कट गए बँट गए छँट गए नेह से
जो कमाने गए रोटियां गेह से
कुछ सियासत हुई छूटकर ठेह से
छूटकर के बिखर वो गए देह से
ठौर कुछ भी ना था वे कहाँ सो सकें
टूटता था बदन श्रम कहाँ खो सके
लौह पट पर पड़े नींद भी आ गई
यम खड़े पूर्व में जिन्दगी भा गई
चल के छुक-छुक करे देख आहें भरे
यम नियम था खड़ा कुछ इशारे करे
बँट गया बोटियों में बिखर वह गया
घर पहुंचने का मानस बना ढह गया
रोटियां जो कमाइँ वहीं रह गईँ
पटरियों पर कहानी गढी कह गईँ
वाह रे यह सियासत कहाँ ले गई
उन सभी की मजूरी उन्हें दे गई
जिनके बल पर वो घूमें निजी कार से
टुकड़े उसके तनों के जो बेकार से
उनके घर में बनी रोटियां बोटियाँ
इनके घर रो रही इनकी जो बेटियां
कौन आके दिलाएगा ढाढ़स इन्हें
पति पिता पुत्र कहने का साहस जिन्हें
चित्र देखा मनोबल वहां ढह गया
लिख दिया आंख में था जो सब बह गया