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कैसे हो तुम?

गौरव गुप्ता

जब तुमने वर्षो बाद मैसेज कर के पूछा था, कि कैसे हो तुम? मैं घण्टो निहारता रहा था मोबाइल स्क्रीन। शायद ये सवाल सहज हो तुम्हारे लिये,लेकिन मेरे लिये इसका उत्तर दे पाना बहुत कठिन था । समझ नही पा रहा था कि क्या कहूँ। क्या मेरा यह कह देना की मैं बिल्कुल ठीक हूँ, खुद से झूठ बोलना नही होगा। या यह कह देना की ” मैं तुम्हारे बिना कैसे ठीक रह सकता हूँ” मेरे अहंकार को चोट पहुचाने जैसा नही होगा। मै घुट रहा था।तुम्हारे सवाल से नही, खुद के ढूंढे गये जबाब से…ऐसा पहली दफा था जब खुद के ढूंढे गये जबाब, खुद से नये सवाल पैदा कर रहे थे। यह सवाल जबाब का गुणात्मक प्रकिया मेरे गले के बीचों बीच अटका था। मैं फेफड़ो में साँसे भरने की बार बार कोशिश कर रहा था। इस सवाल का  जबाब हमारे रिश्ते को नया जन्म दे सकती है ” ऐसी सम्भावनाओ से मैं जितना आशान्वित था उतना ही डरा हुआ भी कि ” मेरे किसी जबाब से” यह आखिरी संवाद न बन कर रह जाये। फिर कही अफ़सोस मुझे पूरी जिंदगी ना चिढ़ाये। मैं रिश्तों की शुरुआत जितनी कम अक़्ली से शुरू करता हूं, उस रिश्ते को बचाने में अपनी पूरी तरकीबे लगा देता हूँ। क्योकि मैं किसी भी रिश्ते को इतनी आसानी से नही जाने देता। पहली दफा तुमने हराया था मुझे सालों पहले, मेरे गलतियों को बिना बताये जाना कितना आसान था ना तुम्हारे लिये। खैर, इस घुटन से बाहर आने की जल्दी में, मैंने कमरे की खिड़कियों दरवाजे को खोल देना उचित समझा।पर कोई हवा इस कमरे में क्यूँ नही आ रही। कमरे के इस सन्नाटे में, मैं अपनी धड़कनों को साफ साफ सुन पा रहा था। मैं अपने अंदर उठे इस खालीपन को किसी भी तरकीब से भर लेना चाहता था। मैंने पास पड़े सिगरेट को जला लिया। मैं मोबाइल में लिख लिख कर मिटाने लगा… ठीक हूँ, नही नही…. मैं बिलकुल अच्छा हूँ… नही … तुम कैसी हो…. ओह्ह ये भी नही… hi जैसे कई शब्द उँगलियो और कीपैड के बीच जगह बना रहे थे। पर मैं कुछ  और लिखना चाह रहा था, यह “कुछ और ” मेरे कंठ के बीचों बीच अटका था। मैं कमरे के एक कोने में पड़े हुए कुर्सी पर जा कर बैठ गया। मैंने सोचा ये सवाल क्या तुमने भी अपने अंदर इतनी ही बेचैनी महसूस करते हुये पूछा होगा। तुम्हारी सहज तस्वीर उभर आयी, जिसमे मेरे महत्वहीनता की कोरी कल्पना थी। मैं चिढ गया.. सिगरेट का कश लेते हुये अंततः मैंने तुम्हारे उस सवाल का कोई जबाब नही देने का सोचा। सिगरेट की आग फिल्टर के जितना करीब जा रही थी मैं उतना ही खुद को ठंडा महसुस करने लगा। और  मैंने उस बोझ को हमेशा खत्म कर देने का चुनाव किया। मैंने तुम्हारा नम्बर ब्लॉक कर दिया था।

डायरी 2

(परछाई)

मुझे मेरे परछाई से शिकायत है,वह मेरी ठीक ठीक आकृति नही बनाती। वह कभी मेरे कद से छोटा तो कभी मेरे कद से बड़ा तो कभी कभी मेरे दोनों पैरों के इर्द गिर्द एक गोला घेरा बना लिया करती है। मैं उससे छुपने के लिये पेड़ो की ओट में चला जाता हूँ तो कभी दीवारों का सहारा लेता हूँ। नजर घुमा कर देखता हूँ वो मेरे सहारा को मुझसे जोड़ कर एक नई आकृति गढ़ रही होती है। मैं भागता हूँ, बेतहाशा, उससे कोसो दूर निकल जाना चाहता हूँ, पर उसकी जिद मेरे पैरों में लिपटी हुई मिलती है।

मैंने उससे कई बार कहा, ठीक ठीक हिसाब क्यूँ नही लगा लेती, तुम मुझे ठीक वैसा ही क्यूँ नही पेश करती, जैसा मैं हूँ। वो कुछ नही बोली, कभी नही बोली, चुप चाप मेरी आकृतियां बनाती रही।

 मैं एक दिन गुस्से से घर से नही निकला। मैं खुश था कि आज उससे मुलाकात नही होगी। तभी खिड़की से झांकती रौशनी का एक टुकड़ा मेरे शरीर से आ लगा। पलट कर देखा तो परछाई , दिवार पर एक आकृति लिये हुये। अचानक मैं उसके करीब जाने लगा, और करीब, जितना करीब गया वो गायब होने लगी। मेरे अंदर एक अजीब से टीस उठी, उसके खो जाने का। मैं समझ नही पा रहा था, जिससे मैं इतने दिनों से भागता रहा, उसके दूर जाने पर मुझे खुश होना चाहिये, पर ऐसा नही था। मेरे चेहरे पर दुःख की रेखाये उभर आई, एक गहन उदासी घिरने लगा था।

 मुझे लगने लगा, मैंने किसी को खो दिया। “क्या मैं उससे प्यार करने लगा हूँ?” जैसे ख्याल अपनी जगह बनाने लगे थे। मैं गुणा भाग नही करना चाहता था, मुझे महसूस हुआ, उसका जिद्दीपन मुझे अच्छा लगने लगा है,और  मेरा भागना , खुद से भागना है। मैं फुट फुट कर रोने लगा… बिल्कुल एक बच्चे की तरह… मैं अक्सर बच्चे की तरह रोना चाहता हूँ.. मैं अपने अंदर किसी बोझ को स्थान नही देना चाहता। मैं बिलकुल खाली हो जाना चाहता था, उस रोज…

गौरव गुप्ता

(जी के गौरव)

मानसरोवर हॉस्टल

कमरा संख्या- 203

नार्थ कैंपस

(दिल्ली विश्विद्यालय)

110007

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