तुल्या कुमारी
शोधार्थी( हिन्दी विभाग)
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक
ईमेल – tulyakumari216@gmail.com
सार: पितृसत्ता भारतीय समाज में स्त्री का ‘हाँ’ जहाँ उसे आदर्श स्त्री बनाता है वही स्त्री का ‘ना’ उसे बेशर्म, बेहया, कुलटा आदि बनाता है | मर्दवादी समाज में पुरुष को स्त्री का ‘ना’ कहना जरा भी स्वीकार नहीं है और तो और उसने बड़ी चालाकी से फिल्माना अंदाज में यह बयार फैला दी कि ‘स्त्री के ना का मतलब हाँ होता है’ लेकिन अब पितृसत्ता आदर्श समाज को स्त्री के प्रति इस मिथक को तोड़ना ही होगा कि ‘ना का मतलब हाँ होता है’ और यह बात उसे अपने दिल दिमाग की गहराई तक पहुंचानी ही होगी कि स्त्री हो या अन्य कोई भी ना का मतलब ना ही होता है ‘नो मीन्स नो’ | पुरुष समाज की इसी मानसिकता को मृदुला गर्ग ने अपने कथा साहित्य में प्रस्तुत करते हुए ऐसी स्त्री पात्र का निर्माण किया है जो सदियों पुरानी भारतीय पुंसवादी समाज द्वारा बनाए गए आदर्श के बेड़ियों को तोड़कर न केवल ‘ना’ बोलने की हिम्मत रखती है बल्कि बलात्कारी पुरुष के प्रति प्रतिशोध की भावना और बलात्कार को इज्जत जाना जैसे रुढ़िवादी सोच को नकार कर जुर्म की तरह देखने की मानसिकता भी प्रदान करती है |
मूल शब्द : बलात्कार, अस्तित्व, स्त्री, पितृसत्ता, पुरुष, मर्दवादी, वैवाहिक बलात्कार, अमानवीय
पितृसत्ता भारतीय समाज में स्त्रियों को बचपन से जिस प्रकार की शिक्षा दी जाती है उसमें उसे केवल सर झुकाकर ‘हाँ’ बोलना ही सिखाया जाता है क्योंकि उनके अनुसार स्त्रियों का ‘हाँ’ बोलना स्त्रियों के आदर्श, सुन्दर, सुशील होने की निशानी है | पुरुष समाज को स्त्री का ना बोलना तनिक भी स्वीकार नहीं है | स्त्री के ना बोलने से उसे अपने अस्तित्व अपनी मर्दानगी पर बड़ा ही खतरा महसूस होता है | अपनी इसी मानसिकता के कारण स्त्री के उसके प्रेम प्रसंग को ना कहकर अस्वीकार करने, उसके साथ सम्बन्ध बनाने से मना करने या अन्य उसकी किसी भी बात को अस्वीकार करने के कारण कभी वह तेजाब से उस स्त्री का चेहरा जला देता है , तो कभी उसे जिन्दा जला देता है, तो कभी बड़ी क्रूरता से उसे मार देता है और तो कभी उसका बलात्कार कर उसकी हत्या कर देता है |
बलात्कार एक ऐसा शब्द है जिसे सोचने, बोलने और लिखने पर कानों में असंख्य चीखें सुनाई पड़ने लगती है | मन क्रोध, पीड़ा और खौफ से सिहर उठता है | एक ऐसी पीड़ा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते है | कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है | जिस शब्द की कल्पना मात्र से ही हमारी रूह कांप जाती है वह घटना जब किसी के साथ घटित होती होगी उसकी क्या स्थिति होगी इसका केवल हम अंदाजा ही लगा सकते है | ‘नग्नता केवल देह की नहीं होती | रूहानी नंगापन बर्दाश्त करना कहीं ज्यादा मुश्किल होता है |’ 1 बलात्कार एक स्त्री के देह को ही नहीं उसके अस्तित्व को भी कुचलता है, उसे अन्दर तक झकझोर कर रख देता है | टीवी, इंटरनेट, अखबारों में ऐसा कोई दिन नहीं है जहाँ दिल दहला देने वाली बलात्कार की घटनाएँ पढ़ने और सुनने को न मिले | निर्भया बलात्कार केस(2012), आसिफा रेप केस(2018), प्रियंका रेड्डी रेप केस (2019), उन्नाव रेप केस (2020) और न जाने कितने रेप केस जो इज्ज़त के नाम पर दर्ज भी नहीं होते है | इतनी भयावह स्थिति के बाद भी हमारे देश में न तो अभी तक कोई सख्त कानून है और न इस घटना पर जल्द सुनवाई होती है | हाँ इतना जरूर है कि पितृसत्ता भारतीय समाज में जब भी बलात्कार की घटनाएँ होती है तो सवाल के घेरे में दोषी बलात्कारी पुरुष न होकर वह स्त्री होती है जिसका बलात्कार हुआ है ,चर्चाएँ इस बात पर होती है कि स्त्री ने जरूर उत्तेजक कपड़े पहने होंगे, स्त्री जरूर बेवक्त किसी अनजान रास्ते से गई होगी, स्त्री का चरित्र ही ठीक नहीं होगा, जरूर उसके लड़के दोस्त होगें, हंस-हंस कर बातें करती होगी आदि तमाम ऐसे प्रश्न जिसमें उस पर ही चरित्रहीनता का आरोप लगाकर दोषी उस स्त्री को ही बना दिया जाता है जिसका बलात्कार हुआ है | मर्दवादी समाज ने अपनी सुरक्षा और स्वयं को महान बनाए रखने का कितना बढ़िया इंतजाम कर रखा है कि स्वयं को दोषरहित साबित करने के लिए स्त्री को चरित्रहीन साबित कर दो या उस बलात्कारी पुरुष से उस स्त्री का विवाह करा दो, जिसका उसने बलात्कार किया है | समाज के इसी दोगली नैतिकता, परम्परावादी, रूढ़िवादी दृष्टिकोण के कारण आए दिन बलात्कार की घटनाएँ बढ़ती जा रही है, 2 महीने की बच्ची से लेकर 80-85 उम्र तक की वृद्ध स्त्री भी बलात्कार की शिकार हो जाती है | स्थिति इतनी भयावह है कि कई मामलों में तो स्त्री की योनि में कभी सरिया डाल दिया जाता है तो, कभी जलता सिगरेट, तो कभी शराब की बोतल, तो कभी आंखें निकाल ली जाती है, तो कभी उसकी अंतड़ियों को खींच कर बाहर निकाल दिया जाता है और तो कभी जिंदा जला भी दिया जाता है |
साहित्य जिसे समाज का दर्पण कहा जाता है वहां भी बलात्कार जैसे संगीन अपराध पर हमेशा से ही चुप्पी छाई रही है और यदि छिटपुट रूप में दिखाया भी गया है तो पितृसत्ता समाज की नजरिये से जहाँ बलात्कार की शिकार स्त्री या तो आत्महत्या कर लेती है या समाज की तानों को झेल नीरस जीवन बिता रही है | प्रेमचंद (कर्मभूमि की मुन्नी), रेणु(मैला आंचल की कोठारिन लछमी), यशपाल (झूठा सच की एकाकी ), संजीव (जंगल जहाँ शुरू होता है की मलारी) आदि रचनाकारों ने मात्र एक स्थिति के रूप में बलात्कार को दिखाया है | इन रचनाकारों के सम्बन्ध में रोहिणी अग्रवाल कहती है कि “ इन रचनाओं में बलत्कृता स्त्री एक अदद नाम, पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि तथा अंधकारमय भविष्य के बावजूद हाड़-मांस की जीवंत स्त्री के रूप में दिखाई नहीं देती | न अपमान की बीहड़ यंत्रणा, न निजत्व को रौंदे जाने का मर्मांतक आघात, न भीषण मानसिक उद्वेलन, न देह-प्राण के प्रति प्रतिशोध भरा निर्मम विरक्ति भाव ! केवल सपाट स्थितियां-सूचनापरक ! स्त्री के अंतरंग और बहिरंग से अछूती |” 2 लेकिन आठवीं दशक की बेबाक कथाकार मृदुला गर्ग ने स्त्री मनोभावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति करते हुए बलात्कार को अपने कथा साहित्य का मुख्य विषय बनाया | उनके यहाँ बलत्कृत स्त्री न तो स्वयं को अपवित्र मान आत्महत्या करने का ख्याल रखती है और न नीरस जीवन व्यतीत करती है बल्कि वह तो अपने ऊपर बलात्कार करने वाले पुरुष से प्रतिशोध लेने का दृढ़ संकल्प रखती है तथा मर्दवादी समाज द्वारा बनाए गए पवित्रता-अपवित्रता के बंधन को नकार कर उसके प्रति प्रतिरोध के स्वर को अभिव्यक्त करते हुए अपनी नई पहचान बनाती है |
पितृसत्ता भारतीय समाज में बलात्कार के अधिकांश मामले ऐसे है जिसमें बलात्कारी घर का ही पुरुष है | “दिल्ली में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार बलात्कार के मामलों में 366 में से 321 मामलों में आरोपी परिवार के ही सदस्य होते है |”3 विडंबना तो यह है कि जब कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रति अपनी प्रेम भावनाएं समाज में अभिव्यक्त करती है तो पितृसत्ता आदर्श समाज को लगता है की उनकी इज्ज़त चली गई लेकिन जब घर का पुरुष भाई, पिता, मामा, ससुर, जीजा आदि रिश्तों की आड़ में अपने ही बहु, बेटियों, बहनों का बलात्कार करता है तब उसे एक बार भी एहसास नहीं होता की वो गलत कर रहा है, उसके ऐसा करने से उसकी ही इज्ज़त जा रही है | गलत बोलना तो दूर तब ऐसे पुरुषों को पितृसत्ता मानसिकता से ग्रसित समाज उस बलत्कृत स्त्री को ही इज्ज़त के नाम पर चुप करा देता है और इसी बात का फायदा उठाकर पुरुष इज्जत के ब्रह्मास्त्र से बार-बार स्त्री को लहूलुहान करता है जिसका भयानक परिणाम हमारे सामने है | पितृसत्तात्मक समाज के इसी कटु यथार्थ को मृदुला गर्ग ने ‘कठगुलाब’ की ‘स्मिता’ के माध्यम से दिखाया है | स्मिता अपने ही जीजा द्वारा बलात्कार की शिकार होती है “उसके हाथ खाट से बंधे थे | सामने आदमकद शीशा रखा था |……..वह पूरा दम लगाकर चीखी तो उसका मुँह कपड़ा ठूँसकर बंद कर दिया गया | फिर एक-एक करके जिस्म से सारे कपड़े फाड़-फाड़कर अलग कर दिए गये | उसे पूरी तरह नग्न करके, उसने उसके बदन के हर हिस्से पर थूका, उस पर खुद को लथेड़ा | आंखे बंद करने पर, खींचकर पलकें ऊपर उठायीं और देखने पर मजबूर किया |…. उसे भोग लेने पर वह एक दबी, धीमी, क्रूर हँसी हँसा था और उसे गूंगा, बंधा, और नंगा छोड़कर बाहर निकल गया था |” पुरुष का स्त्री के प्रति यह नृशंस व्यवहार स्त्री न केवल देह रूप में देखने की मानसिकता को व्यक्त करता है बल्कि पुरुष को अपनी मर्दानगी साबित करने का एकमात्र यही रास्ता दिखता है | 4 यदि स्मिता के हाथ उस दिन खुले होते तो “उस रात वह उसका खून कर देती |” 5 स्मिता का यह वक्तव्य इस बात की पुष्टि करता है कि वह बलात्कारी जीजा से प्रतिशोध लेना चाहती है | प्रतिशोध की भावना से प्रेरित स्मिता पुलिस को खबर करने को कहती है लेकिन पुंसवादी मानसिकता से ग्रसित आदर्श के बोझ तले दबी नमिता अपने पति परमेश्वर को बचाने के लिए उस घटना को चोर द्वारा चोरी के सन्दर्भ में स्मिता के सामने प्रस्तुत करती है तथा यह कहकर मना करती है कि “नहीं, पुलिस के पास गयी तो बदनामी के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा |” 6 पितृ सत्ता समाज की इसी दोहरी सोच के कारण आज स्त्रियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं है |
बलात्कार स्त्री के शरीर पर ही नहीं अपितु उसके मन, मस्तिष्क पर भी गहरा प्रहार करती है | बलात्कार के दौरान उस घटना में शामिल विशेष स्थिति, वस्तु, गंध आदि से अधिकांश मामलों में पीड़ित स्त्रियाँ अत्यधिक घृणा और भय महसूस करने लगती है | ‘कितनी कैदें’ कहानी की मीना सामूहिक बलात्कार की शिकार होती है “ उसने मुझे बांहों में घेर लिया और अपने होंठ मेरे होंठो पर रख दिए | तभी पीछे से दूसरे लड़के ने आकर मेरे हाथ कस कर पकड़ लिए और खींच कर मुझे पटक दिया |…….मेरी आधी बाहर चीख को उसने मेरे मुँह के भीतर अपना मुँह अड़ा कर रोक दिया | मुझे साँस आनी बंद हो गयी | मैं बंधे हाथ-पांव मार कर उससे छुटकारा पाने और साँस लेने की निष्फल चेष्टा करती रही |” 7 इस घटना के बाद से मीना अँधेरे, बंद जगहों तथा पति के करीब आने पर भी अनंत घुटन महसूस करती थी | ‘कठगुलाब’ की स्मिता भी इसी प्रकार का महसूस करती है | “तेज रोशनी और बड़े आईनों से मुझे हमेशा के लिए नफरत हो गई थी |……..हर रात बिस्तर पर लेटते ही क्रोध की दावानल मेरे भीतर धधक उठता | मुझे उन सबकी हत्या कर डालने पर उकसाता, जिन्होंने मेरी अवमानना में हिस्सा लिया था | जीजा की, नमिता की, उन तमाम मर्दों की |”8 बलात्कार की अमानवीय घटना स्त्री को न केवल शारीरिक रूप से अपितु मानसिक रूप से भी गहरा आघात करती है |
बलात्कार की शिकार स्त्री को साहस, प्रेम, हिम्मत, सहानुभूति आदि भावनात्मक साथ की सबसे ज्यादा जरूरत होती है लेकिन कौमार्य के मिथक के कारण पितृसत्ता समाज में उसे ही दोषी और घृणा का पात्र समझा जाता है | बलात्कारी स्त्री के प्रति समाज के इस अमानुषिक व्यवहार को ‘कितनी कैदें’ कहानी के माध्यम से लेखिका ने यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है | मीना जिसके साथ अभी-अभी सामूहिक बलात्कार हुआ है उसे उसके माता-पिता “ एक बार लात- घूंसों से अच्छी तरह मरम्मत करके मुझे कमरे में बंद कर दिया गया | पंद्रह दिन तक दरवाजा सिर्फ खाना देने के लिए खुलता था | खाने के साथ माँ दो-तीन लातें जमा जाती थी |”9 ऐसे समय में जब पीड़िता को परिवार और समाज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है वही अमानवीय, संवेदनहीन व्यवहार करने लगता है | पितृसत्ता समाज की इसी सोच के कारण स्त्री स्वयं को भी अपवित्र मान कर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेती है | लेकिन मृदुला गर्ग की स्त्री पात्र इस प्रकार की सोच से परे है | वह किसी भी अमानवीयता को चुपचाप न सहकर उसे नकारने की हिम्मत रखती है और उनमें बलात्कार के बाद भी जीवन जीने की न केवल जिजीविषा है बल्कि वो समाज और बलात्कारी के प्रति प्रतिशोध और प्रतिरोध की भावना भी रखती है | ‘कठगुलाब’ की स्मिता इन्हीं गुणों से परिपूर्ण है | “उसके भीतर डर था, क्रोध था, अशान्ति थी, संवेदना थी, बुद्धिजीवी दंभ भी था पर अपराध बोध कतई नहीं था |” 10 अपने इसी आत्मविश्वास के कारण वह अपनी पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चली जाती है और अपनी पहचान बनाती है |
पितृसत्तात्मक समाज में बचपन से स्त्री को ऐसी परवरिश दी जाती है जहाँ वह हर छोटी से छोटी बात के लिए आत्मग्लानि और अपराधबोध का अनुभव करें | स्त्रियों के इसी भावना को मृदुला गर्ग ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि “ अपराधबोध पैदा करने में उनकी कल्पना- शक्ति, साइंस-फिक्शन लिखनेवालों को मात देती है | बच्चा भरपेट नाश्ता किये बगैर स्कूल चला जाए, तो अपराधबोध | ब्लड-प्रेशर की माकूल खुराक न खाने से पति को लकवा मार जाए , तो अपराधबोध | नौकरी करें तो बच्चों की पर्याप्त देखभाल न करने का गिल्ट |” 11 लेकिन ‘कठगुलाब’ की स्मिता में अपराधबोध तनिक भी नहीं रहता है “तुम एकदम आत्मकेंद्रित औरत हो, इसलिए तुम्हारे अन्दर अपराधबोध नहीं पनपता | तुम किसी की परवाह नहीं करती, इसलिए तुम्हें फर्क नहीं पड़ता, तुम कैसी लगती हो, कैसी नहीं |”12 एक पुरुष चाहे वह किसी भी समाज का, किसी भी औहदे का हो उसे स्त्री का आत्मकेंद्रित, आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर होना बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं होता है | स्त्री के ऐसा होने से पुरुष को अपनी सत्ता पर खतरा महसूस होता है | जिम जारविस को भी स्मिता का आत्मकेंद्रित होना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं इसलिए वो छोटी सी गलती पर स्मिता पर बार-बार बेल्ट से वार करता है “फाहश गालियां बकते हुए, वह उसके ऊपर उछला और बेल्ट की चपेट से उसे नीचे गिरा दिया | फिर बेल्ट से उस पर वार करते-करते उसका गाउन खींचकर अलग किया और उसका भोग करने की कोशिश की |”13 जर्मेन ग्रीयर ने पुरुष के बलात्कार करने के कारणों में से एक कारण “ पुरुष की हीनता ग्रंथि में निहित होना बताया है जो स्त्री के साथ सहज दैनंदिन संबंधों में भी उसे आशंकित और भयाक्रांत करता है |” 14 जिम जारविस भी इसी हीनता ग्रंथि से ग्रस्त है लेकिन इस बार स्मिता प्रतिशोध लेती है “इस बार वह बंधनमुक्त थी | उसने जिम को पटकनी देकर जमीन पर गिरा दिया | उसकी बैल्ट छीन ली | और अच्छी तरह उसकी धुनाई करके रख दी |”15 ऐसी ही स्त्री का जिक्र जर्मेन ग्रीयर ने किया है “स्त्री के यौन शोषण और उत्पीड़न के लिए पुरुष मनोविज्ञान की जटिल संरचना को समझते हुए स्त्रियाँ रूढ़ छवियों से मुक्ति पाकर अपने अस्तित्व और अस्मिता को दृढ़तर मानवीय सन्दर्भों में देखें और फिर अपनी लड़ाई के लिए एक सुविचारित रणनीति तैयार करें |”16 स्मिता अन्य स्त्रियों की तरह बलात्कार के लिए स्वयं को दोष नहीं देती और न अपने प्रति वो हीन भावना रखती है यही कारण है की वो अपने ऊपर हो रहे अन्याय का मुहँ तोड़ जवाब देती है |
भारत जैसे सभ्य और आदर्श कहे जाने वाले पितृसत्ता समाज में पति अपने पत्नी के साथ कुछ भी अनैतिक व्यवहार करें वहां मर्दवादी समाज विरोध करना तो दूर कुछ बोलना भी उचित नहीं समझता है| इसका साक्षात् उदाहरण उत्तर प्रदेश में 23 मार्च 2021 को हुए दिल दहला देने वाली बेहद क्रूर और दर्दनाक घटना से लगाया जा सकता है जहाँ पति अपनी गर्भवती पत्नी के मुंह में कपड़ा ठुसकर, खाट से बांधकर उसकी योनी को बिजली के ताम्बे के तार से सिल देता क्योंकि उसे अपनी पत्नी पर शक था | ऐसी अनेक अनगिनत घटनाएँ है जिसमें पति अपनी पत्नी के साथ कुछ भी इसलिए कर सकता है क्योंकि उसकी और पितृसत्ता समाज की ऐसी धारणा है कि शादी एक लाइसेंस है जिसे पुरुष प्राप्त करने के बाद अपने पत्नी के साथ कुछ भी करने का अधिकार रखता है चाहे वह बलात्कार या कोई भी अमानवीय व्यवहार क्यूँ न हो| दूसरी धारणा यह है की पति पत्नी के बीच बोलना मतलब विवाह संस्था पर चोट पहुँचाना है | तीसरी धारणा यह की पति पत्नी के बीच तो यह सब होते ही रहते है, पत्नी को जरा बर्दाश्त करके ही रहना चाहिए| सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने बंगलुरू में लॉ कॉलेज के एक समारोह में कहा कि “मुझे नहीं लगता कि वैवाहिक बलात्कार को भारत में अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए | इससे परिवार में पूरी तरह अराजकता फैल जाएगी | हमारे देश इस लिए मजबूत है क्योंकि यहां परिवार, पारिवारिक मूल्यों पर चलता है |”17 समाज के इसी सोच का परिणाम यह है कि हमारे देश में वैवाहिक बलात्कार के लिए कोई ठोस कानून नहीं है और है भी तो यह कि धारा 375 व 376 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु वाली पत्नी के साथ जबरन करना बलात्कार की श्रेणी में आता है | साहित्य में मृदुला गर्ग ने अपनी रचनाओं में वैवाहिक बलात्कार के अलग-अलग स्वरूपों का अत्यंत सूक्ष्म, सजीव और मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है जिससे अधिकांश स्त्रियाँ पीड़ित है | ‘चित्तकोबरा’ का महेश जिसके लिए “विवाह एक तयशुदा, सुनिश्चित विवाह से अधिक कुछ नहीं है”18 और पत्नी का शरीर अपना हक जताने की वस्तु “मुझे आलिंगन में ले लिया | मैं उसके सीने से जा चिपकी | उसके दोनों हाथ खाली हो गए | बिना झिझक मेरे उरोजों पर आ टिके| स्वामित्व भरे लाड़ से उसने उन्हें दबोच लिया |…….उसी क्षण से मैं शरीर में तब्दील होने लगी |”19 महेश का पत्नी मनु के प्रति यह व्यवहार पुरुषों की पावरवादी मानसिकता को साफ-साफ प्रदर्शित करता है जिसके लिए विवाह प्रेमपूर्ण बंधन न होकर एक ऐसा पर्दा है जिसकी आड़ में वह अपनी पत्नी के साथ उसकी बिना सहमती के अपने पावर का इस्तेमाल करके बलात्कार भी कर सकता है | ‘कठगुलाब’ का पुरुष पात्र इर्विंग पत्नी मारियान से उपन्यासों के तथ्यों को हासिल करने के लिए उसे मातृत्व सुख देने का झूठा वादा कर “उसके अर्द्धसुप्त देह को दुलारकर कहता है कि जैसे ही यह उपन्यास छपकर आएगा, हम अपना बच्चा बनाएंगे |….फ़्लैश ऑफ अवर फ्लैश” 20 और मारियान के उपन्यास ‘वुमेन ऑफ द अर्थ’ को हड़प कर अपने नाम से प्रकाशित करवा लेता है | इर्विंग का यह व्यवहार वैवाहिक बलात्कार के ऐसे शातिर पक्ष को प्रस्तुत करता है जिसमें पुरुष अपनी स्त्री को भावनाओं के जाल में फंसाकर उसका शारीरिक और मानसिक शोषण अर्थात् बलात्कार करता है |‘तुक’ कहानी का पुरुष पात्र स्टेट बैंक चीफ अकाउंटेंट नरेश के लिए पत्नी का शरीर एक वस्तु के समान है जिस पर ब्रिज के खेल के हार-जीत के भड़ास को आसानी से निकाल सकता था | ब्रिज के खेल में हारने के बाद “वह भूखे भेड़िये की तरह मुझ पर टूट पड़ा | बिस्तर पर मेरी देह अभी तक वैसी ही नग्न पड़ी थी जैसी वह छोड़ कर गया था | अपनी हार का तमाम गुस्सा उसने उस पर उतारा | उसके नाखूनों और दांतों के निशान मेरे होंठों, कंधों, वक्ष और पीठ पर उभर आये |”21 पत्नी के प्रति नरेश का यह अमानवीय, अमानुषिक व्यवहार न केवल स्त्री को अपने संपत्ति के रूप में देखने के मनोभाव को व्यक्त करता है बल्कि वैवाहिक बलात्कार के भयावह रूप को भी प्रकट करता है जिससे अधिकांश स्त्रियां पीड़ित है |
निष्कर्षत: मृदुला गर्ग ने अपने कथा साहित्य में बलत्कृत स्त्री की शारिरिक, मानसिक, सामाजिक पीड़ा को यथार्थत: प्रस्तुत करते हुए ऐसी स्त्री पात्र का निर्माण किया है जो सदियों से चली आ रही पितृसत्ता समाज में बलात्कार के प्रति रूढ़िवादी मानसिकता को न केवल नकारती है अपितु बलात्कार को स्त्री की पवित्रता-अपवित्रता से परे एक जुर्म की तरह देखने की सही दृष्टि भी प्रदान करती है | उनकी स्त्री पात्र बलात्कार की घटना के लिए स्वयं को दोषी, हीन, अपवित्र मान कर आत्महत्या या नीरस जीवन जीने का ख्याल नहीं रखती है बल्कि वह तो बलात्कारी पुरुष व समाज को ‘नो’ कहने की पूरी हिम्मत रखते हुए बलात्कारी के प्रति प्रतिशोध की भावना रखती है | उन्होंने अपनी रचनाओं में वैवाहिक बलात्कार के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वरूपों को दिखाया है जिसे पितृसत्ता समाज पति का हक मान कर नजरअंदाज करता है | वे बलात्कार की समस्या को न केवल केंद्रीय विषय के रूप में प्रस्तुत करती है अपितु उससे बचने और लड़ने का उपाय भी असीमा के माध्यम से इस रूप में बताती है “मर्दों की दुनिया में रहने के लिए होम साइंस की नहीं, कराटे की जरुरत है |…..हर औरत को मार-पीट करना आना चाहिये |”22 असीमा का यह कथन इस बात की ओर संकेत करता है कि पुरुष सत्तात्मक समाज में पुरुष किसी भी समाज, किसी भी वर्ग, किसी भी ओहदे का क्यूँ न हो स्त्री को वह देह रूप में ही देखता है और स्त्री का बलात्कार केवल एक पुरुष नहीं करता है बल्कि पूरा का पूरा समाज करता है उस बलत्कृत स्त्री को ही दोषी बनाकर | अतः लेखिका स्त्री को रूढ़िवादी छवी त्यागकर अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित करती है |
सन्दर्भ-ग्रंथ सूची:-
- गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-60
- https://www.hindisamay.com देह के द्वार पर अनादृत स्त्रियाँ और हिंदी कथा साहित्य -रोहिणी अग्रवाल
- वही
- गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-20-21
- वही पृ-21.
- वही पृ-23
- गर्ग, मृदुला. प्रथम संस्करण संगति-विसंगति . नयी दिल्ली : नेशनल पेपरबैक्स,पृष्ठ- 47-48
- गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-24-25
- गर्ग, मृदुला. प्रथम संस्करण संगति-विसंगति . नयी दिल्ली : नेशनल पेपरबैक्स,पृष्ठ- 49
- गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-32-33
- वही पृ-33
12.वही पृ-55
- वही पृ- 55
14.https://www.hindisamay.com/content देह के द्वार पर अनादृत स्त्रियाँ और हिंदी कथा साहित्य -रोहिणी अग्रवाल
- गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-55
16.https://www.hindisamay.com/content देह के द्वार पर अनादृत स्त्रियाँ और हिंदी कथा साहित्य -रोहिणी अग्रवाल
18.गर्ग,मृदुला,तीसरा संस्करण :2017. चित्तकोबरा . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-88
- वही पृष्ठ-96
- गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-95
21.गर्ग, मृदुला. प्रथम संस्करण 2004. संगति-विसंगति . नयी दिल्ली : नेशनल पेपरबैक्स,पृष्ठ-329
22. गर्ग मृदुला. दसवां संस्करण. कठगुलाब. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ-18,141
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