सीख
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“मां जल्दी आइए , वह देखिए, ये रस्सी पर क्या टंगा है?” उर्वि ने कहा। ” वो तो एक घोंसला है।” मां बोली
पर मां एक रस्सी के सहारे कैसे बना लिया ये घोंसला चिड़िया ने ? और इतना सारा सामान कहां से लाई ? क्या इसे घोंसला गिरने का डर नहीं है?
“थोड़ी देर बैठ कर घोंसले को और चिड़िया को गौर से देखो , प्रश्न के उत्तर तुम्हें मिल जाएंगे।” मां ने कहा। चिड़िया तिनका लेकर आई और घोंसले में गूंथ दिया। फिर कुछ देर बाद धागे का टुकड़ा, चिंदी, पत्तियां आदि सामान लाती रही। कभी जल्दी लौट आती और कभी बहुत देर से लौटती। कई बार तिनका गूंथते समय गिर जाता। फिर उठाती फिर उसे घोंसले में लगाती। उर्वि कौतूहल से देखती रही।
कुछ सोच कर दौड़ते हुए स्टडी टेबल पर लौटी , जहां वो एक चित्र अधूर छोड़ कर गई थी जो सुबह उससे नहीं बन पा रहा था। फिर से बनाने में जुट गई। रेखाएं बनाती, फिर मिटाती , छवि को आकार देती ।
अब चित्र का स्वरूप निखरने लगा था।
मेरी कविता
बसंत के गीत
औरतों की जिंदगी में, नही आता बसंत,
मन में सपनों को, नही जगाता बसंत.
खूनी आँखों से जल ,जाता है बसंत,
दु :शासनों से बहुत, घबराता है बसंत.
गौरी खेतों में , जाने से डरती है,
उसकी पायल भी, नही छनकती है.
नदिया सी भी अब, नही खिलखिलाती है,
हवा सी भी वो बल, नही खाती है.
बालों के गजरे को, वो छुपाती है,
आँखों के कजरे को भी ,वो मिटाती है.
घूरती आँखों से, लगता है उसको डर.
औरतों की जिंदगी में, अब नही आता बसंत.
ना कचनार तन में,दहकते हैं,
ना गुलमोहर ही, मन में महकते हैं.
अमवा भी मन को , नही भाता है,
टेसू भी अब ,आँखें चुराता है.
पनघट पर गौरी ,अब नही जाती है,
प्यार के गीत भी नही, गुनगुनाती है.
दहशतगर्दों से लगता है, उसको डर,
औरतों की जिंदगी में,अब नही आता बसंत.
रंगों से भी वह, बहुत कतराती है,
उसमें भी खून ,वो बतलाती है.
बच्चों की चीखों से ,दहल जाती है,
रातों को नींदों से, उठ जाती है.
छलती भाषा, लोलुप दृष्टि से, लगता है डर,
बड़ा लफंगा सा आजकल, हो गया है बसंत.
औरतों के आँखों में ,सपने नही जगाता बसंत,
औरतों की जिंदगी में, अब नही आता बसंत,
फूलों के अक्षर, गंध के निवेदन,
कही खो से गये है.
प्रेम की भाषा, मौन की अभिलाषा,
सब सो से गये हैं.
दौड़ती भागती सी कितनी ,
औरतों की जिंदगी हो गयी है.
नौकरी, गृहस्थी के बीच में ही,
औरतें बिखर सी गयी है.
सूखे पत्तों से सपने, आँखों से झर रहे हैं.
रस, रूप, गंध, जीवन में,खो से गये हैं.
मन की बातें भी, अब नही बताता है बसंत,
औरतों की जिंदगी में, अब नही आता बसंत.
मेट्रो सी जिंदगी, औरतों की, हो सी गयी हैं,
रिश्तों की खुशबूँ, कही खो सी गयी हैं.
जिंदगी जाने कितने, मोड़ मुड़ रही है,
उम्र की तितलियाँ,हाथों को छोड़ रही हैं,
चिड़ियाँ की चहचहाट, जंगल में ही छूट गयी है,
माल रेस्रा के शौक में,जिंदगी खुद को भूल गयी है.
दिल का दरवाजा भी, अब नही खटखटाता बसंत,
कैलेंडर की तारीखों में ही, नजर आता है बसंत.
ये स्वरचित, मौलिक रचना है।
राजेश्वरी जोशी,
उत्तराखंड
की जिंदगी में अब नही आता बसंत