जनता द्वारा मूल्यांकित कवि हैं रमई काका! : विश्वनाथ त्रिपाठी
यह ’४८-’४९ की बात है, भारत आजाद हो गया था। मैं बलरामपुर में पढ़ता था। बलरामपुर रियासत थी, अवध की मशहूर तालुकेदारी थी वहाँ, समझिये कि लखनऊ और गोरखपुर के बीच की सबसे बड़ी जगह वही थी। वहीं मैं डी.ए.वी. स्कूल से हाई स्कूल कर रहा था। वहाँ एक बहुत अच्छा स्कूल था, एल.सी. कहलाता था, लॊयल कॊलिजिएट, महाराजा का बनवाया हुआ था और बहुत अच्छा था। उसमें बहुत अच्छे अध्यापक होते थे। संस्कृत के पं. रामप्रगट मणि थे। उर्दू में थे इशरत साहेब जिनको हम गुरू जी कहते थे। वहाँ मुशायरे बहुत अच्छे होते थे, बहुत अच्छे कवि सम्मेलन होते थे। एक बार कवि सम्मेलन हुआ वहाँ, उसी में रमई काका आये हुए थे।
रमई काका के साथ एक कवि थे, ‘सरोज’ नाम में था उनके। नये कवि थे, मशहूर थे। लेकिन रमई काका ज्यादा मशहूर थे। तब रमई काका की उमर रही होगी ३५-४० के बीच में। अच्छे दिखते थे, पतले थे। काली शेरवानी पहने थे। पान खाए हुए थे। उन्होंने काव्य-पाठ किया। उन्होंने जो कविताएँ पढ़ीं, तो उसकी पंक्तियाँ सभी को याद हो गईं। अवधी में थी, बैसवाड़ी में। इतना प्रभाव पड़ा उनके काव्य-पाठ का, कि हम लोगों ने एक बार उनका काव्य-पाठ सुना और कविताएँ याद हो गयीं। कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद भी हम लोग उन कविताओं को पढ़ते घूमते।
जो कविता उनकी सुनी थी, उसका शीर्षक था — ध्वाखा होइगा। अभी याद है, इसकी पंक्तियाँ इस तरह हैं:
हम गयन याक दिन लखनउवै , कक्कू संजोगु अइस परिगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख , सो कहूँ–कहूँ ध्वाखा होइगा!
जब गएँ नुमाइस द्याखै हम , जंह कक्कू भारी रहै भीर
दुई तोला चारि रुपइया कै , हम बेसहा सोने कै जंजीर
लखि भईं घरैतिन गलगल बहु , मुल चारि दिनन मा रंग बदला
उन कहा कि पीतरि लै आयौ , हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा!
इसमें फिर तमाम स्थितियाँ आती हैं, हम कहाँ-कहाँ गये फिर वहाँ क्या हुआ। एक जो गाँव का ग्रामीण है वह शहर जाता है तो उसे अपरिचित दुनिया मिलती है। उस अपरिचित दुनिया में वह अपने को ढाल नहीं पाता। वहाँ का आचार-विचार-व्यवहार सब अपरिचित होता है। वह भी उस दुनिया में आश्चर्य में रहता है और दूसरे भी उसे लेकर आश्चर्य में पड़ते हैं। इसमें एक जगह है, दुकान में जैसे औरत की मूर्ति बनाकर कपड़े पहना देते हैं तो वह ग्रामीण उसे सचमुच की औरत समझ बैठता है, लोगों के बताने पर समझ में आता है कि ‘ध्वाखा होइगा।’ फिर एक जगह सचमुच की औरत को वह माटी की मूर्ति समझ कर हाथ रख बैठता है, स्थिति इस तरह बन जाती है, ‘उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं , हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा!’ बहुत अच्छी कविता है।
रमई काका की कविताएँ देशभक्ति की भावना से भरी हुई हैं। उनकी हर तरह की कविताओं में, चाहे वह हास्य कविताएँ हों, व्यंग्य की कविताएँ हों, शृंगार की कविताएँ हों; सबमें देशभक्ति का भाव रचा-बसा है। एक तो देशभक्ति का भाव दूसरे वे कविताएँ आदमी को बनाने की, संवारने की, कर्तव्य पथ पर लगाने की प्रेरणा देती थीं। एक तरफ तो कविताओं में देशभक्ति का पाठ था दूसरी तरफ वे कविताएँ एक आचार-संहिता भी इससे प्रस्तुत करती थीं; चाहे हास्य से, चाहे व्यंग्य से, चाहे करुणा से, चाहे उत्साह देकर। ये कविताएँ जीवनवादी कविताएँ भी हैं। चूँकि ये कविताएँ अवधी में थीं इसलिए बड़ी आत्मीय थीं। बड़ा फर्क पड़ जाता है, कविता कोई अपनी बोली में हो, कविता कोई राष्ट्रभाषा में हो और कविता कोई विदेशी भाषा में हो। आस्वाद में भी बड़ा अंतर पड़ जाता है।
भारत वर्ष नया नया आजाद हुआ था। उस समय बड़ा उत्साह-आह्लाद था। आशा-आकांक्षा भी थी। हालांकि विभाजन की त्रासदी झेल रहा था देश, और वह भी कविता में व्यक्त होता था। ये जो कविताएँ अवधी में हैं, भोजपुरी में हैं या दूसरी बोलियों में हैं, हम लोग समझते हैं कि इनमें ज्यादातर हास्य या व्यंग्य की ही कविताएँ होती हैं। इन कविताओं के सौंदर्य-पक्ष की कई बातों की हम उपेक्षा कर देते हैं। जैसे ‘बौछार’ की यह कविता अवधी मेंहै–
‘विधाता कै रचना’:
जगत कै रचना सुघरि निहारि
कोयलिया बन-बन करति पुकारि
झरे हैं झर-झर दुख के पात
लहकि गे रूखन के सब गात
डरैयन नये पात दरसानि
पलैयन नये प्वाप अंगुस्यानि
पतौवन गुच्छा परे लखाय
परी है गुच्छन कली देखाय
कली का देखि हँसी है कली
गगरिया अमरित की निरमली
प्रकृति की इतनी सुन्दर कविताएँ निराला को छोड़ दीजिये तो शायद ही खड़ी बोली के किसी कवि के यहाँ मिलें। निराला की भाषा और इस भाषा में कितना अंतर है। एकदम सीधे असर! ‘जगत कै रचना सुघरि निहारि / कोयलिया बन-बन करति पुकारि’ : अब इसका आप विश्लेषण करें तो कोयल जो बोल रही है वह जगत की सुन्दर रचना को निहार करके बोल रही है। यह निहारना क्रिया अद्भुत क्रिया है। इसका उपयुक्त प्रयोग खड़ी बोली में निराला ने किया है। ‘सरोज स्मृति’ में जब सरोज के भाई ने उसे पीटा, दोनों बच्चे थे खेल रहे थे, तो पीट कर मनाने लगे सरोज को — ‘चुमकारा फिर उसने निहार’। बेचारी छोटी बहन है, रो रही है, ये सारी बातें उस निहारने में आ गयीं। ‘निहार’ का अप्रतिम कालजयी उपयोग तुलसीदास ने किया है। जनक के दूत जब दशरथ के यहाँ पहुँचे संदेश ले कर कि दोनों भाई सकुशल हैं, तो दशरथ दूतों से कहते हैं:
भैया, कुसल कहौ दोउ बारे।
तुम नीके निज नैन निहारे॥
‘निहारना’ देखना नहीं है। मन लगा कर देखने को निहारना कहते हैं। कोयलिया बन-बन पुकार रही है। यह तो सीधे लोकगीतों से आया है। हमारे यहाँ अवधी के कवि हैं, बेकल उत्साही, बलरामपुर के हैं, हमारे साथ पढ़ते थे। उनकी पहली कविता जो बहुत मशहूर हुई थी, ‘सखि बन-बन बेला फुलानि’। बन-बन का मतलब सर्वत्र।
ये हमारे जो कवि हैं, अन्य को दोष क्या दूँ मैंने भी नहीं किया यह काम, जिनके अंदर सौंदर्य है उनका विश्लेषण हम लोग नहीं करते। बाकी कविताओं का तो करते हैं। होता यह है कि फिर ये हमारे कवि उपेक्षित रह जाते हैं। जो इनके योग्य है, वह इन्हें मिलता नहीं है। दुर्भाग्य कुछ ऐसा है कि जिन लोगों ने अवधी भाषा को, इसके सौंदर्य को ऊपर उठाने का जिम्मा ले रखा है जोकि अच्छा काम है लेकिन मैं इस अवसर पर जरूर कहना चाहता हूँ कि उन लोगों की गतिविधियों को देख करके ऐसा नहीं लगता कि ये लोग सचमुच किसी उच्च आदर्श से, देशप्रेम से या अवधी के प्रेम से काम कर रहे हैं। कभी-कभी तो यह शक होने लगता है कि वे अपने छोटे-छोटे किसी स्वार्थ से लगे हुए हैं। ऐसे में भी ये कवि उपेक्षित रह जाते हैं। ऐसे ही कवियों में रमई काका भी हैं। वरना जरूरत तो यह है कि बहुत व्यापक दृष्टि से इन कवियों का पुनर्मूल्यांकन क्या कहें, मूल्यांकन ही नहीं हुआ है, यह किया जाय। लेकिन जनता ने इनका मूल्यांकन किया है। अभी भी जहाँ रमई काका की कविताएँ पढ़ी जाती हैं, लोग सुनते हैं, उन पर इनका असर होता है।
(प्रस्तुति: अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी। यह लेख विश्वनाथ त्रिपाठी जी द्वारा ‘बोला’ गया, जिसे बाद में लिपिबद्ध किया गया। साभार: ‘अवधी कै अरघान’ से)
[जनकृति के लोकभाषा विशेषांक में प्रकाशित]