ज्यों चकमक में आग
शिवानी, जयपुर
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“तुमने पहले कभी कुछ काहे नहीं बताया जिज्जी? सब मिल बैठ के बात करते! कोई तो समाधान ढूँढते! ऐसे कैसे घर से निकाल दिए? हम सब ना हैं का? कानून भी तो साथ है ना जिज्जी! धीरज धरो! तुमाए भाईसा आएँगे तो बैठ के सब बतलाना। वो बात करेंगे जमाई बाबू से और उनके घरवालों से!” उमेसी धाड़-धाड़ रोती अपनी नणद को चुप करा रही थी, आँसू पौंछ रही थी और अपने हाथों से निरंतर उस के बालों और पीठ को सहलाए जा रही थी
“भाभी…” नणद गैंदी भौंचक्की सी उसकी छाती से चिपकी पड़ी थी…” मैं सोची अभी हाल ठीक हो जाएँगे, रैन दूँ… फालतू में सबको काए परसान करना! पर जे तो कछु समझबे को तैयार ई ना!” आगे कुछ कहना चाहती थी गैंदी, पर हिचकियाँ बंध गई थीं।
“ना जिज्जी! रोबे से कछु ना होएगा!” उमेसी जी भर के दिलासा दिए जा रही थी। “बियाह किए… कोई तज थोड़ी दिए बेटी कू! कोई बी ऊँच-नीच में खड़े हो जांगे सामने जा के, बासा और तुमाए भाई सा!” उमेसी गैंदी को दिलासा दे रही थी।
“भाई सा?” गैंदी ने चेहरा ऊपर उठाकर भाभी को आश्चर्य से देखा!
उन अचरच भरी आँखों का सामना करना उमेसी के लिए कठिन था। फिर भी उसने भीतर की सारी शक्ति बटोर कर गैंदी के सिर पर हाथ फेरते हुए मुस्कुराहट बिखेरी “हाँ जिज्जी! तुमाए भाईसा! और भाईसा ई ना, बासा और माँसा भी! तुम देखियो…सब खड़े होंगे तुमाए साथ!”
“भाभी…सच कहो हो?” गैंदी अभी भी आश्वस्त नहीं हो पा रही थी। ये भाभी वो लड़की थी जो शादी के छह-आठ महिने बाद ही ससुराल में दुखी हो कर एक बार पीहर चली गई थीं और उनका भाई उल्टे पैरों उसे वापस छोड़ गया था। फिर उसके बाद उस ने कभी पीहर का मुँह न देखा था! पर हाँ इतना ज़रूर था कि ससुराल में रहकर ही कठिन संघर्षों से अपने लिए प्रेम, आदर और स्नेह कमाए थे!
“घूरे के बी दिन फिरे हैं जिज्जी! अपन तो फिर बी बैरबानियाँ ठैरी!”
“तो का तुमाए दिन फिर गए भाभी?”
“तुमने मेरी भली कही! अबी अपणी सोचो!” उमेसी ने बात बदलने की कोशिश की। आगे न गैंदी कुछ पूछ सकी और न उमेसी कह पाई। दोनों ही अतीत की गलियों में भटकते हुए दुखी मन से अपनी-अपनी तक़दीर के बारे में सोच रही थीं।
गैंदी की पनीली आँखों में हृदय में संचित स्मृतियों की परछाइयाँ चहल-कदमी करने लगीं। बंद आँखों के आगे कुछ मंज़र घूम रहे थे।
सगुनी बुआ शादी के आठ महीने बाद ही उभरा हुआ पेट लेकर लौट आई थीं सदा सदा के लिए। बिना ये जाने-समझे कि क्यों तो वो लौट आईं और क्यों वापस नहीं जाना चाहती? ताऊजी ने उन्हें घसीटकर बाहर कर दिया था। दिन भर भूखी-प्यासी सुगनी बुआ भी वहीं चौंतरे पर बैठी रहीं पर लौटकर ससुराल नहीं गईं। दादी भी आँसू पौंछती ड्योढ़ी पर बैठी रहीं पर बिटिया को भीतर ले आने की हिम्मत नहीं कर पाईं। दो जीवा बेटी को भूखा-प्यासा देखकर उन्होंने भी उस दिन मुँह जूठा तक नहीं किया। लेकिन उधर बाहर चिलचिलाती गर्मी से पस्त सुगनी बुआ ने पड़ोस के कन्नु काका की पोती से लोटा माँगा और उन्हीं की बकरी को पकड़कर उसके दूध से स्वयं को पोस लिया था। स्वयं की नहीं, उन्हें अपने भीतर पल रही एक नन्हीं सी जान की चिंता थी, इसलिए भूखा-प्यासा न रहने का निश्चय किया था। क्या ही विडंबना है कि स्त्री गर्भस्थ शिशु का लिंग जाने बिना उसे जी जान से पालती है और जन्म के बाद समाज शिशु को लिंग-भेद से पालता है।
कन्नू काकी ने तो भीतर बुलाया भी पर सुगनी बुआ अपने घर में जाने के लिए ही कृत-संकल्प थीं। पर वास्तव में जिसे वह अपना घर कह रही थीं और यही समझ कर लौट आई थीं, वो क्या उनका अपना घर था? उनका अपना घर होता तो भाई ने इस तरह बाहर घसीट कर ना फेंका होता… अपना घर होता तो माँ भी ड्योढ़ी पर बैठ कर के आँसू न बहा रही होती…
अपना घर होना और अपना घर समझना, इन दो बातों में कितना अंतर था। जिस ससुराल को सुगनी बुआ अपना घर समझती थीं वो उनका अपना घर हुआ ही नहीं था। ससुराल वाले रात दिन इसी घर को उसका घर कहते थे। यही सुनती आई थी वे छह-आठ महीने से कि अपने घर से ये सीख कर आई है। अपने घर से वो सीख कर आई है। अपने घर से ये नहीं लाई। अपने घर से वो नहीं लाई। तो फिर ये घर उनका अपना घर नहीं है तो फिर कौन सा है उनका अपना घर? भाई ने कैसे कह दिया कि वही तेरा घर है वहीं चली जा वापस… जिस घर में जन्म लिया, बड़ी हुई, उम्र के उन्नीस बसंत देखे, वो घर अगर मेरा नहीं है तो फिर ब्याव के बाद बस छह-आठ महीने में ही वो घर मेरा कैसे हो सकता है? फिर जहाँ उसका कोई मान-सम्मान नहीं… कोई प्रेम-प्रीत नहीं… वहाँ उस घर को अपना घर कोई कैसे महसूस करे ?
बेरोजगार पति का तन-मन पर अत्याचार और दिन भर कोल्हू के बैल की तरह काम में जुते रहने को ही अगर जीवन कहते हैं तो नहीं जीना है मुझे ऐसा जीवन… यही सोच कर सुगना बुआ ससुराल के तालाब में डूबने के लिए निकली थीं फिर वहाँ पर मौजूद कुछ महिलाओं ने उन्हें समझा-बुझाकर घर पहुँचा दिया था। कुछ एक महीने ऐसे ही निकले। सुगना बुआ कुछ समझ पातीं उससे पहले ही उन्हें अपने भीतर एक नन्हे जीव की आहट महसूस हुई। उसके बाद जब पति ने नशे में धुत्त होकर हाथ में लट्ठ उठाया तो उन्होंने उसी लट्ठ से पति की टाँगें तोड़ दीं और सीधे अपने मायके की राह पकड़ी। बस में कंडक्टर ने पैसे माँगे तो उसे एक पायल खोलकर पकड़ा दी। नंगे पैर बदहवास सी दो जीवा महिला को इस हालत में देखकर कंडक्टर का भी दिल पसीज गया, उसने पायल लौटा दी और बस में बैठने की जगह भी दे दी। बस से उतरकर सुगनी बुआ ने जैसे ही घर का आँगन पार किया, उनकी दशा देखकर दादी घबरा गईं। बिठाकर पानी पिलाया, हाथ-मुँह धुलवाए। माँ ने सुगनी बुआ की थाली परोसी ही थी कि ताऊजी आ गए। आते ही उन्होंने बहन को घसीटकर बाहर कर दिया। बूढ़ी माँ कहती ही रह गई बेटी का दुख, पर उन्होंने कुछ सुना ही नहीं।
जब दादी और माँ बुआ के हालचाल ले रहे थे तब ही ताई जी ने किसी को भेजकर ताऊ जी को दुकान से बुलवा लिया। बुआ रोटी का एक गस्सा भी नहीं खा पाई थीं। टूटा हुआ गस्सा वहीं आँगन में गिर गया था। हम बच्चे दूर खड़े होकर सहमे हुए से ये सब घटित होता हुआ देख रहे थे।
दो दिन तक सुगनी बुआ चौंतरे पर ही डेरा डाले बकरी के दूध से खुद को पोसती रहीं। ताऊजी उन्हें वापस ससुराल भेजने के लिए बातचीत कर रहे थे कि तीसरे दिन ससुराल से टका सा जवाब आ गया “अपनी बिगड़ैल बहन को वापस भेजा तो हमारे बेटे पर जानलेवा हमले के आरोप में सीधे पुलिस के हाथों में दे देंगे।”
ताई जी के कहने पर बुआ को घर में भीतर तो ले लिया गया। पर उसी दिन से मंगलू काका ने आना बंद कर दिया, अचानक उनके गाँव में कोई काम आ पड़ा था। बरसों पहले, मंगलू काका ताऊजी की शादी में ताई जी के साथ उनके पीहर से आए थे। तभी से ताई जी के हिस्से का ही नहीं बल्कि उससे भी कहीं अधिक काम वही किया करते थे। सुबह-शाम घर आँगन बुहारते, ढोरों का चारा सानते, तालाब से पानी भी लाते थे। बाद में जब कस्बे में हैंडपंप लगे तो उससे पानी खींचकर पूरे घर के लिए पानी की व्यवस्था करते थे। दोपहर में बैठकर साग भाजी साफ करते हुए हम बच्चों को भी देखते थे। अब ये सारे काम सुगनी बुआ के जिम्मे थे।
एक दिन हैंडपंप से पानी खींचते हुए उनके पेट में बड़े ज़ोर का दर्द उठा। वो पेट पकड़ कर धरती पर बैठ गईं। बहते पानी का रंग लाल होता देख वो बेहोश हो गईं। जब होश में आईं तो उनकी कोख उजड़ चुकी थी। चार-पाँच दिन उनसे कोई काम नहीं हो सका। ताई जी का चिल्लाना और ताने-उलाहने बदस्तूर जारी रहे। फिर एक दिन सुगनी बुआ ने जो घर-भर का काम सम्हाला तो मरते दम तक नहीं छोड़ा। छोड़ा तो बस हँसना-मुस्कुराना सदा सदा के लिए छोड़ दिया था। दिन भर मशीन की तरह यंत्रवत घर के काम निपटाने के बाद देर रात अपनी कोठरी में जाती थी और तड़के सबसे पहले उठकर काम शुरू कर देती थी। उन्हें देखकर कभी-कभी लगता था कि सिर को छत और पेट को रोटी की आवश्यकता ही क्यों होती है? क्या इसी ‘अपने घर’ के लिए सुगनी बुआ ससुराल तज कर लौट आई थीं?
सुगनी बुआ के ससुराल से लौट आने पर दादी की रोनी सूरत का स्थाई रूप, दादाजी की खाँसी का बढ़ कर अस्थमा हो जाना, माँ-पिताजी के दबी आवाज़ में झगड़े, जिनके कारण ही माँ की रोटियाँ चूल्हे के आगे कुछ सोचते-सोचते जल जाया करतीं और पिता सारी रात बाहर टहल कर निकाल देते, बिना खाना खाए कि अपच हो रही है,भूखा ही रहूँगा। सब याद थे गैंदी को! जैसे कल की ही बात हो। और इन सबसे अलग, ताई जी का हर वक्त बुआ को कोसना और ताऊजी का पैर दबवाने या मालिश करवाने के लिए जब-तब बुआ को अपने कमरे में बुला भेजना, और लौटती हुई बुआ का पत्थर सा चेहरा कभी भुलाया नहीं जा सकता था। बुआ के पत्थर से चेहरे पर सूजी हुई दो आँखें जिनसे अविरल बहती धारा ने गालों पर स्थाई निशान से बना लिए थे, गैंदी की स्मृतियों में हमेशा ताज़ा रहीं। और सबसे बड़ी बात, उसे याद है कि भैया की शादी के बाद सबकी बची-खुची भड़ास भाभी पर निकलनी शुरु हो गई थी… जैसे कि बुआ के लौट आने के लिए भाभी ही ज़िम्मेदार थीं। बारहवीं पास भाभी आगे कानून की पढ़ाई पढ़ना चाहती थीं। दाखिला भी ले लिया था पर अचानक ही उनके दादा जी की तबियत बिगड़ी और उन्होंने अंतिम इच्छा के रूप में अपने जीते जी पोती का विवाह माँग लिया। पुत्र के फर्ज के आगे उनके पिता ने अपने पिता होने के फ़र्ज़ को भुला दिया। आनन-फानन में यही रिश्ता समझ पड़ा और वो शहर से इस कस्बे में ब्याह दी गईं। एक दो बार उन्होंने पढ़ाई जारी रखने की इच्छा जताई पर वो सिर्फ इच्छा बनकर ही रह गई किसी ने ध्यान ही नहीं दिया बल्कि दादी ने धमकी भी दी कि आइंदा से ये बात घर में उठी तो वो अन्न जल त्याग देंगी। इस तरह भाभी बारहवीं पास ही रह गईं थीं। पर उनकी तीक्ष्ण बुद्धि का लोहा सबको समय समय पर मानना ही पड़ा था!
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दिलासा देती हुई भाभी में गैंदी को माँ का सा स्नेह महसूस हो रहा था! उसने चेहरा उठाकर भाभी को देखा। भाभी ने अपने हाथों से उसके आँसू पोंछे और कहा “तुमाए भाई तुमाए लिए जरूर कुछ करेंगे जिज्जी!”
गैंदी की आँखों में रड़कती हुई तैर रही अविश्वास की डोर को पकड़ते हुए उमेसी ने कहा “बरसों पहले जब मैं पीहर चली गई थी और मेरे भाई सा मुझे लौटा लाए थे, तब तुमाए भाईसा भी घर से चले गए थे। इधर मैं लौटी, उधर वो मेरे पीहर मुझे लेने पहुँचे थे। जब पता चला कि मेरे भाईसा मुझे छोड़ने गए हैं तो वो फिर वहाँ रुके नहीं और उल्टे पैरों लौट आए। जब वो घर लौटे तो बोले ‘अच्छा हुआ तेरा भाई छोड़ गया…मैं लेने गया था तुझे।’
मैंने पूछा ‘क्यों लेने गए?’
तो बोले ‘सुगना बुआ याद आ गई थी। तू यहीं रहना। तुझे कोई कष्ट नहीं होगा, मैं सब देख लूँगा। पर तुझे सुगना बुआ नहीं बनने दूँगा।’ जिस सुगना बुआ को याद करके तुम पीहर न आई जिज्जी, वही सुगना बुआ की याद ने मुझे बचा लिया। अब वो बात नहीं रही है। तुम्हारे भाईसा तुम्हारे साथ खड़े होंगे।”
गैंदी की आँखों में आशा का सूरज जगह बना ही रहा था कि उमेसी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाते हुए कहा- “तुमाए भाईसा ने मेरी वकालत की पढ़ाई भी पूरी करवा दी है जिज्जी। मैं लड़ूँगी तुमाए लिए।”
गैंदी की आँखों में आशा की किरणें चमकने लगीं। भावातिरेक से जिव्हा लड़खड़ा रही थी…”भाभी…साँची? थें वकालात पढ ली?”
हाँ जिज्जी! थारी सौं!” उसने गैंदी को सीने से लगा लिया “कोई कितना भी साथ दे, पर हमें अपने आप पर भरोसा करना सीखना होगा…अपने बल पर एक नई शुरुआत करनी होगी जिज्जी, औरतें बाप-भाईयों के भरोसे कब तक न्याय ढूँढेंगी?”