सामाजिक उत्तरदायित्व के बदलते स्वरूप

आशुतोष पाण्डेय

सारांश

सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यापक शब्द है जिसका प्रयोग आदिकाल से किसी न किसी रूप में किया जाता रहा है। अतीत काल में मानव ख़ानाबदोश जीवन व्यतीत करके अपना जीवन-यापन करता था, लेकिन जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ सामाजिक उत्तरदायित्व के स्वरूप में भी बदलाव आने आरंभ हो गए। सामाजिक उत्तरदायित्व के जो स्वरूप आदिकाल, पशुचारण काल, कृषि काल और वैदिक काल में थे, वह वर्तमान समय में नहीं रहें, क्योंकि विगत काल में सामाजिक उत्तरदायित्व की ज़िम्मेदारी समाज के प्रत्येक व्यक्ति की थी और समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन समाज की आवश्यकता के अनुरूप करता था, लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद इसमें काफी बदलाव देखने को मिला। अतः इस काल में सामाजिक उत्तरदायित्व की ज़िम्मेदारी सिर्फ व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि कार्पोरेट जगत के लोगों की भी यह ज़िम्मेदारी हो गयी कि वह अपने लाभांश का कुछ हिस्सा समाज के विकास में खर्च करें। इस प्रकार 19वीं और 20वीं शताब्दी के दशक में इस अवधारणा का व्यापक स्तर पर विकास हुआ और सरकार तथा कार्पोरेट जगत मिलकर समाज के विकास में अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करने लगे। लेकिन इसके इतर 21वीं शताब्दी में सामाजिक उत्तरदायित्व के क्षेत्र में एक नई अवधारणा का विकास हुआ जिसे विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व के नाम से जाना गया।

मुख्य बिंदु – सामाजिक उत्तरदायित्व, कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व

शोध आलेख

सामाजिक उत्तरदायित्व के संदर्भ में समय, काल और परिस्थिति के अनुरूप अलग-अलग मत प्रचलित हैं। दर्शनिकों के अनुसार सामाजिक उत्तरदायित्व एक नैतिक ज़िम्मेदारी है और इसका पालन समाज के प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रूप में करनी होती है। सामाजिक उत्तरदायित्व दंड और जुर्माने से संबंधित है और यह ज़िम्मेदारी सचेतन मानव द्वारा किए गए कार्यों का हिस्सा है तथा जब कोई कार्य मानव द्वारा चेतन अवस्था में किया जाता है तब ऐसा कोई कार्य नहीं जिसके परिणाम के प्रति किसी अन्य को जिम्मेदार ठहराया जाए। सामाजिक उत्तरदायित्व व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक और नैतिक गुणों के विकास पर भी बल देता है। सामाजिक उत्तरदायित्व, चेतना और व्यावहारिक मूल्यों की एक श्रेणी है जो मानव अस्तित्व की पहचान कर उसके आर्थिक जीवन का विश्लेषण करती है। इस प्रकार उपर्युक्त अवधारणाओं से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक उत्तरदायित्व एक नैतिक ज़िम्मेदारी है जो प्रत्येक व्यक्ति को समाज में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देती है। चूंकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है और इस नाते उसका यह उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज द्वारा बनाए नियमों और मान्यताओं के अनुरूप ऐसा कार्य करें जिससे समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को विकास का समान अवसर प्राप्त हो। यहीं सामाजिक न्याय की भी अवधारणा है। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व का सरोकार व्यक्ति एवं समाज के उत्तरदायित्वों से है, क्योंकि व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती।

सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यापक शब्द है जो लोगों को बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देता है। लेकिन इसके संदर्भ में जब प्राचीन और नवीन अवधारणाओं को देखा जाए तो इसमें व्यापक बदलाव देखने को मिल रहें हैं। आदिकालीन मानव जब यायावर जीवन व्यतीत करता था तब वह छोटे-छोटे कबीलों में रहता था, पशुओं का शिकार करता था और किए गए शिकार का समूहिक वितरण प्रणाली द्वारा पूरे समूह को वितरित करता था। इस प्रकार व्यक्ति के अंदर अपने लोगों के प्रति समूहिता की भावना का विकास होना आरंभ हो गया। इतिहासकारों का मानना है कि इस काल में लोगों के अलग-अलग कार्य भी निर्धारित किए गए थे। जिसमें पुरुष का कार्य पशुओं का शिकार करना और महिलाएँ जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित कर भोजन संग्रह का कार्य करती थी। इस प्रकार आदिकालीन समाज में मानव का एक साथ समूह में रहना, समूह के साथ पशुओं का शिकार करना, शिकार का एक समान रूप से वितरण करना, कबीले द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करना और अपने-अपने कार्यों का ज़िम्मेदारी पूर्वक निर्वहन करना यह स्पष्ट रूप से बया करता है कि आदिकालीन समाज में मानव अपने कार्यों के प्रति कितना जिम्मेदार था। इस प्रकार मानव अनेक दहलीजों को पार करते हुए उद्यानिकी तथा चारावाही, कृषक, औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक समाज में पहुँच गया।

सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा को प्राचीन काल से लेकर उत्तर-औद्योगिक काल तक देखा जाए तो उसमें कई तरह बदलाव सामने आए हैं। आदिकाल से लेकर कृषक काल तक सामाजिक उत्तरदायित्व के तरीके लगभग एक जैसे थे। क्योंकि इसमें व्यक्ति का महत्व अधिक था और लोग एक दूसरे की सहायता मानवीय भावना से प्रेरित होकर करते थे। लेकिन औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक समाज में सामाजिक उत्तरदायित्व के मायने अलग दिखाई पड़ते हैं। इसमें मानव की जगह पूँजी को अधिक महत्व दिया जाने लगा और सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित जो कार्य व्यक्ति केंद्रित हुआ करते थे, वह अब संस्था और सरकार केंद्रित हो गए। चूँकि भारत एक विकासशील देश है और आजादी के इतने दशक बाद भी यहाँ गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति आदि तरह की अनेकों समस्याएँ व्याप्त हैं। इसे दूर करने के लिए सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं कई दशकों से प्रयासरत् है, लेकिन अभी भी इसका कोई समुचित समाधान नहीं मिल पाया है। सरकार अपने स्तर से इस प्रयास में है कि अधिक से अधिक लोगों को इस समस्या से मुक्त किया जाए। अतः बड़े पैमाने पर 1980 के दशक में सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपीनियों से यह अनुरोध किया कि वह अपने लाभांश का कुछ हिस्सा समाज के विकास पर खर्च करें। इस प्रकार यहीं से कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा का उदय हुआ और सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित जो कार्य व्यक्ति द्वारा किए जाते थे वह अब सरकार तथा कार्पोरेट घरानों द्वारा किए जाने लगे।

कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व एक नवीन अवधारणा है, जिस संदर्भ में विद्वानों का यह मानना है कि इसकी शुरुआत अमेरिकन उद्यमी एंड्रयूज कारनेगी के ‘द गस्पेल ऑफ वेल्थ’ (1989) पुस्तक से हुई मनी जाती है। इस पुस्तक में कारनेगी ने कहा कि किसी भी उद्यमी का उद्देश्य सिर्फ संपत्ति को एकत्रित करना नहीं है बल्कि उनकी यह नैतिक तथा सामाजिक ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा समाज के विकास हेतु खर्च करें। लेकिन कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि विश्व पटल पर CSR का उदय तब हुआ जब होवार्ड आर. बोवेन ने अपनी पुस्तक सोशल रिस्पोन्सिबिलिटी ऑफ बिजनेसमैन (1953) में व्यावसायिक नैतिकता के आधार पर अपनी बात को स्पष्ट करते हुए यह कहा कि ‘कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यावहारिक नैतिकता है जो तकनीकों, सेवाओं और समस्याओं के क्षेत्र में प्रयुक्त होती है। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व एक नवीन अवधारणा है और यह व्यवसायी को समाज में बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देता है। यह व्यवसाय के क्षेत्र में जहाँ एक तरफ शेयरधारकों के लाभ की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ मानवाधिकार, पर्यावरण सुरक्षा, मानव विकास समाज कल्याण आदि की भी बात करता है। इस तरह वैश्विक स्तर पर कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व का उदय हुआ।

कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के परिप्रेक्ष्य में यदि भारत की बात की जाए तो यहाँ इसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई मानी जाती है।इस दौरान उद्योग तथा व्यापार के क्षेत्र में जहाँ एक तरफ क्रांतिकारी परिवर्तन हुए वहीं दूसरी तरफ बड़े पैमाने पर बहुराष्ट्रीय कंपीनियों का भी उदय हुआ। इन कंपनियों के आगमन से न सिर्फ उद्योग जगत को बढ़ावा मिला बल्कि रोजगार के क्षेत्र में भी आशातीत परिवर्तन देखने को मिले। वहीं सामाजिक विकास की दृष्टि से इस काल को देखा जाए तो इस समय बड़े पैमाने पर भारत में अशिक्षा, कुपोषण, भूखमरी आदि चहुओर व्याप्त थी और देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव विकास सूचकांक, लिंग विकास सूचकांक और जेंडर सशक्तिकरण सूचकांक आदि में अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे था। अतः इन समस्याओं को दूर करने के सरकार निरंतर विफल होती जा रही थी तब सरकार ने 1983 के दशक में एशियाई उत्पादकता संगठन के तर्ज पर कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व को लागू कर इनके कार्य क्षेत्र को निर्धारित किया।

भारत में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत केवल वहीं कंपनियाँ आती हैं जिसका वार्षिक टर्नओवर एक हजार करोड़ भारतीय मुद्रा या इससे अधिक का है अथवा जीसका निवल मूल्य पाँच सौ करोड़ रुपये या उससे अधिक का है या शुद्ध लाभ पाँच करोड़ रुपये या उससे अधिक है। अतः जिस कंपनी का वार्षिक लाभांश उक्त दायरे में आता है उस कंपनी को CSR नियम के तहत एक CSR नियम के तहत एक CSR समिति स्थापित करनी होगी। जिसमें कंपनी बोर्ड के सदस्य होंगे और एक निदेशक होगा। यह नियम कंपनियों को बीते तीन वर्षों में हुए उसके औसत शुद्ध लाभ का कम से कम 2 प्रतिशत CSR गतिविधियों में खर्च करने का उल्लेख करता है। इस प्रकार भारत में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व का उदय हुआ और आज कई कंपनियाँ इनके अंतर्गत कार्य कर रहीं है।

भारत में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के नियमों को लागू हुए आज लगभग तीन दशक हो गए, लेकिन यहाँ आज भी बड़े पैमाने पर समाज का एक बड़ा वर्ग गरीबी, अशिक्षा, भूखमरी आदि में अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। आखिर क्या कारण है कि आजादी के इतने दशक बाद भी लोग इस तरह का जीवन जी रहें है ? यह सरकार और कार्पोरेट जगत के लिए चुनौती का विषय बना हुआ है। तत्पश्चात विद्वानों का एक बड़ा वर्ग जो अकादमिक क्षेत्र से आते हैं उन्होंने यह सुझाव दिया कि भारत में यदि इन समस्याओं से निजात पाना है तो स्थानीय स्तर पर जो भी संस्थाएं कार्य कर रहीं है उन्हें भी इस परिपाटी में शामिल करना होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में यदि इस समस्याओं को दूर करना है तो उच्च शैक्षणिक संस्थानों को इस मुहिम में शामिल करना होगा। आगे विद्वानों ने इसके पीछे यह तर्क दिया कि यह ऐसी संस्थाएँ होती हैं जिसमें सुदूर और स्थानीय क्षेत्रों के बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं और यदि हम इन छात्रों को इस मुहिम में शामिल करते हैं तो अधिक से अधिक लोगों को इन संस्थानों से जुडने का अवसर प्राप्त होगा। इस तरह से समाज का एक वंचित तबका जो समाज की मुख्य धारा से एकदम अलग है उसे आसानी से इस मुहिम का हिस्सा बनाया जा सकता है। अतः इसी के तर्ज पर एक नवीन अवधारणा के रूप में विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व का आविर्भाव हुआ।

विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व एक नवीन अवधारणा है, जिसकी शुरुआत चिली विश्वविद्यालय के शोधार्थियों द्वारा किया गया। यहाँ के शोधार्थियों ने वैश्विक स्तर पर यह सुझाव दिया कि विश्वविद्यालय समाज का एक अभिन्न अंग है और इसका उद्देश्य सिर्फ ज्ञान देना और जिम्मेदार छात्रों को पैदा करना ही नहीं है बल्कि उनकी यह नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह समाज के सतत विकास हेतु समाज के साथ मिलकर कार्य करें औए एक ऐसा मॉडल तैयार करें जिससे समाज के सभी लोगों को विकास का समान अवसर प्राप्त हो सके। भारत में विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व का विकास 12वीं पंचवर्षीय योजना में किया गया। इस योजना में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों को यह सुझाव दिया कि संस्थान चाहे तो अपने स्तर से सामाजिक उत्तरदायित्व के क्षेत्र में कार्य कर सकते हैं। इसी क्रम में आगे चलकर कई संस्थानों ने इस क्षेत्र में कार्य करना आरंभ कर दिया। वर्तमान में यदि इन संस्थानों के उत्तरदायित्व को देखना है तो ‘उन्नत भारत अभियान’ एक महत्वपूर्ण योजना है। इस योजना के तहत भारत के तमाम उच्च शैक्षणिक संस्थानों को यह सुझाव दिया गया कि वह अपने आस-पास स्थित गांवों की समस्याओं को द्दोर करें। इसके लिए बड़े पैमाने पर IIT,NIT,IIIT आदि संस्थाओं को इस मुहिम में शामिल किया गया है। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व के क्षेत्र में यह संस्थान निरंतर कार्य कर रहें हैं।

निष्कर्ष :

सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यापक अवधारणा है। इस अवधारणा का विकास आदिकाल से किसी न किसी रूप में देखने को मिलते रहें हैं। आदिकालीन समाज में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थी और लोग आपसी सहयोग के माध्यम से ही अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करते थे। लेकिन औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक समाज में सामाजिक उत्तरदायित्व की ज़िम्मेदारी सरकार, कार्पोरेट जगत और उच्च शैक्षणिक संस्थानों पर आ गयी है। इस दौरान सरकार ने कार्पोरेट और उच्च शैक्षणिक संस्थानों की यह ज़िम्मेदारी तय कर दी है वह अपने चहारदीवारी से बाहर निकल कर समाज के कल्याण हेतु कार्य करें।ऐसी स्थिति में कार्पोरेट जगत का एक बड़ा तबका लोगों के कल्याण हेतु स्कूल, अस्पताल, मनोरंजन केंद्र, पुनर्वास केंद्र आदि को स्वयं स्थापित कर रहा है या किसी अन्य संस्था को सहायता राशि देकर इस तरह के कार्यों को क्रियान्वित करा रहा है। इसी प्रकार जो उच्च शैक्षणिक संस्थान हैं वह अपने आस-पास के गाँवों के विकास हेतु आगे आ रहे हैं। इसमें कुछ संस्थान उन्नत भारत योजना के तहत लोगों का कल्याण कार्य कर रहें हैं तो कुछ संस्थान गाँव गोंद लेकर उनके उन्नति का मार्ग खोल रहें हैं। इस प्रकार समय दर समय सामाजिक उत्तरदायित्व का स्वरूप बदलता गया और एक परिपाटी के रूप में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व और विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व का उदय हुआ।

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शोधार्थी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

ईमेल: ashukvp@gmail.com

मोबाईल: 7057300468