आजादी के बाद की हिन्दी कविता के स्वर
प्रस्तावना
आजादी के इतने दशक बाद भी कवि को लौ जलाने पर विवश क्यों होना पड़ रहा है? ये तो सच है कि कविता प्रेरणा देना कभी नहीं छोड़ सकती पर यह भी विचारणीय है कि क्यों सत्ता के नाखून इतने तीखे और धारदार होते जा रहे हैं जिसके खिलाफ कवि को लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है? लोकतंत्र के इस स्वरूप की कामना तो किसी ने नहीं की थी! अपना देश, अपना लोकतंत्र, अपनी आजादी के बीच जीने के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा, ये तो स्वप्न हमने नहीं देखा था! कभी आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार, कभी धर्म के नाम पर होने वाले संघर्षों के बीच कविता की जिम्मेदारी बढ़ती गई साथ ही वैश्वीकरण के इस दौर में सत्ता और साहित्य का संघर्ष भी बढ़ता गया|
की-वर्ड्स लोकतंत्र, संघर्ष, अनुभूति, जनतंत्र, मोहभंग, उदारवाद, आस्था, जिजीविषा, आम आदमी
मूल लेख:
हिन्दी कविता के 1936 के दौर में यह प्रश्न तेजी से उभरा कि कविता किसके लिए लिखी जाए? अथवा कविता की जिम्मेदारी क्या हो? 1936 में ही प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्षीय भाषण में कहते हैं “अब सहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है मनोरंजन के सिवा भी उसका कुछ और भी उद्देश्य है अब वह केवल नायक नायिका के संयोग वियोग की कहानी नहीं सुनाता किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल करता है अब वह स्फूर्ति और प्रेरणा के लिए अद्भुत, आश्चर्यजनक घटनाएँ नहीं ढूँढता ……उसे उन प्रश्नों से दिलचस्पी है जिनसे व्यक्ति या समाज प्रभावित होते हैं उसकी उत्कृष्टता की वर्तमान कसौटी अनुभूति की वह तीव्रता है जिससे वह हमारे भावों और विचारों में गति पैदा करता है”[1]
इस लम्बे उद्धरण के माध्यम का उद्देश्य असल में उस अनुभूति की तीव्रता की याद दिलाना है जिसका सम्बन्ध 1936 के बाद जनता से लगातार जोड़े जाने के लिए कवि-साहित्यकार प्रयास करता रहा इसी जनमन की खोज नागार्जुन दुखरन मास्टर के सांचों में करते हैं और केदारनाथ अग्रवाल उसी जन को ‘गोली जैसा’ चलते देखते हैं
आजादी के इन लगभग 70 वर्षों को हिन्दी कविता की नजर से उर्वर भूमि और राजनैतिक-सामाजिक दृष्टि से निरंतर संघर्ष का समय कहा जा सकता है इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि एक बड़े लोकतंत्र के समक्ष अनेक संघर्षों का दौर आता ही है पर यह समस्या का सरलीकरण करना ही होगा
एक लम्बे संघर्ष के उपरान्त 1947 में भारत को आजादी प्राप्त हुई और 15 अगस्त1947 की आधी रात को भारत को आजाद भारत का दर्जा हासिल हो गया बँटवारे की चोट इतनी बड़ी थी कि अपने ही घर में बसा आदमी एक क्षण में ही बेगाना और अन-पहचाना हो गया था एक साथ लड़ी जाने वाली लड़ाई के योद्धा अब अपरिचित हो गए थे मिलकर जिस भारत की आजादी का स्वप्न देखा गया था, अचानक उसकी जमीन के टुकड़े ने हर चीन्हें चेहरे को अनचीन्हा कर दिया आजादी मिली पर अपने साथ भयावहता और डर भी लाई कमलेश्वर ’नई कहानी की भूमिका’ [2]में लिखते हैं ‘गोरे साहब गए, ब्राउन साहब आ गए| …..एक शानदार अतीत कुत्ते की मौत मर रहा है, उसी में से फूटता हुआ एक विलक्षण वर्तमान रूबरू है –अनाम,अरक्षित और आदिम अवस्था में खड़ा यह मनुष्य अपनी भाषा चाहता है, आस्था चाहता है,कविता और कला चाहता है, मूल्य और संस्कार चाहता है,अपनी मानसिक और भौतिक दुनिया चाहता है”
इस दुनिया की तलाश में व्यक्ति कविता की दुनिया में प्रवेश करता है और आजादी के स्वप्न भंग से पूर्व आजादी मिलने की खुशी को महसूस करने की चाहत कविता में व्यक्त करता है—
मैंने कहा आ-जा-दी
******
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…
घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार परउसी जगह
पोंछकर टाँग दिया।(पटकथा)[3]
आजादी के स्वप्न के साथ ही विभाजन की हकीकत सामने आई पर हरित क्रान्ति से लेकर पंचशील के सिद्धांत इस नए राष्ट्र के युवा के भीतर उत्साह भर रहे थे हिन्दी कविता संसार में भी इसकी भी अभिव्यक्ति दिखाई देती है परन्तु चीन और उसके पश्चात पाकिस्तान के साथ होने वाले छोटे-छोटे युद्ध नुमा संघर्षों के भरा यह काल सन साठ के पश्चात् नेहरू युग से मोहभंग का दौर था। युगीन दवाबों से जूझती यह कविता विसंगति और विडम्बना का चयन करती है। औद्योगीकरण, पूँजीवाद, शहरीकरण, बेरोजगारी ने एक ओर मध्यवर्गीय समाज को असंतुलित किया तो वहीं अस्तित्ववाद ने मानव मूल्य व जीवन दर्शन को बदला। वैयक्तिक स्वच्छन्दता, दुःख, पीड़ा अस्तित्वबोध जैसे विषयों ने स्थान ग्रहण करते हुए लघु मानव की अवधारणा का विकास किया।
कविता अपने युग बोध और दायित्व की सबसे सार्थक अभिव्यक्ति है| कम शब्दों में सार्थक हस्तक्षेप करती कविता भारतीय सत्ता और समाज के पारस्परिक संबंधों के भूगोल को रचती है| सत्ता और समाज के सम्बन्धों के बीच हिन्दी कविता हस्तक्षेप करती है –आपातकाल की स्थितियों से लेकर, किसानों और मजदूरों की यातनाओं, नक्सलबाड़ी आन्दोलन से गुजरती हिन्दी कविता ने उदारवादी नीतियों,बाजार के कारण बदलते समय की नई नीतियों, स्त्री और उसकी जमीन की तलाश से लेकर दलित कविता को स्वर देती है|
छठे दशक की कविता समकालीन कविता के नाम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है इस कविता के साथ ही ‘जनता के प्रति प्रतिबद्धता’ की अनिवार्य शर्त जुड़ जाती है इस कविता में अकविता के स्वर भी है जहाँ जगदीश चतुर्वेदी, मोना गुलाटी यौन प्रतीकों के माध्यम से कविता के निषेध का स्वर रचते हैं इस काल की कविता राजनैतिक जिम्मेदारी की ओर बढ़ती है धूमिल कहते हैं “‘युवा लेखन के लिए राजनीतिक समझदारी जरूरी है। बिना इस राजनीतिक समझदारी के आज का लेखन संभव नहीं है” धूमिल की कविता में जनतंत्र के प्रति जिम्मेदारी दिखाई देती है
दरअसल अपने यहाँ जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है[4]
सातवें-आठवें दशक की कविता के साथ प्रगतिशील स्वर और नई कविता के सन्दर्भ नवीन रूप धारण करके सामने आते हैं इस कविता में एक ओर मुक्तिबोध हैं जो अँधेरे में टॉलस्टॉय को देखते हैं तो कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल और मार्शल को भी वे भूल गलती को जिरह बख्तर पहने देखते हैं और सिंहासन पर उसके विराजमान होने से पैदा हुई विडम्बना को दर्शाते हैं वहीं दूसरी और राजकमल चौधरी की मछली मरी हुई से रघुवीर सहाय तक यह यात्रा चलती है रघुवीर सहाय पत्रकारिता की दुनिया के माध्यम से जन-मन की पीड़ा को खंगाल रहे थे वे रामदास जैसे आदमी के इस आजाद देश में खुले आम सड़क पर मरने की तकलीफ बयाँ करते हैं जहाँ आजादी के 30 वर्षों के भीतर ही पुलिस और जनतंत्र से जनता का विश्वास लुप्त हो चुका है और जनता सड़क पर मरने के लिए विवश है
रामदास उस दिन उदास था अंत समय आ गया पास था उसे बता यह दिया गया था…..उसकी हत्या होगी(रामदास)[5]
मुक्तिबोध आम आदमी के प्रति बुद्धिजीवी की जिम्मेदारी मानते हैं पर देखते हैं कि बुद्धिजीवी अपनी जिम्मेदारी के प्रति सचेत नहीं है वे लिखते भी हैं
जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया को साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वो मेहतर मैं हो नहीं पाता
भीतर ही भीतर कोई चिल्लाता है..( अँधेरे में)[6]
अकविता के दौर में चूंकि मनुष्य का विश्वास राजनैतिक आराजकता के कारण मनुष्यता से उठ चुका था तो रचनाकार कविता पर से भी विश्वास खो रहा था| 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बांग्ला देश का उदय होता है और 1975 में इंदिरा गांधी इमरजेंसी लागू करती हैं| साहित्यकारों-पत्रों की अभिव्यक्ति का अधिकार छीना जाता है और कुछ भीतरी सुगबुगाहटों के बाद साहित्य में इसकी प्रतिक्रिया भी दीखने लगती है| मुक्तिबोध,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, गिरिजा कुमार माथुर, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह इस काल के प्रमुख स्वर हैं| जहाँ गिरिजाकुमार माथुर ‘छाया मत छूना नाम’ के माध्यम से भावनात्मक अभिव्यक्ति को माध्यम बनाते हैं वहीं रघुवीर सहाय पत्रकारिता को आधार बनाकर राजनीतिक ठंडेपन को उभारते हैं| मुक्तिबोध अभिव्यक्ति के कुचले जाने पर अँधेरे के बीच चलने की राह बनाते हैं और कवियों द्वारा विषय न मिलने की शिकायत पर आस-पास के जन के भीतर छिपे आक्रोश के अन्दर झांक कर विषयों को ढूँढने की बात कहते हैं—
एक कदम रखता हूँ तो सैकड़ों राहें फूटती हैं/ मैं उन सब से गुजरना चाहता हूँ [7]
कुंवर नारायण आस्था और जिजीविषा को जिले रखने वाले कवि हैं| आजादी के 30 बरसों के भीतर जनमन से जो आस्था विनष्ट होना आरम्भ हो चुकी थी, उसे जीवित रखने के लिए वे कविता को ही आधार बनाते हैं–
बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात
हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
अपने अन्दर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ ज़मीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो ।(कुंवर नारायण)[8]
इस कविता में राजनीतिक सरोकार हैं और व्यंग्य भी|
आठवे दशक में नक्सलवादी आन्दोलन देश में तेजी से उभरा| इस युग में ‘कविता की वापसी ’का नारा भी दिया गया| धूमिल, चन्द्रकांत देवताले, लीलाधर जगूड़ी, अरुण कमल, राजेश जोशी जैसे बड़े कवि इसी युग की देन हैं चन्द्रकांत देवताले आदिवासी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को दर्शाते हैं और ‘लक्कड़बघ्घा हंस रहा है’,’आग हर चीज में बताई गई थी’ जैसे संग्रहों के माध्यम से अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाते हैं
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि आजादी के इतने दशक बाद भी कवि को लौ जलाने पर विवश क्यों होना पड़ रहा है? ये तो सच है कि कविता प्रेरणा देना कभी नहीं छोड़ सकती पर यह भी विचारणीय है कि क्यों सत्ता के नाखून इतने तीखे और धारदार होते जा रहे हैं जिसके खिलाफ कवि को लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है? लोकतंत्र के इस स्वरूप की कामना तो किसी ने नहीं की थी! अपना देश, अपना लोकतंत्र, अपनी आजादी के बीच जीने के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा, ये तो स्वप्न हमने नहीं देखा था! कभी आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार, कभी धर्म के नाम पर होने वाले संघर्षों के बीच कविता की जिम्मेदारी बढ़ती गई साथ ही वैश्वीकरण के इस दौर में सत्ता और साहित्य का संघर्ष भी बढ़ता गया लीलाधर जगूड़ी की कविता भूख की बात करती है यहाँ तक आते आते कवि राजनीति और सत्ता के संघर्ष के साथ साथ न दिखने वाली समस्याओं को भी कविता का विषय बनता है जैसे भूख, गरीबी, बचपन| यह विषय मौजूद तो हैं पर प्राय: उपेक्षित | यहाँ आकर कवि भूख पर मारक कविता लिखता है क्योंकि ‘एक चिड़िया की भूख/एक चींटी की भूख/एक हाथी की भूख/भूख चाहे किसी की हो/ मार एक है’[9](लीलाधर जगूड़ी)
अशोक वाजपेयी की कविता अभी भी शहर में सम्भावनाओं की तलाश करती है वे कोमल मन की कविता भी लिखते हैं
मैं रास्ते पर झरे सफेद फूल उठाता हूँ
बैंच पर बैठे बूढों को झगड़ते सुनता हूँ
गोरी उन्नत उरोजाओं को झपटकर जाते देखता हूँ
नए फूलों की चकाचौंध निहारता हूँ ट्राम और कारों की भर्राहट के पर कुछ सुनता हूँ
********
मैं इस तरह उसके लिए अपना प्रेम गीत लिखता हूँ[10]
नवें दशक की कविता शावत जीवन मूल्यों, क्षेत्रीयता के संकट,युवाओं के आक्रोश, स्त्री कविता के बदलते विषयों और दलित कविता के एक नए सौन्दर्य शास्त्र से बनती है| इस युग के प्रमुख कवियों में केदार नाथ सिंह, अरुण कमल, दूधनाथ सिंह, राजेश जोशी , उदय प्रकाश, अनामिका आते है| केदारनाथ सिंह इस युग की कविता के विषय में लिखते हैं—
‘नौवें दशक के शुरू में कविता अस्तित्व को लेकर अनेक शंकाएँ व्यक्त की गई थीं|पर शती के अंतिम द्वार पर दस्तक देने से पहले हम देखते हैं कि कविता न सिर्फ जीवित है बल्कि उसने अपने जीवित रहने के संघर्ष को मानव अस्तित्व के मूलभूत संघर्ष के साथ एकाकार कर लिया है|’[11]
उदय प्रकाश की कविता ‘सुनो कारीगर’. रात में हारमोनियम, क से कबूतर आदि कविता संग्रहों में समाज के बीच छोटी-छोटी घटनाओं के बीच खुशी तलाशने का उपक्रम मिलता है| बच्चे की हंसी और शरारत भी इनकी कविता में स्थान पाती हैं—
प्यार कहता है अपनी भर्राई हुई आवाज़ में – भविष्य
और मैं देखता हूं उसे सांत्वना की हंसी के साथ
हंसी जिसकी आंख से रिसता है आंसू
और शरीर के सारे जोड़ों से लहू (एक भाषा हुआ करती थी)[12]
मजदूर, कारीगर, बढई इनकी कविता में प्रवेश पाते हैं और आम आदमी के श्रम पर कविताएँ बात करती हैं| राजेश जोशी वृक्षों का प्रार्थना गीत रचते हैं और बच्चों के काम पर जाने को दुनिया की सबसे कटु बात मानते है
तुम छुओ और हम उड़ जाएँ
अन्तरिक्ष में
लुक जाएँ किसी नक्षत्र, किसी ग्रह, उपग्रह
या तारे की आड़ में
हमें डँस लिया है एक विषैली रात ने
मत छुओ, हमे मत छुओ बसन्त[13]
मंगलेश डबराल की कविता में प्रकृति,पहाड़ और फूल-पत्ते प्रवेश पाते हैं हरिनारायण व्यास सृष्टि से जुड़कर अपनी सार्थकता मानते हैं नवें-दसवें दशक की कविता पर्यावरण को भी सरोकार मानती है और भोपाल त्रासदी में जाने वाली जानों के प्रति भी सम्वेदनशील होती है आने वाली पीढ़ियों के प्रति भी चिंता भी इस कविता का विषय बनती है| स्नेहमयी चौधरी लिखती हैं—‘न जाने किस क्षण छिड़ जाए /जहरीली गैस की लडाई’[14]
स्त्री कविता भी नवें-दसवें दशक में प्रवेश करती है| स्त्री की भूमिका भी बदलने लगती है और धार्मिक कट्टरता का आवरण ओढ़े पुरुष उसे परेशान करने लगते हैं| आजादी का अर्थ सभी को समान तरह से जीन का हक़ मिलना भी था पर आज भी बाहर से सामाजिक और भीतर से कट्टर दीखता पुरुष स्त्री को उसी चौहद्दी में समेटे रखना चाहता है| स्त्री अपनी आजादी और अपने जैसी –मजदूरनों, कहारनों और बेडिनों की आजादी का सूत्र रचती है| अनामिका लिखती हैं—
भोग गया हमको
दूर के रिश्तेदारों
के दुखों की तरह
एक दिन हमने कहा
हम भी इन्सान हैं
हमें कायदे से पढो एक एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा
बीए के बार नौकरी का पहला विज्ञापन![15]
दलित कविता ने जातिगत भेद से मुक्ति का स्वप्न देखा| आजादी की बयार सभी को जीने का हक़ प्रदान कर सके, ऐसा स्वप्न सभी ने देखा था, पर दलितों को यह स्वप्न पूरा करने का मौका कभी नहीं मिला| साहित्य इनकी मुक्ति का मार्ग बन सकता है और उनके लिए मार्ग बना भी सकता है, इसे शिक्षा के माध्यम से उन्होंने भी समझा| श्योराज सिंह बेचैन,ओम प्रकाश वाल्मीकि, कंवल भारती ने दलित कविता लिखी और आज भी लिख रहे हैं| यह कविता प्रतिरोध की कविता है और एक नए सौंदर्यशास्त्र की मांग करती है| जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं—
चमड़े के टुकड़े
पॉलिश की डिबिया और
ब्रुशों को
उलटते-पलटते अपने
नंगे-अधनंगे बेटे को देखता है
विवशता से व्याकुल हो
अपने मन को मसोसता है
अपनी भूख और बेबसी को
कोसता है, और
ईर्ष्या, ग्लानि और क्षोभ से भरकर
व्यस्था के जूते में
आक्रोश की कील
ठोक देता है!(आज का रैदास)[16]
आज की कविता आतंकवाद का भी विरोध करती है और आजादी के बाद अनेक प्रयासों से प्राप्त इस स्वतंत्रता को गवांने के लिए कतई तैयार नहीं है| आतंक धर्म के नाम किया जाए अथवा राष्ट्र के छोटे-छोटे हिस्सों पर दावेदारी के नाम पर, अंतत: बालकों और स्त्रियों को ही इसका सर्वाधिक भुगतान करना पड़ता है| कविता इसमें हस्तक्षेप करती है और आतंक का विरोध करती है—
फिर रंग गई धरती
किसी के रक्त से
फिर आई किसी बूढ़ी माँ की चीख
फिर
मासूम बच्चे ने
प्रश्न सूचक दृष्टि से निहारा
माँगा आतंक का जवाब|(अवशेष)[17]
कविता प्रतिपक्ष में खडी होती है और सही का समर्थन करती है| कविता करना सरल नहीं और प्रतिपक्ष में खड़े होना तो और भी कठिन है| बहुत अधिक साहस चाहिए सत्य कहने और जनवादी होने के लिए| पर हिन्दी कविता ने इस जिम्मेदारी को निभाया है|
अरुण कमल की एक कविता है—उधर के चोर जिसमें वे उन चोरों का वर्णन करते है जो बासी चावल चुराते हैं और उसी को अपनी नियति मान लेते हैं-
कहते हैं एक चोर सेंध मार घर में घुसा
इधर-उधर टो-टा किया और जब कुछ न मिला
तब चुहानी में रक्खा बासी भात और साग खा
थाल वहीं छोड़ भाग गया –
वो तो पकड़ा ही जाता यदि दबा न ली होती डकार।[18]
साधारण आदमी आज भी वही पीड़ा और दबाव देखता है जो प्रेमचंद के हल्कू की नियति का हिस्सा था, तो कौन सी आजादी पाई हमने! ये एक बड़ा प्रश्न है जिससे हमें निरंतर जूझना चाहिए और साहित्य की भूमिका पर विश्वास करना चाहिए जब आकाश में कोहरा घना हो तो कविता के फलक और सरोकारों को और अधिक पैना और गहरा होना पड़ता है| कविता लगातार लिखी जा रही है और सदैव प्रतिपक्ष में खड़ी होती है कविता के सरोकार गहरे हैं और यह गहराई अपनी जिम्मेदारी निभा रही है वीरेन्द्र डंगवाल अपनी एक कविता में तोप के मुंह बंद होने की घटना का उल्लेख करते हैं
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द ![19]
आज की कविता इसीलिए शोर नहीं करती बल्कि अपनी सम्भावनाओं को कम शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त करती है आस्था और अनास्था दोनों इसके केंद्र में है और यह भविष्य के स्वर तैयार कर रही है
डॉ. हर्षबाला शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
सन्दर्भ सूची
- प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य
- कमलेश्वर , नई कहानी की भूमिका
- सुदामा पाण्डेय धूमिल, पटकथा
- मुक्तिबोध, अँधेरे में
- रघुवीर सहाय, रामदास
- मुक्तिबोध, अँधेरे में
- मुक्तिबोध, मुझे कदम कदम पर
- कुंवर नारायण, बहुत कुछ दे सकती है कविता
- लीलाधर जगूड़ी, चिड़िया का प्रसव
- अशोक वाजपेयी, प्रेमगीत
- केदारनाथ सिंह, यहाँ से देखो
- उदय प्रकाश , एक भाषा हुआ करती थी
- राजेश जोशी, वृक्षों का प्रार्थना गीत
- स्नेहमयी चौधरी, जहरीली गैस
- अनामिका, स्त्रियाँ
- आज का रैदास, जयप्रकाश कर्दम
- प्रमोद शर्मा, अवशेष
- अरुण कमल, उधर के चोर
- वीरेन्द्र डंगवाल, तोप
- प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य,पृष्ठ 2 ↑
- कमलेश्वर, नई कहानी की भूमिका, पृष्ठ 2 ↑
- सुदामा पाण्डेय धूमिल, पटकथा ↑
- पटकथा, धूमिल ↑
- रघुवीरसहाय : रामदास ↑
- अँधेरे में, मुक्तिबोध ↑
- मुझे कदम कदम पर, मुक्तिबोध ↑
- कुंवर नारायण, बहुत कुछ दे सकती है कविता ↑
- लीलाधर जगूड़ी,चिड़िया का प्रसव ↑
- अशोक वाजपेयी, प्रेम गीत ↑
- केदारनाथ सिंह,यहाँ से देखो की भूमिका ↑
- उदय प्रकाश, एक भाषा हुआ करती थी ↑
- राजेश जोशी, वृक्षों का प्रार्थना गीत ↑
- स्नेहमयी चौधरी, जहरीली गैस ↑
- अनामिका, स्त्रियाँ ↑
- आज का रैदास, जय प्रकाश कर्दम ↑
- प्रमोद शर्मा, अवशेष ↑
- अरुण कमल, उधर के चोर ↑
- वीरेन्द्र डंगवाल, तोप ↑