हरसिल गाँव और  महापंडित  राहुल सांस्कृत्यायन की कुटिया

संतोष बंसल

उत्तरकाशी में कंक्रीट के मलबे को देख मन में उस प्रलय का बिम्ब बार बार उभर रहा था और यही ख्याल आ रहा था कि पहाड़ों की खूबसूरत दुनिया को इंसान अपने ही हाथो उजाड़ रहा है। इस कटु चित्र को लिए हम बस से आगे बढ़ते हुए रात होने से पहले हर्षिल पहुँचने की फ़िक्र में थे । शाम के लगभग चार -साढ़े चार का समय था  कि हम ऐसे स्थल पर पहुंचे ,जो कुदरत का बेहतरीन नगीना था। सामने दूर ऊंचाई पर पहाड़ो के ऊपर सफ़ेद बर्फ सूरज की किरणों में रुपहली हो चमक रही थी ,उसके साथ ही बादल भी धुनती रूईयों के से गोले  बन आसमान में तैर रहे थे और इन सबके बीच सूरज जैसे एक सितारे की तरह सुनहरा सतरंगी बिम्ब बना रहा था।यह चित्र वैसा ही था ,जैसा की हम बचपन में सूरज को रेखांकित करने के लिए बीच में गोला और फिर उसके चारो तरफ किरणों की  रेखाएं  खींच देते थे। यह टकनौर  ग्राम था ,जो नीचे तलहटी में बसा था। लेकिन  जहां हम खड़े थे ,वहां से बहुत नीचे था वह ,जहाँ कई जल धाराएं पहाड़ों से निकल कर बह रही थी। हमारे सामने सड़क के उस पार  सेब के छोटे छोटे पौधे लगे थे ,जिनमे फल लगने के लिए अभी  कई वर्ष लगेंगे। लेकिन इस जगह  लाल राजमा की खेती बहुत अधिक मात्रा में होती है  और  यहां से पूरे भारत में सप्लाई  होता है। वहां बने विश्राम स्थल पर खड़े होकर नीचे हरी -भरी घाटी की ओर झांका तो बचपन में देखी फिल्म ‘गीत ‘का  वह गाना मन में  गूंजने लगा। ‘आजा तुझको पुकारे मेरे गीत ‘के स्वर वाला वह गाना ,सिल्वर जुबली ‘कुमार के नाम से विख्यात स्वर्गीय राजेंदरकुमार पर फिल्माया गया था।  पहाड़ी पोशाक में बांसुरी बजाते हुए नायक की पृष्ठभूमि यानी ‘लोकेशन ‘ हूबहू बिलकुल ऐसी ही थी। हमसे  पूर्व यात्रा कर चुके मित्र ने बताया कि यहाँ  हर्षिल में स्वर्गीय राजकपूर की अंतिम फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली हो गयी ‘की शूटिंग हुई थी और फिल्मकारों को यह स्थल विशेष प्रिय है। एवं  सामने दिखने वाली  पर्वत श्रृंखला ही गंगोत्री स्थल है और वहीँ से और  आगे बढ़ते हुए गौमुख  है जहाँ के ग्लेशियर से गंगा निकलती है।

हमने उस दृश्य को  देखने के लिए सिर ऊपर उठाया तो निगाह थम कर रह गयी। पहाड़ों पर बिछी बर्फ से उठती धुंध की लहरे जैसे अपनी लय  और गति से  गीत -संगीत बुनती हुई चित्रों की विविध छवियों की अपार छटा बिखेर रही थी। अगर कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाएं तो उन बदलती रूप -रेखाओं में असंख्य भाव चित्रों को देखा जा सकता था। उनमे पहाड़ों की परिया भी निहारी जा रही थी ,तो स्वर्ग की अप्सराएं भी रथ पर सवार देखी जा सकती थी। वह शब्दातीत दृश्य था ,जिसे वर्णित नहीं किया जा सकता। वहां से बस में आगे बढ़ते हुए हम करीब पांच  बजे हर्षिल पहुंचे ,तब तक सूरज छिप गया था ,किन्तु अँधेरा अभी घिरा नहीं था। पुलिया पार करते हुए पानी के तेज शोर से यह ज्ञात हुआ कि हम गाँव की सरहद में प्रवेश कर चुके हैं एवं पानी की यह तेज धारा भागीरथी नदी की थी ,जो अब सिर्फ बस में बैठे हुए सुनाई दे रही थी। चूँकि भारतीय सेना की छावनी भी हर्षिल के ही इलाके में है ,इसीलिए उसी सड़क पर मिल्ट्री के बहुत से ट्रक खड़े थे। सड़क के दोनों ओर छुटपुट दुकाने थी, जिनमे रोजमर्रा की जरुरत का सामान ही बिकता है। चूँकि रात होने वाली थी ,इसीलिए हमने जल्दी से होटल में अपना सामान छोड़ा और गर्म  कपडे पहनकर अपने ग्रुप के साथ जल्द ही बाहर निकल आये। वहां से कुछ ही दूरी पर चौक से  आगे खुला स्थल था ,जहाँ एक बहुत पुराना वटवृक्ष था और जिस पर बहुत सी लाल झंडिया लगी हुई थी। अगर हम किसी स्थान पर जाए और वहां की परम्पराये जाने तो लोक जीवन की सही पहचान तभी होती है। वह एक ऐसा चौराहा था ,जहाँ से कई दिशाओं के मार्ग गुजर रहे थे लेकिन हमने बाई तरफ जाने की ठानी। सड़क पर थोड़ा आगे बढ़ने पर एक  पुल  नजर आया जो दोनों तरफ ऊँची लोहे की मजबूत सलाखों की ‘ग्रिल ‘से ढका था । इसी बीच हलकी -हलकी बूंदा बांदी शुरू हो गयी ,जिससे बचने और नदी को नजदीक से देखने के लिए हम सभी लोग पुलिया के नीचे और उसकी दीवार की ओट में खड़े हो गए। पत्थरों के बड़े -छोटे असंख्य टुकड़ों के बीच साफ़ स्वच्छ धारा कुलांचे भर रही थी। यह पूरा स्थल एक कटोरे की तरह था ,जिसका इधर का हिस्सा  पूरी तरह पत्थरों से पटा  हुआ था और उधर गाँव तथा छावनी बसी थी। ऐसा लग रहा था मानो कोई बड़ा पहाड़ टूट कर टुकड़े टुकड़े हो प्रचंड जलधारा के साथ बहता हुआ यहाँ आकर फ़ैल गया हो।

हरसिल वासी इसे विष्णु गंगा या कंकड़ गंगा के नाम से बुलाते हैं, लेकिन यह भागीरथी से भिन्न अलग ‘कन्दोमती पर्वत ‘से निकलने वाली धारा है। इसके  पीछे एक पौराणिक कथा है जो अभी तक हमने सरसरी तौर पर कार्तिक माह में देव उठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह पर पुरोहितों से सुनी थी। इस कथा में तुलसी का विवाह शालिग्राम से होता है ,जो विष्णु के ही रूप हैं। किन्तु इस स्थल पर उसके साक्ष्य प्रतीक रूप से उस कथा से कैसे सम्बंधित हैं ?यह मैं देख और जांच रही थी। दूसरे किसी ने इसका नाम कंकड़ गंगा ठीक ही रखा था ,क्योंकि चारो  ओर बड़े गोल कंकड़ ही फैले हुए थे। इस आधे किलोमीटर का एरिया इसी तरह का था ,संभवतःनदी में  जल  की मात्रा बढ़ने पर इस पूरे मैदान में पानी पहुँच जाता होगा। हम सभी को श्री निलय उपाध्याय जी  अपनी अगुवाई में इससे आगे ले गए। अब तक उबड़ -खाबड़ लेकिन समतल मैदान में चलते हुए तभी  एक उठी हुई मेढ़ सी दीवार दिखी ,जो  उस घाटी से थोड़ा ऊंचा स्थल था। और यहाँ भी एक छोटी पुलिया थी ,जो दोनों ओर से लोहे की ऊँची जाली से  घिरी थी ,जिससे हम नीचे झाँक पाने में भी असमर्थ थे। इस नदी का सम्बन्ध भी उसी पौराणिक कथा से जुड़ा है एवं  इसे जालंधरी या जलद्री  नदी के नाम से जाना जाता है।निलय जी ने यह भी बताया कि इसी गाँव में वह प्राचीन लक्ष्मी नारायण मंदिर  है ,जहाँ विष्णु देवता जालंधर की पत्नी वृंदा द्वारा शाप ग्रसित होकर शिला बन गए थे। और हरि  यानी विष्णु के शिला बनने की वजह से ही इस गाँव का नाम ‘हरसिल ‘पड़ा। चूँकि यह सब सुनने में इतना रोचक लग रहा था कि इस पौराणिक कथा को पूर्ण रूप से जानने की मेरी  इच्छा बनी रही। यह सारा वृत्तांत यात्रा के कई वर्षो बाद  अब जान पाई हूँ, जिसका विवेचन मैं  आगे करूंगी। उस समय  तो यह भी सुना  कि इसके पार ‘भोटिया ‘लोग रहते हैं ,जो मूलतः तिब्बती हैं और बहुत पहले से यह व्यापार के लिए प्रयुक्त होने वाला रास्ता है। और तिब्बत के इसी रास्ते से महापंडित  श्री राहुल सांकृत्यायन जी हर्षिल आये थे ,जो उन्हें इतना अच्छा लगा कि उन्होंने लम्बा अरसा यहाँ गुजारा।

चूँकि रात घिर आई थी और ठण्ड भी ज्यादा थी ,दूसरे अगले दिन सुबह ही हमें गंगोत्री के लिए प्रस्थान करना था इसीलिए हम लोग होटल लौट आये और अगली दिन तड़के ही गंगोत्री के लिए चल दिए। रस्ते में गंगनानी के निकट पहुँचते ही इस रास्ते और स्थल का भूगोल कुछ भिन्न नजर आने लगा। अब हम पहाड़ के साथ बहुत ऊंचाई पर जा रहे थे ,और गंगा की धारा उन पहाड़ो के बीच संकरी खाइयों से गुजर रही थी , जिनमे आस पास की अन्य जल धाराएं भी मिलती रहती हैं। तभी हम रास्ते में पड़ने वाले एशिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित पुल को देखने के लिए उतरे तो उसके बिलकुल नीचे एक अन्य प्राचीन लकड़ी का छोटा पुल भी नजर आया। हमारे साथ मौजूद मित्रों ने अपना कैमरा निकाल कर उस स्थान की फोटोग्राफी की और बातों में तभी  पता चला कि नीचे धारा के बिलकुल नजदीक ‘बॉटम ‘में दिखाई देने वाला लकड़ी का पुल स्थानीय लोगो तथा गंगोत्री जाने वाले यात्रियों के लिए अंग्रेज विलसन ने ही बनवाया था। लेकिन उस के बावजूद इस पहाड़ को पार करने के लिए बहुत लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था।इसी लिए  ‘कैंटीलीवर ब्रिज ‘का निर्माण हुआ ,जो इन पहाड़ो की ऊपरी छत का मध्य में सबसे भीतरी हिस्सा है। पुल के दोनों तरफ झाँकने पर आगे -पीछे बहुत ही गहराई में बहती गंगा की क्षीण सी जलधारा दिखी।यहाँ चारो तरफ ऊँचे पहाड़ों और नीचे बनी कुदरती खाइयों को देख अचानक  मरे दिमाग में परमात्मा शिव  द्वारा अपनी जटाओं में गंगा के वेग को धारण कर उसे पृथ्वी पर उतारने की बात समझ में आई। साथ ही प्रसिद्ध  साहित्यकार डॉक्टर हजारीप्रसाद दिवेदी की हिमालय क्षेत्र को शिव की जटाओं की अवधारणा मानना बिलकुल उचित लगा ।वास्तव में यदि हम ब्रह्माण्ड के अक्स को शिव रूप  में मानकर कैलाश को उनका सिर तथा इस क्षेत्र में फैली धाराओं को उनकी जटाओं के रूप में माने तो वह बिम्ब सही लगता है। और फिर हरिद्वार क्षेत्र में जाकर वह मैदानी इलाकों में गंगा नदी के रूप में बहने लगती है।हमारे ऋषि मुनियों में भौगोलिक तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए कितना सुंदर कथात्मक रूप दिया है ,यह देखकर और उनके अर्थ जानकार कर  आसानी से समझा जा सकता है।

खैर ,हम लोग गंगोत्री धाम के दर्शन करके दोपहर दो बजे तक हरसिल लौट आये थे और तब यह तय किया गया कि चार बजे यहाँ के लक्ष्मी नारायण मंदिर के दर्शन के साथ उसके प्रांगण में ही कवि गोष्ठी का आयोजन होगा।हम लोग समया नुसार होटल से निकले और गाँव के थोड़ा बाहर की ओर सेब के कतारबद्ध बगीचों के समीप बने लक्ष्मी नारायण मंदिर गए। मंदिर में प्रवेश करते हुए चारो तरफ फूलों के असंख्य पौधों के साथ  एक ताल में कमल के बहुत से नीले  फूल मैंने यहाँ पहली बार देखे। मंदिर में सचमुच विष्णु देवता की वही शिला मौजूद थी ,जिसमे विष्णु द्वारा जालंधर की पत्नी वृंदा यानी जालंधरी के शील भंग होने पर उसके द्वारा उन्हें शापित करने  की बात आती है। यधपि यह कथा बहुत लम्बी है ,किन्तु इसका महत्व और अर्थ प्रकृति के चौमासा चक्र से ही सम्बन्धित है। वर्षा ऋतू के इस पूरे क्रम को समझाने के लिए ही इस गाथा का ताना बाना बुना  गया है। हुआ यह  कि इंद्र के घमंड से क्रुद्ध शिव भगवन ने अपना तेज पुंज क्षीर सागर में डाल  दिया ,जिससे उन्ही के अंश जालंधर की व्युत्पत्ति हुई ,जो अत्यंत बलशाली था और उसकी पत्नी वृन्दा विष्णुभक्त और  अत्यंत पतिव्रता स्त्री थी। चूँकि सिंधुपुत्र जालंधर शक्तिशाली था और उसने सभी देवताओं को युद्ध में हरा समुद्र मंथन से प्राप्त उनके रत्न आदि पर अधिकार कर लिया था।,इसीलिए सभी देवता बैकुंठ में विष्णु देवता के पास गए और उनसे मदद की प्रार्थना की। विष्णु अपने गरुड़ पर बैठ युद्धभूमि में जाने लगे तो समुद्र तन्या लक्ष्मी ने अपने भाई जालंधर की प्राण रक्षा की याचना की।तब विष्णु ने पत्नी लक्ष्मी को उसके प्राणो का वचन दे युद्धभूमि की ओर  प्रस्थान किया। वहां दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ ,किन्तु अंत में मायावी विष्णु ने मेघवानी में जालंधर से वर मांगने को कहा। तिस पर जालंधर ने उनसे अपनी बहिन लक्ष्मी और सारे कुटुम्बियों के साथ उसके घर पर  निवास करने का वर माँगा।

अगर प्रकृति चक्र से समझा जाए तो आषाढ़ मॉस की एकादशी से देव शयन शुरू हो जाता है और भगवन शिव सृष्टि चक्र का कार्य स्वयं संभाल लेते हैं। जो कार्तिक मॉस के शुक्ल पक्ष की प्रबोधनी एकादशी पर देव उठने तक रहता है। इस बीच सारे देवताओं ने  शंकर भगवान से विष्णु के पाताल निवास और अपने परबश होने की बात कह दुःख बताया ,तब शंकर भगवान ने स्वयं उसके वध करने की बात कही। इधर नारद की बातों  में आकर जालंधर अपनी ही माता पारवती पर कुदृष्टि डालता है ,जिससे रुष्ट हो गौरी विष्णु को दैत्य जालंधर की पत्नी के पतिव्रत को भ्रष्ट  करने की आज्ञा देती है क्योंकि अजेय जालंधर को युद्ध में तभी कोई मार पायेगा। इस आज्ञा के तहत विष्णु जालंधर का रूप धर उसकी पत्नी वृंदा के समक्ष जाते हैं और उसके साथ विहार करते हैं। किन्तु एक बार उसे पहचान कर वृंदा उसे शापित करती है कि तुमने अपनी माया से जो दो राक्षस उसे दिखाए थे ,वही अगले जन्म में उनकी पत्नी का अपहरण करेंगे। ऐसा कहकर पतिव्रता वृंदा अग्नि में प्रवेश कर गयी और युद्धभूमि में शंकर भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से जालंधर का खात्मा किया।तब ब्रह्मा देवता वृंदा की चिता  भूमि पर कुछ बीज डाल  देते हैं ,जिससे तुलसी का जन्म हुआ और वृंदा की भक्ति से मोहित विष्णु उसे यह वर देते हैं कि वे शालिग्राम के रूप में उनसे विवाह करेंगे ,तभी कार्तिक में तुलसीदल से विष्णु देवता की आराधना होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा ऋतू में समुन्दर  में उठनेवाले ज्वार या तूफ़ान बेहद विध्वंसकारी होते हैं। जिन्हे कोई नर या  नारायण काबू में नहीं कर सकता और वेउस पूरे  काल में पाताळ में राजा बलि के यहाँ ,यानी पृथ्वी के नीचे के संसार के  साथ निवास करते है। ऐसे समय सृष्टि का संचालन परमात्मा शिव के नियंत्रण में रहता है। और तुलसी की पौध जो सावन में बोई जाती है ,उसकी पूजा यानी उपयोग सर्दियों की शरुआत से ही स्वास्थ्यकारी होता है। लेकिन अचरच की बात है किअब यह सारा कथाक्रम ढकोसलों और कर्मकांडों में तब्दील हो गया है। इसके वास्तविक अर्थ से कोसो दूर है

आम जनजीवन ?

खैर उस पौराणिक महत्व वाले छोटे मंदिर के सामने बने नए मंदिर का निर्माण सन १८८३ ईसवीं में किया गया था और इसी के पीछे भागीरथी नदी और जालंधरी नदी का संगम होता हैं। इन दोनों धाराओं के मिलने से यहाँ नदी का वेग तेज और प्रवाह फैला हुआ था , जिसकी कल -कल ध्वनि  और पत्थरों पर पछाड़ लहरों की आवाज हमें सुनाई दे रही थी। नदी के इस पार पानी की बूँदे  उछल कर फुहार सी बरस रही थी तो उस पार पहाड़ों पर ऊँचे देवदार वृक्षों के साथ पूरा स्थल हरा भरा नजर आ रहा था। यह दृश्य देख मुझे हरसिल को ‘मिनी स्विट्जरलैंड ‘कहने की बात समझ में आई । क्योंकि बिलकुल ऐसी ही पहाड़ों और वादियों की तस्वीरें हमने कैलेंडरों में स्विट्जरलैंड की देखी थी।अपना रास्ता  खुद बनाती हुई निर्बंधन नदी का असली कुदरती रूप तो पहाड़ों में ही दिखता है, नहीं तो अभी तक हर जगह गंगा नदी का बांधो में बंधा शिथिल मायूस रूप ही नजर आया था।दोनों मंदिरों के मध्य पीछे दिखने वाली कुटिया में ही (पंडित जी के निवास के साथ )हिंदी के प्रकांड विद्वान और यायावर श्री राहुल सांस्कृत्यायन जी ने काफी अरसा यहाँ गुजारा था। हम सभी गंगा मित्रों ने उसके सामने ग्रुप फोटो खिंचवाई ,जो हम सबके लिए अमिट स्मृति है। और फिर वहां से बगीचे के बीचोबीच बड़ी दरी  बिछाकर कवि  गोष्ठी आयोजित की गयी। इस आयोजन में निलय भाई ने ध्रुव गुप्त ,पुष्पा पटेल ,रविकेश मिश्रा जी ,विजेंदर कुमार और भी बहुत से पटना से आमंत्रित साहित्यिक लोग थे। यह अनुभूति ही अपने आप में उस गोष्ठी को ऊंचा दर्जा प्रदान कर रही थी कि हम पुरोधा साहित्यकार की कुटिया के सम्मुख ,यहाँ काव्य पाठ कर रहे हैं। अध्भुत रस बह रहा था ,जिसमे सभी सारोबार हो रहे थे। तभी वक्त के अहसास के साथ सभी उठ खड़े हुए और एक दूसरे की रचना पर चर्चा करते हम  होटल लौट आये।

लेकिन मैं और मेरे पति चाय पीकर संध्या के समय छावनी की तरफ पैदल निकल गए ,जो हर्षिल की सीमा रेखा ‘भागीरथी नदी ‘के निकट ही थी।’क्रिस्टल ‘यानी पारदर्शी  साफ़ स्वच्छ जल की धारा लिए यहाँ भागीरथी का सौम्य और शालीन बहाव था ,जिसके साथ ही पीछे की तरफ सेना की छावनी बनी हुई थी। पता लगा कि यहाँ चीन का बॉर्डर पास होने के कारण ‘ गढ़वाल स्काउट्स ‘ एवं ‘इंडो तिब्बतन बॉर्डर पुलिस ‘ के बेस कैंप बने हुए हैं। उन्ही के बीचोबीच एक पथरीली पटरी पर चलते हुए हमने वहां एक डिस्पेंसरी भी देखी ,जहाँ इस समय केवल एक चौकीदार था। मेरे पति के पूछने पर उसने बताया कि यहाँ डॉक्टर भी नियुक्त हैं ,जो यहां से दो किलोमीटर दूर धराली गाँव में निवास करते है।और रोज सुबह से शाम तक  यही मिल्ट्री डिस्पेन्सरी में रहते है। लेकिन एमरजेंसी सर्विस के लिए दूर तक कोई अस्पताल नहीं है। और ऐसे में उत्तरकाशी ही जाना पड़ता है।आसपास ज्यादतर टेंट्स के कैंप ही लगे हुए थे ,कहीं – कहीं बकरियां बंधी हुई थी ,सम्भवतः यहाँ दूध की पूर्ति इनसे होती होगी। अँधेरा घिरता देख हम लोग लौट आये। चूँकि अगले दिन हमें नाश्ते के बाद हरिद्वार लौटना था इसीलिए सुबह ही हमने सैर  के बहाने यहाँ आस -पास घूमना तय किया। एक तो मैं मुखबा ग्राम देखना चाहती थी ,जहाँ  दिवाली के बाद देवी गंगा की मूरत यहाँ उनके मायके में लाई जाती है। इस बीच शीत  ऋतू में गंगोत्री धाम के कपाट बंद होने से यहीं गंगा देवी की  आराधना  होती है और फिर सर्दियां समाप्त होने के बाद गाँववासियों  द्वारा गाजे -बाजे के साथ डोली  में विदा किया जाता है।फिर  ज्येष्ठ मास  में गंगा दसहरा के अवसर गंगा के पृथ्वी अवतरण के उत्सव पर उ त्तराखंड के सभी  निवासी गंगोत्री धाम जाते हैं।मुझे याद आया कि तीन दिन बाद ही गंगा दसहरा है , सम्भवतः इसीलिए रास्ते में हमें स्थानीय  निवासियों का हुजूम गाते -बजाते गंगोत्री की तरफ जाते हुए नजर आया था।

दूसरे  मुखबा गाँव से ही ब्रिटिश  भगोड़े  सेनानी फ्रेडरिक विल्सन की कहानी  जुडी हुई है,जिसमे  अपने विश्वस्त मुलाजिम मंगतू चंद की ख़ूबसूरत कन्या ‘रैताला ‘से उसने विवाह किया था। किन्तु संतान न होने पर उसने मंगतू की ही बहन गुलाबी से दूसरा विवाह किया ,जिससे उसके तीन बच्चे पैदा हुएथे । किन्ही कारणों से सन १८५७ ईस्वी में फ़ौज से निष्कासित हो ,वह बचता छिपता दुर्गम पहाड़ी  रास्ते से यहाँ गढ़वाल पहुंचा था। और फिर वह हर्षिल में ही निवास करते हुए इतना शक्तिशाली बन गया था कि  उसने अपनी अलग मुद्रा यानी ताम्बे के सिक्के बनवा लिए थे  ,जो स्थानीय स्तर पर प्रयोग में भी आने लगे थे। ‘पहाड़ी राजा ‘और ‘हुलसिन साहेब ‘के नाम से विख्यात विल्सन ने जल्द ही  सं १८६४ में यहाँ अपनी कॉटेज बना ली थी किन्तु वह १९९९ में जलकर ख़ाक हो गयी। इतने प्रभुत्वशाली व्यक्ति के धनी विलसन ने ही सेब और राजमा तथा आलू  की  फसल की तकनीक  यहाँ के निवासियों को मुहैया कराई। लेकिन यहाँ के सारे जंगलो को काटने   के साथ ही पशुओं की खाल एवं कस्तूरी इत्यादि का भी उसने व्यवसाय  किया। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के प्रयोग से  वह भागीरथी नदी के बहाव के साथ सारी साल की लकड़ी को   हरिद्वार तक भेज देता और फिर उसके आदमी  उन्हें एकत्रित कर  सरकार को बेच देते थे। उसी लकड़ी के ‘स्लैब्स ‘उस समय बन रही भारतीय रेल की पटरियों में लगाईं गयी। अंततः वह इतना शक्तिशाली हो गया था की टिहरी के नरेश भवानी शाह का भी उस पर नियंत्रण न रहा। यह भी जानकारी हासिल हुई कि  मंसूरी में उसने ‘ चार्ली विला ‘नामक होटल बनाया था ,जिसमे आजकल भारतीय प्रशासनिक सेवा की ट्रेनिंग के लिए लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी है। मसूरी में ही उसकी कब्र है और वहां रह रहे अंग्रेज लेखक रस्किन बांड उसके जीवन पर किताब लिखना चाहते थे ,किन्तु पर्याप्त जानकारी उपलब्ध न होने से वह अधूरी रह गयी।

इसीलिए अगली सुबह जल्दी ही हम मुखबा गाँव के पहाड़ी रास्ते की ओर चल दिए।बिलकुल कच्चे पथरीले पथ पर संभल संभल कर चलते हुए हम  गोल -गोल घूम रहे थे और पहांड़ों का  चिरपरिचित कोहरा और किसी भी आदमी की आवा -जावी न होने से शून्य सा माहौल लग  रहा था। हमें बार बार यह महसूस हो रहा था की कहीं हम गलत दिशा में तो नहीं जा रहे। फिर सोचा कि अगर सही नहीं हुआ तो वापिस लौट आएंगे ,पहाड़ पर सैर ही सही। लेकिन लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद हम रास्ते के जिस मुहाने पर पहुंचे ,वहां से नीचे न केवल गंगा की धारा  दिखी ,बल्कि उसके दूसरी तरफ ‘हैली पेड ‘बना हुआ नजर आया।चारो धाम पर जाने वाले हैलीकॉप्टर इसी प्राइवेट हैली पैड से उड़ान भरते हैं ,जो कि नदी के समीप ही  तलहटी  में बना हुआ था। इसके साथ ही उगते हुए सूरज की सुनहरी किरणों का प्रतिबिम्ब भी हमें नीचे पानी पर पड़ता हुआ नजर आया। लेकिन आसमान का सूर्य अभी पहाड़ के पीछे हमारी आँखों से ओझल था। तभी लकड़ी के बने अत्यंत प्राचीन पहाड़ी घर नजर आये और  जागते हुए इंसानो की चहल -पहल  और उन का स्वर भी सुनाई देने लगा। ये घर सारे पुराने और सिर्फ लकड़ी से बने हुए थे ,जिसमे जोड़ने के लिए कीलों का नहीं ,लकड़ी की ही पतली खपच्चियों का इस्तेमाल किया गया था और ढंड और बर्फ में  ये घर गर्म रहते हैं। पहाड़ की ढलाव पर सीढ़ीदार खेत बने हुए थे ,जिनकी बॉउंड्री पर पेड़ों  के साथ पत्थर की दीवार बनी हुई थी। किसी राहगीर से पूछने पर पता लगा कि मुखबा  गाँव यहाँ से अभी काफी दूर है तथा रास्ते में ‘लैंड स्लाइड ‘यानी भू स्खलन होने से रास्ता भी बंद है।सम्भवतः  इसीलिए यह  रास्ता इतना सुनसान हो रहा है और अब हमारा वहां जाना भी मुश्किल है ,यह सोच हम वापिस लौट आये।

वहां से लौटते हुए मैं कुख्यात और विख्यात दोनों शब्दों पर गौर करने के साथ इस क्षेत्र से जुड़े दो व्यक्तियों के विषय में भी चिंतन कर रही थी। पहाड़ी राजा का तो नामोनिशाँ न रहा  था वहां ,किन्तु जो  व्यक्ति तिब्बत से खच्चरों की पीठ पर लाद कर बौद्ध धर्म की पाली में लिखित पुस्तके लाया था। वे न जाने कितनी अमूल्य धरोहर थी ,जिन के अध्ययन के  लिए उन्होंने पाली भाषा सीखी और भारत में पुनः बौद्ध धर्म की विस्तृत जानकारी उपलब्ध  करवाई। वास्तव में मध्यकाल में नालंदा के पुस्तकालय में लगाई आग से  यहाँ का ज्ञान कोष पूरा  विनष्ट हो चूका था और नालंदा के ही बहुत से भिक्षु अपने साथ पुस्तकों को लेकर एशिया के अन्य देशो में चले गए थे। इसी कारण घुमक्कड़ी प्रवृति के श्री राहुल सांस्कृत्यायन जी चार  बार तिब्बत गए और जो जानकारी भारतीय  पटल से लुप्त हो गयी थी ,उसे साहित्यिक जगत के सम्मुख पुनः प्रकशित किया। चाहे वह बौद्ध धर्म के विषय में हो या कि लुप्त सरस्वती नदी के बारे में। छत्तीस भाषाओ के जानकार इस इतिहासविद और बौद्ध धर्म के ज्ञाता और प्रकांड पंडित को बाद में काशी पंडितों ने ‘महापंडित ‘की उपाधि दी।  एक तरह से हमारा वहां जाना और काव्यगोष्ठी करना  ,वहां ‘महापंडित ‘ जी के प्रति भी हमारा पूज्य भाव ही था।मैं यह भी सोच रही थी कि अगर पर्यटन की दृष्टि से यहाँ विकास हो तो ?क्या सचमुच यह स्विट्जरलैंड को भी मात दे देगा या फिर कुछ और ही हो जायेगा ?।  यधपि विकास के नाम पर हरसिल वही पौराणिक ग्राम है, किन्तु आज जिस ‘रेड डिलिशिस ‘या गोल्डन डिलिशिस ‘सेब की मांग देश -विदेशों में है ,उस मशहूर सेब की पहली पौध अंग्रेजी सेना छोड़ने वाले भगोड़े विलसन द्वारा ही लगाईं गयी थी।

A 1/7 मीनावली नगर,

पश्चिम विहार,

दिल्ली -110087