आधुनिक अवधी काव्य में व्यंग्य – डॉ. अरविंद कुमार
जब से सृष्टि का विकास हुआ है तब से मानव अपनी मनः भावनाओं की अभिव्यक्ति करता रहा है। हंसना मुस्कराना, रोना, एवं व्यंग्य करना उसका स्वाभाविक गुण है। अवधी काव्य में व्यंग्य का रूप जो मिलता है वह गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित ‘रामचरित मानस’ के नारद मुनि के मोह से मिलता है। एक बार मायावश नारद जी को ‘कामाग्नि’ सतायी तो नारद जी भगवान विष्णु के पास रूप मांगने गये तो भगवान विष्णु के पास रूप मांगने गए तो भगवान विष्णु ने कहा,
“हरसि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिहसि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
रमानिवास भगवान् उठकर बड़े आनन्द से उनसे मिले और ऋषि (नारद जी) के साथ आसन पर बैठ गये। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले – हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की।’’ 1
भगवान ने नारद जी को आगे भी सावधान होने के लिए कहा,
“रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्री भगवान।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहि मोह मार मद मान॥
भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले – हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह काम मद और अभिमान मिट जाते हैं। फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है”2
स्वयंवर में शिवजी के गण उन पर व्यंग्य करने लगते है। जैसेकि
“करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई ॥
रीझिहि राजकुआँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेसी॥
वे नारद जी को सुना-सुनाकर व्यंग्य वचन कहते थे – भगवान ने इनको अच्छी ‘सुंदरता’ दी है । इनकी शोभा देखकर रीझ ही जाएगी औश्र ‘हरि’ (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी।’’3
आगे चलकर नारद जी का मोह भंग हो गया। खीझि कर नारद जी ने गणों को श्राप दे देते है। यह खीझ मानव के मन में विद्यमान है। इन्हीं खीझों के कारण उसके मानस पटल में व्यंग्य की ‘सृष्टि’ होने लगती है।
आधुनिक अवधी कवियों में वंशीधर शुक्ल ‘रमई काका’ गुरु प्रसाद सिंह ‘मृगेश’ राजेश दयालु ‘राजेश’ बल भद्र दीक्षित ‘पढ़ीस’ आद्या प्रसाद मिश्र ‘उन्मत्त’ द्वारिका प्रसाद मिश्र’ त्रिलोचन शास्त्री’, जुमई खॉ आजाद’ आद्याप्रसाद पीयूष’ जगदीश पीयूष’ सुशील सिद्धार्थ भारतेंदु मिश्र’ विशाल मूर्ति मिश्र’ विशाल’ निर्झर प्रताप गढ़ी’ दयाशंकर दीक्षित देहाती’ काका बैसवारी’ विकल गोंडवी’ लवकुश दीक्षित’ केदारनाथ मिश्र’ ‘‘चंचल’ अजमल सुल्तानपुरी’ सतीश आर्य’ अदम गोंडवी’ इत्यादि की सर्जनात्मक प्रतिभा ने अवधी को अभिव्यक्ति का नया अंदाज दिया है।
बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की एक मात्र अवधी काव्य संग्रह ‘चकल्लस’ (१९३३) है। पढ़ीस जी के ग्राम- जीवनानुभवों का प्रमाणिक दस्तावेज है। पढ़ीस के अनुभव -जगत का एक पहलू गाँव का समस्या ग्रस्त और विसंगतिमय जीवन है जिस पर व्यंग्य मूलक भाषा में चोट करना वे अपना कर्त्तव्य-कर्म मानते हैं। ‘मनई’ ‘सोनामाली’ तिरफला’ ‘सिठ्ठाचार’ ‘भलेमानस’ ‘रईसी’, ठाटु’ हम और तुम’ ‘लरिकउनू एम.ए. पास किहिन’ ‘हम कनउजिया बाभन आहिन’ इत्यादि इसी कोटि में आने वाली कविताएँ हैं। ‘मनई’ कविता में ‘दुश्चरित्र’ व्यक्तियों ‘राक्षस’ होने तक की संज्ञा देते हैं। जैसेकि
‘जो अपनयि मा बूड़ा बाढ़ा,
संसारु सयिंति कयि सोंकि लिहिस
वुहु राकसु हयि, वहु दानव हयि!
अब कउनु कही सुंदर मनई 4
वंशीधर शुक्ल की कविता का सर्वप्रमुख बिषय है गाँव और किसान पर उनका किसान ‘गाँव’ खेत के प्रति नहीं अपने देश के प्रति भी सजग है। अशिक्षा अज्ञानता स्वार्थ नई सभ्यता पुरानी परंपराओं और रीतियों में होने वाले बदलाव पर व्यंग्य करते हुए ‘राम-मड़ैया’ कविता में कहते हैः
‘करिया अच्छर भैंसि बराबरि उजड़ मूढ़ भगवान
मचा अँधेरू स्वार्थ का गाना बैरिन का सम्मान।
जहाँ नहीं व्यापी अंगरेजी जमि न सकी सुलतानी,
नई सभ्यता डरि डरि भागी घर-घर रीति पुरानी।’ 5
‘किसान के अर्जी’ कविता में भारतीय समाज में निर्धनता पर व्यंग्य करते हुए कवि कहता है :
‘गुल्लर हाँथन ते छीनइ भइँसिन का खूब खवावइ
जब मेहरी मुँहि ते माँगइ तब उ कुतवा हुइरावइ।
वह हुकुरु-हुकुरु कइ रोवइ गिरि-परि कै घर का आवइ
जब झुरसइ लगइ करेजा तब पानी सींचि जुड़ावइ।’’ 6
चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमईकाका’ का रचना क्षेत्र ग्राम्य जीवन के अनुभवों को विस्तृत फलक पर चित्रित किया है। गाँव की जड़ता और वहाँ के अंधविस्वासों पर प्रहार करने वाली उनकी शैली पाठक और श्रोता के मन को बरबस बाँध लेती है। ‘कचेहरी’ ‘बरखोज’ ‘बुढ़ऊ का ब्याह’, ‘यह छीछाल्यादरि द्याखौ’ ‘दिसासूल’ ‘पहली नौकरी’ ‘तलब’ ‘ध्वारवा’ साहब ते भ्याँट’ इत्यादि कविताओं से उनके व्यंग्य-विषय स्पष्ट होते हैं। ‘दादा का खेतु’ कविता में कवि विरासत में मिली जमीन को पाकर फूले नहीं समाता है जैसेकि –
‘है मिला बपौती मा हमका , फिरि हकु कस दुसरे क्यार हो।
केतनिहुँ देवारिन पर यहिका गहबर अँधिया३ भगावा है।’’ 7
त्रिलोचन शास्त्री का एक मात्र पूर्वी अवधी में लिखित ‘अमोला’ (१९८७) काव्य है। इस काव्य में २७०० बरवै संकलित हैं। ‘अमोला’ (१९८७) की रचनाशीलता के विषय में विश्वनाथ त्रिपाठी का कथन है अमोला त्रिलोचन की सबसे सहज कृति है। यह अभिव्यक्ति उनकी रचनात्मक अनिवार्यता थी। इसमें मुक्तकों में संकलित अंतरंग जीवन-कथा का रस है। ‘अमोला’ जनपदीय है इसीलिए वास्तविक भी और सार्वभौम भी। इसमें युग की पीड़ा निजी पीड़ा में निहित होकर आई है। पीड़ा को त्रिलोचन ने बैसवाड़े के किसान का बोली में हमें सुनाया है इसी फक्कड़पने में अंगीकार करके। मानो उपवास बेकारी भूख उपेक्षा आकाश वनस्पति प्रिय-संयोग आदि जीवन -अमोला की डाले, पत्ते, जड़े और फुनगियाँ हों।’’ 8
कवि त्रिलोचन कहते है चतुर व्यक्ति से सदैव सावधान रहो वह मीठा बोलकर रिश्ता बना लेगा :
‘चाँड़ चँड़ासे केहु केहु से नगचाइ।
लखि के बोलइ दादा काका भाइ॥’’9
कवि ऐसे लोगों के बारे में कहता है जिन्होंने आपके साथ बुरा व्यवहार किया है। यदि चतुर मित्र आपके साथ कूटिनीति करता है, तो समयानुकुल आपको चुप रहना होगा। कवि का कथन है :
‘राजू’ तोहँकाँ लिहेन सङ्हती लूटि।
चुप मारा जे सुने ऊ करे कूटि॥’’ 10
कवि विश्वनाथ पाठक भी ‘सर्वमंगला’ महाकाव्य में देशद्रोहियों पर व्यंग्य किया है । न्याय व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए कहता है :
‘उल्लू बइठे न्यायासन पै
राजदंड लै हाथे
वै हंसन का न्याय पढ़ावें,
बड़े गरब के साथ।’’ 11
यहाँ उल्लू’ शब्द से आशय अपात्र व्यक्ति से’ तथा हंसन’ शब्द का अर्थ पात्र’ व्यक्ति से अर्थात न्यायशील व्यक्ति से है। सत्ता शासन अन्यायी अत्याचारी व्यक्तियों के हाथों ‘न्यायवस्था’ आ गयी है। उत्तम चरित्र वालों के हाथों में ‘न्याय व्यवस्था’ दुश्चरित्र व्यक्तियों के हाथों में चली गई है।
आद्या प्रसाद मिश्र ‘उन्मत्त’ अनेक कविताओं में व्यंग्य की सहज अभिव्यक्ति हुई है। उनका नितांत अहिंसक है। उनका आक्रोश क्रूरता तक नहीं आता । वे आक्रोश के आक्रामक रूप और व्यंग्य के तीखेपन को हास्य की निर्मलता में ढाल देने वाले सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी व्यंग्य कविताओं में ‘तोहरी नानी के हाँड़े मा’ ‘झाड़े रौ मँहगुआ’ ‘दैजा कै मारी कलझि-कलझि पंडित कै परबतिया मरिगै’ इत्यादि हैं। ‘माटी और महतारी’ कविता संकलन में उन्मत्त जी सांप्रदायिक उन्माद को उत्पन्न करने वालों की अच्छी खबर लेते है।
‘कबहूँ मस्जिद कबहूँ मंदिर कबहूँ गुरुद्वारा कै बवाल
हर परब तीज-तिउहारे मा मनई मुरगा अस भै हलाल।
ई चाल-ढाल झंडा- नारा तोहका दुसरेन से मोह अहै
आपन पुरखा आपन धरती तोहका अपनेन से द्रोह अहै।
सुख पाया अपनी धरती पै दुसरे कै झंडा गाड़े मा।
तोहरी नानी कै हाँड़े मा।’’12
(तोहरी नानी कै हाँड़े मा कविता से)
इसी तरह उन्मत्त जी ने अपनी कविता ‘झाड़े रौ मँहगुआ’ में राजनेताओं और उनके चमचों -पिच्छलगुआं पर तीखा व्यंग्य किया है।
वैश्वीकरण के इस दौर जब समस्त विश्व को एक ‘ग्राम’ के रूप में स्थापित कर दिया है। ऐसे में हम एक वास्तविक दुनिया का समाज देखने के लिए सपना देख रहे हैं। तब भारत के एक ही गाँव में जाति-धर्म ऊँच-नीच छोटे-बड़े की भावना खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। इस उत्तर आधुनिक युग में छुआछूत अपने पूरे वैभव और ठाटबाट के साथ जीवित है। जुमई खाँ आजाद की कविता ‘कवन मनई’ में इस करारे व्यंग्य का स्वाद लिया जा सकता है। जैसेकि–
‘छुवई पाई न बसनवाँ कवन मनई।
छुआछूम औ भेद-भाव मां फरक न तनिकौ आवा
इतना दिन होइगा सोराज का तबौ न फुरसत पावा।
खावा पतवा मा भोजनवाँ कवन मनई।
छुवई पाई न बसनवाँ कवन मनई॥’’13
एक ओर हम प्रगति पथ पर चलने का झूठा दिखावा कर रहे हैं दूसरी ओर ब्लैकमेलिंग, ब्लैक मार्केटिंग, घूसखोरी, भ्रष्टाचार में सचमुच आगे बढ़ते जा रहे है। हाँ देश के महान होने का ढिंढोरा जरूर पीट रहे हैं। नेताओं का जन्मदिन अवश्य मना रहे हैं। नौकरी के लिए आयोजित समस्त परीक्षाओं को संदेह के घेरे में खड़ा करके ‘पउआ भिड़ा रहे हैं’ घूस दे रहे हैं और नौकरी प्राप्त कर रहे हैं। इन स्थितियों पर व्यंग्य करने वाली आजाद की ‘जन्मदिन’ कविता सराहनीय है :
“भरतीय भाव से आरती साजि कै, लीडरन कै जन्मदिन मनावत रहब।
तेल चाही खरीदबै बिलकेइ से हम, मुल प्रगति पथ पर दियना जरावत रहब।
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सख्त कानून बनियन बरे बन गवा, अब मिलावट कै कौनो सवालइ न बा।
अफसरी रंग आपन जमाये अहै, चोरी-डाका कै कौनो बवालै न बा॥’’ 14
अवधी व्यंग्यकारों में विशालमूर्ति मिश्र ‘विशाल’ का एक अलग स्थान है। उनकी व्यंग्य कविताओं में ‘इनके कौन भरोसा लेइहैं वेचि वतनवाँ’ ‘जुर्म केहू आन कै जुर्माना माँगै हमसे’ ‘हे भइया अपना देश महान केतना’ ‘ससुरी बेइमनियाँ’ ‘खटिया खड़ी विस्तरा गोल’ ‘रक्षा किहा तुही भगवान’ ‘रे मा गयि ससुरी परधानी’ ‘छाता कै अकाल मौत’, पी.ए.सी। कै भरती’ झूठी बात नहीं अब फुरवइ सोनचिरैया तरि गयि’ ‘पलटि के देखा मुसकी मारै मुसम्मात मँहगाई’ ‘फील गुड फैक्टर’ ‘काट्या सब कै कान बहादुर गजब किह्या’ ‘खूब किह्या कल्यान बहादुर गजब किह्या’ इत्यादि इनकी हास्य-व्यंग्यपरक श्रेष्ठ अवधी कविताएं हैं। फिर भी ‘भारत देश महान’। कितना कडुवा व्यंग्य है – हम तमाचा मारकर गाल लाल कर रहे हैं। भारतीय वोट राजनीति का पोल खोलते हुए कवि कहता है : –
जनता माने केवल ओट । बाकी सब कुछ उनकै नोट,
एक्कै लक्ष्य एक संधान – रक्षा किहा तुही भगवान।
.. .. .. ..
वैसे उदई भान वैसे भान। न उनके पूँछ न उनके कान,
सब कुछ होय आन कै तान – रक्षा किहा तुही भगवान॥’’ 15
जगदीश पीयूष अपने नव गीतों में देश की त्रासद स्थिति पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैः-
‘भवा देश म चलन।
भाई भाई से जलन॥
कैसे जियरा कै हलिया बताई माई जी।
केका चबरा कै गलवा देखाई माई जी॥
रोवें कनिया म लाल ।
भये बनिया बेहाल॥
* * *
होय लूट पाट मार।
बाटै रेवड़ी अन्हार॥’’ 16
मँहगाई के मार से आम – जनजीवन त्रस्त है। समस्त उत्पाद खाद्यान्न, डीजल, पेट्रोल, मँहगा होने से उन्हे खरीद पाना मुश्किल है। कवि अपने गीतों में इस वेदना को व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते है :
“डीजल आवै दूने दाम।
बिजुरी होइगै जै जै राम॥
लरिका पांवें नाहीं सेवई औ खीर रामजी।
मंहगी होइगै हमरी गटई कै जंजीर रामजी॥’’ 17
प्राथमिक शिक्षा में ‘शिक्षकों’ पर व्यंग्य करते हुए सुशील सिद्धार्थ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते है। उनके गीतों से स्पष्ट समझा जा सकता है :
‘बारा बजे महट्टर आये
तइकै सोइ रहे तनियाये
कहिकै गदहौ पढ़ौ पहाड़ा, चुप्पे ते।
सिच्छा के भे बंद केंवाड़ा, चुप्पे ते॥
* * *
चादरि ओढि़ व्यवस्था स्वावै
फाइल फाइल कुतवा रवावै
द्यास की आंखि म परिगा माड़ा चुप्पे ते॥’’ 18
दुनिया आज संक्रमण काल की परिधि में आ गयी है संस्कृति भी प्रभाव पड़ना लाजमी है। भारतीय समाज पश्चिमी सभ्यता का असर पड़ रहा है। ऐसे में कवि की पैनी नजर तुरंत भाँप लेती है। भारतेंदु मिश्र के गीतों में इस पीड़ा की कसक व्यंग्य के रूप में देखी जा सकती है। जैसेकि :
“रीति रिवाज पश्चिमी हुइगे
लगै लागि पछियाहु।’’ 19
भारतीय समाज में व्याप्त दहेज एक विकराल समस्या है इसका जितना इलाज किया जा रहा है उतना ही बढ़ता जा रहा है। भारतेंदु मिश्र की नजर इससे ओझल नहीं होने पाई है :
“सविता की किरनै फूटि रहीं
कुता – छंगो सुखु लूटि रहीं
तिकड़म की चाल ते अजान
बिनु ब्याही बिटिया है जवान ।’’ 20
‘दहेज’ को आज लोगों ने स्वीकार कर लिया है क्योंकि लोग ले रहें है लोग दे रहें है। इसका हल यही है कि ‘दहेज’ लेने व ‘दहेज’ देने वालों के घर ‘विवाह’ ही न करे ‘युवा’। इस बात को माता-पिता को भी समझना होगा।
अनीस देहाती अवधी रचनाकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। वह बहुत ही सधा व्यंग्य करते है तो लोग तिलमिला उठते है । ‘करम कमाई’, ‘चँहटा में बूड़ अहै’, ‘अरे राम! इतनी अंधेर’, ‘केहका देई वोट’, ‘मेल – मोहब्बत’, ‘रुपइया की खातिर’ इत्यादि से ओत – प्रोत कविताएं हैं। ‘मेल – मोहब्बत कविता में ‘हिंदु-मुस्लिम’ पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं :
“मेल –मोहब्बत’ दुआ – बंदगी,
अस गायब भै पाँड़े ।
वह देखा ! अब्दुल्लौ चच्चा, खसकेन आँड़े-आँड़े।’’ 21
क्योंकि बात-चीत , मेल-मिलाप आपस में रिश्ते मजबूत होते है । ऐसे तो आपसी भाई-चारा में दरार पड़ती है। अनीस देहाती इस दरार को मिटाना चाहते हैं। उनकी रचनाओं में विस्तार ही देखा जा सकता है । कवि कहीं न कहीं भाग्यवादी है वह स्वयं पर व्यंग्य करता है :
‘‘सबर करा इ आपन -आपन
करम कमाई बाबू जी।
के देखिस कब चोर-पुलिस मा,
हाथापाई बाबू जी।
जवन उठा लुंगाड़ा छिन मा,
टोला जरिके राख भवा,
एकादसी का लरिकै खेलेन
हड़ाहडाई बाबू जी।’’ 22
कवि जयसिंह ‘व्यथित’ सज्जन को सचेत करते हुए ‘दुरजन’ की पहचान कैसे करनी चाहिए। उदाहरण देते हुए कहते है :
सज्जनता कै ढाल लई दुरजन करै अहेर।
सिधवा-सिधवा पेड़ का , करै काटि कै ढेर॥
दुरजन अपनी ताक मा, सदा लगावै दावँ।
पहिरि अँचला संत कै , घूमै गाँवैं गाँव ॥’’ 23
‘व्यथित’ ‘फैसन’ कविता में ‘परिधान’ पर व्यंग्य करते हैं । फैसन के कारण ‘असली वस्तु’ एवं नकली वस्तु में पहचान करना बेहद मुश्किल हो गया है।
“खान पान सनमान मा, फैसन बा अगुवान ।
असली का नकली कहै, नकली भा भगवान॥
* * *
देखे घर-घर जाइकै फैसन कै करतूत।
छोटके बड़के पै चढ़ा ई पश्चिम कै भूत॥’’ 24
कवि इतने से ही संतुष्ट नहीं है, वह धरम-करम, जातिवाद, भूख, दहेज, स्वास्थ्य, शराब से होने वाले नुकसान इत्यादि पर भी व्यंग्य करता है।
विजय बहादुर सिंह ‘अक्खड़’ ‘बोर्ड परीक्षा’, ‘देखा देखी’, ‘हमहूँ अबकी परधान होब’ परिवेश का यथार्थ चित्रण व्यंग्य के रूप में किया है। दिखावेपन का कवि उल्लिखित करता हुआ कहता है । जब पिता शराब पियेगा तो पुत्र भी उसी का अनुसरण करेगा। जैसेकि
“देखा-देखी पाप होइ रहा देखा-देखी पुन्न
बाप मस्त गाँजा मा बेटवा दारू पी के टुन्न।’’ 25
आज तो समय एकल परिवार का हो गया है संयुक्त परिवार विरले ही देखने में शायद मिल जाय। ऐसे में ‘एकल परिवार’ विखंडित संरचना का मुख्य कारण आये दिन हो ने वाले पारिवारिक झगड़े, आमदनी का स्रोत कम होना, कमाए एक उसी पर समस्त परिवार का टिके रहना । आये दिन खिच – खिच, चिक-चिक, मोटे तौर सास -बहु के संबन्धों में खटास होना । आजकल तो सास को अपनी प्रिय बहू नहीं समझती न ही बहु ‘सास’ समझती है। क्योंकि ‘सास’ बहु को दूसरे की बिटिया समझती रहती और बहु ‘सास’ बहु को कभी अपनी ‘माँ’ नहीं समझ पाती है। इन्हीं कमियों को ‘निर्झर प्रतापगढ़ी’ ने ‘आज की सास पतोहु’ नामक कविता में व्यंग्य के रूप् में प्रस्तुत किया है :
“अपुवा बुढ़ायी दायीं सोरहौ सिंगार करैं
दिन भै घुमति रहैं गाँव -गली नाका।
अपुवा सुपारी खाय पिच्च थूँकि रहैं
ओकरे जौ मन होय परि जाय डाका।
मधु कै माछी एस भुन -भुन – भुन -भुन लागि रहीं
सुनत -सुनत ओकर जिउ भवा पाका ।
दौडि़ के पतोहु एक बेलना हचकि दिहेस
सासु जी की खोपड़ी मा लाग तीन टाँका”। 26
निष्कर्षतः इन रचनाकारों की कविताओं के माध्यम से बेइमानों, भ्रष्टाचारियों, भ्रष्ट नौकरशाह आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था, दहेज फैशन, चोरों, लुटेरों, दुश्चरित्र, खल-कामी, दुर्जन, पारिवारिक विखण्डन की विसंगतियों , राजनीतिक छल-छदम, साम्प्रदायिक उन्माद, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, बेरोजगारी, रीति-रिवाज परंपराओं में परिवर्तन , पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इत्यादि पर व्यंग्य किया गया है।
संदर्भ:
1. रामचरित मानस : तुलसीदास , टीकाकार हनुमान प्रसाद पोद्दार (मझला साइज गीता प्रेस, गोरखपुर , संस्करण 2007, पृ० 115
2. वही पृ० 115 -116
3. वही पृ० 119-120
4. आधुनिक अवधी काव्यः सं० डा० महावीर प्रसाद उपाध्याय, प्रकाशन केंद्र डालीगंज रेलवे क्रासिंग, सीतापुर रोड लखनऊ पृ० 70
5. वही पृ० 80
6. वही पृ० 81
7. वही पृ० 151
8. युग तेवर : सं० कमल नयन पाण्डेय, त्रैमासिक , दिस० – फरवरी 2008-09 वर्ष 3-4 अंक -4, पृ० 192
9. अमोला : त्रिलोचन शास्त्री, पृ० 93
10. वही पृ० 95
11. आधुनिक अवधी काव्य : सं० डॉ० महावीर प्रसाद उपाध्याय, पृ० 103
12. माटी औ महतारी : आद्या प्रसाद मिश्र उन्मत्त , पृ० 49-50
13. पहरुआ : जुमई खाँ आजाद, पृ० 74
14. वही, पृ० 35
15. गीता माधुरी : विशालमूर्ति मिश्र ‘विशाल’ पृ० 109
16. अवधी त्रिधारा : सं० राम बहादुर मिश्र, अवधी अकादमी सृजनपीठ गौरीगंज, सुल्तानपुर (उ०प्र०) संस्करण 2007, पृ० 54
17. वही पृ० 55
18. वही पृ० 90
19. वही पृ० 120
20. वही पृ० 107
21. करम कमाई : अनीस देहाती ,अनुज प्रकाशन बाबागंज, प्रतापगढ़ उ०प्र० संस्करण 2009, पृ० 52
22. वही पृ० 88
23. अवध सतसई : डा० जयसिंह व्यथित, गुजरात हिंदी विद्यापीठ, कमलेश पार्क महेश्वरी नगर ओढ़व अहमदाबाद सं० 1999 पृ० 44
24. वही, पृ० 66
25. निर्झर प्रतापगढ़ी : हास्य फुलझडि़याँ पृ 53
संप्रतिः असि० प्रो० हिंदी
रा० म० महावि० ढिंढुई पट्टीप्रतापगढ़उ०प्र०