हाय वेदना ! तू ना जाएगी मेरे मन से ?

जिस तरह जुड़ी हुई है तू मेरे जीवन से ।

द्रवित हो जाता है मेरा ही मन बार -बार ,

आंसुओं की वर्षा बरसने लगती है नैनो से ।

कभी अपनों के तिरस्कार से त्रस्त होती हूँ,

तो कभी घायल हो जाती हूँ उनके कटु बेनों से ।

कभी तत्कालीन घटनाओं से व्याकुल हो जाऊँ ,

तो कभी उलझ जाती हूँ अतीत के तानो -बानो से ।

कभी आहात करें मुझे बेजुबानों पर की हुई यातनाएं ,

और मैं तड़प उठती हूँ उनकी दम तोड़ती जानों से ।

मानव समाज में मच रहा है हिंसा और व्याभिचार घोर ,

नारी और बेजुबानों पर करते है अत्याचार कई बहानों से ।

लोगों के सीनो में दिल नहीं ,तो क्या उनके ज़मीर भी नहीं,

मैं मानव बन गर्व करूँ या ग्लानि ,फंसी हुई बड़ी उलझनों में।

यदि मैं मानव हूँ तो बाकी इस जगत में मानव क्यों नहीं?

मेरी तरह इनके दिल में वेदना और पीड़ा आखिर क्यों नहीं?

मुझमें हैं भावनाओं का समंदर ,संवेदनायों की निधि अतुल्य ,

तो वास्तव में वेदना कैसे जाएगी मेरे ह्रदय से , मेरे जीवन से ।