विषपान
सागर की उठती गिरती लहरें
मस्तिष्क में जगाती हैं प्रश्न
देकर अमृत का दान
क्यों किया था शिव ने विषपान ?
अंतर्मन ने यों कहा मुझसे –
सुख है जीवन का अमृत
दुःख है गरल समान
दु:ख-सुख से बना है इन्सान
जीवन पथ है सागर समान ।
इस क्षणभंगुर जीवन में
जब आता है विप्लव का भूचाल
विचलित होता है मानव – मन
क्रंदन का उठता है ज्वार
माँगता इन्सान अमृत का दान
तब कोई शिव करता है विषपान ।
ये शिव कोई नहीं
है केवल आत्मा शरीर की
जो सागर समान रहती है
मानव क्या समझे इस गहराई को
शाश्वत माने इस नश्वरता को ।
जब-जब वह होता है भयाक्रांत
तब कोई शिव करता है विषपान ।
मिथ्या सुख से हो अनन्दित
नहीं कर पाता वह सुधा-पान
भर जाता है जब हलाहल
दिशा-हीन होता है इन्सान
जी लेता है जब दानव समान
तब कोई शिव करता है विषपान ।
डॉ अनीता पंडा, शिलांग