मनुष्य और पशु के साहचर्य जीवन को दर्ज करती रेणु की कहानी ‘तॅबे एकला चलो रे’
डॉ. मणिबेन पटेल
8383805299
शोध सारांश
फणीश्वर नाथ रेणु अपने समाज, परिवेश, लोक संस्कृति और संवेदना के महान कथाकार हैं। उनकी कहानियों में बिहार क्षेत्र (विशेषतया; मैथिल अंचल तथा बिहार-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों) का लोकजीवन, आंचलिक परिवेश दृष्टिगत होता है। स्थानीय रंग, रूप, गंध, स्पर्श – सभी को रेणु एक सूत्र में पिरोते हैं।‘तॅबे एकला चलो रे’ इनकी चर्चित कहानियों में से एक है। यह कहानी तमाम संवेदनाओं और भावनाओं से बुनी गई है। इसमें संवेदना का विस्तार मनुष्यों की भाव-भूमि से विस्तृत होकर पशु जगत तक दिखाई पड़ता है।
बीज शब्द: साहित्य, परिवेश, लोक संस्कृति, कथाकार, क्षेत्र
शोध आलेख
फणीश्वर नाथ रेणु अपने समाज, परिवेश, लोक संस्कृति और संवेदना के महान कथाकार हैं। उनकी कहानियों में बिहार क्षेत्र (विशेषतया; मैथिल अंचल तथा बिहार-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों) का लोकजीवन, आंचलिक परिवेश दृष्टिगत होता है। स्थानीय रंग, रूप, गंध, स्पर्श – सभी को रेणु एक सूत्र में पिरोते हैं।‘तॅबे एकला चलो रे’ इनकी चर्चित कहानियों में से एक है। यह कहानी तमाम संवेदनाओं और भावनाओं से बुनी गई है। इसमें संवेदना का विस्तार मनुष्यों की भाव-भूमि से विस्तृत होकर पशु जगत तक दिखाई पड़ता है।
कहानी की शुरूआत लालबाबू की भैंस के बच्चे (पाड़ा) के जन्म से होता है। अनुपयोगी समझकर लोग उसकी उपेक्षा करते हैं। यहाँ तक कि उसके लिए अमंगल वचन बोलते हैं। मनुष्य के उपयोगितावादी नजरिए के कारण उसके साथ उचित न्याय नहीं होता। लेखक मनुष्यों में बेटी और पशु जगत में बेटा अर्थात नर के प्रति नकार के भाव की भारतीय कुरूप मानसिकता को बेहद सहजता के साथ उजागर करते हैं। कहानी में गाँव और परिवार के बड़े-बूढ़े षष्ठी माँ से प्रार्थना करते हैं – ‘‘जय मैया छठी! मानुस को दो बेटा, पसु को बेटी।… ले जा मैया पाड़ा, दे जा मैया पाड़ी। ’’1‘ले जा’ से अर्थ है उठा लो अथवा बलिदान लो। यह उपयोगितावादी दृष्टि मनुष्य समाज की विडंबना है। वह चीजों को तब तक स्वीकार नहीं करना चाहता जब तक कि उसमें स्वयं उसे अपना हित ना दिखे। पाड़ा (किसन महराज) के साथ भी यही होता है।
‘‘ किसन महराज को कौवे तंग करते … बेचारा शुभ दिन में धरती पर आया और जन्म से ही अपमान और लाँछना सह रहा है ! पाड़ी होती तो गले में कौड़ियों की माला के साथ एक टुनटुनी भी पड़ी होती। कोई आँख के कीचड़ पोछ जाती, हवेली से बाहर निकल कर कोई बड़ी जतन से दूध में जड़ी घिस कर पिलाती- चुचकार कर। घर की बड़ी बूढ़ी सदा तीर धनुष लेकर बथान को अगोरती। उड़ने वाले हर परेवा पंछी को कौवा समझ कर हाँकती।’’2
लालबाबू, किसन महराज (पाड़ा) के दुख से दुखी है। उसका डगमग करके चलना लेखक को जैसे बाल्यकाल के तुलसी के राम की याद दिला देता है।‘ठुमकि-ठुमकि प्रभु चलहिं पराई !’यह सौंदर्य बोध अद्भुत है। गाँव, परिवार की उपेक्षा के बाद भी बिना किसी की परवाह किये लेखक अपनी आत्मा की आवाज सुनता है और उसे अपने साहचर्य में रखता है। उसे स्नेह के साथ दुलारता पुचकारता है।‘‘उसे दिखलाकर मैंने पाड़े के मुँह के पास अपना मुँह लाकर चुचकार दिया। चु: चु: !… आदमी के उस पिद्दी बच्चे ने मेरी ओर घृणा भरी दृष्टि से देखा, फिर धरती पर थूकता हुआ आँगन की ओर भागा – राम! राम! तोबा, तोबा! बाबूजी निरघिन डोम भेल – पाड़ा क थुथनी में चुम्मा लेल… !’’3 दरअसल सामाजिक रूप से अत्यंत ही घृणित व्यक्ति को मिथिलांचल में ‘निरघिनडोम’ कहा जाता है। लेखक ने अपनी कहानियों में लोक भाषा का जबरदस्त प्रयोग किया है। भौगोलिक रूप से मिथिला और बांग्ला एक दूसरे से जुड़े भूभाग भी हैं। इसलिए भी कहानियों में बंगला और मैथिली शब्द ही ज्यादातर प्रयुक्त हैं।‘‘पूरब मुलुक से आए हुए व्यापारियों के दल का कोई ‘लबाना’(पाड़ा खरीदने वाला) इसके पुट्ठे पर हाथ रख कर परीक्षा करेगा– अभी तो एकदम बच्चा है। हल में लगाने के काबिल नहीं …लेबोना, एटा लेबोना!… शायद हर बात में लेबोना सुनकर ही लोगों ने इन व्यापारियों को लबाना कहना शुरू किया।’’4 ग्रामीण परिवेश, रहन-सहन, बोली- बानी, प्रकृति को सजीव रूप में इन्होंने अंकित किया है। देहात के सरल जीवन में आत्मीयता अधिक है। नफा-नुकसान से परे भी एक संबंध है जो ग्रामीण संस्कृति की धड़कन में बसता है। जीवन के विविध रूपों, उसकी सरल सहज वृत्ति, मनोदशा का हृदयस्पर्शी चित्रण रेणु ने किया है। किसन महाराज को परिवार के लोगों द्वारा मकदूम मियां के हाथ नब्बे रुपये में बेच देने के बावजूद लालबाबू गाँव लौटने पर एक सौ दस रुपये देकर पाड़ा को वापस लाता है। अपने मालिक के प्रति पशु का अद्भुत प्रेम प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ के हीरा मोती की याद दिला देता है। इसका वर्णन लेखक अपनी पत्नी के द्वारा कुछ इस प्रकार से करवाते हैं- ‘‘कन्हाई बाबू ने रुपए गिन कर मकदूम के हाथ में पाड़े की रस्सी थमा दी, लेकिन पाड़ा रस्सी तुड़ाकर आँगन भाग आया, मेरे पास। मैं रसोई घर में थी। वहाँ पहुँचकर डिकरने लगा।… एह! आँख से लोर झहर-झहर झर रहे थे … आँचल में छिपने की कोशिश कर रहा हो मानो।’’5 मनुष्य और पशु के भावनात्मक रिश्ते, अपनेपन की गंध, सहज वृत्ति जैसे इस कहानी में मूर्त हो उठी है। लालबाबू पाँच-पंचों के बीच में कह आता है कि यह पाड़ा आज से सबका हुआ, गाँव का, इलाके का। धीरे धीरे यह सबका प्यारा हो जाता है। गाँव भर के बच्चे इस पर सवारी करते हैं। दरअसल गाँव में सुख शांति लेखक का सपना है और उसके द्वारा गढ़ा गया पात्र ‘किसन’ इस सपने को पूरा करने का जिम्मा अपनी आखिरी साँस तक उठाता है। कठिन समय में गाँव वालों की रक्षा करता है। ग्रामीण समाज की विडंबना रही है कि वह पूजा-पाठ, धर्म आडंबर में ही प्रसन्नता का अनुभव करता है। इस आवरण में वह अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। जो ग्रामवासी किसन की उपेक्षा करते हैं वही उसे ‘देवहा’ पाड़ा कह कर पूजते भी हैं और उसकी प्रिय वस्तुएं खिलाकर खुद को सुरक्षित व संतुष्ट पाते हैं। इस कहानी में गाँव की विद्रूपताओं, विसंगतियों, ग्रामीण जन की पीड़ा के साथ ही लोकजीवन की सत्यानुभूति, सहज मन की सहज अभिव्यक्ति भी मुखरित हुई है। यह कहानी मनुष्य के निरंतर बदलते हुए व्यक्तित्व को भी परिभाषित करती है। इसमें सामाजिक समस्याओं के प्रति लेखक की चिंता को गहराई से महसूस किया जा सकता है। गौरतलब है कि उस दौरान जमीन हदबंदी एक बड़ी समस्या थी। भूमि सुधार को लेकर विभिन्न जनवादी पार्टियों द्वारा तरह-तरह की माँग भी की जा रही थी । कुछ लोगों का विचार था कि एक निश्चित अवधि तक जो खेत में अन्न उपजाये खेत उसी के नाम पर कर दिया जाए अर्थात् जमीन उसी की जो जमीन की जुताई करे, उसपर फसल उपजाए | चूँकि बड़े किसान, जमींदार अपनी जमीन गरीब बटाईदारों को दे दिया करते थे इसलिए उनके मन में अपना खेत हड़पे जाने का भय समा गया। गाँवों में किसान और गरीब बटाईदारों में हिंसा शुरू हो गई । रेणु लिखते हैं – ‘‘बिहार विधानसभा में जमीन हदबंदी के सवाल पर विचार होना अभी भी बाकी है। लेकिन जिस दिन यह प्रस्ताव सदन में पेश हुआ उसके दोमाह पहले से ही… जिले में किसान और गरीब बटाईदारों में कई जगह गुत्थम-गुत्थी भी हो गई।’’6 कहानी में लाल बाबू के गाँव में भी किसान, जमीदारों ने तय किया कि वे फसल बटाईदारों को नहीं काटने देंगे। योजनानुसार किसान शिव शंकर सिंह लठैतों के साथ जमीन पर आ धमके। बटाईदार वाक हो गए। चारों ओर कोहराम मच गया। अभागे बटाईदार लालबाबू के पास आकर गिड़गिड़ाने लगे पर लालबाबू अपने पसीजते हुए दिल को पत्थर बनाने की चेष्टा में व्यस्त होने की कोशिश करते रहे। दरअसल पारिवारिक, सामाजिक तमाम दबाव या कहें कि अपना स्वार्थ आड़े आने पर मनुष्य चाहते हुए भी उचित न्याय नहीं कर पाता। जहाँ उसका हित दिखता है वहाँ उसका रवैया कहीं ना कहीं पक्षपातपूर्ण हो ही जाता है। आखिर किसन महाराज मोर्चे पर पहुँच जाता है। गाँव वालों की लड़ाई अकेले लड़ता है और शहीद होता है। किसन के माध्यम से लेखक की घुटती हुई आत्मा को जैसे रास्ता मिल जाता है ।इसके बाद गाँव में सर्वत्र शांति विराजमान हो जाती है । लोग आपस में समझौता कर लेते हैं।
किसन की समाधि पर आसपास के कई गांव वालों ने शोक जताया। धूप दीप जलाया गया, शंख ध्वनि की गई, लाल शालू का झंडा गाड़ा गया। एक विद्यार्थी ने अपनी टूटी-फूटी भाषा में भाषण भी दिया कि ‘‘जब आदमी के दुख को आदमी ने नहीं समझा, किसन महराज ने पशु होकर आदमी का काम किया। आदमी का काम नहीं देवता का ।’’7दरअसल जो नैसर्गिक न्याय मनुष्य नहीं कर पाता, उसे कहानी में पशु के माध्यम से लेखक ने संपन्न करवाया है। पाड़ा जिस तनुक शाह के घर की चोर से रक्षा करता है उसी तनुक शाह को उसकी बेईमानी की सजा उसके दो बीघे तंबाकू को रौंद कर देता भी है। लेखक कहते हैं कि ‘‘तनुक शाह ने दो दर्जन केले खिलाए थे किसन महराज को… लेकिन दो दर्जन केले खिलाकर उसकी नीति भ्रष्ट नहीं कर सका तनुक शाह।’’8
जब गाँव का ही कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति लालच देकर संतोषी की बेवा से अपनी तृप्ति के लिए प्रेम निवेदन करता है तब भी पाड़ा वहाँ पहुँच जाता है और संतोषी की बेवा की रक्षा करता है। संतोषी की बेवा के शब्दों में -‘‘…सच कहती हूँ मालकिन, उस दिन किसन महराज नहीं आ जाता तो मैं डूब चुकी थी।’’9
इस कहानी में लेखक यह भी दर्शाने की कोशिश करता है कि न्याय बलिदान माँगता है, न्याय के लिए लड़ना पड़ता है, सजग रहना पड़ता है । किसन महराज लेखक के प्रतिनिधि के रूप में पूर्ण न्याय करता है। अकेले ही गरीबों के हक की रक्षा करता है। शारीरिक रूप से मर कर भी विचार दर्शन के रूप में जैसे सब में प्रवाहित हो उठता है। शायद इसलिए उसके समाधि पर विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर का गीत ‘जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे…’ भी गाया जाता है। कहानी में लेखक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज है। तमाम आरोप उस पर लगे हैं। किसन के कृत्यों के लिए उसे दोषी ठहराया गया। किसन को समाधि देने के लिए एकत्रित लोगों से पुलिस प्रशासन के कान खड़े हो गए हैं। प्रशासन इस घटना को अपने नजरिए से देखता है। दरअसल चेतना के स्तर पर जागृत होता समाज हमेशा से ही सत्ता के लिए चुनौती रहा है। कहानी में लेखक से जवाब तलब किया गया है। लालबाबू कहते हैं -‘‘जानता हूँ, कचहरी में ऐसे बयान आजादी की लड़ाई के दिनों क्रांतिकारी लोग ही देते थे, जिन्हें तत्कालीन हाकिम न पढ़ते थे न सुनते थे। किंतु आप के संबंध में यह मशहूर हो चुका है कि आप किसी भी मुकदमे की राई-रत्ती तक पढ़ते हैं, सुनते हैं।’’10 लेखक का यह कथन हमारे प्रशासन पर व्यंग है चूँकि आजादी के बाद भी उसके स्वरूप में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। हम आज 21वीं सदी की सत्ता, पुलिस, प्रशासन पर नजर डालें तो स्थितियाँ भयावह ही नजर आती हैं। लेखक सियासी दाव पेंच और उसके खतरे को बेहद गहराई से महसूस करता है। आज भी चालाक तंत्र, आम आदमी को अनेक ढंगों से व्यक्तित्वहीन बनाने की लगातार कोशिश कर रहा है। शासकों की मूर्खता ने जनता को बदहाल कर रखा है। आज हम शब्दरहित भय के साए में जी रहे हैं। लोग यथास्थिति से समझौता किए जा रहे हैं। दुनिया का इससे खतरनाक दौर और क्या हो सकता है जहाँ आजादी का मतलब महज सत्ता का बदल जाना हो गया है। खासकर ऐसे समय में जबकि मनुष्यता जैसे पद का भी अपहरण हो चुका है- यह कहानी हमें सचेत करती है।
कहानी में दरोगा किसन महराज की समाधि पर गाड़े गए लाल झंडे के प्रति सशंकित है। इस पर लालबाबू कहते हैं – ‘‘गाँव के किसी भी देव स्थल पर लाल शालू का झंडा फहराया जाता है। हनुमान जी का झंडा हो या मां चंडिका का – रंग लाल ही होता है।’’11 रिपोर्ट के आधार पर उससे तो यहाँ तक पूछ लिया जाता है कि आपके नाम लालबाबू का लाल किसी राजनैतिक लाल का संकेत है क्या?…यह सच है कि रेणु किसी विचार, दर्शन या आदर्श को अपनी कहानियों के केंद्र में रखकर नहीं चलते परंतु प्रकारांतर से उनकी पक्षधरता और विचारों की झलक उनके लेखन में सर्वत्र विद्यमान है । समकालीन कथाकारों की कहानियों से बिल्कुल अलग अपने आप में बेजोड़ उनकी कहानियाँ एक नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करने की माँग करती है। उनके लेखन को उनके जीवन से अलगाकर नहीं देखा जा सकता। ऐसा लगता है जैसे उनका लेखन हमारे अहसासों, संवेदनाओं की परत दर परत कुरेदता चल रहा हो। ग्रामीण समाज की तमाम समस्याओं, मनुष्य की अनेकानेक चिंताओं को इन्होंने एक लय में पिरोया है । अपने समाज, परिवेश के कोने-कोने से ये गहरे परिचित हैं। चीजों के तह तक कहानीकार की दृष्टि पहुँचती है। रेणु ने अपने हृदय की स्पंदन को इस कहानी में बड़ी कुशलता के साथ दर्ज किया है। स्वतंत्रता पश्चात का उत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन, रीति-रिवाज, लोक विश्वास का यथार्थ इस कहानी में देखा जा सकता है।
कहानीकार अंत में लिखते हैं कि ‘‘गाँव के दर्जी ने झंडे पर पाड़े की आकृति बनाने की चेष्टा की है, सफेद कपड़े से। मुझे लगता है कि दरोगा साहब ने झंडे में अंकित किसन महाराज के सिंगों को हसिया समझा… पैर को हल… पूछ को चक्र… मुँह को हथौड़ा…! दोष उनकी दृष्टि का है।’’12 चूँकि सर्वहारा वर्ग का समाजवादी, वामपंथी विचारधारा पर विश्वास सत्ता को अपने लिए खतरा नजर आता है। हमेशा से ही चेतना के धरातल पर जनता को पंगु करना इनकी फितरत रही है। लेखक ने सत्ता और प्रशासन के चारित्रिक पतन को पहचाना है। पाड़ा एक विचार दर्शन के रूप में पूरे गाँव का प्रतिनिधित्व करता है। यह कहानी जनविरोधी स्थितियों की पहचान कराती है। राजनीतिक अव्यवस्था, सामाजिक कुरूपता, आपसी मतभेद पर चोट करती है और वैचारिक एकजुटता के लिए साहस का संचार भी करती है।
संदर्भ सूची:
1. रेणु, फणीश्वर नाथ : आदिम रात्रि की महक : अनुपम प्रकाशन, पटना, बिहार, प्रकाशन वर्ष –1997 : पृष्ठ संख्या – 6
2. वही, पृष्ठ संख्या – 7
3. वही, पृष्ठ संख्या – 9
4. वही, पृष्ठ संख्या – 8
5. वही, पृष्ठसंख्या – 11
6. वही, पृष्ठ संख्या – 14
7. वही, पृष्ठ संख्या – 20
8. वही, पृष्ठ संख्या – 12
9. वही, पृष्ठ संख्या – 14
10. वही, पृष्ठ संख्या – 10
11. वही, पृष्ठ संख्या – 20
12. वही, पृष्ठ संख्या – 20