मराठी के लेखक, समीक्षक, कवि एवं “सगुणा” पत्रिका के संपादक दयानंद कनकदंडे जी एक जीवनदानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं l सामाजिक तथा अन्य विषयों पर उनका लेखन और अनुवाद अनेक मराठी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है l
दयानंद कनकदंडे जी की अनुदित कविताएँ
अनुवाद – प्रेरणा उबाळे
१. कचोट
भ्रमपूर्ण अतीत की
गहरी स्मृतियाँ
कभी-कभी
अचानक उभरकर
कचोटती हैं बहुत
पीछा ही नहीं छोड़ती ……..
हमारे न रहने के बाद भी
वे रहती हैं क्या ?
…….. पता नहीं ……..
अब वही करें ऐसी प्रार्थना
कि
“विस्मृतियों के दोहद
लग जाए तुम्हें !”
काश !
मैं उसे बता पाऊं ……
अगर वह मिल जाए तो ……..
.
अगर वह आती
तो
क्या भ्रम के अतीत की
गहरी स्मृतियाँ
जिन्दा रहती ? ? ?……
२. पानी
पानी को लेकर विवाद होने पर
और भी कुछ खोजना था उसे
जन्म ….
मृत्यु ….
दुःख….
तृष्णा…..
वह खोजने निकला
और बुद्ध बन गया
आज और कल भी
पानी को लेकर
झगड़े होनेवाले हैं
पानी
हवा
और
बहुत कुछ
बिकेंगी वस्तुएँ
तब आप क्या करेंगे ?
३. गिरावट
किसान की आत्महत्या
बन जाती है एक खबर……..
किसी अखबार में
सेन्सेक्स के गिरने – उछलने
के बाद
जैसे छपते हैं
आंकड़े l
पर यह सच है
कि
किसान की आत्महत्याओं से
कभी सेन्सेक्स नहीं गिरता
वह तब गिरता है
जब किसानविरोधी सरकार
गिरने की स्थिति में
आ जाती है l
४. मुहर लगाएँगे
हम आसिफा के खूनी को
फाँसी पर चढाने के लिए कहते हैं…..
पटवर्धन मैम को
बंगले पर बुलाते हैं …….
रवीना को पूछा था –
गाजर जमीन पर उगते हैं या
जमीन के नीचे ?
और उसे बताया भी कि
उसे सिर्फ एक ही गाजर मालूम होगा —-
उन्होंने हमारी औरतों को भोगा
और अब हम तुम्हारी भोगेंगे
और
औरतें किसी की जागीर होती हैं
इस बात पर
मुहर लगा देंगे l
५. साम्राज्यवादी वैश्वीकरण
वसुधैव कुटुम्बकम
समूचा विश्व एक परिवार …………
परिवार कहें तो
सत्ता से सम्बन्ध आता है
अधिकार तो होगा ही
कुछ लोगों का l
आप ख्वामखा ही उन्हें बुरा कहते हैं
असल में
प्रधान सेवक
उन्हीं कुछ लोगों का सेवक होता है
उनकी सेवा में
कोई कमी ना रह जाए
हजारों पेड़ हमने काट दिए
तो क्या हुआ ?
समूचा परिवार ही विश्व परिवार है
तो फिर
“आदिवासी मूल निवासी हैं”
यह लोजिक
क्या मूर्खता नहीं दर्शाता ?…………..
डॉ प्रेरणा उबाले
सहायक प्राध्यापक
हिंदी विभागाध्यक्षा
मॉडर्न कला, विज्ञान और
वाणिज्य महाविद्यालय,
शिवाजीनगर, पुणे- ४११०३३
सं.नं.- ७०२८५२५३७८
prerana.ubale@yahoo.com