गीत :- पतझड़
कोकिला की कूक सूनी हूक अंतस् गढ़ बना है।
भाव निर्जन राग नीरव और मन पतझड़ बना है॥
वेदना की परिधि में खुद को खड़ा पाया था जब
मौन स्मित हो गयी थी बढ़ गयी गोपन व्यथा तब
धूप उच्छृंखल हुई तो छाँव का अवसाद अंतस्
अद्यावधि अधबीच तरणी का वही प्रकरण बना है।
भाव निर्जन राग नीरव और मन पतझड़ बना है॥
थी ह्रदय की चाह हर मौसम उसी के पास बीते
दिन गये सप्ताह बीते अब्द के मधुमास रीते
क्षीण सौरभ कर विदारण पुष्प की कोमल लता को
अश्रुकण से सींच जीवित रीति यह अनुक्षण बना है।
भाव निर्जन राग नीरव और मन पतझड़ बना है॥
दूधिया सैलाब आया इंदु जब आयी धरा पर
पर उसी क्षण भाव के प्रासाद ढहके भरभराकर
मध्य रजनी में कहीं एकांत के सूने सदन में
शुष्क रेतीले भूभल में भग्न आकर्षण बना है।
भाव निर्जन राग नीरव और मन पतझड़ बना है॥
पुष्प नें मधुकण संजोये हैं कठिन आयास कर
उत्फुल कली सुर छेड़ती मधुवन में सस्मित हास कर
फ़िर मधुप उद्विग्न क्यों है दोष उसका है भला क्या
जोकि इस पतझड़ के आने का सघन कारण बना है।
भाव निर्जन राग नीरव और मन पतझड़ बना है॥