सिनेमाई मनोरंजन से विदेशों में हिंदी का विस्तार

डॉ. कुमार भास्कर

एसोसिएट प्रोफेसर

हिंदी विभाग

शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली

ईमेल-Kumarbhaskar2008@gmail.com

मोबाइल-9312154532

सारांश

विदेशों में हिंदी सिनेमा के विस्तार और आकर्षण में गीत-संगीत की बड़ी भूमिका रही है। सिनेमा में कला का यह पक्ष, विदेशी समाज को एक अलग नजरिये से भारतीय हिंदी सिनेमा के प्रति सदैव आकर्षित करता रहा है। सोशल मीडिया के इस नए दौर में कलात्मक अभिव्यक्ति के, कई सारे आयामों की नवीन अभिव्यक्ति निरंतर देखने को मिल रही है।  आजकल अभिव्यक्ति का पॉपुलर मंच यूट्यूब है। जिस पर नृत्य और संगीत के कार्यक्रम का आकर्षण बहुत देखने को मिल रहा है। इस भूमंडलीय संचार की संस्कृति में, सिनेमा ने भाषा को लेकर, अनजाने में ही सही लेकिन हिंदी भाषा की पहुंच को विस्तारित करने में अपनी भूमिका अदा की है। निःसंदेह सवाल भाषा की गरिमा और पॉपुलर अभिव्यक्ति के बीच भाषा के स्वरूप का भी है।

बीज शब्द भूमंडलीकरण, सोशल मीडिया, संचार ,संस्कृति, मनोरंजन, भाषा, कला इत्यादि।

शोध आलेख

इतिहास पढें तो मालूम होता है कि भाषा के बनने, बदलने और उसके विस्तार में सत्ता,धर्म और व्यापार की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हिंदी में बहुत सारे शब्द अंग्रेजी ,फ्रेंच ,पुर्तगाली ,यूनानी,चीनी,अरबी-फारसी इत्यादि शामिल हैं। एक दौर था जब धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए दूर-दूर तक जाते थे। भाषा भी उस धर्म प्रचार के भ्रमण में, साथ थी। धार्मिक प्रचार के लिए, अंग्रेजों ने भी बाइबल का हिंदी में अनुवाद कराया था । आज 21वीं सदी में धर्म तो अपनी जगह मौजूद है, लेकिन अब उसका प्रभाव क्षेत्र, मास मीडिया के माध्यम से ज्यादा विस्तारित हो गया है और यह मास मीडिया भूमंडलीकरण के बाद राजनीति और व्यापार के मद्देनजर संचालित होता है। सत्ता और व्यापार, भाषा और संस्कृति को जोड़कर एक नया रूप दे देती है। उर्दू उसी में से एक है। जब हम भाषा के विस्तार में सुनियोजित प्रयास की बात करते हैं, तो  उसके लिए जो कोशिश की जाती है, उसमें सरकारी और अकादमिक तरीकों को अपनाया जाता है। लेकिन भाषा का संबंध सर्वप्रथम सामाजिक है उसके पश्चात किताबी है। भारत में जब हिंदी नाटकों की शुरुआत हुई, तो उस दौर में हम आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र उस लड़ाई को साहित्यिक जमीन पर अपनी जिम्मेदार भूमिका के साथ निभा रहे थे। उन्होंने जनता तक अपनी आवाज और विचार पहुंचाने के लिए सरल, खड़ीबोली हिंदी को चुना और साथ ही साथ नाटकों को हास्य-व्यंग के माध्यम से प्रस्तुत किया। ताकि लोग उसमें रुचि भी ले सकें। उस दौर में पारसी थियेटर जिस प्रकार का मनोरंजन पेश कर रहे थे, उसमें रोमांस और फैंटेसी की मौजूदगी थी। जिसकी प्रसिद्धि ठीक-ठाक थी। ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद्र, जिनके लिए सामाजिक और देश के मुद्दे तो महत्वपूर्ण थे हीं और उनके समक्ष पारसी थियेटर भी एक बड़ी चुनौती थे। जिसके मनोरंजन का आकर्षण लोगों में ज्यादा था। भाषा के नजरिए से पारसी थियेटर और भारतेंदु दोनों की भूमिका कहीं से कमतर नहीं की जा सकती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटकों में हम देखें तो,बीच-बीच में वह गीतों के माध्यम से भी अपने विचार को एक रागात्मक रूप देने की कोशिश करते हैं। हम कह सकते हैं की भारतेंदु मनोरंजन का सार्थक इस्तेमाल करते हैं। जो पारसी थिएटर के मुकाबले अपनी एक जगह बनाता है। जब भी सामाजिक-राजनैतिक जिम्मेदारी की बात आएगी तो वहाँ भारतेंदु का नाम बड़े सम्मान से लिया जाएगा।

किसी विधा में गीत-संगीत जुड़ जाए तो उसके प्रति आकर्षण मनोवैज्ञानिक तौर पर बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें मनोरंजन की रागात्मक अभिव्यक्ति हो जाती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिंदी के अलावा पंजाबी, हरियाणवी ,भोजपुरी ,पहाड़ी इत्यादि जो हिंदी क्षेत्र से जुड़े हुए अन्य बोली और भाषाएं हैं। इन भाषाओं के क्षेत्रीय गीत-संगीत पूरे प्रसिद्धि से कायम है। संगीत की रागात्मक अभिव्यक्ति किसी भी तरह की भाषा, क्षेत्रीयता की बाधा को पार कर जाती है। इसलिए भोजपुरी के गाने  मध्यप्रदेश में, हरियाणवी गाने को बिहार में ,पंजाबी गाने को राजस्थान  इत्यादि में शादी-ब्याह या किसी भी अन्य समारोह में सुने जा सकते हैं। यह मनोरंजन का स्वाद ही है जो किसी अन्य भाषा को दूसरे की जिह्वा पर आराम से पहुँचा देता है। यह कला की मनोवैज्ञानिकता है। मनोरंजन का भाषाई विस्तार भूमंडलीकरण के बाद और तेजी से फैलता है। खासकर विदेशों में भाषा की उपस्थिति को लेकर एक नई उड़ान मिल जाती है।

विदेशों में हिंदी फ़िल्म

भूमंडलीकरण के बाद विदेशों में भी हिंदी फिल्मों को वहाँ के सिनेमाघरों में स्क्रीन उपलब्ध हो जाता है। जिसकी वजह से व्यापार तो फैलता ही है, उसके साथ भाषा भी। दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अनुसार “बॉलीवुड की फिल्में आजकल न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी दिखाई जाती है। बॉलीवुड के फैन दुनिया में हर जगह हैं, ऐसे में कई सारी फिल्में है जो दुनियाभर में पसंद की जाती है। बॉलीवुड के कुछ स्टार ऐसे हैं जिन्हें वर्ल्डवाइड बेहद पसंद किया जाता है..”*1

विदेशों में हिंदी फिल्मों के प्रति लगाव इस दौर में और भी बढ़ गया है। इसकी वजह प्रवासी भारतीयों की बढ़ती हुई संख्या तो है ही, साथ हीं  विदेशी लोगों में भारतीय फिल्मों को लेकर पैदा हुई रूचि भी है। हिंदी फिल्मों के गीत-संगीत ,नृत्य और कलाकारों को लेकर एक दर्शक वर्ग विदेशों में भी मौजूद है, जो लगातार उसको देखता है और फॉलो करता है। एक दौर में यह मुकाम राजकपूर ने अपनी फिल्मों से हासिल किया था। उनकी फिल्मों को कुछ देशों में, खासकर रसिया में काफी पसंद की जाती थी। उनके फिल्मों के गीत पर रसियन बच्चों ने प्रदर्शन किया था ।

कलाकारों को लेकर के जब एक दर्शक वर्ग, फैन फॉलोइंग की तरफ बढ़ जाता है तो, उस कलाकार की भाषा भी उन दर्शकों से जुड़ी जाती है। “यही वजह है कि चाइना में आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ ने बॉक्स ऑफिस पर बहुत जबरदस्त कमाई की, कुछ इसी तरह का कमाल ‘बाहुबली’ ने भी किया। पोलैंड में सलमान खान को काफी पसंद किया जाता है और पोलैंड के लोग बॉलीवुड म्यूजिक और नृत्य के दीवाने हैं। इजिप्ट में हिंदी फिल्मों के प्रति इतनी दीवानगी है जिसकी वजह से वहाँ की लोकल फिल्म को नुकसान होने लगा था। इस कारण से कुछ समय के लिए वहाँ की सरकार ने हिंदी फिल्मों को बैन कर दिया था, ताकि उनकी अपनी फिल्में चल सके। बाद में स्वयं इस बैन को उन्होंने उठा लिया था। ताइवान में आमिर खान काफी प्रसिद्ध है। उनकी फिल्में 3इडियट, पीके, दंगल इन सब को काफी पसंद किया गया। पेरू, ब्राजील, कोलंबिया में शाहरुख खान की फिल्में बहुत पसंद की जाती है। विशेष तौर पर जर्मनी में शाहरुख खान की फिल्म  ‘कभी खुशी,कभी गम’ की वजह से काफी फैन फॉलोइंग बढ़ी थी”।*2 

फ़िल्म मदर इंडिया के ऑस्कर नॉमिनेशन से हिंदी फिल्मों के प्रति विश्व की निगाह मुड़ती है। अब एक नया दौर है जिसमें चीजें तेजी से बदल रही है। भूमंडलीकरण के शुरुआती दौर में विदेशी फिल्मों का आग्रह हिंदुस्तान में काफी बढ़ गया था। विदेशी फिल्मों का हिंदी और अन्य भाषा में अनुवाद तेजी से होने लगा, जो आज भी जारी है। लेकिन हिंदी फिल्मों का भी अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद और सबटाइटल अब होने लगा है। यही वजह है कि  सन 2000 से लंदन में आईफा अवार्ड (अंतरराष्ट्रीय भारतीय फिल्म अकादमी पुरस्कार) की शुरुआत की गई । विदेशों में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता और व्यापार दोनों की मिलीजुली भूमिका से इस तरह के कार्यक्रम की नींव रखी गई। विदेशों में जाकर लाखों भारतीय और गैर-भारतीय लोगों के बीच हिंदी भाषा में आयोजन करना और उस आयोजन से लोगों का मनोरंजन होना, यह हिंदी के लिए भी गौरव की बात है। इसके साथ हिंदी भाषा के माध्यम से संस्कृति का भी प्रसार है। हिंदी फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता की वजह से आज भारतीय हिंदी सिनेमा में विदेशों के कई कलाकार हिंदी सीख कर अपना मुकाम हासिल कर रहे हैं। जिनमें से जैकलिन फर्नांडिस (श्रीलंका), नोरा फतेही (मोरक्को), कैटरीना कैफ (ब्रितानी हांगकांग), बॉब क्रिस्टो (ऑस्ट्रेलिया), एली एवराम (स्वीडिश ग्रीक) इत्यादि प्रसिद्ध विदेशी कलाकार काम कर रहे हैं। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि हिंदी सिनेमा विश्व बाजार में अपनी एक भूमिका रखता है। जिसकी वजह से सिर्फ एशिया नहीं अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों से आए कलाकार भी अपने लिए काम ढूंढ रहे हैं। हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत ने विदेशों में एक अलग प्रभाव छोड़ा है, जिसके कारण हिंदी भाषा के विस्तार में मदद मिली है। फिल्म ‘रॉ वन’ में अमेरिकी गायक ‘एकॉन'(AKON) ने हिंदी गाना “छम्मक छल्लो” गाया था। जो बहुत प्रसिद्ध भी हुआ। इसके अलावा कुछ और भी उदाहरण है, जिसे विदेशी गायकों ने गाया है। Scroll.in*3 के रिपोर्ट के अनुसार:- pascal heni,फ्रांस, उन्होंने फिल्म ‘बॉबी’ का गाना “मैं शायर तो नहीं” गाया, Natalie di Luccio, कनाडा ने फिल्म ‘जो जीता वही सिकंदर’ से “पहला नशा” गाया था। LuoPing,ताइवान ने फिल्म ‘रब ने बना दी जोड़ी’ से “तुझमें रब दिखता है” गाना गाया। Angelique Kidjo,बेनिन, ने फिल्म ‘आन’ का “दिल में छुपा के प्यार का तूफान ले चले” गाया। ऐसे कई गायकों ने या तो अपने एल्बम में हिंदी गाने शामिल किए या कहीं न कहीं परफॉर्म किया । दूसरी ओर ‘ए आर रहमान’ और ना जाने कितने भारतीय गायकों ने विदेशों में हिंदी संगीत के लिए एक जगह बनाई, एक दर्शक तैयार किया। इससे एक ऐसा फ्यूजन तैयार हुआ, जिसने हिंदी को मनोरंजन के माध्यम से एक वैश्विक प्रसिद्धि और पहचान दिलाई है। इसी वर्ष की बात है। हिंदुस्तान अखबार*4 के रिपोर्ट के अनुसार, जब विदेश मंत्री एस जयशंकर इजराइल दौरे पर गए हुए थे तो वहां एक कार्यक्रम में एक स्थानीय लड़की ने हिंदी सिनेमा के गाने को गाकर सभी को अचंभित कर दिया। इजराइल की दृष्टिबाधित लड़की ने “हर घड़ी बदल रही है” और “तुम पास आए यूं मुस्कुराए” गाने सुनाएं। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि दूसरे देश में हमारे राजनायिकों का स्वागत करने के लिए, हमारी भाषा का इस्तेमाल किया गया है। डॉ. गंगा प्रसाद विमल लिखते हैं की “विश्वमानस को हिंदी का स्वाद हिंदी फिल्मी गीतों द्वारा हुआ है। जैसे-जैसे हिंदी फिल्में और हिंदी गीत भारतीय संगीत के जादुई स्पर्श से लोक प्रसार पाता है हिंदी की उच्चारणगत ध्वनिपरक जानकारी विदेशी भाषियों के पास पहुँचती है। वे भले ही व्यापक रूप से भाषा जानने की ओर न आते हों किंतु फिल्म या समानरूप माध्यम द्वारा प्राप्त जानकारी उनकी पद्धति का हिस्सा बनती है, वह स्मृति ठीक भारतीय डायस्पोरिक स्मृति की तरह है जो भारतीयों में आनुष्ठानिक आचरणों में क्रियान्वित दिखती है वहीं गैर भारतीयों में भारत को जानने की प्रेरक वृत्ति बन उन्हें भारतीय प्रदर्शनवाची कलाओं की ओर आकर्षित करती है।”*5

विद्वानों में मतभेद हो सकता है कि किस तरह की हिंदी को हम पूरे विश्व के पटल पर देखना चाहते हैं। मगर यह मसला इतना सरल नहीं है। हम भूमंडलीकृत समय में जी रहे हैं। जहाँ चीजें बहुत तेजी से घुलमिल रही है। जिसमें भोजन,पहनावे के अलावा भाषा भी है। ऐसा नहीं है कि यह मिलावट भूमंडलीकरण के बाद ही हुआ है। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में, सूचना क्रांति की वजह से यह विस्तार ज्यादा गहरा और तीव्र गति से हुआ है। सिनेमा की जिम्मेदारी भाषा के प्रसार में सीधे तौर पर तो नहीं है, लेकिन भाषा के प्रसार में व्यापारिक रूप से ही सही, हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता का फायदा भाषा को जरूर मिला है। भाषा के साम्राज्य में अंग्रेजी का आधिपत्य है। उस आधिपत्य में बाजार, राजनीति ,शिक्षा के अलावा मनोरंजन भी शामिल है। ऐसे में हिंदी भाषा को सम्मान दिलाने में सिनेमा का योगदान भी सराहनीय है। यह अलग बात हो सकती है कि फिल्मी कलाकार अपनी निजी जिंदगी में अंग्रेजीपरस्त हो सकते हैं। लेकिन फिल्म जब रिलीज हो जाती है तो वह उस कलाकार के निजीपन से नहीं,बल्कि उसके काल्पनिक चरित्र से पहचानी जाती है। तुलसीदास संस्कृत के ज्ञाता थे, लेकिन अवधि रचित रामचरितमानस उनकी पहचान है।

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 भारत की राष्ट्रीयता को वैश्विक मंच पर रखने के लिए अकादमिक,खेल,राजनीति इत्यादि के माध्यम से निरंतर प्रयास किये हीं जाते हैं। सिनेमा भी इस प्रयास को अपने तरीके से आगे बढ़ाता है। जितनी भूमिका भाषा को लेकर पत्र-पत्रिकाओं की रही है, इससे इतर  हिन्दी सिनेमा को उससे कमतर नहीं आंका जा सकता है। भाषा का सरल और पॉपुलर रूप ही अपनी जगह जल्दी और व्यापक बना पाता है, वनिस्पत भाषा के कठिन रूप से। हिंदी का लचीलापन ही उसकी ताकत है। जिसकी वजह से वह स्थितियों के अनुरूप अपने को ढ़ाल लेती है। आज के दौर में हिन्दी का हिंग्लिश रूप लोकप्रिय रूपों में से एक है। उसको हम साहित्यिक स्वीकृति तो नहीं दे सकते हैं, लेकिन उसकी सरलता की वजह से वह एक संभावना को जन्म देती है। सिनेमा के जानकार जबरीमल्ल पारख कहते हैं “पारसी थियेटर ने हिन्दी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोल-चाल की एक ऐसी भाषा की परंपरा स्थापित की जो हिन्दी और उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना गया। यह भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी। हिन्दी सिनेमा ने आरम्भ से ही भाषा के इसी रूप को अपनाया। इस भाषा ने ही हिन्दी सिनेमा को गैर हिन्दी भाषी दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाया। यह द्रष्टव्य है कि भाषा का यह आदर्श उस दौर में न हिंदी वालों ने अपनाया उर्दू वालों ने। साहित्य की दुनिया में इसे प्रेमचंद ने ही न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इस भाषा का रचनात्मक और कलात्मक परिष्कार भी किया। बाद में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन ने भाषा के इस आदर्श को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया और उसका विकास भी किया। लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना जरूरी है कि हिन्दी-उर्दू सिनेमा का भाषायी आदर्श इसी पारसी थियेटर की परंपरा का विस्तार था और इसी वजह से जिसे आज हिन्दी सिनेमा के नाम से जाना जाता है उसे दरअसल हिन्दुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना चाहिए।”(समयांतर,जुलाई 2012)*6

जो भाषा अपने आप को समय के अनुकूल नहीं बदलेगी उसके खत्म होने की संभावना निरंतर बढ़ती चली जाएगी। हिंदी उन भाषाओं में से है जिसने अपने भीतर दुनिया के तमाम शब्दों को जगह दिया है, साथ ही वह समय के अनुकूल लगातार अपने आप को बदलती रही है। हिंदी सिनेमा की यह शक्ति रही है कि उसने अपने मनोरंजन के माध्यम से हिंदी के कई कठिन और साहित्यिक शब्दों को विदेशी दर्शकों के बीच उनकी शब्दावली का हिस्सा बना रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है की हिंदी सिनेमा के कई गीत और पटकथा इस तरह के हैं जिसमें भाषा अपने हिंदीपन और साहित्यिक शब्दावलियों के साथ मौजूद है जो विदेशों में प्रसिद्ध भी हुई है। तो ऐसा हम नहीं कह सकते की हिंदी सिनेमा भाषा के किसी एकांगी रूप को लेकर चलता है। ‘HAVAS GURUHI’ उज्बेकिस्तान का एक लोकप्रिय म्यूजिकल ग्रुप है जो हिंदी फिल्मों के गाना गाने के लिए जाना जाता है। जिसने भारत के रियलिटी शो में भी अपना प्रदर्शन किया है। बगैर हिंदी फिल्मों के इस तरह के म्यूजिकल ग्रुप का होना, जो हिंदी में गाना गाते हैं, ऐसी संभावना कम होती। आजकल नार्वे का एक डांस ग्रुप “क्विक स्टाइल” सोशल मीडिया पर काफी प्रसिद्ध है,जो हिंदी गानों पर अपने डांस के प्रदर्शन से भी जाने जाते हैं।

 फ़्लैश मॉब का एक नया कल्चर इस दौर में पैदा हुआ है। जिसमें किसी भी गाने पर, अचानक पब्लिक प्लेस में कई लोग नृत्य /संगीत का कार्यक्रम करते हैं। हिंदी गानों को लेकर भी कई देशों में, चाहे वह ऑस्ट्रेलिया ,रसिया ,अमेरिका, जर्मनी इत्यादि हो। वहाँ पर भी इस तरह के फ्लैश मॉब, हिंदी गानों पर किया गया है। जिसमें वहाँ के लोग भी इसमें शामिल हैं। इनसे संबंधित वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। जो दर्शाता है कि समय के साथ हिंदी भाषा नई तरह की विधाओं से अपना तालमेल बना रही है। सबसे अच्छी बात यह है कि वह विदेशों के युवाओं को बहुत भा रही है। किसी भी भाषा के लिए यह जरूरी है कि वह आने वाली पीढ़ियों के साथ अपना एक संबंध स्थापित कर सके, चाहे वह मनोरंजन के बहाने ही क्यों न हो। हिंदी का यह संबंध वैश्विक स्तर पर फैलता जा रहा है। मनोरंजन के माध्यम से हिन्दी भाषा का यह विविधतापूर्ण विस्तार, तकनीक और नये विधाओं की समझ से लैस हो कर, लगातार आगे बढ़ रही है।

संदर्भ सूची:-

  1. Jagran.com., दंगल से रईस तक, इन 5 फिल्मों ने भारत से ज्यादा विदेशों में की कमाई, blog,11 dec 2017.
  2. Bookmyshow.com, सुकृति होरा,30अप्रैल2018.
  3. Scroll.in, मृदुला चारी,31 जनवरी,2015.
  4. Livehindustan.com, गौरव काला,18 अक्टूबर 2021.
  5. पृष्ठ-43, विश्व बाजार में हिंदी,संपादक द्वय-महिपाल सिंह और देवेंद्र मिश्र, ब्रह्म प्रकाशन, संस्करण-2010,दिल्ली ।
  6. www.lokmanch.in, सिनेमा की भाषा, लोकमंच पत्रिका, अरुण कुमार।