कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति-बोध का आधुनिक सन्दर्भ
डॉ. सन्तोष विश्नोई
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शोध सारांश
कवि केदारनाथ अग्रवाल का प्रगतिशील कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उनकी कविता ग्रामीण परिवेश एवं जनजीवन को मानवीय आधार प्रदान करती नज़र आती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे लोकजीवन के कवि है। उनकी ‘कविता का प्राणतत्व लोकजीवन’ है। यह बहुत बड़ा सच है कि कविता को अनिवार्यतः लोक से जुड़ना ही पड़ता है। क्योंकि कविता की सामूहिक चेतना लोक से उपजी है, इसी लोक से कविता में सहजता आती है। कविता की रचनात्मक जटिलता के बावजूद वह लोक तत्वों से ही अधिकाधिक संप्रेषणीय बन जाती है।
बीज शब्द – कवि केदारनाथ, प्रकृति-बोध, आधुनिकता, लोकजीवन, प्रकृति की कविता, गाँव एवं प्रकृति
शोध आलेख
प्रकृति और मनुष्य का नाता बहुत पुराना है। सौंदर्य का क्षेत्र मुख्यतः प्राकृतिक उपादानों से बना होता है। मनुष्य के इन्द्रियबोध का विकास प्रकृति के घात-प्रतिघात का परिणाम है। केदारनाथ सहृदय संवेद्य भावबोध के कवि हैं, प्रकृति उनकी कविताओं में पूर्ण सौष्ठव और निखार पाकर गौरवान्वित हुई है। केदारनाथ अग्रवाल की रचनाओं में परम्परागत रूप से लोकतत्वों का निरूपण नहीं हुआ है फिर भी उनका काव्य लोक-जीवन के हर रंग से रंगा गया है। इनकी कविताओं में मानव और प्रकृति के सौंदर्य का सहज, वेगवान और उन्मुक्त रूप मिलता है। गाँव एवं प्रकृति के प्रति उनकी कविता में आत्मीयता दिखाई देती है। गोविन्द प्रसाद कहते हैं कि ‘‘केदारनाथ अग्रवाल की कविता का स्थायी भाव प्रकृति है, उसमें भी प्रकृति का लोक रूप उन्हें सहज ही आकृष्ट करता है। परिणामस्वरूप कभी नारी और प्रकृति का योग चेतन को स्फुरित करता है तो कभी मजदूर किसान का श्रम-संघर्ष और कभी प्रकृति का ताना-बाना कवि के संवेदन को काव्य संस्कार देता चलता है। कवि केदार की अधिकांश कविताएँ इसी पैटर्न पर चलती हैं। अपवाद के रूप में कुछ कविताएँ विशुद्ध प्रकृति पर भी मिल जाएगी।’’[1] सबसे खास बात यह है कि केदारनाथ अग्रवाल के प्रकृति चित्रण में संवेदनात्मक पक्ष कभी उपेक्षित नहीं रहा, बल्कि केदारनाथ के काव्य में प्रकृति का जन-जीवन के बुनियादी सवालों से सीधा सरोकार करती नज़र आती है। इसलिए सच्चे मायने में केदारनाथ लोकधर्मी संवेदना के सर्वश्रेष्ठ कवि है। वे कहते हैं-
‘‘छोटे हाथ/सबेरा होते
लाल कमल से खिल उठते हैं।
करनी करने को उत्सुक हो,
धूप हवा में हिल उठते हैं।
छोटे हाथ/परिश्रम करते
ईंटों पर ईंटें धरते हैं।
मधुमक्खी से तन्मय होकर
मधुकोषों से घर रचते हैं
हर घर में आशा रहती हैं
आशा के बच्चे पलते हैं।’’[2]
केदारनाथ के काव्य में चित्रित प्रकृति की विशेषता बताते हुए नरेन्द्र पुंडरीक लिखते हैं, ‘‘वे अकसर क्षण की अनुभूतियां और चित्र प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनका समर्पण क्षण को नहीं बल्कि युग को है, क्षण को प्रस्तुत करते हुए भी क्षण का मोह छोड़ने में ही केदार का व्यक्तित्व विशद् और अर्थ से भरा हुआ है। सरलता में संश्लिष्टता, सहजता में रूप, बिंब में अर्थ, यथार्थ में कल्पना, क्षण में युग और वर्तमान में भविष्य की अन्वित से समृद्ध केदार के स्वर आधुनिक हिन्दी कविता की बहुत बड़ी उपलब्धि हैं, केदारनाथ अग्रवाल की प्राकृत सौंदर्य की कविताओं में बिंबों का संश्लिष्ट रूप ही नहीं भाषा का वह फोटोजनित सौंदर्य भी है कि एक दम से आँखें रूक एवं टकी-सी रह जाती हैं।’’[3] कवि केदारनाथ के काव्य में ग्रामीण भारत और आम जनजीवन के दैनिक संघर्षों की विविध एवं वास्तविक चित्र खींचा गया है। उनके काव्य में लोक-जीवन और ग्रामीण जीवन की संवेदना का विविध रूपों में चित्रण पाया जाता है। जिसमें खेत की बुवाई, कटाई करते किसान वर्ग है और श्रमिक अपने हक और अधिकार के लिए संगठित होकर मजदूरी करता श्रमिक, गाँव की सुबह, शाम, धूप, बारिश आदि सभी का यथार्थ चित्रण उनकी कविताओं का विषय बने हैं। गाँवों की जीवंतता, नैसर्गिकता को कवि ने सहजता से प्रस्तुत किया है-
‘‘नीम के फूल
दूध की फुटकियों से झरे
मुलायम-मुलायम
कठोर भूमि पर बिखरे
जैसे कोई
प्यार से शरीर स्पर्श करें।’’[4]
केदारनाथ अग्रवाल में बिम्ब विधान की अद्भुत शक्ति है, वे सक्षम बिंब विधायक है। नरेन्द्र पुंडरीक का कथन है कि ‘‘केदार के सौंदर्य बिंबों में एक भी बिंब ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें जीवन के प्रति उद्दाम ललक न हो, जीवन होगा और जीवन से जुड़े श्रम का सौंदर्य अनिवार्य रूप से उसमें परिलक्षित होता है।’’[5] लोक-जीवन में प्रकृति और मानव दोनों सहचर हैं। केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में लोक-जीवन के साथ प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण मिलता है। कवि के इस चित्रण में प्रगतिशीलता और लोकधर्मी संवेदना का अनोखा रूपायन सहजता से प्रकट हुआ है। प्रकृति और लोक-जीवन की संवेदनाओं का ऐसा चित्रण अन्यत्र मिलना दुर्लभ होता है। प्रकृति के माध्यम से कवि ने होली का जो गत्यात्मक बिंब बुना है, वह लोक प्रचलित बिंब से ग्रहित है। उदाहरण-
‘‘फूलों ने /होली
फूलों से खेली
लाल गुलाबी/ पीत-परागी
रंगों की रंगरेली पेली
काम्य कपोली /कुंज-किलोली
अंगों की अठखेली खेली।’’[6]
डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र कहते हैं कि, ‘‘कवि केदार की कविता में प्रकृति और लोक परिवेश की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका को अलग करके नहीं देखा जा सकता। कालिदास, तुलसीदास, निराला, नागार्जुन की परम्परा में केदार के घन लोकजन के कल्याण से जुड़े हैं। केदार की लोक-दृष्टि मानववादी है। लोक-जीवन का कोई ऐसा कोना नहीं है जो कि उनकी आँखों से ओझल हो गया है।’’[7] कवि केदारनाथ ने लोक-जीवन का इतना गहराई से चित्र खींचा है कि उनकी आँखों से छोटी-छोटी संवेदनाएँ भी कहीं ओझल नहीं हो पाई हैं। जिस प्रकार वे सहज जीवन बोध के कवि हैं, उसी प्रकार प्रकृति भी उनकी कविता में सहज बोध को व्यक्त करती है। उनकी रचनाओं में ग्रामीण जन-जीवन की धड़कने बोलती है। सही अर्थों में वे ग्रामीण सामाजिक जीवन के चितेरे हैं। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं, ‘‘केदार का गाँव सारे देश की प्रगति-दुर्गति का मानदंड बन जाता है।’’[8] केदारनाथ अग्रवाल मूलतः किसान और श्रम के कवि हैं, उनकी कविताएँ गाँव व किसान का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। इसलिए डॉ. रामविलास शर्मा आगे लिखते हैं कि ‘‘दूर खड़े होकर किसान को देखने वाले कवि और होंगे केदार बहुत नजदीक से उसकी श्रम प्रक्रिया देखते और उसका वर्णन करते हैं…उनकी कविता देखने में बहुत आसान लगती हैं, आकार में भी बहुत छोटी होती है, इसलिए उनकी सरलता भुलावे में डाल देती है। कई बार पढ़ने, ठहर कर विचार करने, कवि की मनोदशा में डूबने से उनकी गहराई का अंदाजा होता है। उनकी भाषा देखकर लगता है कि कोई किसान कविता लिख रहा है।’’[9] कवि संवेद्य बिंबों की रचना से पूरा ग्रामीण जीवन और भारतीय संस्कृति का संस्कार उतार देता हैं-
‘‘ये माटी के दिए/मौन जलते /मुसकाते
अंधकार को मार भगाते/ पावन पर्व प्रकाश मनाते।’’[10]
कवि केदारनाथ ने प्रकृति के सामान्य रूपों में ऋतुओं की सुंदरता का चित्रण बड़ी संजीदगी से अंकित किया है। वे बसंत ऋतु का स्वरूप कुछ इस तरह दिखाते हैं –
‘‘यह बसंत जो
धूप, हवा, मैदान, खेत, खलिहान, बाग में
निराकार मन्मथ मदांध-सा रात-दिवस साँसे लेता हैं
जानी-अनजानी सुधियों के कितने-कितने संवेदों से
सरवर, सरिता
लता गुल्म को, तरु-पातों को छू लेता है
और हजारों फूलों की रंगीन सुगंधित सजी डोलियां
यहां वहां चहुं ओर खोलकर मनोमोहिनी रख देता है
वही हमारे/ और तुम्हारे अंतःपुर में
आज समाए /हमको-तुमको
आलिंगन की मन्मयता में एक बनाए।’’[11]
इस प्रकार शरद को देखकर वे चित्रित करते हैं –
‘‘मुग्ध कमल की तरह /पांखुरी-पलकें खोले
कंधों पर अलियों की व्याकुल
अलकें तोले / तरल ताल से
दिवस श रद के पास बुलाते
मेरे मन में रस पीने की / प्यास जगाते।’’[12]
इनकी अधिकांश कविताओं में प्रकृति के मानवीकरण का दर्शन देखते हैं और वह मनुष्य के साथ, साथी बनकर संघर्ष करती है। केदार ने बादलों के गर्जन, तर्जन और बारिश के श्रव्य बिंब बहुत सुंदर खींचा है जिसमें वर्षा पूर्व और वर्षा बाद के परिवर्तन स्पष्ट झलकते हैं-
‘‘अंबर का छाया मेघालय
तड़-तड़-तड़-तड़ / तड़का टूटा
रोर-रोर ही / फूटा, फैला
चपला चैंकी/ फिर-फिर चैंकी
बाहर आकर/ चम-चम चमकी
गदगद-गदगद/ गिरा दौंगरा
पानी-पानी हुआ धरातल
कल-कल/ छल-छल
लहरा आंचल।’’ [13]
केदारनाथ ने प्रकृति के जीवन उपयोगी सभी उपादानों को अपने काव्य की विषयवस्तु बनाया, उनकी कविता में चित्रात्मकता, तार्किकता और बौद्धिकता के समावेश से भरी होती है,। केदारनाथ अग्रवाल के काव्य चित्रों की विशेषता बताते हुए मंजुल उपाध्याय लिखते हैं, ‘‘केदारनाथ के चित्रों की विशेषता यह है कि वे उनके भावों को स्थापत्य प्रदान करते हैं। इसी कारण उनकी कविता में स्थापत्य-जैसी परिपूर्णता होती है। तरलता अथवा गति की कमी उसमें नहीं होती, लेकिन अपनी ओर कवि उसे एक रूप में बाँध देता है। यह बात केदार की छोटी-छोटी कविताओं में खासतौर से देखी जा सकती है, जिनमें वे एक ही चित्र अंकित करते हैं और उसे तरह से ‘फिनिश’ कर देते हैं।’’[14] उनके काव्य में ऐसी अनेक कविताएँ देखने को मिलती हैं जिनमें न केवल प्रकृति का सुंदर रूप हमारे आता है बल्कि उनके माध्यम से देश की तत्कालीन परिस्थितियों, समस्याओं की व्यंजना भी है। वे लिखते हैं –
‘‘यह धरती है उस किसान की
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी
जो मिट्टी के संग साथ है
तपकर/गलकर/जीकर/मरकर/
खपा रहा है जीवन अपना
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना
मिट्टी की महिमा गाता
मिट्टी के ही अंतस्थल में
अपने तन की खाद मिलाकर
मिट्टी को जीवित रखता है
खुद जीता है।’’[15]
कवि केदारनाथ ने अपनी प्राकृतिक कविताओं में लोक-जीवन के गहरे और व्यापक परिप्रेक्ष्य में जन-जीवन और प्रकृति को परस्पर गूंथा है। वे लोक बिंबों और लोक गीतों की सहज लय में ग्रामीण सौंदर्य को अभिव्यक्त किया है। यहीं नहीं, इनके यहां लोक-जीवन के पारिवारिक और सामाजिक संबंध भी प्रकृति के विविध उपादानों द्वारा साकार हो उठे हैं इसलिए केदारनाथ के अनुसार ‘धूप मैके में आई बेटी की तरह मग्न और प्रसन्न है-
‘‘धूप चमकती है चांदी की साड़ी पहने
मैके में आई बेटी की तरह मगन है
फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है
जैसे दो हमजोली सखियां गले मिली हैं
भैया की बांहों से छूटी भौजाई-सी
लंहगे को लहराती लचती हवा चली है।’’[16]
प्रस्तुत उदाहरण में कवि ने जिस बिंब को उकेरा है वह लोकजीवन से कवि के निकट परिचय का प्रमाण है। इस बिंब में ग्रामीण प्रकृति अपनी संस्कृति के साथ मिलकर संयुक्त रूप में प्रकट हुई है। ग्रामीण संस्कृति की होली उत्सव की झलक उनकी फाल्गुनी प्रकृति में मिलती है-
‘‘चोली फटी सरस सरसों की
नीचे गिरा फागुनी लहंगा
ऊपर उड़ी चुनरिया नीली
देखो हुई पहाड़ी विवसन।’’[17]
प्रकृति के इन रम्य-मधुर चित्रों द्वारा केदारनाथ ने ग्रामीण लोक जीवन की यथार्थ झांकी बुनी है। लोक-जीवन में प्रचलित रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार आदि को सामाजिक -सांस्कृतिक परिवेश के साथ अपनी कविताओं में समेटने का प्रयास किया है। इसलिए कवि की प्रकृति-चित्रण केवल प्रकृति के सौंदर्य का यथातथ्य वर्णन मात्र नहीं है बल्कि वह लोक जीवन की सामाजिकता से समन्वित सौंदर्य का रूपायन है। यही कारण है कि डॉ. रामविलास शर्मा उनकी कविताओं को लोकसंस्कृति की उपज मानते हैं, जो लोक संस्कृति को समृद्ध करती है।’’[18] केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रकृति भी अपने सौंदर्य के साथ निखरी है। उनकी कविताओं में ‘‘पश्चिमी अस्तित्ववादी ढंग का, अमूर्त और व्यक्तिवादी अजनबीपन दिखाई नहीं देता, तो इसका कारण कवि का देश और जन से सच्चे रूप से जुड़ा होना है। क्योंकि वे स्वयं देश और लोक के बीच अपने को अजनबी महसूस नहीं करते थे और लोगों के बीच जीते थे। अतः उनकी कविताएँ भाववादी अजनबीपन के एहसास से दूर रही है।’’[19] कवि गाँव के वास्तविक रूप को अपनी कविता के माध्यम से चित्रित करते हैं-
‘‘सड़े घर की, गोबर की बदबू से दबकर
महक जिंदगी के गुलाब की मर जाती है।’’[20]
कवि केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति के ऐसे चितेरे हैं जो मानव की अनुभूतियों को निसर्ग में स्थापित करते हुए काव्य की रचना की है जिसमें लोक-बोध संवेदना के साथ बखूबी वर्णन किया है। डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है कि, ‘‘आकाश, पवन, जल, प्रकाश-इन्हें देखकर केदार की प्रतिक्रिया गणसमाजी की उस आदिम मानव सी होती है, जो उत्पादन का इतना विकास कर चुका हो कि प्रकृति से त्रस्त न हो, देवी-देवताओं को पशुबलि अथवा नरबलि से तुष्ट करने को प्रवृत्त न हो, उगते हुए सूर्य को देखने और उससे प्रसन्न होने की क्षमता उसमें हो।…आज का किसान गणसमाजों के प्रकृति प्रेमी उक्त आदिम मानव का है। आज का किसान गणसमाजों का साम्यवादी संस्कार अपने उप-चेतन में कहीं गहरे संजोये हैं, ठीक वैसे ही प्रकृति से उसका वह हर्ष उल्लास वाला संबंध अब भी कहीं अटूट बना हुआ है। केदार इस अटूट संबंध के कवि हैं, राजनीति के स्तर से और गहरे उतर कर वह अपने देश की जनता के सूक्ष्म, आदिम संस्कार सूत्रों से बंधे हैं।’’[21]
प्रकृति में मनुष्य का हस्तक्षेप बढ़ने से मानव प्रकृति का उपकरण न रहकर प्रकृति को ही उसने अपना उपकरण बना लिया है। प्रकृति चित्रण में कवि ने प्रकृति के किसी भी रमणीय दृश्य के अंकन करने से अपने को वंचित नहीं रखा। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति का जो वर्णन मिलता है, उसमें वह बोलती हुई दिखाई देती है। केदारनाथ के काव्य में जिस प्राकृतिक सौंदर्य का अंकन हुआ है, वे प्रकृति के कोमल और कठोर दोनों रूपों में देखते हैं। उनकी प्रकृति विषय कविताओं में प्रकृति के लगभग सभी उपादानों पर कविताओं की रचना हुई है। वे बुंदेलखंड की धरती से जुड़े कवि है। उन्होंने वहाँ के खेतों-खलिहानों, पशु-पक्षियों, नदी आदि पर सशक्त कविताओं की रचना की है। इसके अलावा भी कवि की दृष्टि से प्रकृति का कोई अंग ऐसा नहीं है, जो ओझल हुआ हो। उनकी प्रकृति विषयक कविताओं को पढ़कर यह पूरा संसार सुंदर लगने लगता है। उनकी प्रसिद्ध कविता है-
‘‘फूल नहीं/ रंग बोलते हैं
पंखुरियों से/ समुद्र के अंतस्तल के
नील, श्वेत और गुलाबी
शंख बोलते हैं बल्लरियों से
फूल अखंड मौन हैं
रंग अमन्द नाद है/ अखंड मौन
अमन्द नाद
एक ही वृन्त पवर प्रतिष्ठित
धैर्य और उन्माद है।’’[22]
उन्होंने प्रकृति के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े तत्वों का चित्रण अपनी कविताओं में किया है। धरती, आसमान, नदी, झरना, खेत-खलिहान, हवा, सूरज, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, बाग-बगीचे, फूल, पहाड़, पत्थर, बादल, धूप आदि का सुंदर चित्रण उन्होंने अपनी कविताओं में किया है। ग्राम प्रकृति के जितने भी चित्र हो सकते हैं, उन्होंने उन सबको अपनी कविताओं उतारने का प्रयास किया है। ‘‘केदार की कविताओं का असली वैभव उनकी प्रकृतिविषयक कविताओं में प्रकट हुआ है। उनकी प्रकृति स्वतंत्र भी है और वह उनके प्रेम तथा उनकी लोकचेतना अथवा जनचेतना से भी जुड़ी हुई है। छायावादी की तुलना में वह अत्यधिक मूर्त है, यानी उसमें ऐंद्रियता बहुत ज्यादा है। केदार ने ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ की भूमिका में कहा भी है कि मैंने प्रकृति को चित्र में देखा है।’’[23]
निष्कर्षतः प्रकृति चित्रण में कवि ने प्रकृति के किसी भी रमणीक दृश्य के अंकन करने से अपने को वंचित नहीं रखा। केदारनाथ की प्रकृति रचना में क्षण तो छूटा ही नहीं बल्कि अनंत को भी बांधा गया है। यही प्रकृति के सर्वोत्तम चितेरे कवि की श्रेष्ठतम विशेषता है। केदारनाथ के काव्य में प्रकृति के महत्त्व को बताते हुए डॉ. रणजीत का कथन है-‘‘हिन्दी के प्रगतिशील कवियों में केदारनाथ अपने प्रकृति प्रेम और आँचलिक कविताओं के कारण याद किए जाते रहेंगे।’’[24] निस्संदेह केदारनाथ अग्रवाल की कविता लोक-जीवन की संवेदनाओं की कविता है, जिसमें प्रकृति चित्र भी लोक-जीवन को महकाने के लिए उतरती है। उनके काव्य में प्रकृति चित्रण अनेक बार मनुष्य-जीवन के यथार्थ सत्य का बोध कराने के लिए इनकी कविताओं में प्रकट हुई है। डॉ. खगेंद्र ठाकुर केदारनाथ अग्रवाल की संवेदना के बारे में लिखते हैं ‘वे जीवन की समग्रता के कवि है।’’ [25]
सन्दर्भ सूची:
- गोबिंद प्रसाद, कविता के सम्मुख, पृ. 84
- केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ.133
- आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 36
- केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 109
- आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 37
- केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 54
- डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र, केदार काव्य की लोकधर्मिता, आलोचना त्रैमासिक, जुलाई-सितंबर 2011, पृ. 66
- डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 46
- डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 47
- केदारनाथ अग्रवाल, पुष्पदीप, पृ. 36
- केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 39
- केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 62
- केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 86
- नंदकिशोर नवल, अथातो काव्य जिज्ञासा, पृ. 100
- केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 56
- केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 63
- केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 154
- डॉ. शशि शर्मा, प्रगतिशील कविता में लोकतत्त्व, पृ. 77
- डॉ. मधुछंदा, श्रम का सौंदर्यशास्त्र और केदारनाथ अग्रवाल का काव्य, पृ. 131
- केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 63
- डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 58-59
- केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 107
- नंदकिशोर नवल, केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-चेतना, बांदा का योगी: केदार, विश्वरंजन (संपा.) पृ. 393
- विजेन्द नारायण सिंह, केदार व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 105
- वसुधा पत्रिका, अंक जनवरी-जून 1987, पृ. 70
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गोबिंद प्रसाद, कविता के सम्मुख, पृ. 84 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ.133 ↑
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आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 36 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 109 ↑
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आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 37 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 54 ↑
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डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र, केदार काव्य की लोकधर्मिता, आलोचना त्रैमासिक, जुलाई-सितंबर 2011, पृ. 66 ↑
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डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 46 ↑
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डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 47 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, पुष्पदीप, पृ. 36 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 39 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 62 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 86 ↑
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नंदकिशोर नवल, अथातो काव्य जिज्ञासा, पृ. 100 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 56 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 63 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 154 ↑
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डॉ. शशि शर्मा, प्रगतिशील कविता में लोकतत्त्व, पृ. 77 ↑
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डॉ. मधुछंदा, श्रम का सौंदर्यशास्त्र और केदारनाथ अग्रवाल का काव्य, पृ. 131 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 63 ↑
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डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 58-59 ↑
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केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 107 ↑
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नंदकिशोर नवल, केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-चेतना, बांदा का योगी: केदार, विश्वरंजन (संपा.) पृ. 393 ↑
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विजेन्द नारायण सिंह, केदार व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 105 ↑
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वसुधा पत्रिका, अंक जनवरी-जून 1987, पृ. 70 ↑