नव वैश्विक युवाओं की संघर्ष गाथाडार्क हार्स

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
कक्ष संख्या-214, सिंधु ब्लॉक
केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय
dpsingh777@gmail.com

सारांश : 
नीलोत्पल मृणाल का यह उपन्यास आज के युवाओं की अंतरगाथा है। पारिवारिक और सामाजिक दबाव में युवा किस तरह जकड़ा है, यह उपन्यास में बखूबी स्पष्ट किया गया है।  आज वैश्वीकरण के युग में आने वाली पीढ़ी की जरूरतें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित न रहकर एक एलीट वर्ग की जीवन शैली अपना रही है जिसे उपन्यास में दिखाया गया है। एक नौकरी की आकांक्षा में आज का युवा अपने परिवार सहित सर्वस्व कुर्बान करने के लिए तत्पर है। इन्हीं समस्याओं को विवेच्य उपन्यास स्वर प्रदान करता है। 
   बीज शब्द: किस्सागोई, ग्लोबलाइजेशल, लोकलाइजेशन, अजनिबियत, चिरंजीवी, अप्रत्याशित, जोजिला दर्रे। 

‘डार्क हार्स’ नीलोत्पल मृणाल का लघु उपन्यास है जिसमें आज की प्रतियोगी परीक्षा यू0पी0एस0सी देने वाले संघर्षरत पीढ़ी की जीवंत तस्वीर उकेरी गई है। यह कृति अपने कथ्य में देश के उन 60 फीसदी युवाओं को समेट लेती है जो पढ़ाई पूरी करने के बाद माँ-बाप के सपने आँखों में संजोकर स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हैं। उक्त कृति की महत्ता इससे भी सिद्ध होती है कि इसे साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2016 से सम्मानित किया जा चुका है। इस उपन्यास में रचनाकार ने सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने वाले जितने भी सकारात्मक और नकारात्मक चरित्र हो सकते हैं, सभी को अपनी लेखनी द्वारा मूर्त रूप प्रदान कर पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया है। कथानायक संतोष, मनोहर, रायसाहब, जावेद, विमलेन्द्र, पायल, विदिशा, मयूराक्षी, श्यामल, इलियास मियां, गोरेलाल यादव, भरत, प्रफुल्ल बटोहिया, गुरूराज सिंह, विरंची पाण्डे, दशरथ बाबू रितुपर्णो महापात्रा, गणपति महापात्रा आदि चरित्रों के माध्यम से कथा को आधार प्रदान किया गया है। कहानी के अंत में संतोष और विमलेन्द्र मनोहर जो कि बिहार का रहने वाला था, सिविल परीक्षाओं में असफलता के बाद मोतीहारी में सीमेंट व्यवसायी के रूप में प्रतिष्ठा पाता है।

उपन्यास के प्रारंभ में ही बिहार कैडर के आई0ए0एस0 मिथिलेश मिश्रा उपन्यास के संदर्भ में अपनी सटीक राय रखते हैं जिससे मैं सौ फीसदी पूरी तरह सहमत हूँ कि- ‘‘डार्क हार्स का कथानक मात्र एक कल्पना न होकर सिविल सेवा की तैयारी कर रहे छात्रों में हर एक की आत्मकथा है, जिसमें तैयारी से जुड़ा हर एक पहलू चाहे कोचिंग हो या अखबार या टिफिन का डिब्बा या नेहरू विहार, सब कुछ अपने को बेबाक तरीके से हमारे सपने की पृष्ठभूमि में खोलकर रख देता है।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-9)

उपन्यास में यदि कथानायक की बात की जाय तो संतोष का चरित्र भले ही आगे आता है लेकिन दिल्ली का मुखर्जी नगर ही विवेच्य उपन्यास का नायक है जो अपने अतःस्थल में कच्चामाल लेकर देश के सर्वोच्च पद को संभालने वाले कैडर तैयार करता है। विनायक सिन्हा संतोष के पिता हैं जो मध्यवर्गीय ग्रामीण परिवार के हैं और उन अभिभावकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने बच्चों को आज के भूमण्डलीय समाज में एक सम्मानजनक नौकरी पाने का सपना अपनी आँखों में संजोकर रखते हैं। इसके साथ ही गाँवों में रहकर खेती-किसानी से आजीविका चलाने वाले को अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले अभिभावकों का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। हमारे देश में विशेषकर हिंदी पट्टी क्षेत्र में पिता तब तक अपने बेटे को गले नहीं लगाता जब तक कि वह खुद कमाने न लगे। उपन्यासकार बाप-बेटे के इस रिश्ते के संदर्भ में लिखता है कि- ‘‘असल में एक सिविल अभ्यर्थी और बेटे और बाप के बीच रिश्ते का आधार इन्हीं दो परम सत्य के आस-पास मंडराता है। पिता पैसे को लेकर निश्चिन्त करता है और बेटा परिणाम को लेके। बेटे को खर्च चाहिए और पिता को परिणाम।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-15)

संतोष की माँ का चरित्र विनायक बाबू की भांति ही मध्यवर्गीय परिवार की माँ का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पलके बेटे के सपने के साथ खुलती और बंद होती हैं। वह अपने बेटे के खर्च के लिए अपने जेवर तक गिरवी रखकर पति से लड़ने को सदैव तैयार रहती है- ‘‘देखना उदास मत होना, खूब पढ़ना बढ़िया से, यहाँ का चिन्ता एकदम नहीं करना, खर्चा के भी मत सोचना, सब भेजेंगे पापा, तुम बस जल्दिए खुशखबरी देना।… माँ का गला भर आया और आँसुओं की धार फूट पड़ी, जो माँ ने घंटों से रोके रखा था और इन आंसुओं में भी एक खुशी थी, एक उम्मीद थी। आखिर बेटे के भविष्य का सवाल था। कलेजे पर पत्थर रखना ही था।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ- 14) इसी प्रकार जावेद की माँ का चरित्र भी उपन्यास में महत्त्वपूर्ण है जो पति के न होते हुए भी बेटे की तैयारी के लिए अपनी जमीन बेचती चली जाती है और बीमारी में अपना इलाज तक नहीं करवाती। किसी भी बेटे के लिए इससे बुरा और क्या हो सकता है कि वह अपनी माँ के अन्तिम दर्शन भी नहीं कर पाता। जावेद जैसे चरित्र को गढ़कर उपन्यासकार ने युवाओं के सामाजिक और पारिवारिक संघर्ष को जीवन्तता प्रदान की है। कथाकार ने अपने चरित्रों को इतने सलीके से गढ़ा है कि वे सीधे पाठकों के अंतःकरण में प्रवेश कर जाते हैं। जावेद के माध्यम से एक उदाहरण देखिए- ‘‘जावेद खान मूलतः बिहार के छपरा जिले के एक गाँव महादेवपुर का रहने वाला था। पढ़ाई में बचपन से अव्वल था। जब इंटर में था तब पिता चल बसे। बचपन में ही पिता चल बसे। कुछ खेती लायक जमीन थी। उसी के भरोसे पहले छपरा से स्नातक किया और फिर सिविल की तैयारी के लिए जिन्दगी का एक जुआ खेलने दिल्ली आ गया।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-106) गोरलाल यादव आजमगढ़ का रहने वाला था। कभी न छूटने वाला गहरा पक्कका रंग, पांच फीट पांच इंच की लम्बाई, आँखों में रेगिस्तान वाली प्यास, होठों से लगतार टपकती चाहत, काम भर सर पर बाल, सामने दो दाँत के बीच जोजिला दर्रे जैसा फासला, कुल मिलकर उसका व्यक्तित्व लोगों को एक नज़र में आकर्षित जरूर करता था कि आखिर ये आदमी कौन है। (डार्क हार्स, पृष्ठ- 116)

प्रतियोगी परक्षाओं की तैयारी करने वाला छात्र समाज के पढ़े-लिखे वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन जी-तोड़ मेहनत के बावजूद जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह तनाव में आ जाता है। इस तनाव के संदर्भ में न वह अपने परिवार से कह पाता है और न ही गुरूजनों से। लेकिन उसका यह तनाव संतोष के इस कथन में साफ-साफ दिखाई देता है- ‘‘बहुत चूतिया फील्ड है यूपीएससी, पढ़ कर मर गये साला पर पीटी नहीं हुआ।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ- 147) इसी प्रकार यूपी में ‘झटुआना’ आदमी के खिन्न होने की चरम अवस्था को कहते हैं। यह शब्द अवसाद के समय में प्रयुक्त किया जाता है। शब्दों को लेकर थोड़ी अपत्ति जरूर की जा सकती है लेकिन आज भूमण्डलीकरण के युग में जब हम ग्लोबलाइजेशल से लोकलाइजेशन की ओर बढ़ कर अपनी छोटी-छोटी अस्मिताओं के लिए जूझ रहे हैं तो हमें इन शब्दों को किसी न किसी रूप में स्वीकार करना पडे़गा क्योंकि युवा पीढ़ी में ऐसे शब्द स्वीकार किए जा चुके हैं।

लेखक द्वारा उठाई गई पृष्ठभूमि देश के ऐसे सभी स्थानों पर देखी जा सकती हैं जहाँ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र रहते हैं। कथा को मुखर्जी नगर या दिल्ली तक समेट देना रचना का दायरा सीमित कर देगा। युवा कथाकार नीलोत्पल मृणाल ने इस उपन्यास में भाषा बड़ी ही चुटीले और सहज अंदाज में प्रस्तुत की है जिसे इस उदाहरण के माध्यम से देखा जा सकता है- ‘‘पीटी के प्रेशर से पूरा मुखर्जी नगर उबल रहा था। हर कान से भांप निकल रही थी और हर दिमाग की सीटी बजी हुई थी। आखिर वो दिन आ गया, जिसके लिए लाखों विद्यार्थी देश के कोने-कोने से यहाँ आते थे। आज पीटी का एग्जाम था। किसी के लिए कयामत का दिन तो किसी के लिए जिंदगी को बदलने के लिए शुरूआत का दिन। छह बजे सुबह ही बत्रा पर अपने-अपने सेंटर पर जाने वालों की इतनी भीड़ थी मानो माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने रामलीला मैदान में मजदूरों की रैली रखी हो। (डार्क हार्स, पृष्ठ-114)

युवाओं पर पड़ने वाला पारिवारिक और सामाजिक दबाव उन्हें अवसादग्रस्त बना देता है। हमारी युवा पीढ़ी किस तनाव और दबाव में जीवनयापन करती है, रायसाहब के चरित्र के माध्यम से देखा जा सकता है। उन पर घर वापसी के साथ-साथ शादी का दबाव भी बढ़ रहा था। गुरु ने संतोष के संदर्भ में कहा कि ‘‘डार्क हार्स मतलब, रेस में दौड़ता ऐसा घोड़ा जिस पर किसी ने भी दांव नहीं लगाया, जिससे किसी ने जीतने की उम्मीद न की हो और वही घोड़ी सबको पीछे छोड़ आगे निकल जाए। वही ‘डार्क हार्स’ है मेरे दोस्त। संतोष एक अप्रत्याशित विजेता है। मैंने तुम्हारे आने से पहले श्यामल सर और हर्षवर्द्धन सर दोनों को काल लगाया था। संतोष लगातार इन दोनों के संपर्क में था। पीटी हाने के बाद ही उसने अपना कमरा संत नगर की ओर ले लिया था। उसने सर स अनुरोध किया था कि उसके बारे में किसी को कुछ न बतायें। जो भी हो किस्मत पलट दी उसने, भाग्य को ठेंगा दिखा कर अपनी मेहनत से अपनी तकदीर खुद गढ़ ली इसने भाई।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-159)

प्रतिष्ठित महिला कथाकार चित्रा मुद्गल इस उपन्यास पर अपनी राय रखते हुए कहती हैं कि- ‘‘अपने पहले ही उपन्यास में नीलोत्पल ने बड़ा साहस दिखाते हुए बेबाकी से यथार्थ की तलछत को कुदेरते हुए एक ऐसी दुनिया का सच लिखा है, जिस पर पहले कभी इतना नहीं लिखा गया। ये भोगे गये यथार्थ का दस्तावेज है। एक ऐसी रोचक और बौद्धिक दुनिया की गर्म भट्टी का सच लिखा, जिसमें कई लोग तप कर सोना हो जाते हैं तो कई जल कर खाक। ‘डार्क हार्स’ अंधेरे रास्ते से हो कर उजाले तक का सफर है। नीलोत्पल की भाषा में रवानगी है, व्यंग्य में धार है, संवादों में संवेदना के गहरे उतार-चढ़ाव हैं। किस्सागोई का अपना अलग अंदाज है, जो पाठकों को पढ़ाने के लिए मजबूर करता है।’’ (डार्क हार्स- फ्लैप)।

रचनाकार ने देश की परंपरागत शिक्षा प्रणाली की नाकामियों को उजागर करता है। संतोष ऐसी ही शिक्षण पद्धति में अध्ययन कर सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने दिल्ली पहुँचता है जिसमें उसे आधारभूत ज्ञान ही नहीं दिया जाता- ‘‘आज के समय जब देश में आयोजित किसी भी क्षेत्र की प्रतियोगिता परीक्षा में विज्ञान, तकनीक, गणित और अंग्रेजी का महत्त्व बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाने लगा था ऐसे में इन विश्वविद्यालयों से इतिहास, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र जैसे विषयों को लेकर पढ़े छात्रों की डिग्री बस शादी के कार्ड में जिक्र करने के काम आती है। अन्यत्र कहीं नहीं। जैसे चिरंजीवी फलना, बीए, एमए, एमफिल, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-151) हमारे देश की शिक्षा प्रणाली हमेशा से ही प्रश्नों के घेरे में रही है। प्रसिद्ध कहानीकार उदय प्रकाश अपनी कहानी ‘मैंगांेसिल’ में शिक्षा की खामियों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि इस देश में ज्यादा पढ़े-लिखे लोग कम पढ़े-लिखे लोगों के नौकर या गुलाम होते हैं औ हमारे स्कूल और कालेज नौकर पैदा करने के कारखाने हैं। अमेरिका, जापान, फ्रांस जैसे देशों हम उन सिद्धांतों की नकल कर रहें हैं जो हमारे अनुकूल नहीं हैं लेकिन वहाँ की शिक्षा पद्धति को हम नहीं उठा पा रहे हैं। हमारे युवाओं को दक्षतापूर्ण शिक्षा की आवश्यकता है जिससे वे अपने लिए रोजगार और आजीविका चला सकें। हमारे देश के युवाओं की अधिकतर ऊर्जा और उम्र पुस्तकीय ज्ञान में ही निकल जाती है और जब उनका ज्ञान और अनुभव समाज को फायदा पहुचाने लायक होता है तो उनमें नया करने का उत्साह खत्म हो जाता है। शिक्षा पद्धति की एक खामी यह भी है कि हमारे देश में विद्यार्थी का सम्पूर्ण अध्ययन जिस क्षेत्र का होता है प्रायः नौकरी उससे इतर किसी अन्य क्षेत्र में मिल जाने से सेवा क्षेत्र में कुशलता नहीं मिल पाती। छात्रों की आधरभूत शिक्षा ही कमजोर होती है जिसे रायसाहब के इस कथन में देखा जा सकता है- ‘‘अभी छह महीने खुद से कमरे पर एनसीआरटी की किताबे पढ़ लें फिर कोई कोंचिंग ज्वाइन करें।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-40)

आज के समय में कोचिंग सेंटरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है जो हमारी शिक्षण व्यवस्था की खामियों की ओर इशारा करती है। देश में अधिकतर प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम स्नातक स्तर के ही होते हैं। यह बात सोचनीय है कि छात्र स्नातक करने के बावजूद उसी स्तर की परीक्षाओं में सफलता के लिए कोचिंग सेंटर का सहारा लेता है और माँ-बाप की कठिन कमाई लुटाता है। रायसाहब का आईएएस का प्रयास खतम हो चुका था, पीसीएस भी नहीं हो पा रहा था। घर से वापसी के साथ-साथ शादी का दबाव भी अब बढ़ने लगा था। रायसाहब ने बीएड कर रखा था और मास्टरी का फार्म डाल आये थे।

कथाकार ने उपन्यास में यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि आज के युवाओं में संवदेनाएँ किस तरीके से मर चुकी हैं। लड़के-लड़की के बीच विकसित होने वाले सम्बन्ध उपयोगिता पर ही केन्द्रित होकर रह गये हैं। लड़कियाँ उन्हीं को पसन्द करती हैं जो उनके लिए परीक्षा सम्बन्धी नोट्स तैयार कर दे सकें और नोट्स मिलने के बाद वे दूध में पड़ी मक्खी की भांति लड़कियों द्वारा बाहर कर दिए जाते हैं। लड़के भी इसके लिए पूरी तरह तैयार रहते हैं। गुरू और मयूराक्षी के बीच कुछ इसी तरह का सम्बन्ध विकसित होता है जहाँ न तो प्रेम है न ही दोस्ती जैसा कोई रिश्ता।

निष्कर्ष :

1991 में भारत द्वारा अपनाई गई उदारीकरण की नीति को वैश्विक परिवर्तन का मूल आधार माना जाता है और समय उससे काफी आगे निकल चुका है। आज के नव-वैश्विक युग में समस्याओं का अंबार दिखाई दे रहा है। हमारे देश की युवा जनसंख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। लेकिन पर्याप्य संसाधन, दिशा-निर्देश और रोजगार के अभाव में हम अपनी युवा शक्ति का सम्यक उपयोग नहीं कर पा रहे हैं जिससे बेरोजगारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और बिना काम के युवा अवसादग्रस्त हो रहे हैं। वे पारिवारिक और सामाजिक जीवन में अजनिबियत के शिकार हो रहे हैं। विवेच्य कृति में इसी बिन्दु को युवा रचनाकार नीलोत्पल मृणाल ने स्वर प्रदान करने का प्रयास किया है।

संदर्भ :

डार्क हार्स- नीलोत्पल मृणाल, शब्दारंभ प्रकाशन, संस्करण- 2015

[जनकृति के जुलाई 2020 अंक में प्रकाशित]

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