“हाशिए की क्रांति”

शिवानी कोहली

99153-15289 

‘कोशिश तो बहुत की परन्तु मुमकिन इतना ही हो सका।’ रतन ने अपनी लाचारगी के दो रुपए कदमो के हाथ में थमाते हुए कहा।

टूटी हुई हिम्मत को संबल देते हुए उसने वे रुपए अपनी मुट्ठी में भींच लिए। कदमो अपनी हिम्मत के पीछे एक भय को महसूस कर रही थी। भूखे पेट ने उसकी बेटी की मुस्कराहट छीन ली थी। चमड़ी पर सूखी पपड़ी की एक परत बन पड़ी थी, जिसे थोडा-सा खुरचने पर वो उखड़ने लगती। शरीर की सभी हड्डियों को आसानी से गिना जा सकता था। कुछ दिन पहले उसकी मालकिन ने उसे एक रोटी और अचार दिया। ठोकर लगने के कारण वे दो निवाले भी मिट्टी-से हो गए। कदमो ने रोटी को हाथ से साफ़ किया और अचार को पानी से धोकर घर ले गयी। चुनिया ने उसे बड़े ही धैर्य से खाया। परन्तु काफी दिनों से वे दो निवाले भी नसीब न हो सके।

सरकारी पढाई होने के बावजूद भी फीस न दिए जाने पर चुनिया को स्कूल से निकाल दिया जाएगा। नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होने पर भी सरकारी नुमयिन्दों ने उसे अपने मुनाफे का अड्डा बना रखा है। शिक्षा अमूल्य है, परन्तु जब राजनीति की जड़ें किसी भी संस्था से जुड़ जाती हैं तो सारा नियंत्रण उन जड़ों को पानी देने वालों के पास चला जाता है। किताबें, कपडे, खाना सब आता, परन्तु सरकारी दलालों के कारण वो बच्चों तक पहुँच नहीं पाता।

बड़े हाथ-पैर मारने पर भी रतन और कदमो फीस दे नहीं पाए और चुनिया को स्कूल से निकाल दिया गया। यह उस साजिश का कपट रूप था जो परदे के पीछे रची जा रही थी। वास्तव में, रतन एक दलित परिवार से था और कदमो ब्राह्मण परिवार से संबंध रखती थी। क़दमो आठवीं पढ़ी थी और रतन ने तो कभी स्कूल देखा ही नहीं। रतन उनके घर अपनी माँ के साथ कूड़ा उठाने जाया करता था। वैसे तो उस मोहल्ले की तरफ देखना भी पाप समझा जाता था, परन्तु कदमो उधर देखती भी और यह चाह भी रखती कि किसी बहाने ही सही उसके दिल को सुकून मिल जाए। एक दफा तो चौंक पर रतन के नज़र न आने पर क़दमो हाशिए वाले मोहल्ले में दाखिल हुई। कुछ ही समय में बातों का बाज़ार लग गया। क़दमो को ऐसे ताड़ा जाने लगा, जैसे दूसरे ग्रह का प्राणी धरती पर अचानक दिख गया हो।

‘रतन….रतन….’

रतन, कदमो की आवाज़ सुनकर दंग रह गया। बाहर निकला और कदमो को वहां से जाने के लिए कहने लगा।

‘तुम यहाँ क्यों आई हो? तुम्हें पता नहीं क्या, हम कौन होते हैं? हमारा साया पड़ जाना भी एक भीषण बिमारी है और तुम हो कि यहाँ…. जाओ… तुम यहाँ से। क्यों मुसीबत को न्योता दे रही हो?’

‘मैं यहाँ अपने प्यार के लिए आई हूँ। तुम्हारे लिए आई हूँ। तुम्हारे लिए किसी भी परीक्षा को देने के लिए तैयार हूँ।’

‘समाज नहीं मानेगा इस रिश्ते को।’

‘तुम मानते हो?’

क़दमों का हौसला देखकर रतन में हिम्मत भर आई। उसने क़दमों का हाथ पकड़ा और चौंक पर ले गया।

‘मैं अपने प्यार के लिए समाज से भिड़ने के लिए तैयार हूँ।‘

आग की इन लपटों को पूरे गाँव में फैलते हुए देर नहीं लगी। पंचायत ने रतन और क़दमो के घरवालों को बुलाया। कूड़ा उठाने वालों को कूड़े की जगह बिठा दिया गया और ब्राह्मण परिवार को ठीक उसके बगल में खड़ा रहने को कहा गया।

‘देखो पंडित जी, तुम्हारी लड़की ने जो काण्ड किया है उससे तो तुम्हें इन कूड़े वालों के साथ बिठा देना चाहिए था। परन्तु तुम अभी तक अपने हो, इसलिए अभी भी वक़्त है, थोड़ी बुद्धि दो अपनी लड़की को और इसके सिर से इश्क का भूत उतारो। अन्यथा अंजाम तुम जानते हो। आज बगल में खड़े किए गए हो, संबंधी होने पर साथ बिठा दिए जाओगे।’

पूरी पंचायत में फुसफुसाहट शुरू हो गयी…

‘पंडित की लड़की ने तो खानदान का नाम मिट्टी में मिला दिया।’

‘क्या मुँह लेकर पंडित ऊपर जाएगा?’

‘धर्मराज के खाते में, पंडित के खाते पर तो कालिक पुत गयी।’

‘ऐसी औलाद से तो इंसान बेऔलाद अच्छा।’

औरतों की मंडली भी पीछे कहाँ रहने वाली थी…

‘पंडिताइन को तो ज़हर भी कम पड़ेगा अब।’

‘बड़ा घमंड था पंडिताइन को अपनी लड़की पर। हू… देखो तो क्या नाम चमकाई है।’

‘मिला भी तो कौन ? एक चूहड़ा..?’

‘बस… बहुत हुआ… कदमो ने सभी दायरों को तोड़ते हुए प्रेम को अपनी ताकत बनाया।’

‘कदमो तू चुप कर जा। हमें पंचायत का हर फैसला मंज़ूर है।’ पंडित जी सिर झुका कर बोले।

‘तो ठीक है, पंचायत ने यह फैसला किया है कि पंडित और उसके पूरे परिवार को शुद्धी करवानी पड़ेगी और फिर बड़े शिव मंदिर की एक सौ आठ परिक्रमा लगाकर दंडवत करते हुए मंदिर की सीढ़ियों से ऊपर जाना होगा। फिर हम सभी पंडित और उसके परिवार को अपनाएंगे। और हाँ, पंडित की लड़की ने उस मोहल्ले में जाकर अपने लिए और कठिन परीक्षा को न्योता दिया है। इसलिए उसे इन सभी के साथ उबलते पानी से स्नान भी करना पड़ेगा। यदि ये सभी शर्ते पंडित परिवार को मंज़ूर है तो हमें इस परिवार को अपनाने में कोई आपत्ति नहीं।’

‘पंडितों का प्रायश्चित पूरा हो जाने पर इन चूहड़ों का फैसला भी किया जाएगा।‘ पंचों में से एक बोला।

‘हमें आपकी सभी शर्तें मंज़ूर हैं।’ बिरादरी में पुन: लौटने का पंडित को इससे बेहतर और कोई विकल्प नज़र नहीं आ रहा था।

‘नहीं…. हमनें कोई अपराध नहीं किया है। इसलिए मैं किसी प्रकार से भी आपकी बात नहीं मानूंगी।’ कदमो की क्रांति भरी आवाज़।

‘तू चुप रह।’ अम्मा बोली…

‘हाँ, अपनी जुबान को लगाम दे और जो पंचायत ने कहा उसे मान ले। इसी में हम सब की भलाई है।’

‘नहीं बाबा, जब हमने कोई अपराध किया ही नहीं तो हम किसी भी अपराध बोध में क्यों जिएँ। मैं रतन से प्यार करती हूँ और प्यार करना कोई अपराध नहीं है।’

‘सुन री लड़की, अभी तक तो पंडित का लिहाज़ करते हुए हमनें नरमी दिखाई है परन्तु यदि तुमने अपने तेवर नहीं बदले तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।’

‘तुम लोगों से जो बन पड़े कर लो, पर मैं अपने प्यार को पा कर ही रहूंगी।’

‘ठीक है, जैसा तुम चाहो। अब पंचायत यह निर्णय लेती है कि इस गाँव का प्रत्येक घर और उसमें रहने वाला प्रत्येक सदस्य पंडित के परिवार से नाता तोड़ देगा। और जो कोई भी पंडित के घर जाता हुआ, उससे बात करता हुआ पाया गया। उसे भी उसी दंड का भागी बनना पड़ेगा। मैं, पंचायत का मुखिया आज यह ऐलान करता हूँ कि पंडित और उसका सारा परिवार इस गाँव के लिए मर चुका है। न कोई इन्हें राशन देगा और न ही गाँव के किसी-भी कुँए से इन्हें पानी मिलेगा और ये परिवार सारी उम्र नज़रें नीची करके चलेगा। यह पंचायत का आखरी फैसला है जोकि सभी को मान्य होगा।’

मुखिया ने कड़क और बुलंद आवाज़ में गाँव से पंडित परिवार का दाना-पानी उठवा दिया। उस दिन के बाद से किसी ने भी उस परिवार की तरफ नहीं देखा। पंडित और उसकी पत्नी इसी अपराध बोध में चल बसे कि उनसे बहुत बड़ा पाप हो गया है और इश्वर उनके इस अपराध को कभी माफ़ नहीं करेगा। एक वर्ष के भीतर ही दोनों का स्वर्गवास हो गया। रतन के माता-पिता ने भी रतन को बहुत समझाया लेकिन ‘इश्क के आगे आज तक किसकी चली है?’ दोनों ने किले वाले पुराने मंदिर में जाकर फेरे ले लिए। कदमो के माँ-बाप के देहांत के पश्चात पंचायत के आदेशानुसार पंडित का घर और दुकान को रिश्तेदारों में बाँट दिया गया। रतन को भी उसके माँ-बाप ने घर से चले जाने को कहा। अब दोनों गाँव की सरहद पर बरगद के दो पेड़ों के सहारे बनी पत्तों और घास-फूस की छत्त के नीचे जीवन बिता रहे हैं। यहाँ तक कि कदमो को प्रसव पीड़ा होने पर भी गाँव की दाई ने वहां आने से इनकार कर दिया। तब रतन और कदमो एक-दूसरे की हिम्मत बने और चुनिया का जन्म हुआ।

——

बहुत सालों के बाद कदमो को गाँव से एक नए नाम के नारों की गूँज सुनाई पड़ी.. ‘राजेश बाबू जिंदाबाद… राजेश बाबू जिंदाबाद…’। इतने वर्षों में गाँव में बहुत बदलाव आ गया था, बस हाशिए वालों के लिए सब वैसे का वैसे ही था।

राजेश बाबू कुल दस गाँव के मुखिया के रूप में चुने गए। अब हर माह एक बड़ी बैठक होती जिसमें सभी पीड़ितों को अपना हाल सुनाने के लिए एक सभा में बुलाया जाता। कदमो रतन को बिना बताए इस बैठक में चली गयी और अपनी बेटी चुनिया की शिक्षा के लिए गुहार करने लगी। राजेश बाबू ने कदमो की अर्जी सुनी भी और उसपर मोहर भी लगाई। गाँव वालों को इस बात से परेशानी होने लगी कि इतने वर्षों से जो नियम-कानून चलाए जा रहे थे, वो सहसा बदल रहे हैं। चुनिया को गाँव के सरकारी स्कूल में पुन: दाखिला तो मिल गया, परन्तु व्यवहार वहां पर भी उसके साथ वैसा ही किया जाता जैसा कि कुछ वर्ष पूर्व मुखिया लोगों ने तय किया था। उसे फट्टी पर न बिठा कर बिना टाट के तपती ज़मीन पर बिठाया जाता, स्कूल के नल से उसे पानी नहीं पीने दिया जाता, घर से पानी लाने पर उसे गिरा दिया जाता, उसके कपडे जान-बूझ कर मैले कर दिए जाते और तो और कक्षा में उसे अन्दर नहीं बहार बिठाया जाता। यह सब व्यवहार काफी समय तक चलता रहा। एक दिन कदमो उस रासते से गुजरी तो उसका ध्यान स्कूल में कक्षा के बहार बैठी चुनिया पर पड़ा। वह फिर से एक बार राजेश बाबू के पास अपनी परेशानी ले कर पहुंची। इस परेशानी को भी सुलझा दिया गया और चुनिया को पंखे वाली कक्षा में एक कोना दे दिया गया।

 

नौकरी की तलाश करता रतन राजेश बाबू की चौखट पर पहुंचा, तो उनहोंने उसे नौकरी देने से इनकार कर दिया। घर लौटने पर उसने पूरी बात कदमो को बताई। कदमो ने राजेश बाबू से रतन की सिफारिश करनी चाही..

‘देखो कदमो, हमें घर में काम करने के लिए किसी औरत की ज़रुरत है जो हमारी पत्नी के लिए सभी काम कर सके। अभी हमारे पास रतन के लिए कोई नौकरी नहीं है। हाँ, यदि तुम चाहो तो तुम हमारे यहाँ काम कर सकती हो। वेतन के तौर पर पाँच रुपए दूंगा। मंज़ूर है तो बोलो।’

‘मुझे मंज़ूर है।’ बिना कुछ सोचे कदमो बोली।

वेतन बहुत कम था फिर भी कदमो ने स्वीकार किया। कम से कम कुछ दिन का चूलाह तो गरम होगा। घर आकर उसने सारी बात रतन को बताई। असहाय रतन कुछ न कह सका और कदमो राजेश बाबू के घर काम करने लगी। कभी-कबार राजेश बाबू की पत्नी उसे कुछ खाने के लिए दे दिया करती थी। पिछली दिवाली तो तीनों ने भर पेट खाना खाया और मालकिन ने धनतेरस पर कदमो को घर के लिए कुछ पुराने बर्तन भी दिए।

गाँव में सभी तक ये ख़बरें पहुँच जाती और वे लोग ये सोच-सोच कर परेशान होने लगे कि यदि राजेश बाबू और उनकी पत्नी ऐसा ही करते रहे तो समाज में पूर्वजों की कही बात का क्या मान रह जाएग। पंचायत के पंचों में से एक अभी जिंदा था। उसने गाँव के कुछ लोगों के साथ मिलकर एक योजना बनायी। इस योजना के अनुसार राजेश बाबू को रतन और कदमो का सारा सच बता दिया जाएगा और फिर उनका जीवन पहले जैसा ही हो जाएगा। राजेश बाबू को सारा सच बता दिया गया।

‘तुम लोगों के कहने पर मैं किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकता। और एक बात ध्यान में रखना कि मैं इस गाँव में अब अन्याय होने नहीं दूंगा।’

यह सभी बातें क़दमों ने दीवार-पार सुन ली थीं। उसके मन में राजेश बाबू के लिए सम्मान और बढ़ गया। अब तो जैसा राजेश बाबू कहते वो बिना किसी सवाल, ऑंखें बंद करके वो काम करती। अब बात चुनिया के भविष्य पर आ टिकी है तो कदमो के समक्ष अंतिम विकल्प राजेश बाबू ही थे।

‘तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया। अब आगे तीन दिन की छुट्टियाँ हैं। सभी सरकारी दफ्तर बंद रहेंगे। जो भी होगा अब सोमवार को ही संभव है।’

‘जी ठीक है।’

‘तुम घबराओ नहीं, तुम्हारी बेटी बड़े स्कूल ज़रूर जाएगी।’

राजेश बाबू ने कदमो के सिर पर हाथ रखते हुए कहा। और कुछ ही क्षणों में वह हाथ कंधे पर अपना अधिकार जमाने लगा। कदमो को यह एक वहम-सा लगा। राजेश बाबू जैसे भले मानस के बारे में वो ऐसा कैसे सोच सकती है।

घर लौटी तो उसका अजीब-सा व्यवहार देखकर रतन ने कारण जानने का प्रयास किया। उसने यह कहकर टाल दिया कि ‘कुछ ख़ास नहीं। ऐसा लगा कि कुछ हुआ पर अगले ही पल… खैर… जाने दो। मेरा वहम था शायद।’

‘ठीक है। क्या तुमने राजेश बाबू से बात की ? क्या कहा उनहोंने ? वो हमारी मदद करेंगे क्या ?’

‘हाँ…. बात तो हुई थी… और…’

कदमो फिर से उस एक पल के एहसास में गुम हो गयी।

‘हो क्या गया है तुम्हें? बार-बार गुम हो जाती हो। कुछ कहना चाहती हो क्या?’

जिस बात पर कदमो को खुद पर ही विश्वास नहीं था, उस आधी-अधूरी बात को वह रतन को कैसे बताती।

‘नहीं कुछ नहीं। हाँ, राजेशा बाबू मान गए हैं।’

‘यह तो बहुत अच्छा हुआ। कितने भले इंसान हैं राजेश बाबू। सब कुछ जानते हुए भी हमारी मदद कर रहे हैं। मैंने भी एक दफा राजेश बाबू से कहा था कि हमारे लायक कोई भी काम हो तो कदमो से कह दें।’

‘अच्छा !! ठीक है।’

कदमो पिछले दिन की सभी बातों को भुलाकर राजेश बाबू के यहाँ काम करने पहुंची। आज घर पर मालकिन नहीं थी। इस बात से अनजान कदमो रसोईघर में काम करने लगी। तभी वहाँ राजेश बाबू आ पहुंचे।

‘कुछ चाहिए था आपको?’

‘हाँ, कुछ खाने के लिए मिल जाता तो…’

‘जी। आप बाहर बैठिए मैं लेकर आती हूँ।’

कदमो के मुड़ते ही अचानक ही उसे अपनी कमर पर एक हाथ आगे की तरफ बढ़ता हुआ महसूस हुआ। उसके मुड़ने और चिल्लाने की कोशिश से पहले ही उसका मुँह, हाथ के दबाव से बंद कर दिया गया। मुँह पर दबाब और कमर पर हाथ की जकडन इतनी अधिक थी कि उसका ठीक से साँस लेना भी मुमकिन नहीं हो रहा था। राजेश बाबू ने अपने दाहिने हाथ से उसे घुमाया और ज़मीन पर पटक दिया। खुद को उस पर लादते हुए राजेश बाबू ने उसकी झंगों को कस के दबा लिया। खुद को छुड़ाने की कोशिश में कदमो ने आस-पास कुछ टटोलना चाहा। राजेश बाबू ने कदमो के दोनों हाथों को पूरे बल से पकड़ लिया। कदमो न चिल्ला पायी और न ही खुद को छुड़ा पायी।

मानवता का चोला ओढ़े हुए राजेश बाबू ने अमानवीयता की सभी सीमाएं लांघ दीं। कदमो रसोईघर में बेहोशी की अवस्था में पड़ी रही। कुछ समय के बाद मालकिन घर लौटीं और रसोईघर में एक लाश-सा पड़ा शरीर देखकर चौंक गयी। चेहरे पर झट से पानी डाला और कदमो को संभाली हुई बोलीं…

‘कदमो… कदमो… क्या हुआ ? तुम्हारी यह हालत किसने की ? बताओ ?’

मरणावस्था में पड़ा एक अस्तित्व खुद को खोजते हुए कुछ बोलने का प्रयास करने लगा।

‘वो… राजेश बाबू….’

इन दो शब्दों ने एक मालकिन के हाथों से नौकरानी के मुँह तक पहुँचने वाले पानी के गिलास को पीछे खींच दिया।

‘क्या..? तुम्हें पता भी है कि तुम क्या बोल रही हो। वो मालिक हैं तुम्हारे।’

‘मैं सच कह रही हूँ।’

‘मैं नहीं मानती।’

मालकिन कदमो को वहीँ छोड़कर अपने कमरे में गयी तो वहाँ राजेश बाबू को अपने कुछ ज़ख्मों पर मरहम लगाते हुए देखा। उसके कदम दहलीज़ के अन्दर पाँव रखने की हिम्मत न जुटा सके और वह दरवाज़े से ही लौट आई। मालकिन ने ज़मीन पर बिखरी पड़ी कदमो को इकठ्ठा किया और दिवार का सहारा देते हुए बोली..

‘चली जाओ यहाँ से।’

‘मालकिन… आपको मेरा साथ देना होगा।’

‘मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती।’

‘पर क्यों ? आप भी तो एक औरत हैं। आप मेरी पीड़ा को नहीं समझेंगी तो कौन समझेगा ?’

‘मैंने कहा न, चली जाओ यहाँ से।’

मालकिन कदमो को दर्दनाक हालत में वहीँ छोड़कर चली गयी। गिरते-पड़ते कदमो अपने घर तक पहुंची तो रतन यह सब देखकर घबरा गया।

‘ये सब…. कैसे… किसने… ?’

कदमो ने सारी बात रतन को बताई।

‘मैं तुम्हारे साथ हूँ। हम लड़ेंगे कदमो… हम लड़ेंगे..’

अभी दोनों दुःख बांट भी नहीं पाए थे कि कुछ पुलिस वालों ने दरवाज़े पर दस्त दे डाली।

‘तुम्हारा नाम रतन है?’ डंडे की नोक को रतन के कंधे पर दो-तीन बार ज़रा लगाते हुए एक पुलिस वाला बोला।

‘जी मैं ही रतन हूँ। कहिए क्या बात है ?’

‘ले चलो इसे।’

रतन और कदमो चिल्लाते रहे पर राजेश बाबू की खरीदी हुई वर्दी बेगुनाह रतन को मार-मार कर घसीटती हुई पुलिस चौकी ले गयी। कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया।