काम पर जाने वाली औरत

अलसुबह उठती है वो

अपने उनिंदे नयनों को

ठंढे पानी के छींटो से

तरोताजा करती ….

जुट जाती है

‘काम’ पर जाने के

पहले वाले कामो पर.

सधे हाथो से निपटाती है-

झाडू-पोंछा,

आटा-मसाला,

रोटी-दाल-सब्जी,

और भी ढेरो काम.

निपटकर चुल्हा-चौके से

थमती है पलभर

लेकर एक गहरी सांस

देखती है

बेफ्रिक सोये घरवालों को.

उसकी आँखों में नाराजगी की

अश्फूट रेखा झलकती है.

और वो फिर से लग जाती है

शेष कामो के निपटारे में.

ईश्वर के सामने

धूप-दीप करते उसके हाथ,

प्रार्थना के चंद कतरे

उच्चारते उसके होंठ,

घड़ी की सूइयों की ओर

तकती उसकी आँखे,

और सुबह से शाम तक के कामों के

फेरहिस्त बनाते उसके दिमाग

सब चलते हैं एक साथ.

उसे याद आती है

अपनी बीमार माँ की

जिनसे मिले हो गए है महिनो.

मन की आकुलता

आँखों से पानी बनकर बरसते हैं.

चाय का कप लेकर आती

नन्हीं सी बेटी

उसके ख्यालों के दुर्ग को भेदकर

चेहरे पर एक स्मित सी

मुस्कान बिखेरती है.

प्यालों से उठते भाप के धूंध में

अपने वजूद को तलाशती वह

जानना चाहती है

अपने लिए अपने होने के मायने.

—– संगीता सहाय.

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