शिवमूर्ति की कहानियों की संरचना में अवध-लोक
प्रदीप त्रिपाठी
आजमगढ़, उत्तर–प्रदेश
Mob- 08928110451
कहानियों की संरचना में लोक-जीवन की उपस्थिति की एक लंबी फेहरिस्त रही है। इन लेखकों की रचनाओं में जो लोक-चरित्र, लोक-समस्याएँ, लोक-परंपराएँ, लोक-भाषा एवं लोक-गीत चित्रित हैं, निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। यह बात अलग है कि अंचल विशेष के कारण उसकी बोली और उसकी समस्याओं की प्रकृति में फर्क पड़ सकता है परंतु लोक-जीवन की जो सामान्य प्रकृति है, वह किसी भी लोक समाज में दिखेगी ही।
शिवमूर्ति लोक-जीवन के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका सरोकार अवध क्षेत्र से है। उनकी रचनाओं में आंचलिकता की गहरी पैठ है। प्रेमचंद और रेणु की परंपरा के वे एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने हिंदी कहानी में ही नहीं अपितु पूरे कथा-साहित्य में समाज के भूले-भटके और बेहद सामान्य चरित्रों को जिस तरह से क्लासिक बनाया, निस्संदेह महत्त्वपूर्ण है। शिवमूर्ति का सबसे बड़ा योगदान उनकी लोक-जीवन के प्रति गहरी संवेदना, लोक-चरित्र की गहरी समझ व अभिव्यक्ति रही है। उनके समूचे साहित्य में अपने समाज को जीवंत बनाने वाले ऐसे चरित्रों की समृद्ध उपस्थिति रही है जो तेजी से बदलती दुनिया में लुप्त होते जा रहे हैं। ‘केशर-कस्तूरी’ की केशर, ‘तिरियाचरित्तर’ की विमली जैसे पात्र इसके सशक्त उदाहरण हैं। शिवमूर्ति की कहानियों का केंद्र बिंदु हाशिए का समाज रहा है। वे समाज से ऐसे पात्रों को उठाते हैं जो अन्य रचनाकारों की सोच से या तो परे होते हैं या वे उन चीजों को सूक्ष्म समझकर किनारे कर देते हैं। शिवमूर्ति की कहानियाँ कला, संवेदना एवं लोक के उस द्वन्द्व को प्रस्तुत करती हैं जिसमें जीत अंतत: संवेदना की ही होती है।
लोक–भाषा का वैशिष्ट्य –
भाषा की बुनावट में लोक का अपना अलग ही वैशिष्ट्य है। किसी भी रचनाकार को उसके शिल्प और संवेदना से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। भाषा-शैली की बुनावट ही रचना सशक्त एवं जीवंत बनती है। भाषा-रचना में भावाभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। शिवमूर्ति की कहानियों में रचना-शिल्प की अहम विशेषता उनकी भाषा है। शिवमूर्ति अपनी कहानियों की भाषा स्वयं नहीं बुनते बल्कि अपने पात्रों के द्वारा ही बुनवाते हैं। उनके पात्रों की भाषा खाँटी अवधी है। शिवमूर्ति की भाषा के साथ संवेदनाएँ स्वतः जुड़ी हुई होती हैं। यह ऊर्जा उन्हें लोक से ही मिलती है। शिवमूर्ति की यह प्रवृत्ति उन्हें एक बड़े रचनाकार होने का ही परिचय नहीं दिलाती बल्कि उन्हें स्थापित भी करती है। उदाहरण के लिए कहानी ‘सिरी उपमा जोग में लालू की मार्इ के पत्र को देखा जा सकता है-”सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की मार्इ की तरफ से ,लालू के बप्पा को पाँव छूना पहुंचे… आगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहाँ पर राजी खुशी से हैं और आप की राजी खुशी के लिए भगवान से नेक मनाया करते हैं।…. इधर दो–तीन साल से आपके चाचा जी ने हम लोगों को सताना शुरू कर दिया है, किसी न किसी बहाने कभी–कभी कमला को भी रते–पीटते रहते हैं।… कहते हैं– गाँव छोड़कर भाग जाओ नहीं तो महतारी बेटे का मूड़ काट लेगें” जिस सादगी एवं सरलता की बात हम शिवमूर्ति कहानियों में करते हैं उसका एक महत्त्वपूर्ण आयाम लोक-जीवन की भाषा है। वह शब्दों को लोक से चुराते हैं जो न केवल सरल और सुबोध हैं बल्कि व्यंजक और पारदर्शी भी हैं। शिवमूर्ति की भाषा अपनी सादगी में सुंदर और नितांत संप्रेषणीय है। उनकी कहानियाँ ग्राम्य-जीवन एवं आंचलिकता से लैस हैं। वे अनुभवों की गहरार्इ से उपजी भाषा है। रवि भूषण के शब्दों में कहें तो –”ये शिवमूर्ति के अनुभव ही हैं जो उनकी भाषा में गुथकर सूक्तियाँ बने। ये वे सूक्तियाँ हैं जिनमें जीवन का सत्य बोलता है। प्रवाह, सरलता, चित्रमयता, व्यंजकता और सारगर्भिता शिवमूर्ति के रचनात्मक भाषा के वे गुण हैं जो उनकी रचनाओं को लम्बा आयुष्य देते हैं।”
शिवमूर्ति की भाषा के कर्इ रूप-रंग हैं। अपना ठाठ भी है। उनका वाक्य-विन्यास भिन्न है, वाक्य छोटे हैं। वाक्यों में सहायक क्रियाओं का कम प्रयोग करना उनकी विशिष्ट शैली है। भाषा के स्तर पर शिवमूर्ति में बड़ा वैविध्य नहीं रहा है। वे आज भी जन-भाषा के समर्थक हैं। प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ निबंध में इस बात की ओर संकेत किया है- ”जो जन–साधारण का है, वह जन–साधारण की भाषा लिखता है।” शिवमूर्ति की कथा-भाषा लोक-भाषा है चूँकि उनके सभी पात्र लगभग ग्रामीण परिवेश के हैं। उनकी भाषा में अवधी लहजे के साथ तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग सर्वाधिक है। उनकी भाषा अर्थगर्भित है, सरल प्रसंगानुकूल है।
शिवमूर्ति की भाषिक संरचना का अपना एक अलग ही अंदाज है। समकालीन हिंदी कथाकारों की भाषा से उनकी भाषा-शैली पूर्णतया भिन्न है। शिवमूर्ति ने अपनी भाषा के संदर्भ में स्वयं कहा है कि-”भाषा की ताकत मैं लोक–जीवन और लोक–गीतों से बटोरता हूँ… मैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ।” इससे यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि शिवमूर्ति का रचना-संसार लोक से ही निर्मित होता है। लोक ही उनकी कहानियों का रंग है। देशकाल, स्थान, पात्र-संबंध आदि के आधार पर यह भाषा अपने विविध रूपों में प्रकट हुर्इ है। शिवमूर्ति के यहाँ भाषा का जनतांत्रिक रूप है। इनके यहाँ लोक-भाषा का पूरा सम्मान है। कर्इ वाक्य सूक्तियों की तरह हैं। केशर-कस्तूरी कहानी में केशर जब यह कहती है-”दुख काटने से कटेगा, भागने से तो और पिछुआएगा।” तो यह उक्ति निजी न होकर सामाजिक हो जाती है।
कोर्इ भी रचनाकार अपने समय और समाज से किसी न किसी रूप से प्रभावित अवश्य होता है। शिवमूर्ति की रचनाओं को यदि शैलीगत दृष्टि से देखा जाय तो इन पर रेणु की शैली का असर दिखता है। यह उनकी शैली से प्रभावित ही नहीं बल्कि कर्इ कदम आगे तक भी जाते हैं। शिवमूर्ति का शिल्प अत्यंत सहज है। उनके पात्रों की भाषा कथ्य को सहज सरल एवं प्रभाशावली बनाने में सहयोग देती है। जाहिर है, गाँव की उबड़-खाबड़ जमीन से निकलने के कारण शिवमूर्ति के पात्र वहाँ की बोली, लहजे और नज़ाकत से वाकिफ़ हैं। शिवमूर्ति के यहाँ ग्रामीण-जीवन का बहुत ही ठोस एवं मुकम्मल चित्र है।
शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के साथ-साथ क्षेत्रीय शब्दों और रंगों का भरपूर प्रयोग किया है। उनकी भाषा विविध रंगों के साथ-साथ लोक (ग्रामीण) संवेदना को पूरी शालीनता से प्रस्तुत करती है। वे सामान्य शब्दावली को ही अर्थ-गरिमा और सांकेतिकता देने में सफल सिद्ध हुए हैं। इनके साधारण वाक्य व्यापक अर्थवत्ता के साथ व्यंजनापूर्ण हैं। इनकी कहानियों में चित्रित लोक-जीवन कहानियों में जहाँ रोचकता प्रदान करता है वहीं शिल्प के नए-नए विविध आयाम भी खोलता है। लोक-कथा लोकोक्तियों एवं मुहावरों के सहारे शिवमूर्ति अपनी कहानियों को धार देते हैं और लोक-भाषा उस धार को अति तीक्ष्ण करती है जिससे उनकी भाषा और अधिक सारगर्भित बन जाती है। उदाहरण के तौर पर हम उनकी कहानी ‘ख्वाजा! ओ मेरे पीर’ की शुरुआती पंक्तियों को देख सकते हैं-”माधवपुर से सिंहगढ़ तक सड़क पास हो गर्इ। तो सरकार ने आखिर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाका भी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा है।” शिवमूर्ति का शिल्प पाठकों की संवेदना और युगानुकूल अभिव्यक्ति में निहित है। अंचल में व्याप्त जीवन की गहरार्इ, जीवनगत यथार्थ और उन स्थापनाओं के वातावरण को प्रकट करने में भी शिवमूर्ति सर्वथा चित्रकार से प्रतीत होते हैं।
भाषा की ताकत मैं लोक–जीवन और लोक–गीतों से बटोरता हूँ: शिवमूर्ति–
लोक-गीत लोक के दु:ख-द और संवेदना की गहरी अनुभूति कराते हैं। शिवमूर्ति लोक-गीतों के सशक्त प्रयोगकर्ता हैं। उनका मानना है कि लोक-गीतों का प्रयोग किसी भी रचना को सशक्त एवं जीवंत बनाने में मुकम्मल होते हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में लोकगीतों का अद्भुत प्रयोग किया है। मिसाल के तौर पर केशर-कस्तूरी कहानी को देखा जा सकता है-
”मोछिया तोहार बप्पा हेठ न होर्इ हैं,
पगड़ी केहू न उतारी, जी.. र्इ र्इ।
टुटही मँड़इया में जिनगी बितउबै
नाहीं जाबै आन की दुआरी जी र्इ र्इ ।।” (केशर–कस्तूरी)
ऐसा ही एक और गीत जिसमें विमली की तरफ आकर्षित बिल्लर गाँव-घर के यथार्थ को वर्णित करता है साथ ही विमली को अपने प्रेम का संदेश भी देता है-
”…अरे टुटही मँड़इया के हम हैं राजा
करीला गुजारा थोरे मा
तोर मन लागै न लागै पतरकी
मोर मन लागल बा तोरे मा।…” ((केशर–कस्तूरी)
निश्चित रूप से शिवमूर्ति एक मजे हुए रचनाकार हैं। उनके पास अपनी बात को संक्षेप में रखने का हुनर है। ग्रामीण जीवन में पर्वों-त्यौहारों के गीतों का किस प्रकार से लोग निर्वाह करते चले आ रहे हैं उसकी अभिव्यक्ति हम ‘ख्वाजा! ओ मेरे पीर’ कहानी में मामा के होली-गीत के जरिये देख सकते हैं-
”सब दिन बसंत जग थिर न रहै
आवत पुनि जात चला….रे …पपीहा प्या ….रे –”
शिवमूर्ति लोक से गहरे रूप में संपृक्त हैं। उन्हें अपने समाज का खाँटी अनुभव है, उसे वह अपनी रचनाओं में हूबहू टाँकने में कोई कसर नहीं छोड़ते। शिवमूर्ति अपनी कहानियों में लोकगीतों का प्रयोग करने के साथ-साथ उसकी सुदृढ़ परंपरा को बचाए रखने की कोशिश करते हैं। उनकी यही कला उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों से अलग करती है।
लोकोक्तियाँ और मुहावरे रचना को जीवंत एवं सारगर्भित बनाते हैं–
मुहावरे अथवा लोकोक्तियाँ एक अनुभवपरक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें जीवन के सुख-दु:ख हास-परिहास, रंग-व्यंग्य, अतीत-वर्तमान का प्रतिबिंब दिखार्इ देता है। शिवमूर्ति की कहानियों में इसका अद्भुत प्रयोग हुआ है। उदाहरण के रूप में हम उनकी कहानियों में लोकोक्तियों एवं मुहावरों को देख सकते हैं- भेड़ ही खेत खा गर्इ, कसार्इ की गाय, अँखिया फूट गर्इ है (तिरियाचरित्तर),दूध–पानी अलग करै वाले (कसार्इबाड़ा), चूना लगाना इत्यादि। उनकी कहानियों में कहावतों की भी भरमार है। जैसे- जेकर काम उही से होय, गदहा कहै कुकुर से रोय, (कसार्इबाड़ा) आदि।
शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में भाषा को जीवंतता प्रदान करने के लिए ग्रामीण मुहावरो एवं कहावतों का प्रयोग किया है। इससे भाषा में गांभीर्य, प्रवाह एवं अभिव्यक्ति में स्पष्टता आर्इ है। शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में प्रतीकों का भी सहारा लिया है। रतौंधी, नाक, सठियाना, हेडलाइट, छिकनहवा, कातिक की कुतिया, विभीषण, पके कैथ की महक, गाँठ पकड़ लेना जैसे प्रत्येक बिंब उनकी कहानियों के कथ्य को और सारगर्भित बना देते हैं।
गौर करें तो भाषा के धरातल पर शिवमूर्ति अत्यंत सरस हैं। गाँव-देहात की शब्दावली या उच्चारण का प्रयोग कहानी को संप्रेषण की दृष्टि से और सशक्त बनाते हैं। कनमनाना (ध्यान जाना) मुराही (नटखट), सुतंत्र (स्वतंत्र), निमरी (दुबली-पतली), पतरकी (पतली), बेसी (ज्यादा), टेम (समय), आदि शब्द कहानी को जीवंत बनाने के साथ-साथ शब्द-अर्थ की विभिन्न छवियों को भी उजागर करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिवमूर्ति अपनी कहानियों में जिस शिल्प (भाषा, मुहावरे, लोकोक्तियों शब्द-प्रयोग आदि) को लेकर आते हैं वह अद्भुत तो है ही साथ ही उनकी विशिष्ट पहचान भी है।