सदैव प्रेम में रहा हूँ मैं|
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वस्तुतः प्रेम नहीं किया मैंने,
“करना” अस्वाभाविक है प्रेम हेतु,
प्रेम में असहजता हेतु स्थान कहाँ,
कदाचित जन्म से या उससे भी पूर्व,
यह तृष्णा भटकाती रही है मुझे,
आत्मा सदैव ही ढूंढती रही प्रेम,
माँ के प्रेम से जग को जाना,
जुड़ा उन बाबा के कन्धों से भी,
जिसने मेरा नाता ऊंचाई से जोड़ा,
प्रेम में था कहानियाँ सुनाती दादी के,
लोरियाँ गाती नानी को भी कैसे भूलूँ,
बुआ की नेह भरी झिड़की, मौसी की लाड़,
क्या भिन्न था कुछ प्रेम इनसे,
प्रेम में ही खिंच बैठता ताऊ की मूंछ,
और दीदी की बलखाती, लहराती चोटी,
सहेज रखे हैं उन छड़ियों के निशान,
चुरा लाया था पड़ोसी का अमरूद जब,
रात भर सिरहाने तले रोई थी माँ,
कहाँ सो पाया था बापू भी,
जाने कब चाहने लगा था तितलिओं को,
उड़ती मैना और चहचहाती गोरैयों को,
चंचल गिलहरी को भी चाहा मैंने,
भागा था गिरती पतंगों के पीछे,
क्या नहीं था प्रेम देख रंभाती “लखमी” से,
माटी में लोटते, संग खेलते पिल्ले से,
भाता रास्ते में पड़ने वाला बूढ़ा पीपल,
नहीं भूलता बड़ा सा इमली का पेड़ भी,
मैं प्रेम में रहा मंदिर की घंटियों के,
जलते दीपक की कंपकंपाती लौ के,
याद है देखना लाल गुलमोहर को,
लाज से गुलाबी हुए कचनार को,
याद है उन टिकोलों का स्वाद भी,
नहीं भूला पुराना पोखर, उजाड़ खंडहर,
“रजिया” संग प्रेम में था मैं,
जो ले आती थी रोटियाँ मेरे लिए,
बचाने को जो भिड़ गया था बैल से,
कदाचित उस “बिरजू” संग भी,
काका के दूध के कुल्हड़ से,
काकी की आँखों से टपकता था प्रेम,
संग- संग भटका, भागा फिरा,
झरनों के, नदियों और हवा के,
धूप के, छांव के, आग और पानी के,
धरती पर थिरकती बूंदों का जादू,
चाँद की बादलों से आँख-मिचौली,
लहराती लहरों पर बिछा सोना,
बलखाती पुरवा, नशीली महुआ,
थाप देते, झूमते वनवासी थे प्रेम मेरे लिए,
सभी ने चाहा था मुझे,
यहाँ तक कि वह पागल भी,
देख नहीं दौड़ता मारने को,
स्टेशन पर थमती, ठहरती, सुस्ताती रेलगाड़ी,
धुआँ उड़ाता चाय का कुल्हड़, अनजान पथिक,
बातें करते थे, मानोगे,
जब रोया, डरा हवा आ गयी,
चाँद ने खिड़की से झाँका,
देख खिलखिला उठते तारे भी,
अनकही बातें, किस्से सुनातीं
गिरी पत्तियों से भी नेह रहा मुझे,
फिर ओह सखे तुम मिले,
ठीक उस वसंती बयार से ही,
चंचल, फक्कड़, मलंग,घुमंतू, अस्थिर,
भीगा सा नेह में, भटकता रहा मैं,
पर कहाँ थे तब तुम,
छोड़ ढेर सारी यादें और प्रेम,
जा चुके थे अन्यत्र कहीं,
पता है संभाले रखा है उन्हें,
कहीं छूटता है प्रेम कभी,
कहीं बिसरता है प्रेम भी,
मैंने प्रेम को जिया है, भोगा है,
कभी उससे पृथक रहा ही नहीं,
सदैव प्रेम में रहा हूँ मैं|
स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित|
©Rohit Pratap Sinha
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