ पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक किसी पुस्तक के यथार्थ गुण-दोष की विवेचना करना और उसके गंधकर्ता को एक विज्ञप्ति देना है क्योंकि रचित ग्रंथ के रचना के गुणों की प्रशंसा कर रचयिता के उत्साह को बढ़ाना एवं दोषों को दिखलाकर उसके सुधार का यत्न बताना कुछ न्यून उपकार का विषय नहीं हैं।”[5] आलोचना का अर्थ जहां निर्णय करना है वहीं आलोचक से तात्पर्य उस सुयोग्य व्यक्ति से है जो निर्णायक के समान किसी रचना के गुणों और दोषों का सटीक ढंग से निरीक्षण तथा विश्लेषण करे। इसीलिए कहा जाता हैं कि “आलोचक साहित्य मंदिर का द्वारपाल होता है।”[6] आलोचक साहित्य मंदिर की रक्षा करता है और गलत प्रवृत्तियों को आने से रोकता है, न कि उसकी पूजा करता है क्योंकि अगर द्वारपाल साहित्य मंदिर की पूजा करेगा तो वह उसके साथ न्याय और सत्य का उद्घाटित नहीं कार पाएगा।

हिंदी आलोचना के आरंभ व विकास को संस्कृत काव्यशास्त्र से जोड़ कर देखने-परखने का चलन है तथा कुछ विद्वान हिंदी आलोचना के उदय का मुख्य कारण संस्कृत काव्यशास्त्र को ही मानते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर संस्कृत काव्यशास्त्र हिंदी आलोचना के उदय का कारण है तो क्या ‘होरी’ या ‘शेखर’ कभी भी किसी कृति के नायक हो सकते थे ? इसके एजेंडे में यह धारणा ही नहीं हैं कि ”रचना में मनुष्य और समाज होता है, उसमें जीवन और संघर्ष होते हैं।”[7] हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि संस्कृत काव्यशास्त्र का हिंदी आलोचना पर प्रभाव था लेकिन प्रभाव मात्र से केवल हिंदी आलोचना के उदय का कारण उसे नहीं माना जा सकता। भारतेंदु युग के उदय के साथ ही बड़ी गंभीरता से यह महसूस होने लगा था कि उस समय जो साहित्य लिखा जा रहा था उसके विश्लेषण एवं मूल्यांकन में संस्कृत काव्यशास्त्र के मानदंड अपर्याप्त एवं अक्षम सिद्ध हो रहे थे। जैसे ‘भारतेंदु’ के ‘अंधेर नगरी’ नाटक का मूल्यांकन नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर नहीं किया जा सकता था। यही स्थिति समसामयिक विषयों पर लिखी हुई कविताओं, निबन्धों एवं उपन्यासों के साथ भी थी। यहीं से आलोचना के नवीन तत्वों कि आवश्यकता महसूस होने लगी एवं इसे विकसित करने का प्रयास भी शुरू हुआ। आलोचना का कर्तव्य निर्धारित करते हुए प्रो. अपूर्वानंद लिखते है कि “आलोचना का कर्तव्य इस दृष्टि से यह निर्धारित करना नहीं है कि साहित्य के केंद्र में होरी रहे या शेखर। उसका कर्तव्य ‘होरी’ और ‘शेखर’ के अवतरित होने की स्थितियों का विश्लेषण करना है, साहित्यिक और साथ ही सामाजिक मानचित्र में उसकी वैयक्तिक अवस्थिति को चिह्नित करना है और ‘गोदान’ या ‘शेखर : एक जीवनी’ के रचना-विन्यास के भीतर छिपे सामाजिक संबंधों, व्यक्ति की अवधारणाओं का खोज करना भी है।”[8]

हिंदी आलोचना के उदय के बारे में यह धारणा भी है कि गद्य के विकास के कारण हिंदी आलोचना का जन्म हुआ। क्या वास्तव में यह धारणा सही है ? हिंदी आलोचना के विकास में गद्य जरुर सहायक हुआ, पर मूल रूप से इसे ही एक कारण नहीं माना जा सकता है। यह सही है कि गद्य के बिना आलोचना का विकास संभव नहीं है, क्योंकि रचना के विवेचन व विश्लेषण में जितनी स्वतंत्रता गद्य में होती है, उतनी पद्य में नहीं है। लेकिन आलोचना के सूत्र पद्य में ही सर्वप्रथम हमें मिलते हैं और आगे चल कर इन्हीं सूत्रों से हिंदी आलोचना का विकास होता है। नाभादास ने कबीर के संबंध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात लिखी थी पर पद्य में गद्य में नहीं, तो क्या वह आलोचना नहीं है ?

“भक्ति-विमुख जो धर्म सुसब अधर्म करि गाये।

योग यज्ञ व्रतदान भजन बिन तुच्छ दिखाये।।

हिंदू तुरक प्रमाग रमैनी सबदी साखी।

पक्षपात नहीं बचन सबके हित की भाखी।।”[9]

यह कबीर की कविता की विशेषता है, पर क्या आलोचना की विशेषता नहीं है। इसलिए सवाल गद्य या पद्य का नहीं है बल्कि सवाल “रचना की प्रवृत्ति को देखने, समझने और उसको व्याख्यायित करने के लिए उस दृष्टिकोण का है जो आलोचना के लिए जरुरी है।”[10]

हिंदी आलोचना के विकास में पश्चिम साहित्य एवं रीतिवादी साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है जिसने हिंदी आलोचना को एक नई जमीन पर लाकर खड़ा किया ,पर मूल रूप से हिंदी आलोचना के विकास में अहम योगदान साहित्य और समाज के बदले हुए रूप का है। जहां साहित्य का जुड़ाव राजदरबार से और मनुष्य एवं समाज की अनुपस्थिति से था वहीं भारतेंदु युग में साहित्य का जुड़ाव मनुष्य और समाज से उसी रूप में नहीं था “भारतेंदु का पूर्ववर्ती काव्य-साहित्य सन्तों की कुटिया से निकलकर राजाओं और रईसों के दरबार में पहुँच गया था, उन्होंने एक तरफ तो काव्य को फिर से भक्ति की पवित्र मन्दाकिनी में स्नान कराया और दूसरी तरफ उसे दरबारीपन से निकालकर लोकजीवन के आमने सामने खड़ा कर दिया।”[11] साहित्य और समाज के इसी बदले रूप ने हिंदी साहित्य में नई विधाओं तथा आलोचना के विकास में अहम भूमिका निभाई।

आलोचना का कार्य यदि साहित्य का विश्लेषण, निर्णय लेना, सम्यक् रूप से उसका अध्ययन, उसके मर्म का उद्घाटन, पाठक की रुचि का परिमार्जन एवं मार्गदर्शन है तो ‘तुलनात्मक आलोचना’ द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति पूर्ण रूप से संभव है। इसी कारण डॉ. एस. पी. खत्री का यह कथन है “आलोचना सदैव तुलनात्मक ही होती है”[12] सही लगता है। अगर इस बात को स्वीकार न किया जाए तो भी यह मानना पड़ेगा कि सामान्य परिचय की अपेक्षा विवेचनात्मक ज्ञान के लिए तुलनात्मक प्रणाली अधिक उपयोगी है। पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र तुलनात्मक आलोचना के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं कि “कविता विशेष के गुण समझने के लिए उसमें आए हुए काव्योत्कर्ष की परीक्षा करनी पड़ती है। यह परीक्षा कई प्रकार से की जा सकती है, जाँच के अनेक ढंग हैं। कभी उसी कविता को सब ओर से उलट-पलट कर देख लेने में ही पर्याप्त आनंद मिल जाता है… कविता के यथार्थ जोहर खुल जाते हैं, पर अभी इतना श्रम पर्याप्त नहीं होता। ऐसी दशा में अन्य कवियों की उसी प्रकार की, उन्हीं भावों की अभिव्यक्त करने वाली सूक्तियों से… पद्य विशेष से मुकाबला करना पड़ता है। इस मुकाबले में विशेषता और हीनता स्पष्ट झलक जाती हैं। यही क्यों, ऐसी अनेक नई बातें भी मालूम होती हैं, जो अकेले एक पद्य के देखने से ध्यान में नहीं आतीं। जरा-सा फ़र्क कवि की मर्मज्ञता की गवाही देने लगता है।”[13]

समान रूप से साहित्य के अध्ययन एवं अनुशीलन में तुलनात्मक दृष्टि का महत्त्व है। साहित्यिक कृति का सटीक ज्ञान तभी संभव हो पाता है जब सामनधर्मी कृतियों के साथ उसकी समता और विषमता का निरूपण किया जाता है। तुलनात्मक आलोचना को परिभाषित करते हुए डॉ. बदरी प्रसाद लिखते हैं कि,”‘तुलनात्मक आलोचना’ आलोचना का वह प्रौढ़तम रूप है, जिसमें दो कृतियों के सामान्य परिचय से परे विवेचनात्मक ज्ञान के उन्नत स्वरूप का दिग्दर्शन कराया जाता है। तुलनात्मक आलोचक दो आलोच्य कृतियों के गूढ़ तथ्यों के निरूपण के साथ ही कवि द्वारा अभिप्रेत अनुभूतियों का ज्ञान सहृदयों को करा देने की पूरी क्षमता रखता है।”[14] तुलनात्मक प्रवृत्ति के कारण ही हम विश्व साहित्य से परिचय प्राप्त कर, जहां हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है वहीं अखण्ड मानव वृत्तियों का भी सुगम बोध होता है। इसी कारण तुलनात्मक अध्ययन सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी एक बड़ा मार्ग दिखता है। अतः तुलनात्मक आलोचना मुख्य रूप से दो कृतियों या कृतिकारों का संपूर्ण रूप से एवं बेहद सूक्ष्म अवलोकन कर बिना किसी पक्षपात के सापेक्ष रूप से मूल्यांकन करता है। तुलनात्मक आलोचना में आलोचक से इस बात की भी अपेक्षा की जाती है कि जिस आलोचना कृति या कृतिकार की तुलना कर रहा है वो तुलनात्मक कृति या कृतिकार भी उसी कोटि का होना चाहिए। तभी एक अनुशासित एवं आदर्श तुलनात्मक आलोचना का स्वरुप सामने आ पायेगा।

तुलनात्मक आलोचना अपने आरंभिक रूप में प्रायः सूक्तियों के सहारे ही विकसित हुआ है। संस्कृत साहित्य में ऐसी अनेक सूक्तियां हमें देखने को मिलती है जिसमें कवियों के विशेष गुणों का तुलना किया गया हो। जैसे -“उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवं। / दंडिनः पद लालित्यं माघे संति त्रयोगुणः।”[15] यहाँ कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थ गौरव तथा दंडी का पद लालित्य गुण बताया गया है, लेकिन माघ कवि में इन तीनों गुणों का समावेश बताकर उन्हें श्रेष्ठ बताया गया है। इसी प्रकार माघ के काव्य जगत में आते हैं भारवि की प्रतिभा का प्रभाव कम हो गया है – “तावद् भा भारवेर्भाति यावन्माघस्य नोदयः।”[16]

ऐसी अनेक सूक्तियां संस्कृत साहित्य में तुलनात्मक आलोचना की मिलती है। हिंदी के आदि काल से भक्ति एवं रीतिकाल में भी इसी तरह की तुलनात्मक सूक्तियां मिलती है। इस संदर्भ में डॉ. बदरी प्रसाद लिखते है कि,”संस्कृत की ही भांति हिंदी समालोचना के आरंभ में युग के महाकवियों से संबंधित कई सूक्तियां प्रचलित रही हैं, जिनमें अधिकतर दो कवियों के काव्यों की थाह पाकर कुछ ठोस निर्णय लेने की चेष्टा वर्तमान है। कभी-कभी कोरी प्रशंसात्मक उक्तियां भी कही गई हैं, जिनमें अधिकतर भावुकता और अतिशय मोहवश अपने कवि का पक्ष ग्रहण करना ही आलोचना का उद्देश्य रहा है।”[17] भाव-विचार एवं कलात्मक दृष्टि से दो या अधिक कवियों के महत्त्व-निरूपण की प्रवृत्ति कहीं-कहीं विचारणीय है। जैसे – मध्यकाल के तीन कवियों – सूर, तुलसी, केशवदास एवं अन्य परवर्ती कवियों से तुलना सम्बंधी प्रसिद्ध छंद -“सूर सुर तुलसी ससि, उड़ुगन केसवदास। / अबके कवि खद्योत् सम, जहँ जहँ करत प्रकाश।”[18]इसी तरह रीतिकालीन आचार्य भिखारीदास ने भी गंग और तुलसी की भाषा की विशेषता तुलनात्मक ढंग से प्रदिपादित की है -“तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार / इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार।”[19]

इन्हीं सब सूक्तियों ने तुलनात्मक आलोचना के आरंभिक विकास में अहम भूमिका निभाई। आधुनिक युग में तुलनात्मक आलोचना के सूत्रपात में इन सूक्तियों का अहम योगदान हैं। भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र और प्रेमघन के आरंभिक आलोचना के स्वरुप में हमें तुलनात्मक प्रवृत्ति का रूप देखने को खूब मिलता है तथा आरंभिक आलोचना एवं इतिहास लेखन में भी तुलनात्मक आलोचना के सूत्र मिलते हैं। ग्रियसन अपने ‘मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ में तुलसीदास को अन्य कवियों से बेहतर बताते हुए लिखते हैं कि,”विद्यापति का पूर्वी हिंदुस्तानी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। अलौकिक प्रणय के गीत गाने में वे सिद्धहस्त थे। सूरदास का भी साहित्य में उच्च स्थान है। लेकिन तुलसीदास विभिन्न शैलियों की रचना में अद्वितीय हैं। अन्य कवियों में कुछ ने उनके गुणों की समता प्राप्त की है, पर वे समस्त सर्वश्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं।”[20]

आरंभिक तुलनात्मक आलोचना के विकास में द्विवेदी युग का अहम योगदान हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी दो कवियों की तुलना न करते हुए कहीं-कहीं एक ही कवि की आलोचना करते हुए दूसरे कवि की कतिपय विशेषताओं का निर्देश किया है। तुलनात्मक आलोचना का वास्तविक महत्त्व मिश्रबंधुओं से शुरू होता है। तुलनात्मक आलोचन के विकास में मिश्रबंधु का योगदान मुख्य हैं जिन्होंने ‘हिंदी नवरत्न’ और ‘मिश्रबंधु विनोद’ के माध्यम से हिंदी की तुलनात्मक आलोचना को आगे बढ़ाया। मिश्रबंधु ने सर्वप्रथम श्रेणी विभाजन वाली तुलनात्मक पद्धति शुरू की, इस श्रेणी विभाजन का आधार कवियों के काव्य की उत्कृष्टता व अनुत्कृष्टता है। इसी उत्कृष्टता एवं अनुत्कृष्टता के आधार पर कवियों में ऊंच-नीच का भेद स्थापित कर हिंदी नवरत्न में बृहततृयी, मध्यतृयी और लघुतृयी की कल्प्ना की है। इस संदर्भ में मिश्रबंधु लिखते है कि, “यह श्रेणी विभाजन एक प्रकार का निर्वाचन अथवा परीक्षण प्रणाली-सा है। कवियों के छंदों पर विचार करने से जिसके अधिक उत्कृष्ट छंद हुए उसको उंची श्रेणी में स्थान मिल गया है।”[21] इस श्रेणी विभाजन का मूल आधार तुलना है।

मिश्रबंधुओं को देव काव्य में सर्वाधिक उत्कर्ष दिखाई पड़ता था। जिस कारण मिश्रबंधुओं की तुलनात्मक आलोचना के मानदण्ड देव थे, क्योंकि देव से बढ़कर और किसी कवि में उन्हें काव्यत्कर्ष नहीं दिखाई देता। जिस कारण उनके श्रेणी विभाजन में पक्षतापूर्ण दृष्टि ही प्रधान रही है, तटस्थता का अभाव रहा है। मिश्रबंधु देव को तुलसी और सूरदास से भी श्रेष्ठ कवि मानते हैं लेकिन केवल तुलसी और सूर नाम के आगे महात्मा लगाने के कारण वो कभी-कभी देव के समकक्ष तुलसी और सूर को समझ लेते है। देव के संदर्भ में मिश्रबंधु लिखते है कि, “इनको किसी कवि से न्यून कहना इनके साथ अन्याय समझ पड़ता है, परंतु इनको सर्वश्रेष्ठ कहना गोस्वामी तुलसीदास तथा महात्मा सूरदास के साथ भी अन्याय होगा। सिवा इन दोनों महात्माओं के और किसी तृतीय कवि की तुलना देव जी से कदापि नहीं की जा सकती – ये महात्मा भी उन गुणों को अपनी-अपनी कविता में सन्निविष्ट करने में देवजी के सामने नितांत असमर्थ रहे … हम नहीं कह सकते कि कुल मिलाकर ये दोनों महात्मा देव जी से श्रेष्ठ नहीं हैं।”[22] इस एक पक्षीय दृष्टि के कारण ही महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी नवरत्न’ की आलोचना की थी, जिसमें उनकी तुलनात्मक दृष्टि साफ देखने को मिलती है।

मिश्रबंधु द्वारा देव कवि को उच्च और सूर व तुलसी को निम्न कवि समझने पर द्विवेदी जी ने उनकी कटु आलोचना की है। सूर और तुलसी की सर्वश्रेष्ठता को प्रतिपादित करने के लिए द्विवेदी जी यूरोप के कवियों व संस्कृत के महाकवियों का उल्लेख कर सूर और तुलसी के महत्त्व के बारे में यह घोषणा करते हैं कि, “होमर और वर्जिल, शेक्सपियर और मिल्टन, व्यास और वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति का अपने-अपने साहित्य में जो स्थान है सूर और तुलसी का प्रायः वही स्थान हिंदी में है। अथवा यह कहना चाहिए कि सूर और तुलसी हिंदी में प्रायः उसी आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं जिस दृष्टि से कि ये उल्लिखित कवि संस्कृत और अंगरेजी आदि भाषाओं में देखे जाते हैं। … जिसने मानव चरित्र को उन्नत करने योग्य सामग्री से अपने काव्यों को अलंकृत नहीं किया वह भी यदि महाकवि या कविरत्न माना जा सकेगा तो प्रत्येक देश क्या, प्रत्येक प्रांत में भी, सैकड़ों महाकवि और कविरत्न निकल आवेंगे।”[23] इसके बाद द्विवेदी जी साफ शब्दों में लिखते है कि, “हिंदी में यदि कोई कविरत्न कहे जाने योग्य कवि या महाकवि हुए हैं तो ये सूर और तुलसी हैं।”[24]

मिश्रबंधुओं ने हिंदी के कवियों की तुलना कई जगह अंग्रेजी कवियों से भी की तथा हिंदी साहित्य के विशेष काल की तुलना अंग्रेजी के विशेष काल से की थी। हिंदी कविता के भक्तिकाल के लेखकों की तुलना अंग्रेजी के रेनान्सा और रेफारमेशन काल के कवियों से की थी। चंद की तुलना चांसर से एवं तुलसी की तुलना शेक्सपियर से की थी। विट सर्टेल के प्रेम की तुलना सीता के प्रेम वर्णन से तथा केशव की तुलना मिल्टन व पद्माकर की तुलना स्काट आदि से की गई थी। अतः तुलनात्मक आलोचन को हिंदी आलोचना में महत्त्व प्रदान करने में मिश्रबंधु उल्लेखनीय हैं। मिश्रबंधु के देव विषयक आलोचना के कारण एक नयी बहस का उदय होता है कि ‘देव बड़े कवि है या बिहारी’ इस बहस को आगे बढ़ाने में कृष्ण बिहारी मिश्र, पद्मसिंह शर्मा और लाला भगवानदीन का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने क्रमशः ‘देव और बिहारी’, ‘बिहारी सतसई : तुलनात्मक अध्ययन’ तथा ‘बिहारी और देव’ नामक कृतियां लिखी।

पद्मसिंह शर्मा ने पहली बार आदर्श एवं एक व्यवस्थित तुलनात्मक आलोचना का प्रतिपादन ‘बिहारी सतसई’ के माध्यम से किया। तुलनात्मक आलोचना के अभाव की पूर्ति के लिए ‘बिहारी सतसई’ नामक कृति उन्होंने लिखी। बिहारी सतसई में शर्मा जी ने उस साहित्यिक परंपरा और शैली का निरूपण किया जिसका अनुसरण बिहारी ने किया था। शातवाहन द्वारा संग्रहित प्राकृत की गाथा सप्तशती और गोवर्धनाचार्य द्वारा प्रणीत संस्कृत की आर्यासप्तशती ये दोनों ग्रंथ विषय और शैली की दृष्टि से बिहारी सतसई के अनुरूप ही हैं। सतसई प्रणयन के समय बिहारी के समक्ष ये दोनों ग्रंथ आदर्श रूप में थे। इन ग्रंथों के छंदों से सतसई के दोहों का तुलनात्मक अध्ययन करके उन्होंने बिहारी को भावापहरण के दोष से मुक्त करके अनेक स्थानों पर तो इन ग्रंथों से भी बिहारी की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। डॉ. भगवतस्वरुप मिश्र इस संदर्भ में लिखते हैं कि, “आचार्य पद्मसिंह ने बिहारी की जिन कवियों और ग्रंथों से तुलना की है उस तुलना में एक व्यवस्था हैं। भाव-विषयक और शैली की दृष्टि में साम्य के अभाव में केवल तुलना की ध्वनि में आकर तुलना नहीं कर दी गयी है।”[25] इसी के साथ शर्मा जी ने तुलनात्मक आलोचना के माध्यम से बिहारी की काव्यगत परंपरा का विश्लेषण करते हुए संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के कवियों पर भी प्रकाश डाला। इस मार्मिक विवेचना के कारण ही तुलनात्मक आलोचना को बहुत बल मिला और बिहारी के काव्य के प्रति लोगों की रुचि में परिवर्तन भी आया।

पद्मसिंह शर्मा की तुलनात्मक आलोचन में जो कमी रह गई थी कृष्णबिहारी मिश्र उस कमी को दूर करने की कोशिश ‘देव और बिहारी’ कृति से करते है। कृष्णबिहारी मिश्र ने वैज्ञानिक ढंग से देव और बिहारी का तुलनात्मक अध्ययन किया है तथा दोनों कवियों की भिन्न-भिन्न रचनाओं का मिलान भी किया है। अतः तुलनात्मक आलोचना के उत्कर्ष का वास्तविक श्रेय मिश्र जी को जाता है। मिश्र जी स्पष्ट रूप से अपनी भूमिका में लिखते हैं कि, “हम देव के पक्षपाती नहीं है और बिहारी के विरोधी भी नहीं।”[26] मिश्र जी ने काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर देव-काव्य की व्याख्या की थी। मिश्र जी ने सिद्धांततः पक्षरहित तुलनात्मक आलोचना को मान्यता दी और किसी भी ग्रंथ को उत्तम या अद्यम सिद्ध करने के लिए उपयुक्त कारणों एवं तर्कों की खोज की थी। उनका कथन हैं “इन सब बातों का सम्यक उल्लेख होना चाहिए कि किन कारणों से वह ग्रंथ उत्तम कहा जाएगा। ग्रंथकर्त्ता को लेखकों या कवियों में कौन-सा स्थान मिलना चाहिए उस विषय के जो अन्य लेखक हों, उनके साथ मिलान करके दिखलाना चाहिए कि उनसे यह किस बात में उच्च या न्यून हैं, और ग्रंथों की अपेक्षा इस प्रकार के ग्रंथों का विशेष आदर होना चाहिए या नहीं। यदि होना चाहिए तो किन कारणों से ?”[27] वस्तुतः यह मिश्र जी की साम्यमूलक तुलनात्मक आलोचना का सिद्धांत-पक्ष हैं जिसके आधार पर देव और बिहारी की आलोचना की गई है। मिश्र जी ने तुलनात्मक आलोचना में जो कुछ कहा उनमें विनम्रता और शिष्टता है। देव, बिहारी, मतिराम और अन्य कवियों की तुलना में उन्होंने आलोचना को बेहद गंभीरता से लिया, जिसके कारण मर्यादा का भाव उनकी आलोचना में है। शुक्ल जी का कथन इसी लिए सटीक लगता है “देव और बिहारी के झगड़े को लेकर पहली पुस्तक प. कृष्णबिहारी मिश्र बी.ए., एल.एल.बी. की मैदान में आई। इस पुस्तक में बड़ी शिष्टता, सभ्यता और मार्मिकता के साथ दोनों बड़े कवियों की भिन्न-भिन्न रचनाओं का मिलान किया गया है। इसमें जो बातें कही गई है ‘नवरत्न’ की तरह यों ही नहीं कही गई हैं।”[28]

पंडित कृष्णबिहारी मिश्र के बाद लाला भगवानदीन का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने ‘देव और बिहारी’ की प्रतिक्रिया में ‘बिहारी और देव नामक’ कृति लिखते हैं। इस कृति की भूमिका में वह लिखते हैं कि, “एक बिहारी पर चार-चार बिहारियों – मिश्रबंधु, श्यामबिहारी, गणेशबिहारी, शुकदेव बिहारी और चौथे कृष्णबिहारी का धावा देखकर बेचारा हिंदी साहित्य का संसार घबरा गया है। लखनऊ प्रांत के निवासी बिहारियों ने रसिकराज कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगर के निवासी बिहारी की कविता को हल्की ठहराकर देव पर बेतरह आसक्ति दिखाई है।”[29] लाला भगवानदीन ने इस कृति में देव कवि की कई त्रुटियां दिखलाकर बिहारी को श्रेष्ठ बताया है। बिहारी के दोहों के गुणों का मण्डन एवं समर्थन करते हुए प्राचीन साहित्य शास्त्र के सिद्धांतों का अवलंबन किया तथा देव और बिहारी की तुलना में भाव-पक्ष की अपेक्षा कला पक्ष का ही अधिक उल्लेख किया।

इस तरह द्विवेदी युग में तुलनात्मक आलोचना की एक सुदृढ़ परंपरा का निर्वाह होता है। आगे चल कर आचार्य शुक्ल की आलोचना में इसी तुलनात्मक आलोचन का प्रभाव देखने को मिलता है। भले ही उन्होंने स्वतंत्र रूप से तुलनात्मक आलोचना पर कोई भी कृति नहीं लिखी परंतु उनके ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इस तुलनात्मक काव्यालोचन का प्रभाव देखा जा सकता है। इसी तुलनात्मक दृष्टिकोण का प्रभाव है कि तुलसीदास को वे श्रेष्ठ कवि कहते हैं। आगे चल कर छन्नूलाल द्विवेदी, निराला एवं सुमित्रानंदन पन्त में भी इसी तरह की तुलनात्मक काव्यालोचन का रूप देखने को मिलता हैं। समग्रतः आरंभिक तुलनात्मक आलोचन से जो सैद्धांतिक बिंदु तैयार हुए आगे चल कर अन्य आलोचकों ने इन्हीं सैद्धांतिक बिंदुओं को आधार बनाकर आलोचना का विकास किया।

हिंदी आलोचन के प्रारंभ के साथ ही तुलनात्मक आलोचना का विकास शुरू हो गया था और आज तक इसकी गति अबाध क्रम से विकासोन्मुख है। आलोचना का कार्य साहित्य का विश्लेषण, उसके मर्म का उद्घाटन, पाठक की रुचि का परिष्कार एवं उसका मार्गदर्शन है। लेकिन रुचि का परिष्कार और साहित्य के मर्म का उद्घाटन तुलना के बिना संभव नहीं है। तुलनात्मक आलोचना वस्तुतः समीक्षा की वैज्ञानिक पद्धति है। समीक्षा की अन्य पद्धतियाँ जहां रचनाकार की रचना का ही विश्लेषण कर के रह जाती हैं, वहीं तुलनात्मक आलोचना रचनाकार और उसकी रचना को अन्य साहित्यकारों के सादृश्य में रखकर उसकी वास्तविक महत्ता का पूर्णतः प्रस्फुटन कर देती है। तुलनात्मक आलोचना मानव के सीमित क्षेत्र का विस्तार करता है। तुलनात्मक आलोचना मात्र साम्य-वैषम्य प्रकट करने वाला तुलना भर नहीं है बल्कि यह साहित्य विशेष को पृष्ठभूमि प्रदान करने वाली, सामूहिक प्रवृतियों के संधान द्वारा मानवीय कार्यकलाप के अन्य क्षेत्रों के पारस्परिक संबंध से अवगत भी कराती है। वस्तुतः उच्च ज्ञान की प्राप्ति तुलना पर ही आधारित होती है क्योंकि तुलना के द्वारा ऐसी विशेषताएं उजागर होती है जो सामान्य अध्ययन से संभव नहीं है।

संदर्भ सूची

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1966)- चिंतामणि,भाग-1

डॉ.नवल किशोर (2007) – हिंदी आलोचना का विकास

प्रेमचंद (1983) – साहित्य का उद्देश्य

हिंदी प्रदीप, जुलाई 1881

प्रेमघन सर्वस्व-2,

शिवदान सिंह चौहान (2002) – आलोचना के मान

अभिषेक रौशन (2009) – बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ

प्रो.अपूर्वानंद (2018)- साहित्य में एकांत

अभिषेक रौशन (2009) – बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ

डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी (2016)- हिंदी साहित्य:उद्भव और विकास

डॉ.एस.पी.खत्री (1964) – आलोचना इतिहास तथा सिद्धांत

पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र (1997)- देव और बिहारी

डॉ.बदरी प्रसाद (1986)- हिंदी में तुलनात्मक आलोचना

चंद्रभूषण मिश्र (1999) – हिंदी में तुलनात्मक समीक्षा का विकास

मिश्रबंधु (1997) – हिंदी नवरत्न

महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-2 (1995)

डॉ. भगवतस्वरूप मिश्र (1954) – हिंदी आलोचना उद्भव और विकास

कृष्ण बिहारी मिश्र (1977) – देव और बिहारी

रामचंद्र शुक्ल (1984) – हिंदी साहित्य का इतिहास

लाला भगवानदीन – बिहारी और देव

  1. . आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1966)- चिंतामणि,भाग-1 ,पृष्ठ संख्या-191
  2. . डॉ.नवल किशोर (2007) – हिंदी आलोचना का विकास, पृष्ठ संख्या-15
  3. . प्रेमचंद (1983) – साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ संख्या-10
  4. . हिंदी प्रदीप, जुलाई 1881,पृष्ठ संख्या-15
  5. . प्रेमघन सर्वस्व-2, पृष्ठ संख्या-446
  6. . शिवदान सिंह चौहान (2002) – आलोचना के मान, पृष्ठ संख्या-44
  7. . अभिषेक रौशन (2009) – बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ, पृष्ठ संख्या-14
  8. . प्रो.अपूर्वानंद (2018)- साहित्य में एकांत, पृष्ठ संख्या-24
  9. . भक्तमाल – नाभादास
  10. . अभिषेक रौशन (2009) – बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ, पृष्ठ संख्या-16
  11. . डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी (2016)- हिंदी साहित्य:उद्भव और विकास, पृष्ठ संख्या-396-397
  12. . डॉ.एस.पी.खत्री (1964) – आलोचना इतिहास तथा सिद्धांत, पृष्ठ संख्या-449
  13. . पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र (1997)- देव और बिहारी, पृष्ठ संख्या-37-38
  14. . डॉ.बदरी प्रसाद (1986)- हिंदी में तुलनात्मक आलोचना, पृष्ठ संख्या-10
  15. . वही, पृष्ठ संख्या-26
  16. . वही, पृष्ठ संख्या-27
  17. . वही, पृष्ठ संख्या-32
  18. . वही, पृष्ठ संख्या-33
  19. . आचार्य भिखारीदास – काव्यनिर्णय, पृष्ठ संख्या-6
  20. . चंद्रभूषण मिश्र (1999) – हिंदी में तुलनात्मक समीक्षा का विकास,पृष्ठ संख्या-66
  21. . मिश्रबंधु (1997) – हिंदी नवरत्न, पृष्ठ संख्या – 32
  22. . वही, पृष्ठ संख्या – 234-35
  23. . महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-2 (1995), पृष्ठ संख्या – 174-175
  24. . वही, पृष्ठ संख्या – 176
  25. . डॉ. भगवतस्वरूप मिश्र (1954) – हिंदी आलोचना उद्भव और विकास, पृष्ठ संख्या-304
  26. . कृष्ण बिहारी मिश्र (1977) – देव और बिहारी, पृष्ठ संख्या – 15
  27. . वही, पृष्ठ संख्या – 33
  28. . रामचंद्र शुक्ल (1984) – हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ संख्या – 354
  29. . लाला भगवानदीन – बिहारी और देव, पृष्ठ संख्या – 2