मानव था तो समझ नही पाया।
जब जानवर बना तो समझा।।

प्रकृति नें ऐसा थपेड़े दें मारा।
खुद जान हलक पे आ गया।।

बेजुबाँ को बहुत क़ैद किया था!
अब बेजुबाँ आज़ाद हम क़ैद!!

लाचारीयों के अलावा कुछ न बचा
ये प्रेम का नही प्रकृति का प्रकोप हैं!!
प्रेम प्रकाश
शोधार्थी,
राँची विश्वविद्यालय, राँची, झारखंड