मधुबनी लोककला के विविध रंगों में मैथिल स्त्री की संवेदना
- डॉ.प्रियंका कुमारी
मधुबनी लोककला में मैथिल स्त्री की अद्वितीय प्रतिभा
प्राचीन काल से ही विदेह राजा जनक की जन्म भूमि मिथिला की लोकसंस्कृति समृद्ध रही है। मिथिला क्षेत्र भारत और नेपाल दोनों देशों में विस्तारित है। लोकभाषा, खान-पान,रहन-सहन, वेश-भूषा, संस्कार, लोककला, लोकगीत, लोकनाट्य, लोकसाहित्य आदि मिथिला की लोकसंस्कृति के अनेक अंग- उपांग हैं। मधुबनी लोककला इसी लोकसंस्कृति का एक सोपान है। मधुबनी लोककला का उद्भव स्थल मधुबनी है, जो बिहार राज्य की उत्तरी सीमा में स्थित है। मधुबन का शब्दार्थ है ‘शहद का वन’। मैथिल स्त्री के ओजस्वी हृदय का उद्गार है मधुबनी लोककला। इसमें वह सीमित साधन में अपनी आकांक्षा को साकार रुप देती है। यह कला मैथिल स्त्री के असाधारण प्रतिभा का प्रतीक है। मैथिल स्त्रियो की यह प्रतिभा राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई है। इस कला से मैथिल स्त्री की न केवल पहचान निमिर्त हुई, बल्कि यह कला वर्तमान में उनके उन्नत व्यवसाय के साधन का पर्याय भी बन गया है। मधुबनी लोककला के दो प्रकार हैं- मधुबनी चित्रकला और मधुबनी शिल्पकला। मधुबनी चित्रकला मिथिलांचल की प्रसिद्ध चित्रकला शैली है। मधुबनी चित्रकला शैली मिथिलांचल की वह सांस्कृतिक धरोहर है, जो पीढ़ी दर पीढी महिलाओं से महिलाओं को प्राप्त होती आ रही है। स्त्री साहचर्य और सशक्तिकरण का सर्वोत्तम उदाहरण है मिथिला की ‘मधुबनी चित्रकला’। यह मधुबनी चित्रकला, मधुबनी पेंटिग तथा मिथिला की लोककला आदि पर्याय के रुप में विख्यात है। मैथिल स्त्रियों द्वारा सूत्रपात की गई मधुबनी शिल्पकला मिथिला की प्रसिद्ध लोककला है। मधुबनी शिल्पकलाओं में मृण्मूर्ति (terracotta), मूँज और सिक्की की हस्तनिर्मित रंग-बिरंगी वस्तुएँ-सिक्की के मौनी, चंगेरी (खर से बनाई गई कलात्मक डिजाईन वाली उपयोगी वस्तुएँ) ,सुजनी, बुनाई, कढ़ाई, बाँस के वस्तुएँ, लकड़ी पर नक्काशी, कपड़ों पर रंगाई, सूत कातना और लहठी का निर्माण प्रमुख हैं। मधुबनी लोककला स्वयं में इतना कुछ समेटे हुए है कि पुरुषों द्वारा उपेक्षित इस कला को वर्तमान में उन्होंने ही अपने व्यवसाय के उन्नत साधन के रुप में स्वीकार् कर लिया है।
मधुबनी चित्रकला का उद्भव
इस लोककला के उद्भव के संर्दभ में ऐसी लोकमान्यता है कि विदेह राजा जनक ने राम-सीता के विवाह के मनोरम दृश्यों को महिला कलाकारों को भित्ति रुप में अंकित करने को कहा। तब से इस अदिवतीय चित्रकला की परंपरा चल पड़ी। मधुबनी में विकसित होने के कारण इस कला को मधुबनी चित्रकारी शैली भी कहा जाता है। मधुबनी चित्रकला का उद्भव सत्रहवी सदी में मधुबनी के जितवारपुर (ब्राह्मण बहुल) और रतनी (कायस्थ बहुल) गाँव में मैथिल स्त्रियों द्वारा हुआ था।1935 के भीषण आकाल के समय विदेशी विद्वान डब्ल्यू जी आर्चर ने यत्र-तत्र गाँवों की भित्ति पर सामित साधन में मैथिल स्त्रियों की उकेरी गई इस उपेक्षित चित्रकला को देखा, और उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर मधुबनी चित्रकला (Mithila painting) की संज्ञा से सम्मानित किया और प्रश्रय दिया। आर्चर महोदय के प्रश्रय के कारण ही यह उपेक्षित कला आज जीवित ही नहीं सम्मानित भी है। वैश्वीकरण के इस युग में अशिक्षित मैथिल स्त्री के उर्वर मष्तिष्क की इस असाधारण प्रतिभा को देश ही नहीं विदेशों में भी सराहा गया।
मधुबनी चित्रकला शैली
मधुबनी चित्रकारी का विषय समाज, संस्कृति, धर्म एवं प्रकृति होता है। सामाजिक परिवेश के अन्तर्गत पुरुष-स्त्री, विवाह, कोहबर, शाही अदालत के दृश्य ; प्रकृति के अन्तर्गत सूर्य, चंद्रमा, पेड़-पौधे, फूलों, जानवरों, पशु-पक्षियों ; धार्मिक परिवेश के अन्तर्गत प्राचीन महाकाव्यों के दृश्य, शिव-पार्वती विवाह, राम-जानकी स्वयंवर, कृष्ण लीला, सूर्य, चंद्रमा और धार्मिक पेड़-पौधे जैसे- तुलसी, पीपल, वट आदि को ज्यामितीय आकृति में व्यापक और गहन रूप से चित्रित किया जाता है।1960 के दशक में भर्णी, कच्छनी और तांत्रिक शैली मुख्य रूप से उच्च कुल की स्त्रियों (ब्राह्मण और कायस्थ) द्वारा बनायी जाती थी। उनके विषय मुख्य रूप से धार्मिक होते थे। उनके चित्रकारी में देवी-देवताओं, वनस्पतियों और जीवों को चित्रित किया जाता था। कालान्तर में इस लोककला का निर्माण सभी वर्ग की (निम्न वर्ग) महिलाओं में लोकप्रिय हो गया। जहाँ उच्च वर्ग की स्त्रियों के चित्रकारी विषय भर्णी, कच्छनी, तांत्रिक, गोदा और कोहबर था, वहीं निम्न वर्ग की महिलाओं के चित्रकारी का विषय दैनिक जीवन तथा राजा शैलेश [गांव की रक्षा] से संबद्ध कहानी और उनका चित्र।
मैथिल स्त्रियों की विशेषता यह है कि मधुबनी चित्रकला में प्रयोग किए जाने वाले रंग कागज, कैनवस का निर्माण वे स्वयं करती हैं। गाय के गोबर को महीन सूती कपड़े पर डालकर तथा उसे घूप में सुखाकर कैनवस का निर्माण, पौधों की पत्तियों, फलों तथा फूलों से रंगों का निर्माण जैसे पीले रंग के लिए हल्दी, हरे रंग के लिए केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल प्रयोग करती है। इस चित्रकला में चटख रंगो- जैसे लाल, हरा, नीला, काला, पीला, गुलाबी और नींबू रंगो का प्रयोग किया जाता है। कागज पर बनी कलाकृतियों के पार्श्व में महीन कपड़ा लगा कर इन्हें पारिवारिक धरोहर के रूप में सहेज कर रखा जाता है। यही कारण है कि हर परिवार में मधुबनी कलाकृतियों के आकार, रंग संयोजन और विषय वस्तु में भिन्नता के दर्शन होते हैं। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह पेंटिंग गांवों की मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों में देखने को मिलती थी, परन्तु वर्तमान में यह चित्रकला कपड़े या पेपर के कैनवास पर उतर आई है और वैश्विक बाजार की शोभा बन चुकी है।
मधुबनी चित्रकला का बाजार
पारंपरिक रूप से विशेष अवसर पर घर में बनाई जाने वाली यह कला आज विश्व बाजार में लोकप्रिय है। वर्षो से उपेक्षित रहने के पश्चात मधुबनी कला को १९६२ में व्यावसायिक रुप से प्रतिष्ठा प्राप्त हुआ। जब एक कलाकार ने इन गाँवों का भ्रमण किया तो उन्होंने महिला कलाकारों को अपनी चित्रकला कागज पर उतारने के लिए प्रेरित किया। यह प्रयोग व्यावसायिक रूप से सर्वाधिक कारगर प्रमाणित हुई। आज मधुबनी कला शैली में अनेक उत्पाद बनाए जा रहे हैं, जिनका बाजार विस्तृत होता जा रहा है। वर्तमान में इस चित्रशैली का उपयोग कार्ड, बैग, दरी परिधानों पर किया जाता है। इस कला की मांग न केवल भारत के घरेलू बाजार में बढ़ रही है, वरन विदेशों में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। आज मधुबनी कलाकृति दीर्घाओं, संग्रहालयों और हस्तकला की दूकानों के साथ विश्वजाल पर भी खरीद-विक्री हेतु उपलब्ध है।
मधुबनी चित्रकार
मधुबनी चित्रकला के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वाली अन्यतम चित्रकारों में प्रमुख है – पद्मश्री से सम्मानित बौआ देवी, जगदम्बा देवी, गंगा देवी, कुमुदिनी देवी, सीता देवी, गोदावरी देवी, चन्द्रप्रभा देवी, यमुना देवी आदि तथा राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित चन्द्रकला देवी, राष्ट्रपति सम्मान और बिहार राज्य श्रेष्ठ शिल्प पुरस्कार से सम्मानित महासुन्दरी देवी आदि। बौआ देवी को मधुबनी कला में उत्कृष्ट अवदान के लिए 2017 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने विदेश यात्रा के दौरान, हैनोवर के मेयर स्टीवन स्कॉस्टक को, बौआ देवी द्वारा निर्मित चित्र उपहार स्वरुप दिया जाना, मैथिल स्त्री समाज को गौरवान्वित करता है।
मधुबनी चित्रकला के प्रकार
• भूमिचित्र
• भित्ति चित्र
• पट चित्र
भूमिचित्र या अल्पना
अल्पना (अलि-पन) देशज शब्द है। अलि का अर्थ है बांध और अंकन का अर्थ है कला। अर्थात अल्पना का शाब्दिक अर्थ हुआ बांधने की कला। मैथिली में इसे अरिपन या ऐपन भी कहा जाता है। अरिपन में अध्यात्म प्रधान होता है। इसमें तंत्र-मंत्र को विशेष रुप से बनाये जाने की परंपरा है। अल्पना संपूर्ण भारत में लोकप्रिय है। बंगाल में इसे अल्पना, उड़ीसा में ओसा, गुजरात में सठिया, बिहार और उत्तरप्रदेश में चाक या चाकपूरन, राजस्थान में मेंहदीमंडन या मंडन और महाराष्ट्र सहित संपूर्ण दक्षिण भारत में इसे रंगोली कहा जाता है। अल्पना को घर के बैठक या मुख्य दरवाजे के बाहर शुभ कार्यों यथा यज्ञ, पूजा, व्रत, मुडंन, विवाह के अवसर पर तथा खेतों में उन्नत फसल के लिए ज्यामितीय और वृत्ताकार आकृति में व्यापक और गहन रूप से बनाया जाता है। कोई भी कोना रीता नहीं रह पाता है। अरिपन निर्माण के मुख्य विषय होते हैं – मनुष्य, पशु-पक्षी, मत्सय, शेषनाग, कछुआ, वृक्ष, फूल-फल, पत्ता, पर्वत, नदी, यंत्र, बिन्दु, स्वास्तिक, गणेश, विष्णु, विष्णुपद, शंख, त्रिशुल शिव-पार्वती विवाह, राम-जानकी स्वयंवर, कृष्ण लीला सूर्य, चंद्रमा और धार्मिक पेड़-पौधे जैसे – तुलसी, पीपल, वट। अरिपन के विविध प्रकार हैं – अष्टदल अरिपन, षडदल अरिपन, स्वास्तिक अरिपन, सर्वतोभद्र अरिपन। अरिपन को त्रिकोण, समकोण, समचतुर्भुज वृत और वृताकार आकृति में भूमि पर बनाया जाता है। समचतुर्भुज वृत में किए जानेवाले चित्रण को मंडल कहा जाता है। मंडल दो प्रकार का होता है – रेखांकन मंडल, व्रत मंडल। रेखांकन मंडल में तंत्र-मंत्र चित्र तथा अलौकिक दृश्यों की प्रधानता होती है, व्रत मंडल का विषय समान्य होता है। मिथिला में वृताकार तथा त्रिकोणात्मक अरिपन सर्वाधिक लोकप्रिय है। चित्र बनाने के लिए माचिस की तीली व बाँस की कलम का प्रयोग किया जाता है। स्त्रियाँ स्वयं पिसे हुए चावल से श्वेत, ज्वार के बीज में बेल, कनैल तथा गोबर मिलाकर काला, पीपल की छाल और कुसुम के फल से लाल, हल्दी से पीला, पलाश के फल से नारंगी, बेल तथा केले के पत्तों से हरा रंगों का निर्माण करती हैं। रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल वृक्ष के गोंद को मिलाया जाता है। महिलाएँ कुची या तुलिका के स्थान पर अपनी उँगली, माचिस की तीली और बाँस की कलम का प्रयोग करती है।
भित्ति चित्र
भित्ति चित्र मधुबनी चित्रकारी की अति प्रसिद्ध अर्थमूलक तथा वर्णनात्मक शैली है। इसका उद्येश्य मनोरंजक, आह्लादपूर्ण तथा क्रीड़ामय जीवन का चित्रण है। भित्तिचित्र को घर के तीन विशेष स्थानों पर ज्यामितीय आकारों में बनाये जाने की परंपरा है, जैसे- पूजास्थान, कोहबर कक्ष (नवविवाहितों का कमरा) या किसी विशेष उत्सव पर घर की बाहरी दीवारों पर। मानव, देवी- देवता, पशु-पक्षी, पेड़-पौधा, मनोहर प्राकृतिक दृश्य आदि भित्ति चित्र के मुख्य विषय होते हैं- देवी-देवताओं में दुर्गा, काली, सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गौरी-गणेश और विष्णु के दस अवतार; पशु-पक्षियों में तोता, कछुआ, मछली, हाथी, घोड़ा, शेर; पेड़-पौधों में बाँस, कमल, फूल, लताएँ, फूल-पत्तियाँ आदि; प्राकृतिक दृश्यों में सूरज,चांद आदि। समृद्धि के लिए स्वास्तिक के चित्र को बनाया जाता है। इस चित्रकारी के निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री की व्यवस्था स्त्रियाँ स्वयं सीमित साधन और प्राकृतिक संसाधनों से करती हैं। भित्तिचित्र की आवश्यक सामग्री भित्ति होती है। इस चित्रकारी शैली में कैनवस दो प्रकार के बनाने की परंपरा है- एक भित्ति की तो दूसरी कागज की। चित्रकारी के पूर्व महिलाएँ कैनवस का निर्माण दीवार को चूने से पोतकर या मिट्टी और गाय के गोबर के मिश्रण में बबूल की गोंद मिलाकर दीवारों पर लिपाई कर के करती है। कैनवस के निर्माण के लिऐ कागज, गाय का गोबर तथा बबूल के गोंद का प्रयोग किया जाता है। गाय के गोबर में एक खास तरह का रसायन पदार्थ होने के कारण दीवार तथा कागज पर विशेष चमक आ जाता है। भित्ति चित्रकारी में चटख रंगों – गुलाबी, हरा (सुगापंखी), पीला, श्वेत, श्याम, नीला एवं सिन्दुरी लाल आदि रंगों का प्रयोग किया जाता है। महिलाएँ पिसे हुए चावल से श्वेत, ज्वार के बीज को जलाकर उसमें बेल, कनैल तथा गोबर मिलाकर या दिये की कालिख को गोबर के साथ मिला कर काला रंग, पीपल की छाल और कुसुम के फूल से लाल, हल्दी और चूने को बरगद की पत्तियों के दूध में मिला कर पीला, पलाश या टेसू के फूल से नारंगी, केले तथा बेल की पत्तियों से हरा रंगों का निर्माण करती हैं। रंगों को स्थायी और चमकदार बनाने के लिये बकरी का दूध या बबूल के गोंद का प्रयोग किया जाता है। महिलाएँ चित्रांकन के लिए कुची या तुलिका के स्थान पर अपनी उँगली, माचिस की तीली और बाँस की कलम, बाँस की तीलियों में रूई लपेट कर अनेक आकारों की तूलिकाओं का प्रयोग करती हैं। मिथिलांचल में भित्तिचित्र की तीन शैलियाँ अति प्रसिद्ध है-
• हरिसौन पूजा शैली
• कोहबर चित्र शैली
• सरोवर चित्र शैली
हरिसौन पूजा शैली
हरिसौन पूजा भित्ति चित्र शैली मिथिलांचल में सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह हास्य प्रधान चित्र शैली है। इसे सिन्दूर से बनाने की परंपरा है। इस शैली में मुख्यतः स्त्री के वैवाहिक जीवन के सुख-दुख को चित्रित किया जाता है।
कोहबर चित्रकला शैली
कोहबर (विवाहोपरान्त पति-पत्नी के प्रथम मिलन का कमरा) भित्ति चित्र शैली अत्यन्त ही चमकदार, भव्य एवं संवेदनशील चित्र शैली है। विश्व प्रसिद्ध अजन्ता के नवम तथा दसम गुफा के प्रारंभ की चित्रकला तथा मिथिला के कोहबर चित्रकला में समानता लक्षित होता है। इसका उद्देश्य विवाहोपरान्त नवसृष्टि के संरचना का संदेश है। कोहबर चित्रकारी में सौन्दर्य, आनंद और कामवासना का अदभुत मिश्रण होता है। इस चित्राकृति में बाँस, कमल का पत्ता, दही, मछली को ढ़ोते हुए भरिया (भाड़ ढ़ोनेवाला) भित्ति के चारों कोनों पर, मस्तक पर विभिन्न सामग्री या कलश लिए महिलाएँ जिसे जनसाधारण में नैना-जोगिन कहा जाता है, सर्वाधिक लोकप्रिय है। मैथिल संस्कृति में वैवाहिक अवसर पर भरिया और नैना-जोगिन को बनाना अत्यधिक शुभ माना जाता है। मयूर और मछली दीर्घ जीवन के साथ-साथ उर्वरता का भी प्रतीक है। भित्ति पर शिव-पार्वती विवाह, राम-जानकी स्वयंवर, बाँस की झाड़ी में विविध पक्षी, कबूतर, तोता, आम, कटहल और फलों के पेड़, खिले फूल के साथ गुलाब का पौधा के उपर मानव रुप में चाँद की आकृति, वधू के घर से दही, मछली, केला, भोजन परोसती स्त्री, प्रेम विभोर हो नृत्य करते मयूर, नदी में स्नान करती गोपियों के वस्त्र-हरण करते कृष्ण, राधा के संग बाँसुरी बजाते कृष्ण, नृत्य करते गोपी कृष्ण के नृत्य करते शारीरिक और आध्यात्मिक प्रेम के पौराणिक चित्र, नवदंपति के यौन संबंध तथा संतानोत्पत्ति के अतिरिक्त नवयुगल दंपति के अनंदातिरेक करने वाले विविध मनोहारी दृश्य कोहबर चित्रकारी की विशेषता है।
सरोवर चित्र कला शैली
सरोवर भित्ति चित्र शैली में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी (कबूतर, मछली, गाय), समुद्री जीव-जन्तु, मछली और सर्प के मानवी रुप, विविध प्रकार के फूल, लताएँ, पूजा-घर के प्रवेश द्वार के चारों दिशाओं का भव्य शैली में चित्रांकन किया जाता है। यह चित्र शैली उल्लास एवं प्रणय भावना को मूर्त रुप देती है।
मधुबनी शिल्पकला
मृण्मूर्ति (terracotta)
यह कला मिथिला की महिलाओं द्वारा पोषित और संचालित है। मृण्मूर्ति में मिट्टी की मूर्तियाँ, रंग-बिरंगे आर्कषक खिलौने तथा अनेक घरेलू वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। कार्तिक मास में कृष्ण की बहन श्यामा के जीवन पर मनाया जाने वाला पर्व सामा-चकेवा के अवसर पर महिलाएँ मिट्टी के मनोहारी खिलौने (सामा-चकेवा) का निर्माण करती है। मिट्टी के घरेलू उपयोग में आने वाले वस्तुओं में प्रमुख है – कोठी (अनाज को रखने के लिए मिट्टी का गोदाम), बोरसी (शरद ऋतु में आग को जलाकर कमरे में रखने वाला मिट्टी का वृताकार पात्र), मटकूड़ (घरे की आकृतिवाला मिट्टी का पात्र), चूल्हा (दो मुँह या एक मुँह वाला), आदि।
मूँज, सिक्की और बाँस की हस्तनिर्मित रंग-बिरंगी वस्तुएँ
मैथिल स्त्रियों की प्रतिभा का अन्यतम उदाहरण मूँज और सिक्की की हस्तनिर्मित रंग-बिरंगी वस्तुएँ है, जो घर-घर में अत्यंन्त उत्साह और मनोयोग से सीमित साधन में बनाये जाते हैं। मूँज और सिक्की की हस्तनिर्मित रंग-बिरंगी वस्तुओं में प्रमुख है – चटाई, चंगेरी, मौनी, पौती, डाला, पिटारी आदि। बाँस से निर्मित वस्तुओं में चटाई, सुप, सुपली, डाली, टोकड़ी, मौनी, पौती प्रमुख है। इसके निर्माण के लिए सितम्बर-अक्टूबर मास में मूँज और सिक्की को काटकर, उपर के फूल को तोड़कर सुखाती है, फिर हरा और लाल रंगों को घोलकर उसे चूल्हे पर एक बर्तन में रखकर गर्म कर उसमें मूँज और सिक्की को कुछ समय के लिए भिंगो दिया जाता है। तत्पश्चात इसे सुखाया जाता है और फिर टेकुली के सहारे इन रंग-बिरंगी मूँज और सिक्की को अपने कल्पना को मूर्त रुप देकर हस्तनिर्मित अतीव सुन्दर और आर्कषक चटाई, चंगेरी, मौनी, पौती, डाला, पिटारी का निर्माण किया जाता है।
सुजनी – गृह शिल्पकला में सुजनी का महत्वपूर्ण स्थान है। इस शिल्पकला का निर्माण मुख्यतः बिहार में किया जाता है। पर मिथिलांचलकी बनी सुजनी की कोई तुलना नहीं है। इसका सामग्री पुराना कपड़ा होता है। सुजनी बनाने के लिए सर्वप्रथम एक बड़ा कपड़ा को भूमि पर बिछा दिया जाता है। फिर उसपर पुराने कपड़ों को करीने से कई तहों में बिछाया जाता है। अन्त में इसे श्वेत कपड़ा से ढ़क दिया जाता है। चारों कोनों को हाथों से सुई धागा से सिलते हुए आरा, तिरछा और मध्य में अत्यन्त करीने के साथ सीलाई की जाती है, ताकि सिलवट न पड़े। इसके पश्चात महिलाओं को अपनी प्रतिभा को अपने हाथों से बिखेरने का अवसर आता है और वे अपनी आंतरिक सौन्दर्य को सुजनी पर उकेर देती है। रंग-बिरंगे धागों से तितली, तोता, मैना, मयूर, हाथी, घोड़ा, बाघ, साँप, गमला सहित फूल के पौधे, जल में मछली के साथ तैरता साँप, पतंग उड़ाता बालक, पालकी पर बैठी वधू, तीर्थाटन के लिए जाती वृद्धा आदि का अति सुन्दर और मनोहारी चित्र सुजनी पर बनाया जाता है। सुजनी के निर्माण से बचे कटे-फटे कपड़ों से महिलाएँ कनियाँ-पुतरा अर्थात रंग-बिरंगी तीखे नाक-नक्शे वाले अति लुभावने और मनभावन गुड्डा-गुड़ियाँ को बनाती हैं।
सूत कातना – यज्ञ, जनेउ तथा खादी के वस्त्र के निर्माण के लिए मैथिल स्त्रियों द्वारा टकुरी तथा चरखा पर सूत कातने की हस्तकला अति प्राचीन काल से विख्यात है। यह शिल्पकला उच्च वर्ग (कायस्थ और ब्राह्मण) की महिलाओं में, सर्वाधिक प्रचलित था।
लहठी का निर्माण –
मिथिला की एक अन्यतम और महत्वपूर्ण शिल्पकला लहठी चुड़ी का निर्माण भी है। इसके शिल्पकार को लहेरी कहा जाता है। मिथिला में यह शिल्पकला इतनी प्रसिद्ध है कि इसके निर्माण के प्रमुख केन्द्र का नामकरण ही लहेरी से लहेरियासराय कर दिया गया। लहठी के निर्माण में उत्तम कोटि के लाह और रंग की आवश्कता होती है। लहठी बनाने के लिए चटख लालरंग का प्रयोग किया जाता है। लहठी को तिसीफूल, चगोटवा तथा कंगना भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त लाह की सिन्दूरदानी बनाने की भी परंपरा है। विवाह, व्रत-त्योहार के अवसर पर नवविवाहिता और महिलाएँ द्वारा लहठी पहनने की परंपरा है।
बुनाई और कढ़ाई – मिथिला की गृहकला सुई-शिल्प को कसीदा या कढ़ाई कहा जाता है, जिसे विवाहित, अविवाहित सभी मैथिल स्त्रियाँ बनाती हैं। वे सुई और रंग-बिरंगे धागे से दैनिक जीवन के व्यवहार में आनेवाली वस्तुएँ – चादर, तकिया का खोल, रूमाल, मेजपोश, थालपोश, साड़ी आदि पर अत्यन्त उत्साह और उमंग के साथ साधारण कपड़े पर ही विविध प्रकार की ऐसी अति आर्कषक और नयनाभिराम आकृति बनाती है कि उस कपड़े और परिधान की आभा अतुलनिय और कीमत दोगुनी हो जाती है। इस कसीदाकारी का विषय फूल, पत्ता, तितली, सूर्य, चाँद, तारे आदि होते है। अविवाहित लड़कियाँ इस प्रकार के कढ़ाई किए गए कपड़े और परिधान को विवाहोपरान्त अपने ससुराल में दिखाने के लिए ले जाती है, जिससे उनका सम्मान बढ़ता है। कढ़ाई के अतिरिक्त मिथिला की महिलाओं में बुनाई की परंपरा अत्यन्त ही उत्साह के साथ शरद ऋतु में लक्षित होती है। क्रोशिए एवं काँटे के सहयोग से वे ऊन के भाँति-भाँति के विविध चित्ताकर्षक आकृति वाले रंग-बिरंगी स्वेटर, शॉल, मफलर, स्कार्फ, दस्ताना, मोजे, मुख्य द्वार पर रखे जानेवाले पैरपोछ, टेबुल क्लॉथ आदि की बुनाइ अपने हाथों से करती है। महिलाओं द्वारा रस्सी से बुनाई की जाने वाली वस्तुओं में सिकहर या सिक्का अति महत्वपूर्ण है। गाँवों में आज भी सिकहर को छप्पर पर बाँधकर दूध-दही रखने की परंपरा है।
मधुबनी लोककला और मैथिल स्त्री
मधुबनी चित्रकला पारंपरिक रूप से भारत और नेपाल के मिथिलांचल के विभिन्न समुदायों की महिलाओं द्वारा बनाई जाने वाली प्रमुख चित्रकला है। प्रथमतः यह कला उच्च वर्ग (कायस्थ और ब्राह्मण) की महिलाएँ ही किया करती थीं। अतः इसे कायस्थ चित्रकला तथा ब्राह्मण चित्रकला कहा जाता था। पर अब यह सभी वर्ग की महिलाओं की प्रतिभा और गर्व का प्रतीक है। भित्ति से प्रारंभ होनेवाली यह चित्रकला कागज़, कैनवास होते हुए मिट्टी के पात्रों, पंखों और विवाह के अवसर पर प्रयुक्त होने वाली थालियों पर भी की जाने लगी है। इस कला से मैथिल स्त्री की न केवल पहचान निमिर्त हुई है, बल्कि यह कला वर्तमान में उनके उन्नत व्यवसाय का साधन भी बन गया है। हँसते-हँसते अपने हृदय की पीड़ा को कुची के द्वारा भित्ति पर उतारने की कला में मैथिल स्त्रियाँ प्रवीण हैं। यह चित्र शैली पितृप्रधान मैथिल समाज में हुए स्त्री के दमन, शोषण और उत्पीड़न को व्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन है। विवाह स्त्री जीवन के सुख और दुख दोनों का कारण है। परन्तु, यह ध्रुवसत्य है कि अधिकांश स्त्रियों के जीवन में विवाह दुख का ही प्रतीक होता है। बींसवी शताब्दी के उतरार्ध में मैथिल स्त्रियाँ बाल-विवाह, बहु-विवाह, बेमेल-विवाह एवं विधवा समस्या से पीड़ित थीं, जिसके परिणामस्वरुप उनका वैवाहिक जीवन त्रासदीपूर्ण था। एक चित्रकार की वाणी उसकी कुची होती है और कुची के माध्यम से उनके हृदय के चित्र को भित्ति पर उतारना पुरुष वर्चस्व से आहत स्त्री की पीड़ा को दर्शाता है। सीमित प्राकृतिक संसाधन में इस कला के माध्यम से वे अपने जीवन के दुख-सुख, हर्ष-आनंद, और अन्य इच्छाओं को चित्रकारी में उड़ेलकर, पुरुष प्रधान समाज के समक्ष अपने समग्र जीवन की दमित भावनाओं को मूर्त रुप देने में सफल हो जाती है, जो किसी न किसी कारणवश दमित रह गई हो। पद्म श्री से सम्मानित जगदम्बा देवी कोहबर चित्रकला की अन्यतम चित्रकार है। कोहबर के अन्तर्गत उनकी राधा-कृष्ण की रासलीला कोने-कोने में सर्वाधिक प्रशंसित हुई है। रासलीला के अति गुढ़ और क्लिष्ट चित्रण में उन्हें अपूर्व आनंद की अनुभूति होती थी। ध्यातव्य हो कि जगदम्बा देवी मधुबनी के जितवारपुर की ब्राह्मणी थी, जो दुर्भाग्यवश युवावस्था में ही संतानहींन विधवा हो गयी थीं। मिथिलांचलके ब्राह्मण परिवार में सिर्फ स्त्रियों के लिए यह अति कठोर प्रथा है कि ब्राह्मण स्त्री का जीवन में एक ही बार विवाह हो सकता है, चाहे वह बाल विधवा ही क्यों न हो। उसका पुर्नविवाह असंभव है। मिथिलांचल के पितृसत्तात्मक ब्राह्मण परिवार की असमानता के कारण जगदम्बा देवी के दमित हृदय की उद्गार कोहबर के रासलीला चित्रकला के रुप में प्रबल वेग से फूट पड़ी और वे इस चित्रकला को अपनी संतान की भाँति आजीवन सहेजती रही।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मधुबनी चित्रकला सिर्फ कला के लिए नहीं है, वरण यह कला जीवन के लिए है। सीमित प्राकृतिक संसाधन में इस कला के माध्यम से वे अपने जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद और अन्य इच्छाओं को चित्रकारी में उड़ेलकर, पुरुष प्रधान समाज के समक्ष अपने समग्र जीवन की दमित भावनाओं को मूर्त रुप देने में सफल हो जाती है, जो किसी न किसी कारणवश दमित रह गई हो। स्त्रियों के बुलन्द हौसले के कारण उत्पन्न, स्त्री द्वारा परंपरा के धरोहर के रुप में चलाई जानेवाली इस लोककला की सूत्रधार, कर्णधार और विश्व स्तर पर अपनी अतुलनीय प्रतिभा का लोहा मनवाने वाली मैथिल स्त्री ही है।
संदर्भः
1. डॉ. उपेन्द्र ठाकुर, मिथिलाक चित्रकला ओ शिल्पकला, मैथिली अकादमी,पटना।
जन्मः 12.02.1971,पटना (बिहार)।
शिक्षाः एम.ए.(हिन्दी),यू.जी.सी नेट,पी.जी.डि.एफ.टी,पी.एच.डी.।
प्रकाशितः राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शोध प्रपत्र प्रकाशित।
सम्पर्कः 5 ए,टाइप-3 क्वार्टर्स,ब्लॉक-20,नेयवेली-607803,तमिलनाडु।
मोः 9443057237
ईमेलः
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- www.en.m.wikipedia.com