शोध सारांश

समकालीन हिन्दी साहित्य को अगर देखा जाय तो दो धाराओं को लेकर, दो विचारधाराओं को लेकर, दो समाज को लेकर लिखा जा रहा हैं। इसके बारें में यों कहे तो की हिन्दी साहित्य में समाज का यथार्थ का दो भागों में बांटा गया है। प्रथम धारा मुख्यधारा का हैं, तो दूसरा धारा हाशिए का समाज रहा है। आधुनिक काल के साहित्यकारों के द्वारा अधिकांशतः मुख्यधारा केन्द्रित साहित्य की ही रचना की जा रही हैं। विद्यापति, तुलसी, जायसी, सूरदास, घनानंद, बिहारी और आधुनिक कालीन आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी अन्य की रचनाओं में मुख्यधारा की झलक विशेष तौर पर दिखती है। इन्हीं का गुणगान दिखता है। हाशिए के समाज में दलित, स्त्री और आदिवासी समाज की मूलतः गणना की जाती है। यह समाज का वैसा उपेक्षित वर्ग रहा है, जिसके साथ भेदभाव करके सदियों से अलग रखा गया है; क्योंकि भारतीय समाज का निर्माण कर्म के आधार पर अलगअलग वर्गो व समुदाय को बांटा गया है। अब इन तीनों समाज को हाशिए के समाज में रखा गया है। दलित समुदाय जो सदियों से समानता और हक के लिए संघर्षशील रहा है। वही स्त्री पितृसमाजत्मक और पुरूषवादी मानसिकता वाले समाज से मुक्त होना चाहती है। जबकि आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता के लिए जुझ रहा है।

बीज शब्द: समाज, मुख्यधारा, हाशिए, दलित, आदिवासी, स्त्री, भाषा, संस्कृति

शोध विस्तार

वर्तमान के साहित्य में जोरों से विमर्श की धारा में कई मुद्दों पर धारा प्रवाह से लेखन का कार्य किया जा रहा है। साहित्य की धारा में समकालीन तत्व की प्रधानता दिखने को मिलती है; क्योंकि साहित्य की विशेषता सामाजिक सरोकार से हैं, जिसमें समाज का प्रतिबिंब दर्ज है। इस सरोकार में समाज के सबल पक्ष फलीभूत हैं, जिसमें समाज के सच्चे यथार्थ को अभिव्यक्त किया जा रहा है। जब भी भारतीय साहित्य पर बात की जाएगी, तब उसमें सामाजिक और राजनीतिक का मिश्रण जरूर देखने को मिलेगा। भारतीय साहित्य की सामाजिकता यहाँ की सांस्कृतिक विरासत पर टिकी रहती हैं; क्योंकि हम जब साहित्य में समाज, समाज और संस्कृति की बातें करते हैं, तो सबसे पहले साहित्य के केन्द्र में वर्णित जन-जीवन को देखते हैं। इसलिए साहित्य में अभिव्यक्त सामाजिक यथार्थ ही साहित्य सृजन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।

समकालीन हिन्दी साहित्य को अगर देखा जाय तो दो धाराओं को लेकर, दो विचारधाराओं को लेकर, दो समाज को लेकर लिखा जा रहा हैं। इसके बारें में यों कहे तो की हिन्दी साहित्य में समाज का यथार्थ का दो भागों में बांटा गया है। प्रथम धारा मुख्यधारा का हैं, तो दूसरा धारा हाशिए का समाज रहा है। अब हम आपको मुख्यधारा पर केन्द्रित साहित्य की ओर चलते हैं, जहाँ देखते हैं कि हिन्दी साहित्य का इतिहास लगभग हजार वर्षो का है; जिसमें मोटेतौर पर हिन्दी साहित्य के केन्द्र में मुख्यधारा को स्थान दिया गया हैं, चाहें वह आदिकाल हो या मध्यकाल या फिर आधुनिक काल। जब हम प्रत्येक काल के साहित्यिक इतिहास को पलटते हैं तो इसमें मुख्यतः समाज के उस वर्ग को चिन्हित किया गया है, जो सदियों से उन्नत, समृद्ध और शिक्षित रहा हैं। जो अपने परिचय के लिए किसी का मोहताज नहीं रहा है। ना किसी की गुलामी की और न ही किसी की प्राधीनता स्वीकार की है। इसकी स्थिति उच्चे दर्जे की रही है। इनके जीवन स्तर, जीवन दर्शन, वेश-भूशा एवं जीवन जीने की प्रणाली तक इस बात के साक्ष्य हैं कि मुख्यधारा का सामाजिक स्तर सामान्य नहीं था और अब भी सामान्य नहीं है। साहित्य ने मुख्यधारा के सामाज के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्ष को अपने में भरपूर स्थान दिया है। जब हम साहित्य में मुख्यधारा के राजनीतिक पक्ष को देखते हैं, तो अचरज होता है कि ये समाज की संरचना का निर्माण एक जाल के समान करते हैं। जो वर्ग और धर्म के आधार पर कर्म में बंटा हुआ है। इसी समाज का एक वर्ग शासक भी है। राजा भी है। महाराजा भी है। मालिक भी है। दूसरा वर्ग शोषितों का है। जो नौकर भी है। मजदूर और मजबूर भी है। जो किसी के द्वारा बनाएं गए सामाजिक विधि में जीता है। यह समाज का वह वर्ग है जिसे एक लम्बे समय से किसी खासवर्ग के द्वारा शोषित किया जाता रहा है।

जब हम मुख्यधारा के आर्थिक पक्ष को देखते हैं, तो जो काफी गहनता के साथ समृद्ध रहा है; क्योंकि उनके द्वारा तब से लगातार, ये समाज को संचालित हो रहे हैं। मनमाने तरीके से लोगों से वसूल कर अपने घर भर रहे हैं। उनके पास बहुत जमीन और आजीविका के कई स्त्रौत रहे हैं। नौकरी, कृषि, पशुपालन, व्यावसायिक-धनधंधे व अन्य तरीके उपलब्ध थे। मुख्यधारा का सांस्कृतिक पक्ष विविध परंपराओं के गठजोड़ से अभीभूत रहा है; क्योंकि इनके जीवन दर्शन, उत्सव और संस्कृति बिल्कुल ही पूरी सुविधा से लैस रही है।

आधुनिक काल के साहित्यकारों के द्वारा अधिकांशतः मुख्यधारा केन्द्रित साहित्य की ही रचना की जा रही हैं। विद्यापति, तुलसी, जायसी, सूरदास, घनानंद, बिहारी और आधुनिक कालीन आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी अन्य की रचनाओं में मुख्यधारा की झलक विशेष तौर पर दिखती है। इन्हीं का गुणगान दिखता है। जो अतिशयोक्तिपूर्ण है। हमारे सामने सर्वप्रमुख प्रश्न यह आता है कि सामाजिक संरचना का निर्माण एक पक्षीय क्यों हैं? क्योंकि समाज के निर्माण में सबों की भागीदारी होती है। श्रमिक और पूंजीपति, दोनों का होना अनिवार्य है। उसी तरह मुख्यधारा के साथ हाशिए का भी समाज होना चाहिए। दोनों का बराबर स्थान रहा है। इन्हीं चीजों का साहित्य में भी समावेश होना चाहिए। तभी जाकर साहित्य की उपादेयता निर्भर करेगी। मुख्यधारा से सम्बन्धित साहित्य के इतिहास को देखा जाय तो अचरज होगा क्योंकि इन इतिहास में हाशिए का नाम मात्र चित्रण है। बौद्धिक वर्गो ने अपने अपने हित साधने के लिए किसी खास समुदाय को अपने रचनाओं में स्थान दिया; जिसकी एक लम्बी परंपरा सी चलती रही है। राजा-महाराजा, सेठ-साहूकारों को बड़े ही सहजता से चित्रित किया गया; किन्तु वहीं मजदूर, किसान, दलित और आदिवासी को छोड़ दिया गया। सीधे तौर पर कहा जाय तो साहित्य का इतिहास भी मुख्यधारा को ही प्रवाहित है।

हाशिए के समाज में दलित, स्त्री और आदिवासी समाज की मूलतः गन्ना की जाती है। यह समाज का वैसा उपेक्षित वर्ग रहा है, जिसके साथ भेदभाव करके सदियों से अलग रखा गया है; क्योंकि भारतीय समाज का निर्माण कर्म के आधार पर अलग-अलग वर्गो व समुदाय को बांटा गया है। अब इन तीनों समाज को हाशिए के समाज में रखा गया है। दलित समुदाय जो सदियों से समानता और हक के लिए संघर्षशील रहा है। वही स्त्री पितृसमाजत्मक और पुरूषवादी मानसिकता वाले समाज से मुक्त होना चाहती है। जबकि आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता के लिए जुझ रहा है। यह तीनों समाज भूतकाल से लेकर वर्तमान तक ब्राह्मणवाद और मनुवाद के चक्कर में पिसता चला जा रहा है; क्योंकि इस वाद के जरिये मुख्यधारा वालों ने समाज की संरचना को एक जाल बना दिया है। जिसका संचालन कर वे घर बैठे अपनी झोली भरते हैं। इसलिए ब्राह्मम्णवाद वह सर्प है जिसे एक बार डस लिया उसका विष जल्द उतरता ही नहीं है। ये तीनों वर्ग भी इसी विष के शिकार हो रहे हैं।

हिन्दी साहित्य में हाशिए के समाज पर बहुत कुछ नहीं लिखा गया है; किन्तु कबीर, रैदास, ज्योतिवा फुले, बिरसा मुंडा, तिलका माझी ने जरूर इन परंपरा को आगे बढ़ाया है। हाशिए के समाज में आदिवासी साहित्य थोड़ा हटके के है; क्योंकि इस साहित्य में आदिवासी जीवन के उस भाग को चित्रित किया गया जो अपने सम्पूर्ण जीवन को अभिव्यक्त करता है। दलित और स्त्री विमर्श की अवधारणा से इनके दर्शन भिन्न हैं। आदिवासी साहित्य के विमर्श में अस्मितामूलक प्रतिरोध की बात की गई है; जिसमें वह अपने दुनियाँ में बाहरी समाज के हस्तक्षेप से बर्दास्त नहीं करता है। वह अपने समाज के अस्तित्व, संस्कृति और हक के आधार को बनाये रखने में सम्पूर्ण जीवन को लगा देता है। आदिवासियों में मुख्यधारा के तरह एकल परिवार की धारणा नहीं है वह संयुक्त परिवार में जीता है। आदिवासी जीवन के दर्शन ही प्रमुखतम रूप से सामूहिक सामाजिकता को बरकरार रखा है। आज आदिवासी समाज को लेकर मुख्यधारा का चिंतन सटीक नहीं है। इस समाज को लेकर मुख्यधारा के चिंतन में ‘‘जिसको हम डोमिनियन (वर्चस्ववादी) समाज कहते हैं, जब यह बहुसंख्यक वर्चस्ववादी समाज समझेगा कि आदिवासी की दुर्गती करने में हम भी सहयोगी रहे हैं; हम इसके जिम्मेदार हैं, तो आगे बढ़ने का रास्ता खुलेगा। बड़ी सभ्यता, बड़ा समाज वही होता है जो उसके अन्दर के छोटे लोग छोटी हैं; उनके लिए जगह बनाये। दूसरों को हेय समझने वाला समाज बड़ा समाज नहीं कहलाता है।’’1 समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो किसी एक निम्न वर्ग पर शासन करके उसको मानसिक गुलाम बनाकर रखा है एवं उसके अस्तित्व व अस्तित्व को हीन कर दिया है; क्योंकि ये ‘‘मुख्यधारा’ का हिस्सा बनाने का लालच देकर हाशिए पर पडे़ लोगों को अस्तित्वहीन किया जा रहा है। आज के समय और समाज के यथार्थ के ये सभी आयाम वैचारिक दुनिया में विभिन्न अस्मितावादी विमर्शो के रूप में हलचल मचा रहे हैं। दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श आदि के रूप में इस हलचल को सहज ही देखा जा सकता है। ये दोनों प्रक्रियाएं समानान्तर चल रही हैं और एक दूसरे को प्रभावित कर रहा है और वैचारिक दुनिया के नित नए तर्क, गहन चिंतन से उपजे नए-नए निष्कर्ष पूरे विश्व में हलचल मचा रहे हैं। भारतीय समाज और चिंतन भी इस उथल-पुथल से अछूता नहीं है।’’2 यही भारतीय समाज की विडम्बना है कि यहाँ का समाज किसी एक वर्ग विशेष के द्वारा संचालित होते रहा है।

इसलिए सभी भलीभाँति परिचित हैं कि आदिवासी किस तरह के जीवन जीते थे; किन्तु आज ‘‘आदिवासियों को आज हाशिए की जिन्दगी जीने के लिए विवश होना पड़ रहा है। आज आदिवासियों की दशा किसी से छिपी हुई नहीं है। हम इसके बारे में जानते हैं; पर आदिवासियों की दिशा क्या है और क्या होनी चाहिए? इस सवाल पर विस्तारपूर्वक चर्चा करने की आवश्यकता है। आदिवासी चेतना का ही परिणाम है कि आज आदिवासी ऐजेण्डे में आ रहे हैं; लोग मानें या न मानें। लोग कहते हैं कि आदिवासी हाशिए पर हैं लेकिन वास्तव में कालक्रम में आदिवासी ही केन्द्र में थे जिनको धीरे-धीरे हमने हाशिए पर धकेल दिया।’’3 जिस प्रकार आज हमारे समाज में आदिवासियों की स्थिति है, वैसी ही दशा हिन्दी साहित्य में आदिवासी विमर्श को लेकर धारणा है। इसलिए ‘‘समूचे भारत में लिखित आदिवासी साहित्य नगण्य है। आदिवासी साहित्य के नाम पर हमारे पास आदिवासी वाचिक साहित्य है जिसे हम आदिवासी लोक साहित्य कह सकते हैं। कुछ ईसाई मिशनरियों ने आजादी से पूर्व जो आदिवासी साहित्य संकलित किया था उसकी लिपि रोमन है।’’4 प्रस्तुत कथन से साबित होता है कि आदिवासियों के पास भाषा थी; किन्तु लिपी नहीं रही है। ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी से संबंधित साहित्य को रोमन लिपि में प्रकाशित करवाया था। क्योंकि आदिवासी अपनी मातृभाषा में भले ही आदिवासी समाज को अभिव्यक्त करने में सहज महसूस करते है। किन्तु इनका दायरा सीमित हो जाता है। लिपि के बिना किसी भी समस्या या जीवन दर्शन को वैश्विक पटल पर नहीं उठाया जा सकता है।

हिन्दी साहित्य के विमर्श की चर्चा में लोग दलित और आदिवासी को एक समझने की भूल कर बैठते हैं; किन्तु यह भम्र है। दोनों का अपने-अपने अलग प्रश्न है अपने विमर्शो को लेकर। कोई समतामूलक समाज के लिए लड़ता है तो कोई सदियों के अस्तित्व व पहचान के लिए संघर्षरत है। इसलिए ‘‘दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के मध्य की सीमा रेखा को गंभीरता से समझने की जरूरत है। दलित साहित्य के पास कोई भी स्वतंत्र भाषा-बोली नहीं है जो आदिवासी के पास है। हिन्दी भाषा आदिवासी भाषा नहीं है, किन्तु हिन्दी दलित वर्ग की भाषा है, क्योंकि अधिकांश दलित साहित्य हिन्दी में लिखा गया हैं।’’5 इसलिए दलित और आदिवासी साहित्य की भिन्न है। आदिवासी साहित्य में आदिवासियत है। जो सरोकार के लिए जहोजद्द है। ‘‘आदिवासी सिर्फ आदिवासी है और उसका साहित्य भी आदिवासी या जनजातीय साहित्य है। आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य की श्रेणी में किसी भी कीमत पर नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि आदिवासी साहित्य की अवधारणा और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अलग प्रकार की है। भारत में ही नहीं संसार में सभी जनजाति समुदायों की भाषा और संस्कृति अन्य गैर आदिवासियों से भिन्न है। आर्थिक पिछड़ेपन और अशिक्षा के कारण सभी दलित हैं, किन्तु आदिवासी दलित नहीं हैं।’’6

क्योंकि आदिवासी जीवन का इतिहास सदियों की परंपरा में कायम है। आदिवासी साहित्यकार ही इसे समझ सकता है। जैसा सभी जानते है कि ‘‘आदिवासी-साहित्य का कुल वातावरण ही आदिम जीवन के दुःखों की खोज करने वाला, आदिम हंुकारों से भड़का हुआ और अंधेरे से लड़ने वाला है। आदिमों के अंतर्मन की तिलमिलाहट इस वातावरण द्वारा संजोकर रखी गई है।’’7 आदिवासियों की पहचान संस्कृति में निहित है। जिसे वे अब भी बचाकर रखे हुए हैं।

देश की आजादी और राष्ट्र के विकास में हाशिए वाले समाज का प्रत्येक सदी में योगदान रहा है। भारत पर जब भी आक्रमण हुआ तो सबसे पहले ये पीड़ित समाज ही आगे बढ़े हैं। अलग-अलग रूपों में इसका योगदान रहा है। विविध संस्कृति और राजनीतिक तालमेल में हाशिए की पहचान रही है। ‘‘वस्तुतः यह हाशिए का समाज ही राष्ट्र समाज की प्रमुख मानवता है जिसकी महत्वपूर्ण भूमिका सभ्यता व संस्कृति के विकास में हुई तथा उत्पादन का कार्य भी इसी वर्ग द्वारा किया गया। इसलिए जब राष्ट्र निर्माण में मानव संसाधन के अवदान पर चर्चा की जायेगी तो श्रम सम्बद्ध इसी हाशिये के समाज को केन्द्र में रखा जायेगा न कि वर्चस्वकारी पराश्रयी प्रभु वर्ग को।’’8

आज मुख्यधारा की सोंच में गुमान जरूर देखे जा सकते है।  वे अपने को ही इस देश का मूल निवासी कहते हैं। किन्तु ये गलत है; क्योंकि वे दूसरे देशों से आये हुए आर्य हैं। भारत के मूल वासी को अजनबी का दर्जा दे दिया गया है। आज ‘‘जिसे हम हाशिये का समाज कहते हैं उसका अधिकांश ज्ञात स्तर पर देश का मूल निवासी है। इस देश की सभ्यता व संस्कृति का निर्माता है। इस राष्ट्र की भूमि का असली वारिस है। जो मानसिकता समानता, सामूहिकता, प्रकृति व प्राणियों के साथ सहअस्तित्व, श्रम की महत्वता आदि में विश्वास नहीं करती उसे राष्ट्र हित के द्यौतक माना जाना चाहिए।’’9

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश में आज अगर हाशिए की समाज के प्रतिनिधित्व को देखा जाय तो कुल आबादी का 70 प्रतिशत है; लेकिन फिर भी ये सब मुट्ठी भर लोगों के गुलाम बने हुए है। इसमें स्त्रियां भी शामिल हैं। इस ‘‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनसंख्या एवं मतदाताओं का निर्णय शासन संचालन के लिए प्रमुख शक्ति-स्त्रौत होता है। इस दृष्टि से देखा जाये तो दलित, आदिवासी, अति पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक (महिलाओं सहित) क्रमशः 16, 12, 22 व 20 (कुल 70 प्रतिशत) एवं 30 प्रतिशत प्रभु वर्ग का 50 प्रतिशत अर्थात् कुल का 15 प्रतिशत स्त्रियों को मिलाकर तथाकथित हाशिये समाज का यह वर्ग भारत की 85 प्रतिशत जनसंख्या बनती है और इसी अनुपात में मतदाता। इस बहुजन को हाशिये का समाज कैसे कहा जा सकता है?’’10

इसलिए हाशिये को शिक्षा के बल पर ही अपनी पहचान मिल सकती है। उसे देश की व्यवस्था में दखल देना होगा तभी हमारे समाज की काया पलटेगी। इसलिए ‘‘मुक्ति का मार्ग एक ही है कि हाशिये के जिस समाज को अब हम बहुसंख्यक समाज कहने की स्थिति में हैं उस समाज के विभिन्न घटक एकजुट होकर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक मोर्चों पर लामबंद हों और शिक्षा, जागृति व नेतृत्व को विकसित करें एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपना सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें, ताकि निर्णय उनके पक्ष में सम्भव हो सकें और साथ ही वर्चस्वकारी वर्ग को यह आत्मानुभूति हो कि परम्परा-दर-परम्परा उसने जो चालाकियां की हैं वे अन्ततः समग्र मानव समाज के हित में नहीं हैं। ये हरकतें मनुष्य विरोधी हरकतें रही हैं; जिनसे स्वयं वह वर्ग भी सुरक्षित नहीं रह पायेगा।’’11 यह सर्वविदित है कि आदिवासी समाज सदियों से शिक्षा से कटा हुआ है। शिक्षा के बल पर ही ये अपने अधिकारों के लिए आम आदिवासियों के बीच जागृति ला सकते हैं।

आदिवासी समाज की संस्कृति में ईश्वर की धारणा का आधार कभी नहीं था; अपितु ‘‘आदिवासी संस्कृति में ईश्वर या आत्मा नहीं, प्रकृति प्रमुख है, जिसके साथ मनुष्य जीता, पलता, बढ़ता है और फिर खत्म हो जाता है। मरकर भी वह प्रकृति के विकास के लिए खाद बन जाता है। उसका कंकाल, उसकी हड्डिया धरती को उर्वर बनाती हैं, धरती पर कब्जा नहीं करतीं। आदिवासी मान्यताओं के अनुसार उसका मिट्टी का अंश मिट्टी में, पानी का पानी में, ऊर्जा आग में बदल जाती है और श्वास हवा में मिल जाता है। यह आस्थाएं ‘आदि-धर्म’ में भी चिहिृत हैं।’’12 बल्कि यह मुख्यधारा की करतूत और षडयंत्र की उपज है जिसके कारण ये मानसिक गुलाम बना दिए गए हैं। वह प्रकृति की पूजा इसलिए करता है; क्योंकि उसका उपयोग करता है। जाहिर है कि जिसका प्रयोग किया जाता है उसे संरक्षित रखा जाना चाहिए। आदिवासी समाज में आस्था की पहचान उसके समूह को लेकर है। इस तरह हम मुख्यधारा और आदिवासी साहित्य में अंतर देखने को मिलता है।

यद्यपि आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों को देखते हैं जिसे आदिवासी और गैर आदिवासी कथाकारों ने अपने-अपने तरीके से आदिवासी साहित्य को समझने का प्रयास किया है। इसलिए दोनों के तुलनात्मक दृष्टि से विचार कर निदान तक पहुँचे जा सकते हैं जिसके कारण मुख्यधारा और आदिवासी के चिंतन में आदिवासी साहित्य की समझ स्पष्ट हो जाएगे।

सर्वप्रथम आदिवासी जीवन के सामाजिक समस्याओं को देखते हैं, जिसमें अशिक्षा भी सामाजिक समस्यों में एक है। जिसे उपन्यासों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। अशिक्षित रहने के कारण आदिवासियों की विडम्बना यह है कि अपने ऊपर हो रहे शोषण का प्रतिकार अशिक्षित रहने के कारण कानूनी ढ़ंग से नहीं कर पाते हैं। परिणाम यह होता है कि साहूकार, जमींदार, विचैलिऐ, ठेकेदार आदि लोग हर तरह से इस समाज का शोषण करने में सफल हो जाते हैं। गैर आदिवासी कथाकार राकेश कुमार सिंह के ‘पठार पर कोहरा’ उपन्यास में सुगना मुंडा पात्र कहता है कि ‘‘साहू सेर-भर अनाज का चैथाई नमक बदले में देता है तुम्हें। जानते हो, शहर में नोन पैसों पर मिलता है और अनाज रूपयों से। तुम पढ़े-लिखे होते तो साहू यँू लूट नहीं सकता था तुम्हें।’’13 आज भी और कल भी शिक्षा का महत्व हर समाज में रहा है और रहेगा।

वहीं आदिवासी कथाकार पीटर पौल एक्का ‘मौन घाटी’ उपन्यास में कहते हैं कि आज आदिवासियों के लिए शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके बल पर वह अपने पूरे समाज को सुधार सकता है। इसी के बल पर दिकुओं से केश भी लड़ सकता है। इसी शिक्षा के महत्व को स्वीकारते हुए लेखक अभिव्यक्त करते हैं। काका से किशोर से कहते हैं कि ‘‘तब गाँव-घर के लिए कुछ कर सकोगे बेटे। हम तो जहाँ तक हो सका रास्ता दिखाने का कोशिश किया। अंगरेजों के जमाने में दूसरी जमात तक पढ़कर कितना कर पायेगा। उकील, बेरिस्टर, हाकिम-हुकूम हो जावोगे तो केस मोकदमा में मदद कर सकोगे।’’14 ये सच है कि आदिवासियों में शिक्षा की कमी है। जो भी शिक्षित हुआ है वह अपने अनुकूल समाज में काम करता है। भले ही दिकुओं से मुकदमा ही क्यों न लड़ना पड़े वे इससे पीछे नहीं हटेगे।

प्रस्तुत कथन से अभिव्यक्त होता है कि गैर आदिवासी के चिन्तन में अशिक्षा की समस्या तभी हो पाऐगी जब आदिवासी शिक्षा के महत्व को समझने की कोशिश करेंगे। जब आदिवासी कथाकार भी मानना है कि शिक्षा के बल आदिवासी अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं।

इसके बाद आदिवासियों के सांस्कृतिक समस्या को देखते हैं। आदिवासियों के बीच धर्मान्तरण की समस्या प्रमुख रूप से देखने को मिलते हैं; जिसे समकालीन कथाकारों ने अपने उपन्यासों में अभिव्यक्त किया है। गैर आदिवासी कथाकार मधु काँकरिया के ‘खुले गगन के लाल सितारे’ उपन्यास में धर्मान्तरण की समस्या देखने को मिलते हं;ै जो कि अन्य उपन्यासों से भिन्न है। इसी पर लेखिका लिखती हैं कि ‘‘अपनी संस्कृति और प्रकृति-प्रेम में पूरी तरह डूबे एवं अपनी जातीय स्मृति पर गर्वित है इस समाज के बारें में मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण की जो इतनी बातें आए दिन सुनने को मिलती हैं, क्या है आधार इनका …?……हाँ धर्मान्तरण की ढेर सारी घटनाएँ यहाँ मिल जाएँगी आपको, लेकिन इतना बता देता हँू, किसी आर्थिक प्रलोभन या क्षैक्षिक प्रलोभन के चलते आदिवासी अपना धर्म नहीं छोड़ते हैं। बड़ा स्वाभिमानी है यह समाज लेकिन मृत्यु-दुख, जानलेवा व्याधि, सन्तान या पत्नी की मृत्यु जैसे चरम टूटते क्षणों में ही होता है यह धर्मान्तरण। कहीं-कहीं महज एक क्रोसिन की टेबलेट के चलते एक पूरे परिवार ने गले में क्रांस पहन लिया; क्योंकि पास में रहते हुए भी आप लोगों ने कभी सुध नहीं ली, वरन् हर तरह से उन्हे लूटा। उनकी सूध ली सात समुन्दर पार से आए उन विदेशी मिशनरियों ने। भले ही अपने विश्वासों के आधार पर किन्हीं भी कारणों से ली हो उन्होंने सुध लेकिन ली तो। आप लोगों ने तो उन्हें उनके अपने परम्परागत किसानत्व से भी दुर कर उनके वनों को काट उन्हें भारी संख्या में खेतिहर मजदूर या कारखानों के कैजुअल मजदूर बना डाला है।’’15 इस कथन से जाहिर है कि आदिवासियों ने भले ही आर्थिक मजबूरी के कारण धर्म परिवर्तन किए हों; किन्तु वे अपने आदिवासीपन को अब तक नहीं भूले हैं। यहां पर दिकुओं ने आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराकर मुख्यधारा की मानसिकता को स्पष्ट कर दिये हैं। 

आदिवासी कथाकार हरिराम मीणा ने अपने ‘धूणी तपे तीर’ उपन्यास में धर्मान्तरण की समस्या को अभिव्यक्त किया है। इस उपन्यास के प्रमुख पात्र गोविन्द गुरू हिन्दू धर्म से प्रभावित होते दिखते हैं; क्योंकि गोविन्द गुरू के ऊपर गुरू राजगिरी गोसाई और आर्य समाज के संथापक दयानंद सरस्वती का प्रभाव पड़ा था। गुरू राजगिरी गोसाई ने प्रथमतः औपचारिक शिक्षा दी थीं। इसके बाद दयानंद सरस्वती से उदयपुर के दरबार में मुलाकात और कुछ समय बीताने के पश्चात् वे हिन्दू दर्शन से प्रभावित हुए जिसके बाद उनके व्यक्ति पर प्रभाव दिखने लगा था। इसके बाद वे हिन्दुत्व के पथ पर संप सभा को लक्ष्य करके उसके लक्ष्य निर्धारित करने लगे। धूणी धाम की स्थापना, धर्म प्रचार, भगत का कर्म, मृत्यु के बाद उसके क्रिया-कर्म के साथ कई दृश्य दिखते हैं। लेखक ने इसी ओर संकेत करते हुए लिखा है कि ‘‘धर्म-प्रचार अर्थात्, भक्ति भाव भरे गीतों और भजनों को याद किए रहना, नया सृजन करना, तथा भजनों और वक्तव्यों के माध्यम से सम्प सभा के धार्मिक विचारों का प्रचार करना जिसमें साफ-सफाई से रहना, स्नान करना, तुलसी की माला पहनना, कंठी-जाप करना, चंदन-तिलक लगाना, धूणी में हवन के उह्नेश्य से घी डालना, घी का दीपक जलाना, मुख्य तिथियों पर और विशेषकर पूर्णिमा के अवसर पर नारियल चढ़ाना आदि इस में शामिल था। इस सारे कार्य का जो रचनात्मक पक्ष था वह था नैतिक गुणों का विकास करना और अच्छा मनुष्य बनाना।’’16 इस सामंतवादी मनुवादी व्यवस्था के साठगांठ में गुरू गोविन्द जी आदिवासियों से हवन तक करवा लेते हैं। जो बाद में आदिवासी समाज के पतन का कारण भी बना था। आदिवासियों का अपना धर्म है। इस कथन में अंधविश्वास की भावना को दिखाया गया है जो कि मुख्यधारा की मानसिक उपज है। अंत मे आदिवासी भी स्वीकारते हैं कि अगर खुलकर आमने-सामने अंग्रेजों का सामना करते तो शायद परिदृश्य ही कुछ ओर होता।

उपर्युक्त दोनों के कथन से स्पष्ट होता है कि मुख्यधारा की मानसिकता के कारण अंधविश्वास की परंपरा आदिवासियों के बीच कायम हुआ है। इस कारण आदिवासियों को वर्षो से इस परंपरा का खामियां भुगतना पड़ा है। ऐसा मत् गैर आदिवासी और आदिवासी कथाकारों के हैं।

इसके बाद आदिवासियों के आर्थिक एवं राजनीति समस्याओं को देखते हैं। जिसमें भष्ट्राचार दोनों तरह के समस्याओं में पाऐ जाते हैं। किसी भी अर्थव्यवस्था को चैपट करने में भष्ट्राचार भी हाथ होता है। आदिवासियों के लिए सरकार के तरफ से मुआवजे के लिए जो राशि आती हैं तो बड़े-बड़े साहब, अधिकारी की मिली भगत से गिल लिये जाते हैं और कुछ बचते हैं तो कुछ ही आदिवासियों को वह राशि पाते हैं। यह राशि बहुत कम होते हैं। इसी आदिवासी कथाकार पीटर पौल एक्का कहते हैं कि ‘‘अब तक जितने गांव खाली कराये जा चुके थे उनकी मांगे कागज फाइलों में ही दबी रह गयी थीं। मुआवजा के थोड़े बहुत पैसे मिले थे वे भी उन गरीबों के हाथ आते-आते आधा से भी कम हो गये थे। जमीन दिलाने-बसाने की बात भुला दी गयी थी।’’17 आदिवासी विकास के लिए सरकारी योजना से आई राशि का घटोला हो जाता है।

उपर्युक्त कथन से साबित होता है कि अगर आज आदिवासी आर्थिक मामले में जूझ रहे हैं तो इसके कारण बाहर से आए दिकुओं का हस्तक्षेप है; क्योंकि ये अपने सूझ-बूझ से आदिवासियों का शोषण करते हैं। इन दिकुओं का संबंध मुख्यधारा से जुड़े हुए हैं; क्योंकि आदिवासी समाज सरल, सहज और अबोध होते हैं। मुख्यधारा की सोच आदिवासियों के लिए कभी सही नहीं रहा है ऐसा मानना है आदिवासी कथाकारों का; किन्तु गैर आदिवासी अपने मत में कहते हैं कि आदिवासियों का विकास मुख्यधारा के कारण हो रहा है; क्योंकि वे उसका अनुकरण कर रहे हैं। लेकिन यह सच है कि आदिवासी उनका अनुकरण कर रहे हैं; किन्तु इसके कारण वे अपने पहचान को भी खाते जा रहे हैं।

अब आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों में कथाकारों के भाषा-शिल्प को समझने का प्रयास किया जाय, जो उपन्यासों में अभिव्यक्त है। इसके लिए गैर आदिवासी कथाकार राकेश कुमार सिंह के ‘पठार पर कोहरा’ उपन्यास में भाषा-शिल्प को देखते हैं ‘‘पहले तो पक गया था। मेथी कल्हार (भूनकर) माई ने पीसकर लगा दिया तो घाव फूट गया। अब रखतेला रखेंगे घाव पर। रखतेला क्या ? कोई जड़ी-बूटी ?….. गोईठे की राख होती है न…खूब महीन, उसमें करू तेल (सरसों का तेल) फेंटकर घाव पर लगाते हैं। घाव ठीक हो जाता है और का… तुम जाना नई….अभी आते हैं।’’18 यहाँ आदिवासियों के दैनिक जीवन की आम बोलचाल की शब्दावली का प्रयोग किया है। वैसे कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो आम समाज के समझ के बाहर हैं जैसे – कल्हार, रखतेला। इसमें पूर्णतः ग्रामीण शब्दों की प्रचुरता है। लेकिन प्रयोग किए गए शब्दों में कहाँ तक वास्तविकता है कि ये आदिवासी के शब्द हैं।

इसके बाद आदिवासी कथाकार पीटर पौल एक्का के ‘मौन घाटी’ उपन्यास में झारखण्ड के आसपास के मुंडा आदिवासी की बोलियों एवं उसके भाषा का प्रयोग किया गया है। वे आदिवासी क्षेत्रों में सरकार के द्वारा दिये गए सुविधाओं के दुर्दशा पर लिखते हैं कि ‘‘गाँव का इस्कूल देखो। साल में कै बार कलास होवे है। दूर आखर के पढ़ाई भी नी होता है। गाँव का इसपिताल देखा है तुमलोग। मलेरिया होगा तो कंपोडर निरोध दे के जायगा। इस्कूल और इसपिताल तो गोदाम ही गवे है। ई सब बनाइ-के-सजाइके हमत तोहर फरिज है। जे जे मरद है, मोंछ है, तो साथ में चलो और नही ंतो इसतरी मन लेखे जनाना कुर्ता-धोती पहिन के चूड़ी लागाइये चूल्हा फुँके रहा। कोई दोसर आके ई काम हमर वास्ते करेगा क्या। आपलोग कहो।’’19 प्रस्तुत कथन में हमे देखने को मिलता है कि इसमें स्थानीय बोलियों के शब्दों में इस्कूल, इसपिताल, फरिज, दोसर प्रमुख शब्द दिखने को मिलते हैं। इसके साथ व्यवहारिक जीवन शैली के शब्द भी दिखने को मिलते हैं।

उपर्युक्त देखा जाय तो मुख्यधारा और आदिवासी साहित्य में विशेष तौर पर अंतर दिखता है। मुख्यधारा की सोच सामंती प्रवृति की है जबकि आदिवासी इनसे अब भी अंजान है। वही मुख्यधारा की शब्दावली कर्कश है और आदिवासी की शब्दावली में कर्कश शब्द ही नहीं दिखने को मिलते हैं। मुख्यधारा का साहित्य सहानुभूति पर लिखा जाते रहा है; जबकि आदिवासी आदिवासी स्वानुभूति को लेकर प्रतिबद्ध है। मुख्यधारा की चिंतन प्रणाली में केवल व्यक्ति स्वार्थ दिखने को मिलता है; जबकि आदिवासी की चिंतन प्रणाली सामूहिकता को लेकर है।

निष्कर्ष

निष्कर्ष: समकालीन आदिवासी लेखक और दिकु आदिवासी लेखन के तुलनात्मक अध्ययन पाया गया कि हिन्दी साहित्य में गैर आदिवासियों ने भी आदिवासी लेखन में आदिवासी रचनाकारों की तुलना में कई रचनाएं रची जिससे हम वाखिफ है। इस रचनाओं के माध्यम से आदिवासी जीवन की दशा को सहानुभूति के बल पर भले ही पेश किया गया हो, किन्तु यह भी सच है कि आदिवासी साहित्य को समृद्ध करने में गैर आदिवासी रचनाकारों का सराहनीय योगदान रहा है। इसके बाद एक ओर सत्य की ओर मैं इशारा करना चाहूँगा कि मुख्यधारा के साहित्य में आदिवासी की क्या स्थिति है ? वह सर्वविदित है। मुख्यधारा का समाज मनुवाद पर कायम है जबकि आदिवासी समाज की धारणा स्व रचित सामूहिकता में कायम है।

संदर्भ सूची

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3.  मीणा डॉ. रमेशचन्द्र, आदिवासी विमर्श, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ हिन्दी अकादमी, जयपुर, 2014, पृ. 5

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14. डॉ. एक्का फा. पीटर पौल, एस.जे., मौन घाटी, जंगल के गीत, सत्यभारती प्रकाशन, राँची, झारखड -834001, अप्रैल 2013, पृ. 06-07

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16. मीणा हरिराम, धूणी तपे तीर, साहित्य उपक्रम, नई दिल्ली, 2008, पृ. 188

17. डॉ. एक्का फा. पीटर पौल, एस.जे., पलास के फूल, सोन पहाड़ी, सत्यभारती प्रकाशन, राँची, झारखड -834001, मार्च 2012, पृ. 91

18. सिंह राकेश कुमार, पठार पर कोहरा, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली – 03, दूसरा संस्करण: 2005, पृ. 132

19. डॉ. एक्का फा. पीटर पौल, एस.जे., मौन घाटी, जंगल के गीत, सत्यभारती प्रकाशन, राँची, झारखड -834001, अप्रैल 2013, पृ. 73

डॉ. अमित कुमार साह,

महद्दीपुर, खगड़िया, बिहार

ईमेल: amitsmith555@gmail.com