लक्ष्मीकांत मुकुल की तीन कविताएं

युद्ध की भाषा

युद्ध की भाषा उन्मादी होती है
जिसमें शामिल होती हैं विध्वंसक तत्व
इमारतों को नष्ट करने
खड़ी फसलों को ख़ाक में मिलाने के लिए
दूधमुहें बच्चों को मां की आंचल से
दूर करने की साजिश
चरवाहों को उनके पशुओं, किसानों को उनके खेतों से बेदखल करने की सनक

तानाशाह का दर्प अट्टहास करता है
युद्ध की भाषा की शैली में
दूसरों को छीन लेने की आजादी
पड़ोसी की अर्जित भूमि पर जमा लेने को कब्जा लोगों को उसके दर – बदर भटकने देखने की चाहत में विस्तारित होती है उसकी भाषा- विन्यास

युद्ध की भाषा में बाग लगाना नहीं होता
न भूखे – प्यासों की सेवा
न ही शरणागतों की सुरक्षा

युद्ध थोपने वाला चाहता है
कि वह छीन ले मासूम बच्चों की हंसी
कामगारों के हाथों से कुदाल
नौजवानों की पास से सपने
बुड्ढों के सहारे की छड़ी

युद्ध की भाषा में मिलते हैं सिर्फ कांटे
जख्मी, लहूलुहान होती जिंदगी की चीखें
उसकी भाषा में कहीं नजर नहीं आते
बबूल के पीले – पीले फूल
न ही दरख़्तों की सब्ज़ पत्तियां !

युद्ध का रंग

युद्ध के रंग में शामिल होती हैं
रक्तरंजित नदियां
आबादी को मौत की गोद में सुला देने वाली
धूसर रेत, उड़ती आंधियां

युद्ध का काला रंग हिरोशिमा के दिलों में
अभी बसा होगा रात की गहरी नींद में
अंधकार में घुला हुआ
स्कूल जाते बच्चों के बस्ते, किताबें ,पेंसिले
उसकी देह के साथ गल कर मिट्टी धूल में बही होंगी

युद्ध के रंग में शामिल नहीं होता हरापन
लोगों के मुस्काते चेहरों के रंग
कहकहों – खनकती हंसी भरे उजास
गुफ्तगू में छाए आत्मिक आभास
नहीं मिलते युद्ध के रंगों में
युद्ध का रंग भरा होता है धूल व गुब्बारों में
मानवजनित रासायनिक बरूदों की धमक से
पसरता हुआ चहुँ ओर मरू प्रदेश की तरफ
जहां दूर तक बचने को नखलिस्तान की झलक नहीं मिलती।

युद्ध के मैदान

तीर तलवार नहीं अब नहीं चलाते योद्धा युद्ध मैदानों में न ही घोड़ों की टाप, हाथियों की
चीत्कार से गूंजता है कोई कुरुक्षेत्र
आधुनिक प्रक्षेपास्त्र ने बदल दी हैं युद्ध की परिभाषाएं अब युद्ध भूमि के टुकड़े या स्त्री हरण के लिए नहीं लड़े जाते, न तो स्वाभिमान की पहचान न संस्कृति रक्षा के नाम पर

सनकी तानाशाहों की दिमागी फितरतों में
अब तो लड़े जाते है युद्ध
तेल कुओं, खनिजों, मादक पदार्थों की
हड़प में लड़ी जाते हैं आज के युद्ध
जल- थल – नभ से हमला करते हुए सैनिक
दूसरों की खाल नोचने में तल्लीन
भेड़िए की तरह खुद ही अपनी देह की चमड़ियां नुचवाते हुए !