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धान सी लड़कियाँ|

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धान के बिरवे सी होती लड़कियाँ,

जिन्हें उखाड़ दिया जाता है,

उनकी डीह से अचानक ही,

बिन पूछे बिन बताये,

बिन देखे, बिन समझे,

उनका दर्द, उनकी टीस,

सच, माटी भी उनकी नहीं होती,

उनके हिस्से है सारा खारापन,

और हँसी किसी और के,

कुछ-कुछ जंगली घास सी भी,

उग ही आती हैं, चाहे-अनचाहे,

ढीठ सी वे बची रह जातीं हैं,

बार-बार मसले जाने पर भी,

बढ़ती जातीं बिन देखे-भाले भी,

पसरे भी तो जंगली बेल सी,

ढख लेती हैं फैल सारा आंगन,

वे किसी गाय सी होती हैं,

छुटपन से ही बंधी हुईं,

कोने में किसी खूंटे से,

चूंकि बता गये हैं पुरखे,

मरखनी बन जाती है छूटी गाय,

अर्थशास्त्र बताता है हमें,

दूध से है गाय की उपयोगिता,

कौन चाहता है जंगली बरगद घर में,

पर चाव से रखी जाती बोनसाई,

पर लड़कियाँ तितली सी होती हैं,

तलाशतीं अपना ही आसमान,

बार-बार पंखों के मसले जाने पर भी|

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