लोकप्रिय साहित्य की अवधारणा
सुशील कुमार
शोधार्थी
हिन्दी विभाग ,हैदराबाद विश्वविद्यालय
हैदराबाद -500046 .
मोबाइल न॰-8789484808
साहित्य के दो रूप मिलते हैं- एक, लोकप्रिय साहित्य और दूसरा, कलात्मक साहित्य। कलात्मक साहित्य को गंभीर साहित्य माना जाता है, जबकि लोकप्रिय साहित्य को सतही साहित्य। साधारणत: माना जाता है कि जो साहित्य व्यापक जनसमुदाय के बीच सहज रूप में स्वीकृत और ग्राह्य हो, वह लोकप्रिय साहित्य है। सहजता, सरलता और सुबोधता ऐसे साहित्य के अनिवार्य गुण माने जाते हैं। लेकिन कोई साहित्य व्यापक जनसमुदाय के बीच सिर्फ सहजता, सरलता और सुबोधता के कारण लोकप्रिय नहीं होता। वह साहित्य व्यापक जनसमुदाय के बीच लोकप्रिय तभी होगा, जब उसका जुड़ाव आम जन से होगा। जब आम जन-जीवन की वास्तविकताएँ और आकांक्षाएँ उस साहित्य में सहज, सरल रूप में अभिव्यक्त हो, तभी वह साहित्य लोकप्रिय साहित्य होगा। वहीं कलात्मक साहित्य को गंभीर लेखन बताकर आमजन से दूर किया जाता रहा है। कलात्मक साहित्य भी व्यापक जनसमुदाय से जुड़ा हो सकता है तथा वह भी लोकप्रिय साहित्य हो सकता है।
लोकप्रिय साहित्य में लोकप्रिय है क्या? लोकप्रिय का अर्थ है- जो लोग को प्रिय हो। लेकिन यहाँ लोक का अर्थ क्या है?
हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1 में ‘लोक’ के संबंध में लिखा गया है कि- ‘‘शब्दकोशों में लोक शब्द के कितने ही अर्थ मिलेंगे, जिनमें से साधारणत: दो अर्थ विशेष प्रचलित हैं। एक तो वह जिससे इहलोक, परलोक अथवा त्रिलोक का ज्ञान होता है। वर्तमान प्रसंग में यह अर्थ अभिप्रेत नहीं। दूसरा अर्थ लोक का होता है- जनसामान्य- इसी का हिन्दी रूप लोग है। इसी अर्थ का वाचक ‘लोक’ शब्द साहित्य का विशेषण है।’’ लोकप्रिय साहित्य में लोकप्रिय में लोक का अर्थ सर्वजन, सर्ववर्ण, सब लोग से ही है।
हिन्दी का ‘लोक’ शब्द ‘फोक’ का पर्याय है। इस फोक के विषय में इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने बताया है कि आदिम समाज में तो उसके समस्त सदस्य ही लोक (फोक) होते हैं और विस्तृत अर्थ में तो इस शब्द से सभ्य राष्ट्र की समस्त जनसंख्या को भी अभिहित किया जा सकता है कि सामान्य प्रयोग में पाश्चात्य प्रणाली की सभ्यता के लिए ऐसे प्रयुक्त शब्दों में, जैसे लोकवार्ता (फोक लोर), लोक संगीत (फोक म्यूजिक) आदि में इसका अर्थ संकुचित होकर केवल उन्हीं का ज्ञान कराता है, जो नागरिक संस्कृति और सविधि शिक्षा के प्रवाहों से मुख्यत: परे हैं, जो निरक्षर भट्टाचार्य हैं अथवा जिन्हें मामूली सा अक्षर ज्ञान है, ग्रामीण और गँवार।’’ यहाँ लोक को दो अर्थों में प्रयोग किया गया है- एक का अर्थ है साधारण जन, जिसमें सभी लोग सम्मिलित हैं, दूसरा अर्थ इसका संकुचित है जो नागरिक संस्कृति और सविधि शिक्षा के प्रवाह से परे है अर्थात् जो ग्रामीण है, गँवार है, देहाती है। लेकिन लोकप्रिय साहित्य में लोक का अर्थ साधारण जन से ही है। इसलिए हमें इसका अर्थ साधारण जन ही स्वीकार्य होगा।
हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1 में ही लोक को इस रूप में परिभाषित किया गया है- ‘‘लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना और पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।’’ यहाँ ‘लोक’ का अर्थ उन लोगों से है जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना और पांडित्य ने अहंकार से शून्य है अर्थात् जो गँवार है, अनगढ़ है, देहाती है।
साधारण शब्दों में ‘लोक’ का अर्थ है- सभी लोग, आम जन, साधारण जन। और इस अर्थ में ‘लोक’ में सभी लोग शामिल हो जाते हैं। लेकिन विशेष अर्थ में ‘‘यह ‘विशेष’ से अलग होता है। कला के क्षेत्र में हम लोक और शास्त्रीयता का विभाजन देखते हैं, जिसमें शास्त्रीयता का मतलब ही परिष्कृत और व्याकरणिक होता है, जबकि लोक का मतलब अनगढ़ होता है।’’
लोकप्रिय का अर्थ है – जो लोक को प्रिय हो अर्थात् जो जनसामान्य को प्रिय हो अर्थात् पसंद हो, रुचिकर हो। अंग्रेजी में लोकप्रिय का पर्याय है – ‘पोपुलर’। पोपुलर अच्छी तरह से पसंद किये जाने की सामाजिक स्थिति है, जिसका प्रसार व्यापक होता है। अर्थात् जन समुदाय द्वारा अच्छी तरह से जानी पहचानी गई और अच्छी तरह से पसंद की गई चीज पोपुलर होती है। लोक में प्रसिद्धि से ही लोकप्रियता का पता चलता है।
‘लोकप्रिय साहित्य’ क्या है? लोकप्रिय साहित्य किसको कहेंगे? लोकप्रिय साहित्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है- ‘‘आम तौर पर माना जाता है कि जो साहित्य और कला व्यापक जनसमुदाय के बीच सहज रूप में ग्राह्य और स्वीकार्य हो, वह लोकप्रिय है।’’ यहाँ मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि वही साहित्य और कला लोकप्रिय होगा, जो व्यापक जनसमुदाय को ग्राह्य और स्वीकार्य हो और व्यापक जनसमुदाय के बीच उनकी स्वीकृति और ग्रहण भी सहज रूप में हो। आगे वे लोकप्रिय साहित्य के गुणों की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं- ‘‘सरलता, सहजता और सुबोधता आदि ऐसे साहित्य के अनिवार्य गुण हैं।’’ अर्थात् वही साहित्य लोकप्रिय होगा, जो सरल, सहज और सुबोध हो। वे सरलता, सहजता और सुबोधता को लोकप्रिय साहित्य के लिए अनिवार्य गुण तो बतलाते हैं, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि – ‘‘व्यापक जनसमुदाय के बीच कोई साहित्य केवल सरलता और सुबोधता के कारण लोकप्रिय नहीं होता। लोकप्रियता कला या साहित्य के रूप की ही विशेषता नहीं है। वही साहित्य व्यापक जनता के बीच लोकप्रिय होताहै जिसमें जनजीवन की वास्तविकताएँ और आकांक्षाएँ सहज-सुबोध रूप में व्यक्त होती है। इसलिए लोकप्रियता का संबंध साहित्य के रूप के साथ-साथ उसकी अंतर्वस्तु, उस अंतर्वस्तु में मौजूद यथार्थ चेतना और उस यथार्थ चेतना में निहित विश्व दृष्टि से भी होता है। केवल रूप संबंधी लोकप्रियता सतही होती है और रचना वर्ग भी सतही बनाती है।’’
वे लोकप्रियता का संबंध सिर्फ रूप से नहीं जोड़ते वे उसे जोड़ते हैं रूप के साथ, उसकी अंतर्वस्तु से, अंतर्वस्तु में मौजूद यथार्थ चेतना से और यथार्थ चेतना में मौजूद विश्व दृष्टि से। जिस साहित्य में ये गुण मौजूद होगा, वह लोकप्रिय साहित्य तो होगा ही, गंभीर भी होगा और कालजयी भी। वे स्पष्ट कहते हैं कि सरलता और सुबोधता के कारण ही कोई साहित्य लोकप्रिय नहीं होता तथा केवल रूप संबंधी लोकप्रियता उस साहित्य को सतही ही बनाएगा, गंभीर और कालजयी नहीं।
लोकप्रिय साहित्य को चवन्नी छाप साहित्य सस्ता साहित्य, सतही साहित्य, फुटपाथी साहित्य, घटिया साहित्य, घासलेटी साहित्य, व्यावसायिक साहित्य, बाजारू साहित्य, भीड़ का साहित्य, लुगदी साहित्य आदि कहा जाता है। लेकिन साहित्य के समाजशास्त्र में इसे लोकप्रिय साहित्य के नाम से ही जाना जाता है।
संदर्भ
हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1 – प्रधान संपादक धीरेन्द्र वर्मा, पृ.सं. 747
हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1 – प्रधान संपादक धीरेन्द्र वर्मा, पृ.सं. 747
हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1 – प्रधान संपादक धीरेन्द्र वर्मा, पृ.सं. 747
लोकप्रिय शब्द सुनते ही बौद्धिक वर्ग के कान खड़े हो जाते हैं – प्रभात रंजन, दिनांक 28 मई 2012, जानकीपुल.कॉम
साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि – मैनेजर पाण्डे, पृ.सं. 330
साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि – मैनेजर पाण्डे, पृ.सं. 330
साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि – मैनेजर पाण्डे, पृ.सं. 330