नजीबाबाद के झरोखे से नित्यानंद मैठाणी
देवराज
आपात-काल चल ही रहा था। चतुर्दिक भय, तनाव और अतिरिक्त सावधानी का वातावरण्। नजीबाबाद में कोतवाली मार्ग पर एक भवन का निर्माण होना शुरु हुआ। हम लोग साहू जैन महाविद्यालय से अपनी एम. ए. कक्षाएँ पढ़ कर पैदल ही लौटते और तेजी से ऊपर उठते उस भवन के बारे में आपस में चर्चा करते। वह आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र का भवन था। हम लोगों ने पता नहीं कहाँ से सुन लिया, कि चीन हमारे गढ़वाल और कुमाऊँ (तब उत्तराखंड का उदय नहीं हुआ था) सीमांत के लोगों के बीच गलत-सलत प्रचार करने के लिए अपने संचार-माध्यमों का प्रयोग करता है, उसी का मुकाबला करने के लिए भारत सरकार ने 100 किलो हर्ट्ज़ का यह अति शक्तिशाली आकाशवाणी केंद्र (तब वह उत्तर प्रदेश के सबसे शक्तिशाली केंद्र के रूप में अस्तित्व में आ रहा था) स्थापित करने का निश्चय किया है। सुन कर पहले-पहल हम सभी आतंकित हो गए, लगा कि चीन के साथ युद्ध शुरु होने वाला है और सरकार उसी की तैयारी कर रही है, पता नहीं क्या हो! वह भवन बन भी रहा था, जंगल में। रेलवे फाटक के बाद केवल एक चंद्रा कत्त्था उद्योग था और एक भजनलाल का कत्त्था उद्योग, पाली बदलने पर जब इनके भौंपू बजते थे, तो आसपास की हवा में फैला सन्नाटा थोड़ी देर के लिए जागता था। हमारा महाविद्यालय कुछ और आगे कोतवाली (यह एक जगह का नाम है, जो नजीबाबाद से अठारह कि. मी. दक्षिण में है) जाने वाली सड़क पर था। इसके आलावा न आज की हिमालयन कॉलोनी थी, न सावित्री एंक्लेव और न आदर्श नगर, इन सबकी जगह एक बड़ा पुराना आम का बाग था, शेष यहाँ-वहाँ गहरे-गहरे गड्ढे थे, पास ही काले अजगर-सा एक बदबूदार नाला बहता था। लंबा रास्ता न नापना हो, तो कीचड़-पानी से बचते हुए उसके किनारे-किनारे चल कर भी महाविद्यालय जाया जा सकता था। हम लोगों के शुरुआती आतंक का —अतार्किक ही सही— एक आधार तो यही भौगोलिक क्षेत्र था, जहाँ आकाशवाणी भवन आकार लेता जा रहा था और दूसरा उसके साथ चीन वाले प्रसंग के जुड़े होने की बात थी। सन् बासठ के चीनी आक्रमण के समय हम सभी सहपाठी सात-आठ बरस के रहे होंगे, इसलिए स्वाभाविक रूप से अपने मानस पर उस युद्ध के तनाव को अनुभव करते थे।
आकाशवाणी भवन के निर्माण का ठेका नजीबाबाद के नामधारी रईस, सुरेशचंद्र जैन को मिला था और अपनी उन्मुक्त हँसी तथा आतिथ्य के लिए विख्यात, जगतनारायण मुष्टिक समस्त निर्माण गतिविधियों के प्रभारी थे। अनुशासन-पर्व (?) का दबाव रहा हो या कोई और कारण, इन लोगों ने बहुत कम समय में ही कोतवाली मार्ग पर मुख्य प्रसारण-भवन (रिकार्डिंग स्टूडियो तथा प्रशासनिक एकक) और कोटद्वार मार्ग पर समीपुर गाँव के निकट तकनीकी (प्रसारण-टावर) केंद्र बना कर खड़ा कर दिया। यही नित्यानंद मैठाणी के नजीबाबाद आने का समय है। उन्होंने आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी के रूप में कार्यभार ग्रहण किया था। उन्हीं के आने के बाद यह जानकरी हुई, कि आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र की स्थापना मुख्य रूप से गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं, साहित्य, ऐतिहासिक वैशिष्ट्यों, इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक परंपराओं, जन-जीवन, कृषि और शिल्प-कलाओं, पर्यटन आदि की खोजपूर्ण जानकारी व्यापक स्तर पर सुलभ बनाने तथा भाषा, साहित्य व संस्कृति के संरक्षण के प्रयासों को बढावा देने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण करने के उद्देश्य से की गई है। इसी के साथ इस केंद्र से हिंदी भाषा और साहित्य संबंधी कार्यक्रम भी प्रसारित किए जाएँगे। गढ़वाल और कुमाऊँ के सुदूरवर्ती क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए ही इसे प्रसारण-तकनीक की दृष्टि से एक शक्तिशाली केंद्र भी बनाया गया था। इसके पूर्व भारतीय रेडियो की प्रसारण सेवाएँ इन क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाती थीं, इसीलिए लोग चीन से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सुनने को बाध्य थे। बात साफ थी, कि चीन कहीं न कहीं था, लेकिन उस रूप में नहीं, जिस रूप में मैठाणी जी के आने के पहले हम लोगों के मस्तिष्क में बैठ गया था।
मैठाणी जी से सीधे मेरा परिचय नहीं हुआ था, होना कठिन भी था, क्योंकि तब मैं विद्यार्थी ही था, जबकि वे गढ़वाली भाषा के जाने-माने लेखक के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे और हमारे कस्बे में भारतीय प्रसारण-सेवा के एक बड़े सरकारी अधिकारी के रूप में आए थे। कस्बे में उनका पहला परिचय गुरुजी (डॉ. प्रेमचंद्र जैन) से हुआ था, वह भी एक विशेष संयोग के चलते। उन दिनों अपनी सेवा-भावना से नजीबाबाद के सामाजिक-जीवन में गहरी लोकप्रियता प्राप्त कर चुके चिकित्सक, डा. महाराजकृष्ण घिल्डियाल सरकारी अस्पताल के निकट ई. एस. आई. के आवास में रहते थे। गुरुजी के साथ उनकी गहरी छनती थी, इतनी कि दोनों प्रति दिन अवश्य मिलते थे और साथ-साथ कस्बे की गलियों में घूमते थे। डा. घिल्डियाल नित्यानंद मैठाणी की चेचेरी बहन के पुत्र थे, लेकिन यह सामाजिक नाते-रिश्ते की समीकरण तक ही चहेरी बहन के पुत्र और चचेरे मामा वाली बात थी, वास्तव में यह सगे मामा-भानजे वाला रिश्ता था। डा. घिल्डियाल अत्यधिक सम्मान-भावना से नित्यानंद मैठाणी के चरण-स्पर्श करते थे और मैठाणी जी उतने की स्नेह के साथ उनके साथ व्यवहार करते थे। घिल्डियाल जी के पिताजी भी मैठाणी जी को सगे साले से भी कुछ अधिक अपनापे भरा सम्मान ही देते थे तथा उनकी माताजी भी मैठाणी जी को अपने सगे भाई का मान देती थीं। उधर मैठाणी जी भी इन सारे रिश्तों को एकदम अपनेपन की चाशनी में लपेट कर निभाते थे। नित्यानंद मैठाणी का गुरुजी के साथ पहला परिचय इन्हीं डा. घिल्डियाल के आवास पर हुआ था। मैत्री की घनिष्ठता कुछ ऐसी थी, कि गुरुजी डा. घिल्डियाल के पिताजी को हमेशा पिताजी कह कर ही संबोधित करने लगे और मिलने पर पूरी श्रद्धा के साथ उनके चरण स्पर्श भी करने लगे; इसी नाते जब वे घिल्डियाल जी के मामा जी से मिले, तो उन्होंने उन्हें भी ‘मामा जी’ ही संबोधित किया, सो नित्यानंद मैठाणी डॉ. प्रेमचंद्र जैन के मामा जी हो गए और श्रीमती मैठाणी (उमा (गैरोला) मैठाणी) मामी जी। मैठाणी परिवार के साथ उनका यह रिश्ता आजीवन चला। इस रिश्ते की पारिवारिक-स्वीकृति का हाल यह था, कि गुरुआइन (श्रीमती आशा जैन) भी मैठाणी जी को हमेशा ‘मामा जी’ (तथा उमा जी को मामी जी) ही संबोधित करती रहीं।
नित्यानंद मैठाणी के व्यक्तित्व और व्यवहार कुशलता के भीतर झाँकने से एक बड़े काम की बात यह पता चलती है, कि गुरुजी और उनके परिवार के साथ मैठाणी जी की घनिष्ठता चाहे जितनी बढती चली गई हो, लेकिन उन्होंने अपने व्यवहार में इस रिश्ते को दो रूपों में निभाया। एक रूप यह, कि जब भी वे गुरुजी के परिवार में आते थे, तो गुरुआइन तथा ममता, श्रद्धा, हिमांशु के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते थे, जिसे देख कर लगता था कि जैसे सचमुच गुरुजी के मामा जी आए हैं। शुरु में मैठाणी जी कस्बे में ही डा. घिल्डियाल के साथ उनके ई. एस. आई. वाले आवास में रहते थे। तब गुरु जी भी किराए पर ही अग्रवाल धर्मशाला के निकट दरबाराशाह मुहल्ले में थे। उन्हीं दिनों मैठाणी जी गुरुजी के परिवार के साथ घुलमिल गए थे। बाद में मैठाणी जी को आकाशवाणी-भवन के परिसर वाला सरकारी आवास मिल गया और गुरु जी भी साहू जैन महाविद्यालय परिसर स्थित आवास संख्या-चार में चले आए। वहाँ सुबह टहलने की बड़ी सुविधा थी, दोनों ओर छतनार वृक्षों से भरी चौड़ी निर्जन सड़क, जितना मन हो, उतनी दूर तक चलते चले जाओ। मैठाणी जी अक्सर टहलना पूरा करने के बाद सुबह छ: बजे के कुछ बाद महाविद्यालय के आवास संख्या-चार पर पहुँच जाते थे। जाते ही उनके लिए चाय आ जाती थी। गुरुजी ‘मामा जी, नमस्ते’ के बाद प्रात: सात बजे से शुरु होने वाली अपनी कक्षा में जाने के लिए नहाना-धोना करने लगते थे और तैयार होकर चुपचाप निकल जाते थे। मैठाणी जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, कि प्रेमचंद्र जी घर में हैं या नहीं, वे बडे इत्मिनान के साथ चाय खतम करते थे और अगर उन्हें एक कप से संतुष्टि नहीं मिली तो, कहते थे, ‘भई आशा जी, मन भरा नहीं, एक कप और बनाइए तो काम चले’। आशा जी भी शायद यह सुनने के लिए ही कान लगाए रहती थीं, रसोई की व्यस्तता के बीच भी उनकी आवाज़ आती, ‘अभी लाई मामा जी’ और कुछ देर बाद ही मामा जी के सामने भनज-बहू चाय का कप लिए उपस्थित्। मैठाणी जी यह चाय-अध्याय संपन्न करके अपने आवास की ओर निकल जाने को उठ खड़े होते थे, ‘अच्छा आशा जी, चलता हूँ, दरवाज़ा बंद कर लीजिए, प्रेमचंद्र जी से कहिए, शाम को भेंट होगी’। इसके बाद गुरुजी कक्षा से लौटते, तो उनका पहला सवाल होता, ‘आशा, मामा जी को चाय के दूसरे कप के लिए पूछ्ना याद रह गया था?’ गुरुआइन जवाब देतीं, ‘हाँ, हाँ, मामा जी ने खुद ही बोल दिया था, मैंने तुरत बना कर दे दी थी। कह रहे थे, शाम को आएँगे।’
शाम की भेंट में कभी-कभी मैठाणी जी का मन चाय के साथ पकौड़ियाँ खाने का होता था, ‘भई आशा जी, चाय तो आप बहुत अच्छी बनाती ही हैं, इसमें तो कोई दो राय हैं ही नहीं, लेकिन आज मन चाय के साथ ज़रा पकौड़ियाँ खाने का भी है, बरसात का मौसम है, बादल भी हैं, इस मौसम में पकौड़ियों के साथ चाय का आनंद ही कुछ और है….. सामान-वामान है या नहीं, ज़रा देखिए!’ गुरुआइन को तो बनाने-खिलाने का पहले से ही इतना शौक है कि पूछिए मत! उन्हें जैसे कढ़ाई चढ़ाने का मौका मिल जाता, ‘सामान-वामान सब है मामाजी, अभी बनाती हूँ, पहले चाय ले आती हूँ, पी लीजिए।’ मैठाणी जी का मन होता तो चाय के लिए हामी भर देते (जो अक्सर हो जाता था) और न होता, तो कहते, ‘अभी चाय रहने ही दीजिए, साथ में ही ले आइए’। इसके बाद निश्चिंत होकर गुरुजी की ओर मुड़ते और कार्यालय की वे घटनाएँ सुनाते, जिनमें किसी अधीनस्थ को नियम न मानने अथवा किसी काम में अनावश्यक विलंब करने के लिए बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से जीवन भर के लिए सबक सिखाया गया हो। इस काम में उन्हें महारत हासिल थी। वे अपने अधीनस्थों पर बहुत कम गुस्सा होते थे, लेकिन उनमें से किसी को भी कार्यालयी अनुशासन की मर्यादा भंग करने की अनुमति नहीं देते थे। उन्हें अपने सहयोगियों के साथ अद्भुत भाईचारा बरतते हुए समयबद्ध रूप में और कस कर सरकारी काम-काज करवाना आता था। और, जो कर्मचारी जाने-अनजाने उनके भाईचारे का गलत अर्थ निकाल कर अवांछित स्वतंत्रता लेना चाहता था, उसे बहुत करीने से पाठ पढाना भी वे अच्छी तरह जानते थे। अपने विलक्षण संप्रेषण-कौशल के बल पर वे रसलीन अवस्था में ऐसी घटनाओं का वर्णन आवास संख्या-चार की सांध्यकालीन बैठकी में करना नहीं भूलते थे। समाहार में कहते थे, ‘डॉक्टर सा’ब, प्रमचंद्र जी, तो इसे कहते हैं— प्रशासन-रस, समझे आप!’ कहते हुए उनके चेहरे पर मुस्कान के रंग चढ़ते-उतरते रहते थे और उनकी आँखें कत्थई रंग के पुराने से फ्रेम वाले चश्में के भीतर से चंचल-शांत-भाव में सराबोर रहस्यमयी मुद्रा में बाहर झाँकने लगती थीं। इस बीच पकौड़ियाँ और चाय उदरस्थ हो जाती थीं, मैठाणी जी उठते हुए कहते थे, ‘ठीक है, अब जब सारी इच्छा पूरी हो ही गई है, तो क्या करना बैठ कर, अब चलना ही ठीक होगा’। गुरुआइन भीतर काम में लगी होतीं, उन्हें शायद ही पता चलता कि मामा जी अपने घर के लिए निकल गए, गुरुजी अपना बेंत लेकर मामा जी के साथ हो लेते। आकाशवाणी-भवन के निकट (जहाँ बाद में तिराहे पर शिव-मूर्ति स्थापित हुई और वह जगह शिव-मूर्ति चौराहा कहलाने लगी) पहुँच कर मैठाणी जी कहते, ‘अच्छा डॉक्टर सा’ब, प्रेमचंद्र जी, आपकी सीमा समाप्त, यहाँ से हमारी सीमा शुरु, अब आप लौट जाइए।’ गुरुजी प्रणाम निवेदन करके आवास संख्या-चार की ओर मुड़ जाते, उन दिनों के उस निर्जन में शायद अपनी ही कविता गुनगुनाते हुए, ‘आज की दैनंदिनी का पृष्ठ भी पूरा हुआ लो…’। जब तक मैठाणी जी नजीबाबाद में रहे, इस तरह की शामें बराबर आती रहीं, विलक्षण मामा जी के साथ अति विलक्षण भानजे का अगाध निजता से भरा अपरिभाषेय अपनापन निरंतर प्रगाढ़ होता रहा, भारत की खाँटी देसी पारिवारिकता के नए-नए अर्थ प्रकट होते रहे, मैठाणी जी हँसते रहे, सबको हँसाते रहे, कहीं कोई छल नहीं, कोई दुराव नहीं, केवल दूर तक फैले हरी घास के मैदान सा खुलापन— व्यवहार में भी, भाषा में भी, यहाँ तक कि उठने-बैठने और चलने में भी।
इस रिश्ते का दूसरा रूप यह था, कि नित्यानंद मैठाणी ने कभी भी गुरुजी को एक बड़े विद्वान से कम का सम्मान नहीं दिया। उनके साथ वे अपनी बात हमेशा ‘डॉक्टर सा’ब’ और ‘प्रेमचंद्र जी’ से शुरु करते थे और अपने लेखन के संबंध में उनके परामर्श पर ध्यान देते थे। मैठाणी जी के बिना गढ़वाली भाषा का साहित्यिक-परिदृश्य पूरा नहीं होता, यह उनके महत्वपूर्ण लेखक होने का प्रमाण है। वे ‘निमाणी’ जैसे उपन्यास और ‘रामदेई’ जैसे कविता-संग्रह के रचनाकार थे। उन्होंने ‘न्याय द्वारकी’ जैसे दो-सौ कड़ियों के कालजयी रेडियो-धारावाहिक का लेखन और प्रसारण किया था। ये सभी (और अन्य बहुत-सी) रचनाएँ गढ़वाली भाषा को प्रतिष्ठा दिलाने वाली हैं। हिंदी में उन्होंने ‘याद-ए-राहत अली’ और ‘गज़ल साम्राज्ञी बेगम अख्तर’ जैसी अपने ढंग की अनूठी पुस्तकें लिख कर हिंदी साहित्य के सृजन-कैनवस का विस्तार किया। गढ़वाली और हिंदी में उनके और भी दर्जन भर नाटक तथा विविध विषयों पर अनेक महत्वपूर्ण लेख हैं। लेकिन अपनी इधर-उधर बिखरी रचनाओं को समेट कर पुस्तकाकार प्रकाशित करने के प्रति उनमें न कोई कभी कोई जल्दबाज़ी रही और न बेचैनी। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लखनऊ में रहते हुए भी वे एक पुस्तक भर लेख खोजने-छाँटने में लगे रहे, लेकिन जल्दी तब भी नहीं थी, और अब जल्दी हो या देर, सामग्री मिले या कहीं इधर-उधर हो जाए, क्या होना-जाना है! गुरुजी उन्हें इस आलस्य के विरुद्ध सावधान करते रहते थे या कहिए तिकतिकाते रहते थे, उनके लखनऊ चले जाने और गुरुजी के ग्रेटर नोएडा आ जाने के बाद भी फोन पर यह क्रम बना रहा। जब ये दोनों नजीबाबाद में ही थे, तभी मैठाणी जी रामदेई की कविताएँ हिंदी में लाना चाहते थे। गुरुजी बोले, ‘मामा जी, आप तो हिंदी के मर्मज्ञ हैं, क्या परेशानी है, आप बोलते जाइए, मैं कविताओं का अनुवाद लिखता जाता हूँ’। कुछ काम ऐसे हुआ भी, उसके बाद पता नहीं क्या हुआ! गुरुजी की टोकाटाकी का यह हाल था, कि जब मैठाणी जी लखनऊ से फोन करते, तो वार्तालाप की प्रारंभिक औपचारिकता के तुरंत बाद कहने लगते, ‘डॉक्टर सा’ब, प्रेमचंद्र जी एक किताब भर लेख तो मिल गए हैं, लेकिन कुछ और भी हैं, जिन्हें छपना चाहिए, बस उन्हीं को खोजने में जुटा हूँ, लेख मिले और किताब यूँ गई प्रेस में’, गुरुजी हँसते हुए कहते, ‘मामा जी, किताब लायक सामग्री हो गई है, तो भेजिए छपने, जब दूसरे लेख मिलेंगे, तो वे दूसरी किताब में चले जाएँगे’। यह एक कारण था, जिसके चलते भानजा लेखक, मामा लेखक के लिए आदर का पात्र बना रहा। अपनी अंतिम पुस्तक, ‘गज़ल साम्राज्ञी बेगम अख्तर’ की भूमिका में भी उन्होंने लिखा है, “लेखक के दो शब्द केवल एक शब्द तक ही सीमित रह जाएँगे, अगर डॉ. प्रेमचंद्र जैन का उल्लेख नहीं करूँगा। आप नजीबाबाद के साहू जैन पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे हैं। डॉ. प्रेमचंद्र जैन ही ऐसे व्यक्ति रहे हैं, जिन्होंने लेखक को लेखक बनाने में सहयोग दिया है”।
इस अपनापे भरे सम्मानजनक रिश्ते की एक्रिलिक-पेंटिंग की एक और गहराई भी है, दोनों का कड़क स्वभाव्। नित्यानंद मैठाणी आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के संबंध में किसी की सिफारिश सुनते नहीं थे और प्रेमचंद्र जैन किसी की संस्तुति करते नहीं थे। उन्होंने शुरु में ही कह दिया था, ‘मामा जी मुझे आकाशवाणी का कोई कार्यक्रम नहीं चाहिए और मैं कभी किसी को कार्यक्रम में बुलाने के लिए भी नहीं कहूँगा, आप इस बात को गाँठ बांध लीजिए, ताकि आपको मुझसे कोई डर-भय न रहे, तब हमारा संबंध चलता रहेगा, बाकी मैं आपको मामा जी कह चुका हूँ, वह संबंध हमेशा बना रहेगा।’ यह सुन कर मैठाणी जी कुछ अधिक नहीं बोले, लेकिन उनके चेहरे के भावों से साफ लगा, कि वे भीतर-ही-भीतर आश्वस्त हुए, उन्होंने बस इतना कहा, ‘ठीक है, डॉक्टर सा’ब, मेरा भी मानना है, कि सिफारिशी कार्यक्रमों का आकाशवाणी की प्रतिष्ठा पर बुरा प्रभाव पड़ता है, इसलिए मैं खुद सिफारशियों से दूर भागता हूँ, लेकिन आप इतना ज़रूर मान कर चलिए, कि आपको जो कार्यक्रम दिए जाएँगे, वे नियमानुसार ही दिए जाएँगे, आप उन्हें अन्यथा मत लीजिए।’ इसके बाद ये दोनों चाहे एक-दूसरे के घर मिलें या आकाशवाणी भवन के कार्यालय में या फिर चाहे आसपास के नगरों के साहित्यिक समारोहों में भाग लेने साथ-साथ जाएँ, किसी के चेहरे पर किसी प्रकार का तनाव नहीं रहता था।
एक बार मैठाणी जी ने एक दूसरी तरह की सिफारिश अवश्य की थी। नजीबाबाद के जैन समाज ने भगवान महावीर का पच्चीस-सौवाँ निर्वाणोत्सव बहुत धूमधाम से मनाया था। उसके मुख्य आधार वीरेंद्र जैन पहाड़वाले, डॉ. प्रेमचंद्र जैन, साहू जगत प्रसाद जैन, साहू सुरेशचंद्र जैन आदि थे। उस अवसर पर ऐतिहासिक महत्व का एक कार्य, ‘मध्यकालीन हिंदी संत साहित्य के विकास में जैन दर्शन का योगदान’ विषय पर तीन दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन था, जिसमें आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विजयेंद्र स्नातक, कस्तूरचंद कासलीवाल, बाबू वृंदावनदास, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी जैसे स्वनाम धन्य विद्वान नजीबाबाद पधारे थे। भगवान महावीर के पच्चीस-सौवें निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में होने वाले आयोजनों की शृंखला की अंतिम कड़ी के रूप में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इसका मूल प्रस्ताव साहू जगत प्रसाद जी का था, ‘डॉक्टर सा’ब, बरसों से नगर में कोई बड़ा कवि-सम्मेलन नहीं हुआ है, इस अवसर पर जैन समाज की तरफ से करा देना चाहिए’। अनेक कठिनाइयों की छाया में यह प्रस्ताव फलीभूत हुआ और कवि-सम्मेलन के मुख्य अतिथि के रूप में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा-मंत्री, शिवानंद नौटियाल को आमंत्रित करने का निर्णय किया गया। इसमें भी एक कठिनाई आ खड़ी हुई। समय बहुत कम था और आयोजकों को ऐसा कोई समर्थ स्रोत नहीं मिल रहा था, जो नौटियाल जी को इस आयोजन में ला सके। कवि सम्मेलन का संयोजक होने के नाते सबसे अधिक परेशान गुरुजी थे। ऐसे संकट की घड़ी में नित्यानंद मैठाणी आगे आए। उन्होंने गुरुजी को आश्वस्त किया, ‘डॉक्टर सा’ब, आप बिल्कुल परेशान मत होइए, यह काम मुझ पर छोड़िए, मैं पूरी कोशिश करूँगा।’ वे लखनऊ गए, शिवानंद नौटियाल से मिले और उनके कार्यालयीन पत्र-शीर्ष पर आयोजन में आने की स्वीकृति लाकर गुरुजी के हाथ पर रख दी, ‘लीजिए प्रेमचंद्र जी, नौटियाल जी आपके आयोजन में आ रहे हैं, निश्चिंत होकर आगे की कार्यवाही कीजिए।’ उनकी सिफारिश पर शिवानंद नौटियाल कवि-सम्मेलन के मुख्य अतिथि के रूप में नजीबाबाद में उपस्थित हुए और इस विलक्षण सिफारिश के कारण नित्यानंद मैठाणी नजीबाबाद के और भी अपने हो गए।
नित्यानंद मैठाणी को कई बार लगता था, कि यह काम होना चाहिए, और वे उसे परिणाम तक पहुँचा कर ही दम लेते थे। घटना उस समय की है, जब कोतवाली मार्ग पर मुख्य प्रसारण स्टूडियो ने विधिवत काम करना प्रारंभ नहीं किया था। वह परीक्षण-अवस्था में था और एक-दो लोगों को बुला कर बिना किसी औपचारिकता के सीधा प्रसारण करवा कर देखा जा रहा था। उस समय अत्यावश्यक प्रसारण कोटद्वार मार्ग पर ट्रांसमिशन टावर वाले छोटे से भवन से किया जाता था। आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र का विधिवत उद्घाटन 27 जनवरी, 1978 को हुआ। इसके पहले ही 28 दिसंबर, 1977 को सूचना मिली, कि हिंदी काव्य-जगत में छायावाद की त्रयी के प्रमुख स्तंभ, कवि सुमित्रानंदन पंत का निधन हो गया है। मैठाणी जी को आकाशवाणी की स्थिति की जानकारी थी और वे चाहते, तो आकाशवाणी लखनऊ से रिले होने वाले श्रद्धांजलि-कार्यक्रम को भी सुनवा सकते थे, लेकिन उन्हें धुन सवार हुई, कि नजीबाबाद केंद्र भी अपना श्रद्धांजलि कार्यक्रम उसी दिन प्रसारित करेगा। समय बहुत ही कम था। न कोटद्वार से किसी को बुलाना संभव था, न बिजनौर से और न ही धामपुर, हरिद्वार या रुड़की से। जो भी संभव था, वह नजीबाबाद कस्बे के बल पर ही किया जा सकता था। मैठाणी जी के भीतर बैठे जुझारु मैठाणी ने कहा होगा, ‘वही किया जाए’। उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर संपर्क करना शुरु किया और कुछ ही घंटों में वे अपनी टीम बनाने में सफल हो गए। प्रकृति और मनुष्य को अगाध प्रेम करने वाले कविवर सुमित्रानंदन पंत को आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र ने सीधे-प्रसारण (लाइव-ब्रॉडकास्ट) के माध्यम से श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। यह श्रद्धांजलि कार्यक्रम न केवल पर्याप्त प्रभावशाली बन गया, बल्कि भारत के आकाशवाणी केंद्रों के उन कार्यक्रमों में भी स्थान पा गया, जिन्होंने उसी दिन कवि पंत को सबसे पहले अपनी भावपूर्ण श्रद्धा अर्पित की होगी। नित्यानंद मैठाणी और आकाशवाणी के समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ ही इसका श्रेय नजीबाबाद कस्बे को भी है, उसी नजीबाबाद को. जिस पर मैठाणी जी जीवन भर प्य्रार-दुलार बरसाते रहे।
आकाशवाणी जैसा सरकारी संस्थान किस प्रकार साधारण जनता के सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थान की भूमिका निभा सकता है, इसका अनुकरणीय उदाहरण नित्यानंद मैठाणी ने आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र पर पहले कार्यक्रम अधिकारी और फिर केंद्र निदेशक के रूप में कार्य करते हुए प्रस्तुत किया। वे गढ़वाल और कुमाऊँ के दूर-दूर के क्षेत्रों के जन-जीवन को आकाशवाणी से जोड़ते थे, पुराने और नए लोक-कलाकारों से संपर्क-संवाद करते थे, कितनी भी कठिनाइयाँ झेल कर दूरस्थ क्षेत्रों के साहित्य और संगीत कार्यक्रमों की रिकार्डिंग करने अपनी टीम के साथ जाते थे और किसी बहाने नजीबाबाद आए लेखकों-कलाकारों के साक्षात्कार लेने तथा उनकी रचनाओं को रिकार्ड करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। उनके समय में शिवप्रसाद डबराल ‘चारण’, सुंदरलाल बहुगुणा, गिरदा, पीतांबर देवरानी, योगेश पांथरी, पार्थसारथी डबराल, विपिन उनियाल, शेखर जोशी, कमल जोशी श्रीविलास डबराल, हर्ष पर्वतीय आदि गढ़वाली-कुमाऊँनी इतिहासकारों-पर्यावरणविदों-साहित्यकारों-कलाकारों के साथ ही बाबू सिंह चौहान, विष्णुदत्त राकेश, कमलकांत बुधकर, योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, देव भारती, ज्ञानेशदत्त हरित, निश्तर खानकाही, चरण सिंह ‘सुमन’, सरोज मार्कंडेय, हुक्का बिजनौरी, पद्मा शर्मा, रमेश रायज़ादा, ओमप्रकाश अश्वघोष, कमलेश सारथी, वाचस्पति, मेघा सिंह चौहान, जलीस नजीबाबादी, गिरिराजशरण अग्रवाल, भोलानाथ त्यागी आदि— आकाशवाणी की सीमा में आने वाले क्षेत्र के— हिंदी के प्रखर और चर्चित लेखकों-पत्रकारों की वार्ताएँ, कविताएँ, लोक-संगीत रचनाएँ, कहानियाँ, साक्षात्कार आदि सुनने को मिलते थे। इनके अतिरिक्त मैठाणी जी नई पीढ़ी के संभावनाशील रचनाकारों-कलाकारों को बिना किसी भेदभाव के प्रसारण के अवसर प्रदान करने में भी विशेष सुख प्राप्त करते थे। इनमें से अमन त्यागी ने आगे चल कर काफी नाम कमाया। कहानियों के साथ ही आकाशवाणी से प्रसारित उनके रूपक श्रोताओं द्वारा काफी पसंद किए गए। मुकेश सुमन, रजनी शर्मा, प्रदीप डेज़ी मुकेश नादान आदि इसी प्रकार के दूसरे नाम है। इनके अलावा भी नई पीढ़ी के अनेक रचनाकारों को आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र ने आगे बढ़ने में सहायता की। कभी न भुलाई जा सकने वाली एक बात यह है, कि उस काल में आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र के साथ लेखकों-कलाकारों के साथ ही साधारण लोगों को भी गहरा अपनापन अनुभव होता था।
जनकवि नागार्जुन वाचस्पति जी के पास जहरीखाल आते-जाते हफ्ता-दस दिन के लिए नजीबाबाद में गुरुजी के पास ठहर जाते थे। मैठाणी जी उनसे प्रति दिन मिलने जाते थे और इशारों ही इशारों में कोशिश करते थे कि वे अपनी कुछ कविताएँ और एक साक्षात्कार रिकार्ड करवाने के लिए तैयार हो जाएँ, लेकिन नागा-बाबा आकाशवाणी आने की बत सुनते ही बिदक जाते थे। अंत में उन्होंने नागार्जुन को रिकार्डिंग के लिए तैयार करने का दायित्व गुरुजी को दिया। वे कोशिश करने लगे, लेकिन बात बनती नज़र नहीं आई। एक दिन मैठाणी जी ने फोन पर पूछा, ‘काम कुछ बना?’ उस समय गुरुजी बाबा के सामने ही बैठे थे, इसलिए खुल कर कुछ नहीं कह सकते थे, वे केवल बोले, ‘निल’। मैठाणी जी समझ गए और हँसते हुए कहा, ‘डॉक्टर सा’ब इस ‘निल’ को ‘अनिल’ बनाइए’। बात फिर भी नहीं बनी, तो एक दिन मैठाणी जी ने कहा, ‘डॉक्टर सा’ब प्रेमचंद्र जी, आप तो बस एक काम कर दीजिए, आप नागा-बाबा को आकाशवाणी केंद्र तक ले आइए, फिर देखिए, मैं कुछ कोशिश करता हूँ।’ गुरुजी ने आकाशवाणी नजीबाबाद के कार्यों की प्रशंसा करते हुए नागा-बाबा को विशेष रूप से बताया कि वहाँ दूर-दूर गाँवों तक से लोक-कलाकार बुलाए जाते हैं और किसानों के लिए भी उपयोगी कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। इसके बाद अवसर पाते ही प्रस्ताव कर दिया, कि अगर बाबा चाहें, तो आज शाम को यूँ ही आकाशवाणी केंद्र घूमने चला जा सकता है। नागा-बाबा पता नहीं किस धुन में थे, उनके मुँह से निकल गया, देख आते हैं। इसके बाद की कथा का एक अंश ‘निरभै होई निस्संक कहि’ ग्रंथ के पृष्ठ संख्या 68 से पढ़ें— “हम सब सबसे पहले मैठाणी जी के कार्यालय में जाकर बैठे, उसके बाद गुरुजी ने कहा, ‘बाबा, कुछ घूम कर देख लेते हैं, उसके बाद चाय पिएँगे।’ कुछ देर यों ही इधर-उधर घुमा कर बाबा को स्टूडियो लाया गया। मैठाणी जी उत्साह में आ गए और जल्दी कर बैठे, बोले, ‘बाबा, आप अपनी कुछ कविताएँ रिकार्ड करवा दीजिए, हम अपने श्रोताओं के लिए प्रसारित करना चाहते हैं।‘ सुनते ही बाबा की गोल-गोल आँखें बड़ी होकर कोटरों से बाहर निकल आईं, हाथ कुहनियों से कुछ चौड़े हो गए, वे जहाँ खड़े थे, वहीं से पीछे घूमते हुए बोले, ‘तो आप इसलिए आकाशवाणी-फाकासवाणी की रट लगा रहे थे, हम क्या भुट्टे का पेड़ हैं, कि जब चाहा तोड़ लिया, छील लिया, चबा लिया, चलिए यहाँ से।’ मैठाणी जी और गुरुजी को काटो तो खून नहीं, जहाँ थे, वहीं खड़े रह गए। मैं सबसे छोटा था, बाबा गाली भी देते, तो चिंता नहीं थी, सो आगे बढ़ा और डरते-डरते कहा, ‘बाबा चलिए हम बाहर चलते हैं’, और उन्हें मैठाणी जी के कार्यालय में ले जाकर बैठा दिया। बाबा कुछ देर बाद शांत हो गए। चाय आने तक गुरुजी और मैठाणी जी भी आ पहुँचे। दोनों ने कुछ देर पहले घटी घटना का अहसास न देते हुए बातें शुरु कीं और मौका देख कर गुरुजी ने चर्चा का रुख गढ़वाली साहित्य की ओर मोड़ दिया। बाबा को रस आने लगा। वे गढ़वाली, फिर मैथिली, फिर बंगला और फिर कालिदास की चर्चा करने लगे। होते-होते यह हुआ, कि बाबा ने अपनी कविताओं के अंश बोलने शुरु कर दिए। और, बाद में पता चला कि मैठाणी जी ने चोरी से अपने प्रोडक्शन-एसिस्टेंट से मेज के एक कोने के नीचे जो टेप-रिकॉर्डर रखवा दिया था, उसमें बाबा नागार्जुन कैद हो गए।” इस कथा में जो अंश छूट गया है, वह यह है कि बाबा नागार्जुन जो बातचीत कर रहे थे, उससे भेंटवार्ता टाइप कार्यक्रम बना और पूरी कार्यवाही को विधिक बनाने के लिए मैठाणी जी व गुरुजी ने अति कौशलपूर्वक बाबा से कॉन्ट्रेक्ट साइन कराने में भी सफलता हासिल कर ली। यह समझना तो कठिन होना ही नहीं चाहिए, कि मैठाणी जी ने समय रहते ही ‘प्लान-ए’ के साथ ‘प्लान-बी’ भी तैयार कर रखा था, अन्यथा मेज के नीचे टेप-रिकॉर्डर कहाँ से आता! कालजयी हिंदी कथाकार, शिवप्रसाद सिंह अपने शिष्य, ‘प्रेम’ (डॉ. प्रेमचंद्र जैन) के मनुहार पर नजीबाबाद पधारे। मैठाणी जी को उनसे निकटता स्थापित करने और उन्हें रिकार्ड करने में अधिक परेशानी नहीं उठानी पड़ी। बाद में कभी गुरुजी उनसे भेंट करने बनारस गए, तो वे एक प्रसंग में बोले, ‘प्रेम, तुम्हारे मैठाणी जी बहुत अच्छे और विद्वान आदमी हैं’, मैठाणी जी के साहित्य और संगीत के ज्ञान ने शिवप्रसाद सिंह को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी।
नित्यानंद मैठाणी संगीत, संगीतकारों और गायकों पर निरंतर शोध करते रहे और लिखते रहे। उनकी सन् 2017 में प्रकाशित पुस्तक, ‘गज़ल साम्राज्ञी बेगम अख्तर’ पढ़ कर भारतीय संगीत और गायन की भारतीय परंपरा संबंधी उनके गहन अध्ययन का पता चलता है। अपने इस ग्रंथ में उन्होंने सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी और रसूलन बाई के गायन-वैशिष्ट्य के परिप्रेक्ष्य में बेगम अख्तर के गायन वैशिष्ट्य का विवेचन किया है, काफी दूर तक इन तीनों महान कलाकारों के मध्य समानता के सूत्र खोजे हैं, लेकिन बेगम अख्तर का इन तीनों से भिन्न जो गायन-वैशिष्ट्य है, उसे सामने लाना नहीं भूले हैं। बेगम अख्तर किस प्रकार ‘कई रागों का मिश्रण करके अपना एक अनूठा मिश्रण तैयार कर देती थीं’, किस प्रकार ‘रागेतर प्रयोग करती थीं’, उन्होंने किस प्रकार अपने संगीत में ‘ठुमरी, दादरा, चैती आदि विधाओं का प्रयोग किया है’, उन्होंने कैसे ‘पूरब अंग और पंजाब अंग के मनोहारी तालमेल से एक नई शैली को जन्म दिया’ आदि का सूक्ष्म और सूत्रबद्ध विवेचन उन्होंने अपनी पुस्तक में किया है। यह कम लोगों को पता होगा, कि प्रख्यात प्रगतिशील शायर, कैफी आज़मी और मैठाणी जी के बीच मित्रता थी, इतनी गहरी मित्रता कि जिन दिनों मैठाणी जी आकाशवाणी के गोरखपुर केंद्र पर कार्यरत थे, उन दिनों कैफी साहब जब भी मेजवाँ (आज़मगढ़) आए, मैठाणी जी से मिलने गोरखपुर अवश्य गए। वे बेगम अख्तर एकेडेमी, लखनऊ के चेयरमेन भी थे। मैठाणी जी ने अपनी इस पुस्तक में यह जानकारी दी है कि कैफी आज़मी मानते थे, कि ‘गज़ल के दो नाम हैं, एक- गज़ल और दूसरा- बेगम अख्तर्’। उन्होंने कैफी आज़मी का यह मूल्यांकन-वाक्य भी एक जगह उद्धृत किया है, कि “बेगम अख्तर के सामने गज़ल देखने को मिलती है।” दो और अति रोचक प्रसंग इस पुस्तक में हैं। एक यह, कि बेगम अख्तर की दो गंडाबंद शिष्याएँ थीं, अंजलि बनर्जी और शांति हीरानंद्। इनमें से शांति हीरानंद के समर्पण का हाल यह था कि वे अपने को बेगम अख्तर की ‘आत्मा की छाया’ मानती थीं। एक बार उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की, कि वे मृत्यु के बाद अपनी उस्ताद, बेगम अख्तर की मजार की बगल में ही जगह पाना चाहती हैं। बेगम अख्तर बहुत नाराज़ हो गईं और बोलीं, ‘शांति, ऐसा कभी मत सोचना, तुम्हारा अपना धर्म है, याद रखो, तुम्हें तुम्हारे धर्म की परंपरा के अनुसार जलाया जाएगा।’ यह थी एक कलाकार की अनुकरणीय महानता। दूसरा प्रसंग यह, कि एक बार हारमोनियम पर संकट आ खड़ा हुआ था। मैठाणी जी याद करते हैं कि जब वे रेडियो की अपनी नौकरी के प्रारंभिक दिनों में आकाशवाणी के जम्मू केंद्र पर कार्यरत थे, तो उन्होंने स्टाफ ट्रेनिंग स्कूल में ठाकुर जयदेव सिंह को भाषण देते सुना था। उन्होंने अपने भाषण में हारमोनियम को ‘डिस्टैंपर्ड स्केल वाद्य’ बताया था, क्योंकि उसे बजाते समय एक रीड के पर्दे से दूसरे पर जाने में अवरोध उत्पन्न होता है तथा उसमें ‘मीड़ का प्रावधान नहीं है’, अंत: संगीत-ध्वनि में व्यवधान पैदा होता है। ठाकुर जयदेव के साथ ही संगीतज्ञ केसकर जी के विचार भी इसी प्रकार के थे। दूसरे लोगों की तरह मैठाणी जी भी इन विचारों से प्रभावुत हुए थे। लेकिन हारमोनियम को संगीतज्ञों की नाराज़ी से मुक्त करने का ऐतिहासिक कार्य बेगम अख्तर ने किया। उन्होंने बिना हारमोनियम के गाने से इंकार कर दिया। कभी-कभी संगत के लिए एक के बदले दो हारमोनियम मांगे और यह सिद्ध किया कि संगीत की महफिल हारमोनियम के बिना अधूरी है। इन घटनाओं ने मैठाणी जी के मन में हारमोनियम को गहराई से जानने की चुनौती पैदा की। अंतत: 1985 में ‘पूना फिल्म इंस्टीट्यूट’ में प्रशिक्षण के समय नित्यानंद मैठाणी ने ‘हारमोनियम-परिचय’ शीर्षक वृत्त-चित्र का निर्माण किया। इस वृत्त-चित्र का नंबर वे हमेशा याद रखते थे। अपनी पुस्तक में उन्होंने स्वीकार किया है, कि ‘उन्हें हारमोनियम पर कार्य करने की मूल प्रेरणा बेगम अख्तर ने दी थी’। पुस्तक पढ़ने पर पाया, कि इनमें से अनेक प्रसंग मैठाणी जी ने नजीबाबाद की शाम की बैठकियों में सुनाए थे, एकाध तो चंद्रा कत्था उद्योग के सामने टूटी मड़ैया वाली चाय की दुकान में भी।
सन् 1987 में नित्यानंद मैठाणी ने केंद्र-निदेशक के रूप में आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र पर कार्य-भार ग्रहण कर लिया। तब वे दूसरी बार इस केंद्र पर आए थे। उसी वर्ष 17 जून को ‘माता कुसुमकुमारी हिंदीतरभाषी हिंदी साधक सम्मान’ समारोह की नींव रखी गई। नित्यानंद मैठाणी ने इसका रेडियो-कवरेज संभव बनाया। आगामी वर्षों में यह आयोजन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘साहित्यिक कुंभ’ नाम से जाना गया और मैठाणी जी प्रति वर्ष इसकी विस्तृत रिपोर्टिंग आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र से प्रसारित करवाते रहे। वे आयोजन प्रारंभ होने के पर्याप्त समय पूर्व ही न केवल रेडियो की रिकॉर्डिंग-टीम ही भेज देते थे, बल्कि स्वयं भी आकर देख लेते थे, कि तैयारी सही-सही हो गई है या नहीं। इससे आयोजकों को बड़ी आश्वस्ति मिलती थी। नित्यानंद मैठाणी एक बड़ा काम पुरस्कृत रचनाकारों से भेंट करने के साथ ही उनमें से अनेक को आकाशवाणी में आमंत्रित करके उनके साक्षात्कार, सामूहिक चर्चाओं तथा उनकी रचनाओं को भविष्य में प्रसारित करने के उद्देश्य से रिकॉर्ड करवाने का भी करते थे। ‘माता कुसुम कुमारी हिंदीतरभाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत और संभावनाएँ’ ग्रंथ में आकाशवाणी नजीबाबाद के कार्यालय भवन के प्रवेश द्वार के ठीक सामने लेखकों का एक चित्र प्रकाशित हुआ है, जिसमें चेक गण्रराज्य के भारत में तत्कालीन राजदूत, प्रख्यात हिंदी विद्वान ओदोलेन स्मेकल तथा भारतीय हिंदी विद्वानों में कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, बी. आर. नारायण, पांडुरंग ढगे, महेंद्रप्रताप सिंह, के. ए. जमुना, मालती पांडेय, प्रेमचंद्र जैन आदि हैं। इनके बीच एक कुर्सी पर नित्यानंद मैठाणी विराजमान हैं। पीछे वीरेंद्र जैन भी दिखाई दे रहे हैं। यह चित्र 27 अक्तूबर, 1991 का है। सम्मान-आयोजन के तुरंत बाद मैठाणी जी ने इन सभी को आकाशवाणी आमंत्रित किया था। इस प्रकार आकाशवाणी के नजीबाबाद केंद्र को बड़ी संख्या में प्रतिष्ठित हिंदीतरभाषी हिंदी विद्वानों के कार्यक्रम प्रसारित करने का अवसर प्राप्त होता रहा। मैठाणी जी यह कार्य सन् 1992, अर्थात अपने सेवा-निवृत्त होने तक करते रहे। एक सुखद संयोग यह रहा, कि आगामी वर्षों में उनके उत्तराधिकारी केंद्र-निदेशक, विजय दीक्षित भी बड़े जतन और मनोयोगपूर्वक इस परंपरा का निर्वाह करते रहे।
सेवा-निवृत्त होने के बाद भले ही लखनऊ में रहने लगे हों, लेकिन नजीबाबाद से नित्यानंद मैठाणी का संबंध कभी टूटा नहीं। वे जब भी लखनऊ से देहरादून आते थे, तो उनके कार्यक्रम में अनिवार्य रूप से नजीबाबाद शामिल रहता था। उनका पड़ाव पहले आवास संख्या-चार में और बाद में जब गुरुजी अपने मकान, ‘आशा निलय’ में आ गए, तो वहाँ होने लगा, कभी एक-दो दिन के लिए और कभी समय न हो, तो कुछ घंटों के लिए भी। वह समय पुरानी स्मृतियों में गोते लगाने, नजीबाबाद के तमाम लोगों के साथ ही कोटद्वार की मित्र-मंडली का मूल्यांकन करने और नाते-रिश्तों को जीने में व्यतीत होता था। उन यात्राओं में वे पढ़ने-लिखने की अपनी अधूरी योजनाओं को पूरा करने की बेचैनी भी दर्शाते थे और अनछपे लेखों को जल्दी से जल्दी पुस्तकाकार प्रकाशित करवा लेने के ऐसे वादे भी करते थे, जिनके बारे में सभी को पता था, कि उन्हें कोई जल्दी नहीं है। शायद, यह कहना एक सीमा तक सही हो, कि वे अपना लिखा सभी कुछ पुस्तक के रूप में प्रकाशित तो करवा देना चाहते थे— इसीलिए अस्वस्थ होते हुए भी उनका खोज-अभियान चलता रहता था— लेकिन वे कभी यह विश्वास नहीं कर पाए कि व्यक्ति को जल्दी हो या न हो, किंतु समय हमेशा निष्ठुरता पूर्वक समय का पालन करता है।
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15 सितंबर, 2020 को रात्रि 9 बज कर 54 मिनट पर गुरुजी ने फोन-संदेश भेजा, ‘फोन नहीं कर रहा हूँ, अभी-अभी जया बेटी ने लखनऊ से फोन पर सूचना दी, डैडी (मैठाणी जी) नहीं रहे।’ अध्ययन की व्यस्तता के कारण मैंने यह संदेश आधी रात को सोने की तैयारी करते हुए सुबह का अलार्म लगाते समय देखा। उसके बाद नींद क्या आनी थी! करवटें बदलते हुए महसूस करता रहा, मैं भी नजीबाबाद में हूँ, गुरुजी भी नजीबाबाद में हैं, मैठाणी जी भी नजीबाबाद में हैं, हम लोग कभी आवास संख्या-चार में हैं, कभी आशा-निलय में हैं, कभी आकाशवाणी भवन में उनके आवास पर हैं, कभी उनके कार्यालय में हैं, कभी साहित्यिक कुंभ के शोर में हैं, कभी सन्नाटे भरी देर रात कोतवाली मार्ग पर हैं, कभी चाय की मड़ैया में हैं, कभी कहीं हैं, कभी कहीं हैं!….. लेकिन पिछले कई दिन से तो वे मेरी और गुरुजी की लंबी-लंबी फोन-चर्चाओं में हैं। उन्हें वर्धा से कई बार फोन करता था, सेवा-निवृत्त होकर लौट आया, तो भी उनसे संपर्क बनाए रखा, हर बार लखनऊ जाकर उनसे भेंट करने के बारे में चर्चा होती थी, सुन कर आनंदित हो जाते थे, अंत में कोरोना-संकट टलते ही लखनऊ जाकर उनसे मिलने की बात तय हुई थी, लेकिन नित्यानंद मैठाणी तो 14 सितंबर को ही लखनऊ छोड़ कर अबूझ-अनंत यात्रा पर निकल गए, पता नहीं इस बार क्या जल्दी थी!…………..
संपर्क : सी-112, अलकनंदा अपार्टमेंट्स
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